________________
११०
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : नहीं! वह तो मालिकी रहित भाव ही कहा जाएगा।
उपेक्षा अर्थात् क्या कहना चाहते हैं कि जैसे वह है ही नहीं। यों उस पर ध्यान ही मत दो।
प्रश्नकर्ता : उपेक्षा में अहंकार है न?
दादाश्री : वह तो अहंकार का ही काम है। जब तक अहंकार है, तभी तक उपेक्षा है।
प्रश्नकर्ता : निःस्पृहता और उपेक्षा में क्या फर्क है ?
दादाश्री : निःस्पृहता, वह तो उसकी कमी है। निःस्पृही अर्थात् 'हम' वाला, 'हम' वाला। इगोइज़म बढ़ता जाए तो निःस्पृही जबकि उपेक्षा में इगोइज़म नहीं बढ़ता और उपेक्षा में से धीरे-धीरे उदासीनता
और उसके बाद वीतरागता का जन्म होता है। उपेक्षा और उदासीनता में से जन्म होता है, वीतरागता का।
निःस्पृहता तो सभी जगह पर है। निःस्पृहता तो एक बार मन में तय कर ले, कोई साधु नि:स्पृह हो और उसके साथ यह भी बैठा है तो उसे देखकर वह भी निःस्पृह हो जाता है। जो निःस्पृही होते हैं न, उनमें बरकत ही नहीं होती। कहते हैं, 'हम नि:स्पृह हैं' इसलिए वह लड़का भी सीख जाता है, 'हम निःस्पृह हैं'। वह संन्यासी मना करता है कि 'खाने-पीने का कुछ मत लाना!' तब वह भी मना करता है। नि:स्पृह तो एक उच्च प्रकार का द्वेष है इसलिए हम कभी भी निःस्पृह नहीं हुए न! आपके पुद्गल के बारे में हम नि:स्पृह हैं और आपके आत्मा के बारे में सस्पृह हैं। नि:स्पृह-सस्पृह। यदि नि:स्पृह रहेंगे तो अंदर द्वेष रहेगा।
__ आत्मा के बारे में सस्पृह अर्थात् हम निःस्पृह-सस्पृह हैं। आपने देखे हैं नि:स्पृह ? 'हमें क्या, हमें क्या, चले जाओ, ले जाओ' ऐसा करके गालियाँ देते हैं और ऐसा सब करते हैं!
जो सस्पृही व्यक्ति होता है न, वह विनयी होता है इसलिए क्योंकि उसे इच्छा है और जो नि:स्पृही हो गया है, उसमें विनय नहीं होता। वह