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[१] प्रज्ञा
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और अगर किसी की भूल हो, वह भी कहना हो, खुद का ज्ञान बताना हो और अगर कहने का अवसर नहीं मिले, तब भी अंदर परिषह उत्पन्न होता है। 'कब बोलूँ', 'कब कह दूं', 'कब कह दूँ', वह है प्रज्ञा परिषह।
__ भगवान ने जो परिषह बताए हैं, उनमें प्रज्ञा को भी परिषह कहा है। क्रमिक मार्ग में प्रज्ञा परिषह उत्पन्न होने के बाद समकित होता है। वास्तविक समकित उसके बाद ही होता है। अपने यहाँ पर ज्ञान मिलने के बाद यह सब निकलता ही रहता है, खिचड़ी पकती ही रहती है।
यदि आप उपाश्रय में जाकर बात करने लगोगे तो कोई आपकी सुनेगा नहीं ना? आप बिल्कुल सही बात कहने जाओगे तो भी नहीं सुनेंगे इसीलिए तो आपको प्रज्ञा परिषह उत्पन्न होता है। मैं अपनी सही बात बता रहा हूँ लेकिन सुनते ही नहीं। ऐसी बेचैनी होती है, उसे परिषह कहा गया है। उस परिषह का समभाव से निकाल करने के बाद प्रज्ञा और ज़्यादा मज़बूत हो जाएगी।
श्रद्धा व प्रज्ञा की सूक्ष्म समझ प्रश्नकर्ता : श्रद्धा, प्रज्ञा, दृष्टा और चेतन, इनके बारे में कुछ बताइए।
दादाश्री : दृष्टा और चेतन एक ही हैं। श्रद्धा दो प्रकार की होती हैं। संसार व्यवहार में जो श्रद्धा रखी जाती है, वह सब मिथ्यात्व श्रद्धा है और अगर इस तरफ आ जाए, तो वह सम्यक्त्व श्रद्धा है, जिसे प्रतीति कहा जाता है। वह चेतन का भाग है और प्रज्ञा भी चेतन का भाग है लेकिन प्रज्ञा अलग है। श्रद्धा, वह प्रतीति वाला भाग है और फिर वापस (आत्मा के साथ) एक हो जाती है। तब तक यह श्रद्धा व प्रतीति तो हमेशा अलग ही रहेंगे। गुणों को लेकर दोनों अलग ही हैं लेकिन स्वभाव से एक हैं।
प्रश्नकर्ता : इसके लिए तीन अंग्रेजी शब्दों का उपयोग किया गया