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[ 2.2]
पसंद-नापसंद अहंकार एकाकार हो तभी राग-द्वेष प्रश्नकर्ता : अपनी चित्तधारा में यह पसंद-नापसंद आए तो क्या यह ज्ञाता-दृष्टा में अजागृति है या नहीं?
दादाश्री : जागृति पूर्वक खुद को पता चलता है कि यह यहाँ पर बैठेगा और यहाँ पर नहीं बैठेगा। फिर वहाँ पर भी नहीं बैठता। मेरा कहना है कि बैंच है घर पर। हम रास्ते पर चल रहे हैं और थकान की वजह से बैठना पड़ा। एक टूटी हुई बैंच है और नीचे से ज़रा सड़ी हुई है, तो उस बैंच पर बैठने लगे तो उसमें कहीं उसके प्रति राग-द्वेष नहीं है, पसंद व नापसंदगी रहती है। लाइक और डिसलाइक।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रकृति में जो माल भरा हुआ है, वही?
दादाश्री : वही, और कुछ नहीं। उसमें यदि अहंकार एकाकार रहता तो राग-द्वेष होते। आज यदि उसका अहंकार चला नहीं गया होता, तो उसी चीज़ के लिए राग-द्वेष होते। अहंकार जा चुका है उसी का यह फल है कि राग-द्वेष नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : सिर्फ पसंद व नापसंदगी रहती है। नहीं रहे राग-द्वेष, अक्रम विज्ञान की प्राप्ति के बाद
प्रश्नकर्ता : पसंद आए और बहुत पसंद आए, इन दोनों में क्या फर्क है ? बहुत पसंद आए तो क्या वह राग कहलाता है?