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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
मैंने तो देखा है न छत से लेकर तले तक सारा। नीचे भी देखा है कि नीचे कैसा है ? ऊपर कैसा है ? परस्पेक्टिव (परिप्रेक्ष्य) कैसा है, सभी तरफ से देख लिया इसलिए पता चल गया कि यह बात तो ऐसी है। परस्पेक्टिव व्यू बहुत कम लोग देख सकते हैं। यों सामने खड़े रहना और परस्पेक्टिव व्यू देखना, दोनों एक साथ नहीं हो सकता। हमें वह आता है।
प्रश्नकर्ता : दादा, उसे सूझ कह सकते हैं?
दादाश्री : नहीं! वह दर्शन है। सूझ तो हर एक व्यक्ति में होती है। सूझ तो हर एक में अपनी शक्ति के अनुसार होती है। दर्शन फैला हुआ है न! जिसका विस्तार हुआ है, वह है दर्शन! उसकी तो बात ही अलग है न! इतने कड़वे अनुभवों के बीच भी वह आनंद में रखता है। उसकी तो बात ही अलग है न!
प्रश्नकर्ता : टेपरिकॉर्डर बोलता है और 'मैं सुनता हूँ। फिर यह टेपरिकॉर्डर है और मैं इसे देख रहा हूँ', वह देखने वाला भाग प्रज्ञा है?
दादाश्री : वह भाग प्रज्ञा है। प्रश्नकर्ता : इसीलिए आप कहते हैं न कि 'देखकर बोलता हूँ।
दादाश्री : देखकर बोलता हूँ। पहले जो अज्ञा स्थिति थी, वह अब प्रज्ञा स्थिति हो गई है। इस अक्रम विज्ञान को किससे देखा है? प्रज्ञाशक्ति से। संसार में तो बुद्धि से देखा हुआ ज्ञान काम का है लेकिन अपने यहाँ पर तो निर्मल ज्ञान की आवश्यकता है।
क्या अज्ञा ही अज्ञान है? प्रश्नकर्ता : ‘अज्ञा अर्थात् अज्ञान', क्या ऐसा नहीं है ? हम इसका अर्थ अज्ञान समझते हैं लेकिन अज्ञा कौन है ? यानी कि अज्ञा की शुरुआत कहाँ से हुई? ठेठ प्रज्ञा की शुरुआत तक की बाउन्ड्री बुद्धि की है। वह सारी अज्ञा ही मानी जाती है। तो अज्ञा बुद्धि से नीचेवाला स्थर है या बुद्धि का समतुल्य स्थर है?