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[१] प्रज्ञा
दादाश्री : भोगना कैसा ? प्रज्ञाशक्ति द्वारा की गई चीज़ में भोगना नहीं होता। आनंद ही होता है और आनंद खुद का स्वभाव है । जिसे वह आनंद नहीं था, वह भोगता है ।
प्रश्नकर्ता : उस आनंद को कौन भोगता है ? रिलेटिव भोगता है या रियल भोगता है ?
दादाश्री : नहीं, नहीं । रिलेटिव ही भोगता है न ! रियल तो आनंद में ही है ना! जिसे कमी थी, वह भोगता है और आप खुद ही कहते हो न कि पहले आप ऐसे थे । अब आपका अहंकार भोग रहा है और आप अब शुद्धात्मा हो गए हो अर्थात् प्रज्ञा स्वरूप में आ गए हो । अहंकार भोग रहा है इसलिए उसे जो विषाद होता था, उसे जो कमी थी, वह सारी इस आनंद को भोगने से निकल जाती है। प्लस - माइनस हो जाता है।
दोनों अलग हैं, वेदक और ज्ञायक
प्रश्नकर्ता : वेदनीय कर्म के उदय के समय जो वेदना का वेदन करता है, वह कौन है और उस समय कौन जानता है कि वेदना हो रही है ?
दादाश्री : वेदन करता है अहंकार और प्रज्ञा जानती है। प्रज्ञा जो है, वह वेदक को भी जानती है और यह जो वेदक है, वह वेदना का वेदन करता (भुगतता) है । वेदक अर्थात् अहंकार। अहंकार में सभी कुछ
आ गया।
अहंकार मानता है कि यह दुःख मुझे ही हो रहा है, इसीलिए वह वेदता है। इसी वजह से उसे वेदक कहा जाता है और प्रज्ञाशक्ति इसे जानती है। अब अपने काफी कुछ महात्माओं में प्रज्ञाशक्ति ( एक तरफ) रह जाती है और वे वेदक भाव में आ जाते हैं । उससे दुःख बढ़ जाता है, बाकी उन्हें अन्य कोई नुकसान नहीं होता । यदि खुद तन्मयाकार हो जाए तो दुःख बढ़ जाता है ।
मैं यहाँ पर सभी बच्चों को प्रसाद देता हूँ। अगर प्रेम से प्रसाद