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[२.२] पसंद-नापसंद
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उपेक्षा से शुरू वीतरागता की राह
प्रश्नकर्ता : उपेक्षा और द्वेष के बारे में ज़रा समझाइए न !
दादाश्री : उपेक्षा अर्थात् पसंद न हो, फिर भी द्वेष नहीं और द्वेष अर्थात् उपेक्षा नहीं होती लेकिन नापसंद है तो वहाँ पर द्वेष रहता I इतना तो वह समझता है कि द्वेष करने में फायदा नहीं है । यह नुकसानदायक है, ऐसा समझकर उपेक्षा रखता है।
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उपेक्षा तो हम वहाँ करते हैं न ! कुसंग की उपेक्षा करते हैं। शराबी हो, या और कोई जो रमी खेलते हैं ऐसे ही दूसरे लोग तो ऐसा कहना चाहते हैं कि वहाँ पर उपेक्षा रखते हैं, द्वेष नहीं रखते । जहाँ द्वेष नहीं है, वह उपेक्षा कहलाती है और अगर द्वेष हो तो उपेक्षा नहीं कहलाती। संसार के लोग द्वेष रखते हैं । गलत चीज़ पसंद नहीं आए तो उस पर द्वेष और पसंदीदा पर राग । उपेक्षा अर्थात् उस तरफ द्वेष भी नहीं और राग भी नहीं । 'हमें क्या लेना-देना', ऐसा कहते ही हो जाएगा अलग।
प्रश्नकर्ता : उपेक्षा किस वजह से उदय में आती है ?
दादाश्री : वह खुद के हिताहित के साधन देखता है इसलिए उपेक्षा करता है। द्वेष करने पर बुरा लगता है । गलत है और गलत को गलत जानना है और उसके प्रति द्वेष नहीं होना चाहिए । अतः खुद के आत्मा के हित के लिए उपेक्षा रखनी है ।
प्रश्नकर्ता : जिसका प्रवर्तन उदय कर्म के अनुसार होता है, उसे उपेक्षा कह सकते हैं ?
दादाश्री : सभी उदय कर्म ही हैं न ! उपेक्षा कहने का तात्पर्य क्या है कि अगर उदय कर्म की वजह से किसी के प्रति हमें खराब भाव होते रहें और उससे खुद अलग रहें कि ऐसा नहीं होना चाहिए ।
प्रश्नकर्ता : तो यह जो आप कई बार कहते हैं न कि, 'भाई, हम तो पोटली जैसे हैं। जहाँ ले जाओ वहीं पर चले जाएँगे'। तो वह उपेक्षा भाव का उदाहरण कहलाएगा ?