________________
[२.२] पसंद-नापसंद
११५
आत्मा का स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी है तो वह उदासीन भाव से किस प्रकार रह सकता है?
दादाश्री : उदासीन अर्थात् ऐसा कहने का भावार्थ यह है कि संसार में उसे कोई अपेक्षा नहीं है। जो मूल आत्मा है न, उसे संसार से कोई अपेक्षा नहीं है इसलिए उदासीन भाव से है। इन लोगों से यदि ऐसा कहेंगे कि वीतराग भाव से है तो समझ में नहीं आएगा लेकिन यदि उदासीन कहेंगे तो समझ में आ जाएगा। संसार की उसे पड़ी ही नहीं होती, उसे लेना-देना ही नहीं है। उसका खुद का स्वभाव अलग, और संसार का स्वभाव अलग है। संसार का स्वभाव पुद्गल स्वभाव है और खुद का स्व स्वभाव है।
शुद्ध चेतन तो उदासीन भाव से है। सिर्फ प्रकाश ही देता है। तुझे जिसमें उपयोग करना हो उसमें कर क्योंकि वह तो प्रकाश देने भी नहीं
आता। जैसे कि यह सूर्य कहीं भी प्रकाश देने नहीं आता, उसका स्वभाव है और हम बेकार ही बिना बात के उपकार मानेंगे तो उसे बल्कि गुस्सा आ जाएगा। कहेगा कि, 'ये लोग कैसे बेकार हैं!' वह तो उसका स्वभाव है।
जहाँ राग-द्वेष, वहाँ यादें पसंद एक भ्रांत अभिप्राय है। यादें पसंद के आधार पर रहती हैं लेकिन जिनमें राग-द्वेष होते हैं न, उसी में याद रहता है।
प्रश्नकर्ता : अब अगर पसंद करेगा तभी राग-द्वेष कहलाएगा न? पसंद कर-करके ही सब याद रखता है न यह?
दादाश्री : पसंद तो ठीक है। जिनमें राग, राग अर्थात् पसंद आना। उसमें सभी कुछ आ गया। यदि एक ही शब्द में कहें तो सिर्फ पसंद ही नहीं, जिन पर राग है वह सबकुछ याद रहता है और द्वेष है, वह भी याद रहता है।
प्रश्नकर्ता : शुरू से आखिर तक सभी चीज़ों को पसंद कर-करके राग इकट्ठा किया है।