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[१] प्रज्ञा
वैकुंठ में जाते हुए बुद्धि स्थिर हो जाती है। कृष्ण भगवान का जो वैकुंठ है, कृष्ण भगवान की उस बात को सुनते-सुनते, जैसे-जैसे गीता का अभ्यास बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे बुद्धि स्थिर होती जाती है और जिसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है, उसे भगवान ने स्थितप्रज्ञ कहा है। उससे आगे तो बहुत कुछ जानना बाकी है। अभी तो वह इस एक जगह का वीज़ा पाने के लायक हुआ है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् शुद्ध समकित और परमार्थ समकित?
दादाश्री : नहीं। वह शुद्ध समकित नहीं है। शुद्ध समकित से भी निम्न कक्षा का समकित है। अभी तो, अगर कभी उल्टे संयोग मिल जाएँ तो उल्टा भी कर ले, लेकिन बुद्धि स्थिर हो गई है इसलिए डिगेगा नहीं।
हाँ! अतः समकित कब है ? उसमें कुछ उल्टा नहीं घुसे, तब समकित कहा जाएगा। कोई भी संयोग उसे हिला नहीं सके, तब समकित कहा जाएगा। जबकि स्थितप्रज्ञ को संयोग हिला देते हैं इसलिए उसे भय रहता है। लेकिन बुद्धि स्थिर हो जाने के बाद समझदारी आती है। बहुत उच्च प्रकार की समझदारी आ जाती है। अभी स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य बहुत ही कम होंगे, शायद ही कोई होंगे। हिंदुस्तान में एक दो, वर्ना वह भी नहीं।
प्रश्नकर्ता : स्थितप्रज्ञ वाले में प्रज्ञा कभी जागृत ही नहीं हुई थी?
दादाश्री : नहीं। इस काल में स्थितप्रज्ञ नहीं होते, सत्युग में स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। इस काल में तो अगर बेटी कॉलेज जा रही हो
और अगर शाम को न आए तो सोचते हैं कि 'क्यों नहीं आई?' तो पता चलता है, 'उसने शादी कर ली'। बोलो, फिर बुद्धि स्थिर कैसे रहेगी? और उन दिनों यों शादी नहीं कर लेते थे। ऐसा नहीं होता था। कोई परेशानी ही नहीं आती थी। अभी तो बुद्धि स्थिर कैसे रह सकती है? पलभर में बेटी शादी कर लेती है। पलभर में पत्नी डिवॉर्स ले लेती है, ऐसे ज़माने में इंसान की बुद्धि स्थिर कैसे रह सकती है ? नहीं रह सकती। यह तो धन्य है इस अक्रम विज्ञान को कि सभी का कल्याण