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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
अतः जब हम ज्ञान देते हैं तब द्वेष चला जाता है। उसके बाद चीज़ों की तरफ आकर्षण रहता है। वह भी व्यवहारिक आकर्षण। आकर्षण निश्चय से नहीं! लेकिन उसके बाद वीतराग हो सकते हैं। वीतद्वेष हो जाने के बहुत समय बाद वीतराग बन सकते हैं। पहले वीतद्वेष बन जाना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : द्वेष के बजाय राग को छोड़ना मुश्किल है।
दादाश्री : नहीं, राग को छोड़ना सब से आसान है। द्वेष जाना सब से मुश्किल है। पहले द्वेष नहीं जाता, इसीलिए यह राग नहीं जाता। राग तो बेचारा, जब द्वेष चला जाएगा न, तो राग भी चला जाएगा।
___ अब वेदांत मार्ग के सब से बड़े बुद्धिशाली, कबीर साहब! उन्होंने भी कहा है, 'भूख लगे तब कुछ नहीं सूझे'। ज्ञान-ध्यान सब रोटी में चला जाता है, 'कहत कबीर सुनो भई साधु, आग लगो ये पोठी में'।
__ जबकि वीतरागों ने 'आग लगो इस पोठी में' नहीं कहा। उन्होंने ज्ञान से पता लगाया इसका, ज्ञान से पृथक्करण किया और इनको ऐसा ही लगा कि, 'यह मेरी ही पोठी है। अतः उसे यहीं से जला दो न'। जबकि वीतरागों ने पृथक्करण किया कि मैं अलग और यह अलग, 'आहारी आहार करता है, मैं तो निराहारी हूँ। तो वीतरागों ने फिर ऐसी खोज की। उसके बाद उन्होंने पोठी पर द्वेष नहीं किया जबकि वे द्वेष करते हैं न! 'आग लगो इस पोठी में', वह क्या कम द्वेष है? पोठी को जला दे! किसी ने अभी तक जलाया है ? कहते ज़रूर है लेकिन जलाते हैं क्या?
तो इस दुनिया में पहला द्वेष किसमें से आता है कि अगर कोई इंसान यहाँ से जंगल में भाग गया, वहाँ पर फिर भूख लगे तो उस समय बेचैन हो जाता है और बेचैनी में द्वेष ही है, राग नहीं है। जब भूख लगे, उस समय यदि उसे सोना-वोना दिखाया जाए तो क्या उसे उस पर राग होगा? उसे द्वेष ही रहेगा। अतः इस संसार की शुरुआत द्वेष से हुई है। और द्वेष की शुरुआत होने से यह फाउन्डेशन खड़ा है।