________________
१०२
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : यह राग और द्वेष दोनों ही हिंसा हैं। द्वेष भी हिंसा है और राग भी हिंसा है। राग से ही लोग हिंसा करने को प्रेरित होते हैं। यह समझने जैसी बात है। एकदम से समझ में नहीं आएगा। भगवान अहिंसक क्यों कहलाए? क्योंकि उनमें राग-द्वेष नहीं थे इसलिए वे अहिंसक कहलाए। संपूर्ण अहिंसक!
प्रश्नकर्ता : स्वभाव में आ जाए, वह अहिंसक।
दादाश्री : स्वभाव में आ जाए तब तो वह भगवान ही कहलाएगा लेकिन राग-द्वेष का अभाव हो जाए तो उसी को कहते हैं अहिंसक। राग-द्वेष का अभाव हो जाने के बाद स्वभाव में आ जाता है।
जितना रोग उतना राग प्रश्नकर्ता : गांधी जी ने श्रीमद् राजचंद्र के बारे में लिखा है कि उनमें जितना रोग था, अंदर उतना ही उन्हें राग था।
दादाश्री : नियम ऐसा ही है। जितना रोग उतना ही राग होता है। आज उसे रागरूपी रोग हो या न भी हो। ऐसा क्यों? अभी यह जो रोग है, वह राग का ही परिणाम है लेकिन आज शायद राग न भी हो। अब आप सब को अगर कोई रोग है तो वह राग का परिणाम है। आपको राग-द्वेष नहीं हैं इसलिए अभी अन्य कोई वैसे रोग परिणाम नहीं हैं।
इसलिए कृपालुदेव के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'ऐसा ही है'। क्योंकि ऐसा कहा जा सकता है कि यह राग का परिणाम है लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता कि अभी राग है। अब ऐसा है कि ऐसी सूक्ष्म बात तो किसी को समझ में नहीं आ सकती न? ज्ञानीपुरुष बताएँ तब समझ में आता है। यह तो जैसा दिखाई दिया वैसा कह दिया।
और तीर्थंकरों को? उनकी भूमिका ही ऐसी होती है, बस वीतराग!