________________
[१] प्रज्ञा
४३
प्रश्नकर्ता : यह प्रज्ञा जब अहंकार को सचेत करती है, तब बुद्धि क्या करती है? तब फिर क्या बुद्धि अलग रहती है ?
दादाश्री : बुद्धि को क्या लेना-देना ? बुद्धि नाम ही नहीं लेती। प्रश्नकर्ता : तो फिर कुछ भी नहीं ?
दादाश्री : बुद्धि का कार्य ही नहीं है न!
प्रश्नकर्ता : प्रज्ञा के हाज़िर हो जाने पर बुद्धि का अस्तित्व ही नहीं रहता न ?
दादाश्री : अत: फिर बुद्धि उसकी हेल्प करती है अहंकार के कहे अनुसार ।
प्रश्नकर्ता : अच्छा, तो फिर इसे सीधा भी बुद्धि ही कर देती है ? दादाश्री : फिर सभी मिलकर सीधा कर देते हैं। सिर्फ बुद्धि ही नहीं, सभी ।
दादा का निदिध्यासन करवाए प्रज्ञा
प्रश्नकर्ता : आज सुबह सामायिक में आपका ही निदिध्यासन रहा। वह क्या है? मैं उसे शुद्ध चित्त समझता हूँ ।
दादाश्री : नहीं, वह सारा काम तो प्रज्ञाशक्ति का है। शुद्ध चित्त तो आत्मा खुद ही है। शुद्धात्मा ही शुद्ध चिद्रूप (चित्त स्वरूप ) है । यह सब तो प्रज्ञा करती है ।
प्रश्नकर्ता : सभी जगह दादा बैठे हुए दिखाई देते हैं । वह क्या है ?
दादाश्री : वही प्रज्ञा है न । अज्ञाशक्ति तो दूसरा ही दिखाती है । जो लक्ष्मी दिखाती है, स्त्रियाँ दिखाती है, वह अज्ञाशक्ति है । अज्ञाशक्ति स्त्री का निदिध्यासन करवाती है और प्रज्ञाशक्ति ज्ञानीपुरुष का । ज्ञानीपुरुष अर्थात् आत्मा का निदिध्यासन करवाती है।