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[२.२] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा
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प्रश्नकर्ता : लेकिन उसे गाढ़ कहा है न?
दादाश्री : गाढ़ है फिर भी टूट जाता है। स्नेह अर्थात् सिर्फ चिपचिपापन। अन्य कुछ नहीं।
प्रश्नकर्ता : उसमें राग नहीं होता?
दादाश्री : नहीं। जो चिपकता है वह चिपचिपाहट की वजह से। फिर अलग भी हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो यह आकर्षण जैसा है? आकर्षण जैसा?
दादाश्री : आकर्षण में राग उत्पन्न होता है। एक पत्ता उड़ता हुआ आया और आप पर चिपक गया, अब वह स्नेह से चिपका है। लेकिन गर्मी पड़ते ही अंदर का पानी सूख जाता है। उखड़कर अपने आप ही गिर जाता है। गीला है, इसलिए चिपक गया यहाँ पर लेकिन जब गर्मी पड़ती है, उस समय?
प्रश्नकर्ता : अलग हो जाता है।
दादाश्री : हमें उखाड़ना नहीं पड़ता। जबकि राग अलग चीज़ है। राग तो, जब तक वीतरागता न आ जाए तब तक राह पर नहीं आने देता। तुझे अब किस पर राग होता है?
प्रश्नकर्ता : मुझे किसी पर भी नहीं होता।
दादाश्री : हाँ, तो ठीक है ! वीतराग कहा जाएगा। अभी वीतराग नहीं है, वीतद्वेष कहा जाएगा। द्वेष नहीं रहा।