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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : भाव उदासीनता का अर्थ क्या है? कर्म नहीं बाँधता और सामान्य उदासीनता अर्थात् वीतराग भाव के नज़दीक। उपेक्षापन। उपेक्षा अर्थात् उसके प्रति उदासीन भाव, अर्थात् उस तरफ कोई राग-द्वेष नहीं।
भाव उदासीनता तो बहुत उच्च चीज़ है। उसमें तो कर्म ही नहीं बंधते। अपने यहाँ जब ज्ञान देते हैं तो वह ज्ञान भाव उदासीनता का है। यह विज्ञान भाव उदासीनता वाला है। आलू नहीं खाता और यह नहीं खाता, वह नहीं खाता। भाई! हमें अगर इसी जन्म में मोक्ष में जाना होता तब अगर ये फूलों की माला नहीं पहनेंगे तो भी चलेगा। लेकिन अभी तो एक जन्म की देर है और शायद दो भी हो जाएँ। यहाँ भला क्या नुकसान होने वाला है! अपने काबू में आ गया है। पूरा ब्रह्मांड काबू में आ गया है। फिर क्या नुकसान होने वाला है ? हमारी इच्छा भी नहीं है ऐसी सुगंधि लेने की!
प्रश्नकर्ता : उदासीनता और वीतरागता में क्या फर्क है?
दादाश्री : उनमें फर्क है। उदासीनता वीतरागता की जननी है। वीतरागता की माता है। माता होगी तभी बच्चा होगा न? अतः वीतरागता अंतिम दशा है और उदासीनता शुरुआत की दशा है। शुरुआत में उदासीनता आ जाती है, यानी राग और द्वेष दोनों की तरफ। उदासीनता का मतलब क्या है कि पक्षपात नहीं, किसी के भी प्रति पक्षपात नहीं। जहाँ द्वेष करना हो वहाँ भी पक्षपात नहीं, राग करना हो तो भी पक्षपात नहीं और फिर जब आगे बढ़ता है तब वीतरागता उत्पन्न होती है लेकिन जब तक उदासीनता है तब तक दया रहती है। और जहाँ दया है, वहाँ पूर्ण दशा नहीं है। अतः करुणा सब से बड़ी चीज़ है। कारुण्यता उत्पन्न हो जाएगी तो पूर्ण हो जाएगा!
ज्ञानी के कहे अनुसार चलेंगे न तो फुलस्टॉप आ जाएगा। कोई भी दखल नहीं!
प्रश्नकर्ता : आत्मा उदासीन भाव से रहा हुआ है और दूसरा,