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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : प्रज्ञा में तन्मयाकार रहने को कहा है, तो वह ज़रा ठीक से खुलासा करके समझाइए।
दादाश्री : सिन्सियर रहना है। किसके प्रति सिन्सियर है ? अब आपको अगर मोक्ष में जाना है तो प्रज्ञा के प्रति सिन्सियर रहो और यदि मौज-मजे उड़ाने हैं तो कुछ देर के लिए उस तरफ चले जाओ। अभी अगर कर्म के उदय ले जाते हैं तो वह अलग बात है। कर्म का उदय घसीटकर ले जाए तो भी हमें इस तरफ का रखना है। नदी उस तरफ खींचेंगी लेकिन हमें तो किनारे पर जाने के लिए ज़ोर लगाना है। नहीं लगाना चाहिए? या फिर जैसे वह खींचे वैसे खिंच जाना है?
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यदि उसका निश्चय पक्का होगा, तभी सिन्सियर रहेगा न?
दादाश्री : पक्का होगा तभी रह पाएगा न! नहीं तो फिर जिसका निश्चय ही नहीं है, उसका क्या? नदी जिस तरफ खींचेगी उसी तरफ चला जाएगा। किनारा तो न जाने कहाँ रह जाएगा। हमें तो किनारे की तरफ जाने के लिए ज़ोर लगाना चाहिए। नदी उस ओर खींचेगी पर हमें इस तरफ आने के लिए हाथ-पैर मारने चाहिए। थोड़ा बहुत, जितना खिसक पाए, उतना ठीक है। तब तक तो अंदर जमीन में आ जाएगा।
अर्थात् इस विज्ञान से, मोक्ष के लिए उसे सावधान करने वाली प्रज्ञाशक्ति उत्पन्न हो जाती है। उसके बाद उसे खुद पॉज़िटिव रहना चाहिए। नेगेटिव सेन्स नहीं रखना चाहिए। पॉज़िटिव अर्थात् उसमें अपनी खुशी होनी चाहिए और पॉजिटिव सेन्स रखते भी हैं सभी और फिर इस संसार की कोई अड़चन भी स्पर्श नहीं होने देते। यदि वह खुद ठीक तरह से रहे न, तो अंदर ऐसी सेटिंग हो जाती है कि संसार की कोई अड़चन स्पर्श नहीं होने देता! क्योंकि जब आत्मा प्राप्त नहीं हुआ था अर्थात् भगवान प्राप्त नहीं हुए थे, तब भी संसार चल ही रहा था तो क्या प्राप्त होने के बाद वह बिगड़ जाएगा? नहीं बिगड़ेगा।