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[२.१] राग-द्वेष
है? हमें किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। तो कोई झंझट ही नहीं है। यह तो एक रसास्वाद चखने के लिए देखो कितनी झंझट, कितनी झंझट, कितनी झंझट और मान लो कि चखकर हमेशा के लिए सुखी हो जाते तो भी अच्छा था लेकिन इन्हें चखने के बाद भी रोना-धोना, रोना-धोना। सच बताना, रोना-धोना है या नहीं, चखने के बावजूद भी?
प्रश्नकर्ता : होता है। एकदम सत्य!
दादाश्री : यह सब राग-द्वेष की वजह से है। स्त्री का भी दोष नहीं है और पुरुष का भी दोष नहीं है। अच्छे-अच्छे लोगों के बीच भी झगड़े होते हैं। उसका कारण है राग-द्वेष और यदि वीतरागता पूर्वक होता तब तो झगड़ा होता ही नहीं लेकिन ऐसा कब हो सकता है ? आत्मज्ञान सहित हों, तब। तब यदि स्त्री कहे कि, 'आपमें अक्ल नहीं है' तो पति कहेगा, 'यह अच्छा हुआ कि तूने आज कहा, यह चंदू तो ऐसा ही है, शुरू से ऐसा ही है। तूने आज कहा तब मैंने जाना। तुझे तो अभी पता चला, मैं तो पहले से ही जानता हूँ इस चंदू को!'
प्रश्नकर्ता : जब स्पष्ट वेदन होता है, तब तो विषय-विकार भी नहीं रहते न?
दादाश्री : जब तक विषय का अस्तित्व है, तब तक स्पष्ट वेदन हो ही नहीं सकता। स्पष्ट वेदन कब होता है, जब इस मन-वाणी व देह पर भी खुद का मालिकीपन न रहे। हमारी निर्विचार दशा है, हमारी निर्विकल्प दशा है, हमारी निरीच्छक दशा है, तभी यह दशा उत्पन्न हुई है। इस दशा के प्रति हम धन्य-धन्य हैं, उसे नमस्कार करते हैं। इस दशा तक पहुँचना है, उसके बाद एकाध स्टेशन बाकी बचा है, तो भले ही बचा। इतने सारे स्टेशन पार कर लिए। अब एक का क्या हिसाब? और वह भी भगवान की हद में ही होगा। सिग्नल भी आ चुका है, सभी कुछ आ चुका। कब से ही आ चुका है। आपने भी सिग्नल पार कर लिया है। प्लेटफॉर्म तो नहीं आया है लेकिन सिग्नल तो पार कर लिया है।
प्रश्नकर्ता : भगवान की हद और भगवान की उपस्थिति दोनों ही।