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[२.३] वीतद्वेष
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आर्त और रौद्रध्यान? तो फिर? राग कैसे कह रहे हो? तो फिर जो द्वेष है वह पसंद है क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं पसंद।
दादाश्री : राग और द्वेष में से गुनहगार कौन है, वह ढूँढ निकालो। गुनहगार नहीं मिलते हैं इसीलिए तो पूरा जगत् लटक गया है।
इसमें मसाले-वसाले डालकर पिलाया जाए, तब अगर मुझे राग हो जाए तो उसमें हर्ज नहीं है। अगर यह फिर से ज़रा याद आए तो भी हर्ज नहीं है लेकिन अगर कोई कड़वा दे और उसे पीते समय द्वेष हो जाए तो परेशानी है। यदि राग हो जाए और तुझे याद आए तो उसमें हर्ज नहीं है। फिर से यह रस पी जाएगा। तीसरी बार आएगा तो तीसरी बार पी जाएगा लेकिन इसका अंत है। जबकि द्वेष अनंत है। उसका अंत ही नहीं है जबकि यह अंत वाला है।
प्रश्नकर्ता : शास्त्रों में भी ऐसा कहा गया है कि 'ममता छोड़ो। ममता छोड़नी है'। ममता छोड़ने का मतलब पहले राग छोड़ने की बात आती है न?
दादाश्री : ममता की तो यहाँ पर बात ही नहीं है। अपने यहाँ ममता शब्द की बात ही नहीं है। वीतद्वेष क्या है ? 'ममता खत्म होने के बाद द्वेष जाता है, नहीं तो नहीं जा सकता', यहाँ पर वह बात है ही नहीं। यह तो बाहर की बात हुई।
प्रश्नकर्ता : बाहर की ही बात है।
दादाश्री : लेकिन वह बात यहाँ पर काम नहीं आएगी न? अपने यहाँ पर तो वीतद्वेष बन जाते हैं। पहले वीतद्वेष बन चुके हैं न? वीतराग नहीं बनाया है। वीतराग नहीं बनाना है, वीतराग तो होते जाओगे। बीज निकाल दिया है मैंने, बीज खत्म हो गया।
अगर समझ में न आए तो यह ऐसी बात है कि बारह-बारह महीने तक लोगों को समझ में न आए। बारह महीने नहीं, लाख सालों तक भी समझ में न आए, ऐसी बात है।