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[१] प्रज्ञा
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जिस ज्ञान से संसार छूट जाता है, वह आत्मज्ञान कहलाता है और जिस समय उस ज्ञान का उपयोग होता है, उस समय उसे प्रज्ञा कहा जाता है।
जो वर्तना में रखवाता है, वह आत्मा है और जो श्रद्धा में रखवाता है, वह प्रज्ञा है। वर्तन अर्थात् चारित्र।
प्रश्नकर्ता : आपमें उस देखने वाले को प्रज्ञा कहा जाएगा या आत्मा? आपके संदर्भ में प्रज्ञा नहीं कहा जाएगा या कहा जाएगा?
दादाश्री : प्रज्ञा ही कहा जाएगा। प्रज्ञा के सिवा तो अन्य कुछ कह ही नहीं सकते। आत्मा तो कह ही नहीं सकते। संसार दशा में प्रज्ञा ही काम करती रहती है। सचेत करती है, अंदर सबकुछ वही करती है।
ध्याता कौन है और ध्यान किसका? प्रश्नकर्ता : ध्याता, ध्येय और ध्यान किसे कहा जाता है ? शुद्धात्मा ध्याता है या प्रतिष्ठित आत्मा?
दादाश्री : इस ज्ञान प्राप्ति के बाद प्रज्ञा ध्याता है, प्रतिष्ठित आत्मा भी ध्याता नहीं है। प्रज्ञा ध्याता है। ध्येय वह 'खुद' है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह ध्येय है। ध्याता और ध्येय की एकता हो जाने से अंदर ध्यान उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : अभी शुद्धात्मा को ध्याता नहीं कह सकते?
दादाश्री : शुद्धात्मा (केवलज्ञानी आत्मा) तो अपना ध्येय है। शुद्धात्मा होना, वह अपना ध्येय है। शुद्धात्मा ही परमात्मा है, उसे जो भी कहो, वह यही है। प्रज्ञा ध्याता है और शुद्धात्मा ध्येय है क्योंकि आपको जो यह शुद्धात्मा पद दिया है, वह प्रतीति पद है। आप शुद्धात्मा हो नहीं गए हो लेकिन अगर अपलक्षण दिखाई दें तो आप अपने आपके लिए ऐसा मत मान लेना कि मेरा बिगड़ गया है। इसलिए शुद्धात्मा कहा है।
अभी उस शुद्धात्मा को प्रज्ञा कहो या अंतरात्मा दशा कहो, दशा