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[१] प्रज्ञा
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प्रश्नकर्ता : ऐसा है कि निश्चय खुद ही करता है और फिर खुद ही बलवान होता जाता है ? वह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : जब अशुद्ध चित्त और मन वगैरह का ज़ोर रहता है तब निश्चय बल बंद हो जाता है। यह सब जिसमें कम है, उसमें चित्त शुद्धि ज़्यादा मज़बूत रहती है। दखल करते हैं न ये सब, वर्ना हम भले ही कितना भी एकांत में ध्यान करके बैठे हुए हों लेकिन बाहर लोग हो-हो-हो करें तो? इसी प्रकार ये सब बाहर हो-हो-हो होता है न, तो जिसे ज्यादा हो-हो-हो होता है, उसका ठिकाना नहीं पड़ता।
प्रश्नकर्ता : यह चीज़ बहुत करेक्ट है। बाहर की हो-हो कम हो जाए तो...
दादाश्री : हमारी यह बाहर की हो-हो नहीं है, तो है क्या कोई झंझट? जबकि आपको तो अगर तीन लोगों की हो-हो रहे तो भी घबराहट हो जाती है, 'मुझे ऐसा कर रहे हैं। मुझे ऐसा सब स्पर्श ही नहीं करता न! मैं इस प्रकार से बैठता हूँ। बाहर बैठता ही नहीं न! मुझे शौक नहीं है ऐसा। आपको अगर शौक है तो बाहर बैठकर तीन लोगों के साथ आप हो-हो करो, मैं तो अपने रूम (आत्मा) में बैठे-बैठे (नाटकीय रूप से) हो-हो करता रहता हूँ। इतने सारे लोग! इसका कब अंत आएगा?
प्रश्नकर्ता : आप खुद के रूप में इस तरह सिफत से सरक जाते हैं, चले जाते हैं अंदर।
दादाश्री : बैठा हुआ ही हूँ अंदर। बाहर निकलता ही नहीं हूँ। शायद कभी परछाई दिखाई दी हो तो आपको लगता है कि बाहर निकले होंगे, वही भूल है। वास्तव में वह मैं नहीं हूँ। प्रश्नकर्ता : वह बात सही है। हमारे खींचने पर भी नहीं आते।
दादा की प्रज्ञा की अनोखी शक्ति दादाश्री : अगर मैं बाहर निकलूँ तो इन भाई के घर कौन जाएगा?