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[२.१] राग-द्वेष
दादाश्री : हाँ, व्यतिरेक । यदि ज्ञानीपुरुष ज्ञान दें न, तो दोनों के ही छूट जाते हैं। आपको दिखाई ज़रूर देते हैं अस्तित्व में लेकिन दोनों के ही नहीं हैं। ये गुण मूल चेतन में नहीं हैं और मूल परमाणुओं में भी नहीं हैं। विकृति में हैं ये । अतः ये गुण दोनों के ही नहीं हैं, फिर भी उत्पन्न हुए हैं और विकृति की वजह से कितने ही लोग कहते हैं, 'मेरे आत्मा में हैं'। कितने ही लोग कहते हैं कि ' पुद्गल में हैं'।
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प्रश्नकर्ता : पुद्गल, वह व्यतिरेक गुण कहा जाता है ? दादाश्री : हाँ, यह मूल परमाणुओं का गुण नहीं है, न ही चेतन का गुण है।
पुद्गल अर्थात् पूरण और गलन । ज्ञान मिलते ही वह पूरण बंद हो गया। अब सिर्फ गलन ही बचा है। पूरण दोषों से बंधन है, गलन दोष निर्जरा (आत्म प्रदेश में से कर्मों का अलग होना) हैं । गलन होते हुए दोष बंध (कर्म बंधन) रहित निर्जरा हैं और पूरण दोष संवर रहित बंध हैं ।
पुद्गल में राग-द्वेष नहीं, वही ज्ञान
वह तो पुद्गल ही है। पुद्गल के अलावा और कुछ है ही नहीं ! पुद्गल में राग-द्वेष होने को ही कहते हैं संसार । मूर्च्छा आ जाए उसी को कहते हैं संसार और पुद्गल में राग-द्वेष नहीं हों, तो उसे कहते हैं ज्ञान । उसी को कहते हैं मुक्ति । बस इतना ही है । है पुद्गल ही । वही का वही पुद्गल । कुछ भी नहीं बदलता । पहले राग-द्वेष होते थे और अब राग-द्वेष नहीं होते । खाना-पीना, घूमना-फिरना, बोलनाचलना, सत्संग-वत्संग वगैरह सब पुद्गल हैं लेकिन जिस तरह से साबुन से मैल निकालने के बाद साबुन अपना मैल चिपकाता जाता है । ज्ञानीपुरुष के साथ किया गया सत्संग शुद्ध सत्संग कहलाता है । हम यहाँ पर ऐसा ही सत्संग करते हैं । इस सत्संग में ज्ञानियों का मैल नहीं चढ़ता और आपका मैल उतर जाता है जबकि बाहर तो वापस गुरु का मैल चढ़ जाता है। तो वापस टीनोपॉल डालना पड़ता है । उसके बाद