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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : दादा, अब दूसरी बात पूछता हूँ। आपने जो द्वेष कहा है, ये राग और द्वेष दो शब्द हैं। राग में लोभ और माया आते हैं और द्वेष में मान और क्रोध आते हैं तो...
दादाश्री : आप ये सब जो बातें कर रहे हैं, वे सभी बाहर की बातें हैं। उसका और इसका लेना-देना नहीं है।
प्रश्नकर्ता : शास्त्रों में जो लिखा है, उसकी बात कर रहा हूँ।
दादाश्री : शास्त्र तो सही हैं, लेकिन वह बाहर की बात है। बाहर की बात अर्थात् स्थूल बातें, लौकिक बातें हैं जबकि यह बात अलौकिक है।
क्रोध-मान-माया-लोभ ही द्वेष हैं। वे चारों ही द्वेष हैं। प्रश्नकर्ता : शास्त्र में दो को कहा गया है।
दादाश्री : उन्होंने तो दो को ही कहा है लेकिन आखिर में ये सब द्वेष ही हैं क्योंकि जो आत्मा को पीड़ित करते हैं, वे सभी कषाय कहलाते हैं। जब तक वे रहेंगे तब तक यह सब होता रहेगा। अपने यहाँ पर आपको वीतद्वेष बना दिया है। आपको इतना ही देख लेना है कि क्या ऐसा लगता है कि हम वीतद्वेष हो गए हैं ?
प्रश्नकर्ता : लगता है।
दादाश्री : फिर वीतराग तो परिणाम है। अत: उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा। कॉज़ेज़ निकाल दिए हैं न! मूल कॉज़ेज़ खत्म कर
दिए।
अब बात इतनी सूक्ष्म है और ऐसी है कि कई सालों तक समझ में न आए! यह बात बुद्धि गम्य नहीं है, यह तो ज्ञान गम्य बात निकली है। देखो निकल गई न!
प्रश्नकर्ता : लेकिन वह सही हकीकत है, हर एक का ऐसा अनुभव है कि अब द्वेष नहीं होता, कषायों पर...