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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : ऐसा है न, राग में तो पसंद समा जाती है। पसंद में राग नहीं समाता।
अतः जिन पर राग और जिन पर द्वेष है, वे उसे याद आते ही रहते हैं। वीतराग को याद नहीं आता। लेकिन वह शब्द तो सिर्फ एक इस वाक्य के अधीन लिखा गया है। लेकिन वीतराग का मतलब यदि ऐसा निकालें कि याद नहीं आता तो याद तो सभी साधु-संन्यासियों को भी नहीं आता और सभी वहाँ हिमालय में पड़े रहते हैं तो उसका अर्थ उल्टा हो जाएगा। फिर वीतराग का अर्थ ही क्या है? जैसा है वैसा, राग-द्वेष रहित वीतराग! वीतरागों को तो भूलने-करने को कुछ रहता ही नहीं न! उन्हें तो जब राग ही नहीं है तो फिर याद ही नहीं आएगा। राग को भूलना ही कहाँ रहा? राग-द्वेष वाला भूलता नहीं है कभी भी।
प्रश्नकर्ता : याद आए तो वीतराग नहीं है।
दादाश्री : हाँ। यादें राग-द्वेष के अधीन हैं। वह अकेला शब्द नहीं, सिर्फ 'भूलना' शब्द ही नहीं, परंतु पूरी डिक्शनरी ही नहीं है वहाँ पर।
फर्क, स्नेह और राग में प्रश्नकर्ता : क्या स्नेह का मतलब राग है?
दादाश्री : स्नेह अर्थात् चिपचिपाहट। आम के प्रति स्नेह होने लगे तो वह चिपक जाता है। मित्र के लिए स्नेह होने लगे कि चिपक जाता है। स्नेह अर्थात् चिपचिपाहट। स्नेह और राग में बहुत फर्क है।
प्रश्नकर्ता : स्नेह और राग में क्या फर्क है? दादाश्री : स्नेह, वह चिपचिपापन कहलाता है। प्रश्नकर्ता : तो क्या राग से भी आगे है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। राग बहुत विषम है। स्नेह तो टूट भी सकता है।