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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : अभेदता अर्थात् तन्मयाकार । भगवान के साथ एक हो जाते हैं हम। अभी जो जुदाई है न, शुद्धात्मा और आपमें कितना भेद है कि अभी प्रतीति से शुद्धात्मा हुए हैं। संपूर्ण श्रद्धा बैठ गई है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इसका विश्वास हो गया है । थोड़ा बहुत अनुभव हो गया है लेकिन उस जैसे (रूप) हुए नहीं हैं । अतः भगवान से ऐसा कहते हैं कि उसी जैसा (रूप) बना दो। वही अभेदता है ।
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प्रश्नकर्ता : अर्थात् बिल्कुल भी भेद नहीं।
दादाश्री : भेद है, अभी तक भेद है । अभी मुझे आपको शुद्धात्मा में लाना पड़ता है। बाद में लाना नहीं पड़ेगा । अभेद हो जाना है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार शुद्धात्मा के साथ अभेद होता है न ?
दादाश्री : नहीं, अहंकार नहीं । व्यवहार का निकाल करने के लिए यह जो प्रज्ञा अलग हुई है न, तो अब जब वह एक हो जाएगी तो काम हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : कौन किसके साथ अभेद होता है ?
दादाश्री : प्रज्ञा और शुद्धात्मा । ये दोनों जो अलग हैं, वे एक हो जाएँगे। अभी 'मैं 'पन प्रज्ञा में बरतता है । हम जिसमें बरतते हैं, वह प्रज्ञा है। अब अहंकार में नहीं बरतता । अतः 'मैं' चंदूभाई में बरतता था, तब अहंकार में कहलाता था । अभी प्रज्ञा में बरतता है । अर्थात् शुद्धात्मा नहीं, यानी कि वह, जिसे अंतरात्मा कहा गया है।
हमारी यह प्रज्ञा लगभग ऐसी ही है जैसे आत्मा में स्थिर हो गई हो। अत: हमें ‘शुद्धात्मा' बोलना नहीं पड़ता या सोचना नहीं पड़ता कुछ भी और उस रूप में अभेदता जैसा ही लगता है। ज़रा सा बाकी है, चार प्रतिशत की वजह से। जबकि आपको अभेद होना है, धीरे- धीरे-धीरे करके जैसे-जैसे इन फाइलों का निकाल होता जाएगा, वैसे-वैसे अभेद होता जाएगा। फाइलों का पूर्ण रूप से निकाल हो गया तो समझो अभेद हो गया। फाइलों की ही झंझट है यह सारी । लेकिन अभी वह प्रज्ञा के