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[१] प्रज्ञा
दादाश्री : बहुत फर्क है। स्थितप्रज्ञ का मतलब क्या है कि खुद अपनी बुद्धि से सोच-सोचकर स्थिर होता है। और क्योंकि स्थिर हो जाता है इसलिए खुद अपने सॉल्यूशन ला सकता है। लेकिन वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। सिर्फ इतना ही है कि स्थितप्रज्ञ ने बुद्धि को स्थिर कर लिया है। अन्य कुछ नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहा गया है कि उसमें भी राग-द्वेष रहितता है, वीतराग जैसी।
दादाश्री : नहीं, वह राग-द्वेष रहित दशा नहीं है। लेकिन हर एक प्रश्न का सॉल्यूशन ले आता है। इसीलिए वह किसी पर राग-द्वेष नहीं करता न! सॉल्यूशन आ जाए तो फिर कौन करेगा? सबकुछ बुद्धि से। अव्यभिचारिणी बुद्धि की स्थिरता को स्थितप्रज्ञ कहा गया है। जिसकी बुद्धि स्थिर हो गई है। लोगों की बुद्धि अस्थिर होती है। स्थिर हो चुकी बुद्धि ही स्थितप्रज्ञ कहलाती है क्योंकि बहुत बढ़ते-बढ़ते, अज्ञा में से आगे बढ़ते-बढ़ते अंत में वह प्रज्ञा तक पहुँचती है।।
अभी तो उसे वीतरागता की स्टडी करनी है, वीतराग मार्ग की स्टडी करनी है। वीतराग मार्ग हाथ में आ गया है और धीरे-धीरे वीतरागता बढ़ती जाएगी। स्थितप्रज्ञ के स्टेशन पर आने के बाद वीतरागता का गुण बढ़ता जाता है।
प्रश्नकर्ता : और स्थितप्रज्ञ का संबंध दया से है या करुणा से?
दादाश्री : हाँ! दया से है। करुणा नहीं होती। वीतराग भगवान के अलावा अन्य किसी में करुणा नहीं हो सकती। करुणा का अर्थ क्या है? राग भी नहीं और द्वेष भी नहीं। चूहे को बचाने में राग नहीं और बिल्ली के प्रति द्वेष नहीं, उसे कहते हैं करुणा।
ये खोज, प्रज्ञा से या बुद्धि से? प्रश्नकर्ता : ये साइन्टिस्ट जो खोज (रिसर्च) वगैरह करते हैं, वह प्रज्ञा से है ? नहीं तो फिर वह क्या होता है ? बुद्धि से?