________________
[२.३] वीतद्वेष
१२९
एक भूख तो उतनी कम हो सकती है, ऐसा है। बाकी सब प्रकार की भूख तो लगेंगी ही।
प्रश्नकर्ता : हाँ, दूसरा जो हमें अनाज खाने की भूख है, वह भूख तो लगेगी ही तो फिर द्वेष तो जाएगा ही नहीं न कभी भी?
दादाश्री : अर्थात् द्वेष जाएगा ही नहीं इसीलिए हमने वीतराग विज्ञान देकर आपको वीतद्वेष बना दिया है।
प्रश्नकर्ता : भूख तो रोज़ लगती है फिर ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि वीतद्वेष बन गए?
दादाश्री : वह तो अभी जब आप साइन्स को समझोगे तब उस दिन! अभी तो समझना बाकी है न? ये सभी समझकर बैठे हैं कि किसे भूख लगी है और किसे नहीं, वैसा सब जानते हैं। किसे भूख लगी है, आप सभी लोग वह समझकर बैठे हो न? जबकि वे (जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया) तो ऐसा ही समझते हैं कि 'मुझे भूख लगी है'।
यदि यह भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती, तो ये साधु उपाश्रय से बाहर ही नहीं निकलते। राग तो बाद में पैदा हुआ है। राग अर्थात् यह अच्छा और यह बुरा। वह बाद का भाग है। मूल रूप से सबकुछ यहीं से उत्पन्न हुआ है। यदि उस जड़ को पकड़ लेंगे तो काम ही हो जाएगा न!
अतः आपको वीतद्वेष बना दिया है और मेरे साथ बैठ-बैठकर वीतराग बन जाना है। जितने समय तक बैठ पाओ, उतना समय। जिससे जितना लाभ लिया जा सके उतना और एकावतारी है, दो अवतारी, तीन अवतारी, पाँच अवतारी, बहुत हुआ तो पंद्रह अवतार होंगे लेकिन और कोई नुकसान तो नहीं होगा न! और उसका (ज्ञान का) सुख बरतता है न हमें!
सुख बरतता है तभी तो सब यहाँ पर आते हैं न, रोज़! यहाँ मुंबई में छ:-छः, सात-सात घंटे कौन इतना समय बिगाड़ेगा? कोई चार घंटे,