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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : लेकिन यों कहा तो ऐसा जाता है न कि ज्ञानीपुरुष का राजीपा (गुरुजनों की कृपा और प्रसन्नता), ज्ञानीपुरुष की कृपा।
दादाश्री : वह तो व्यवहार में कहने की बात है। वही भगवान है और वही सबकुछ है। यह तो हम इनका विभाजन करते हैं। बाकी, अन्य सभी जगह पर तो विभाजन होता ही नहीं है न! हम इसीलिए इसका विभाजन करते हैं ताकि लोगों को करेक्ट लगे कि यह साफ-साफ बात है! और हमें कोई ऐसा शौक नहीं है भगवान बन बैठने का।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा भगवान खुद अंदर वीतराग हैं न? दादाश्री : हाँ, वीतराग।
प्रश्नकर्ता : तो फिर उन्हें ऐसा क्यों है कि कम या ज्यादा कृपा उतारनी है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। उनके (भगवान के) अलावा, हम जो ज्ञानी हैं, उन्हें ऐसा नहीं है कि 'ये सब हमें भगवान कहकर बुलाएँ तो अच्छा'। उस स्वाद और उस मिठास की कोई ज़रूरत नहीं है। वह सारी भूख मिट चुकी है।
प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो ठीक है लेकिन ये अपने दादा भगवान... दादाश्री : वे तो संपूर्ण वीतराग ही हैं।
प्रश्नकर्ता : जो कृपा उतरती है, वह ऑटोमैटिक है न? वह स्वयं (अपने आप ही होती) है न? या फिर दादा भगवान की कृपा है ?
दादाश्री : दादा भगवान, वे तो वीतराग प्रभु हैं लेकिन यह जो प्रज्ञा है न, इस प्रज्ञा द्वारा सारी कृपा मिलती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन अब, ज्ञानीपुरुष में तो आत्मा खुद ही है, फिर प्रज्ञा कहाँ से आई?
दादाश्री : नहीं! वह कृपा प्रज्ञा के माध्यम से मिलती है। प्रज्ञा