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[१] प्रज्ञा
नहीं न आप। अगर कहें कि आप मत सुनना तो भी आप सुने बगैर रहोगे नहीं न! मोक्ष में जाना हो तो बुद्धि की ज़रूरत नहीं है, संसार में भटकना हो तो बुद्धि की ज़रूरत है। जिसने ऐसा सब नहीं पढ़ा हो और ब्लैक पेपर हो न तो उसे तो बस 'यह चंदूभाई और यह मैं', बस! हो गया बहुत अच्छा। अर्थात् यह सारा डिस्चार्ज है।
प्रश्नकर्ता : दादा, हमें पता चलता है कि यह बुद्धि दखल कर रही है, अगर फिर भी हम बुद्धि का सुनें तो उसे क्या कहेंगे?
दादाश्री : वह तो इसलिए कि अभी तक बुद्धि का सुनने में इन्टरेस्ट है लेकिन फिर भी यह जो प्रज्ञाशक्ति है, वह उसे उसी तरफ खींचती है।
प्रश्नकर्ता : हमें पता चलता है कि बुद्धि दखल कर रही है, फिर भी हम बुद्धि का सुनते रहते हैं। उसे टेढ़ापन कहा जाएगा न?
दादाश्री : यदि सुनते रहें लेकिन उस पर अमल न करें तो हर्ज नहीं है। बाकी देखते ही रहना चाहिए कि बुद्धि क्या कर रही है ! अपने स्वभाव में रहें तो झंझट नहीं है। आपमें बुद्धि ज़्यादा है लेकिन दादा की कृपा प्राप्त हो चुकी है इसलिए परेशानी नहीं होगी।
प्रश्नकर्ता : दादा, मेरी बुद्धि बहुत चलती है लेकिन फिर उसे ज़रा शांत कर देता हूँ। अब मैं उसकी नहीं सुनता हूँ।
दादाश्री : उसे छूने ही मत दो। हमारी बुद्धि चली गई है तभी यह झंझट गई न! स्वतंत्र! कोई कुछ भी दखल ही नहीं करता न फिर!
प्रज्ञा स्वतंत्र है बुद्धि से! अब प्रज्ञा जो है वह मूल आत्मा का गुण है और इन दोनों (तत्वों) का संपूर्ण डिविज़न हो जाने के बाद, पूरी तरह से मुक्त हो गए-अलग हो गए, उसके बाद फिर वह आत्मा में फिट हो जाती है। तब तक मोक्ष में ले जाने के लिए वह अलग हुई है आत्मा से।