________________
[१] प्रज्ञा
३७
वह
प्रश्नकर्ता : ‘स्थितप्रज्ञ दशा आत्मा की अनुभव दशा नहीं है',
समझाइए ।
दादाश्री : जब प्रज्ञा पूर्ण दशा तक पहुँचती है, तब आत्मानुभव होता है। स्थितप्रज्ञ, जब तक 'स्थित' विशेषण है, तब तक वह अनुभव नहीं कहा जा सकता, लेकिन जब विशेषण खत्म हो जाए और सिर्फ प्रज्ञा रहे, तब अनुभव है।
जो बुद्धि स्थिर हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। उसके परिणाम बदलते नहीं हैं और जब विशेषण खत्म हो जाते हैं, तब प्रज्ञा कहलाती है। तब अंतिम दशा में अनुभव होता है । निन्यानवे तक पहुँचता है, तब तक स्थितप्रज्ञ और जब सौ तक पहुँच जाए, तब प्रज्ञा ।
मोह मिटा और हुए स्थिर अचल में
प्रश्नकर्ता : अर्जुन कहते हैं कि 'नष्टो मोह स्मृतिलब्ध स्थितोस्मि' । दादाश्री : हाँ, लेकिन वह तो स्थिर हो ही गया था न ! प्रश्नकर्ता : हाँ, तो मुझे यह जानना है कि किस प्रकार से ?
दादाश्री : जिसमें इतने लक्षण आ जाएँ, जिसका मोह नष्ट हो गया है, तो वह स्थिर होने की निशानी हुई। दूसरी उसे यह हेल्प हुई कि स्मृतिलब्धा हो गई अर्थात् दूसरी हेल्प हुई। इन सभी कारणों से वह स्थिर हो रही है और कुछ-कुछ स्थिर रहती है । तभी से उसे स्थितप्रज्ञ दशा कहा गया है। यदि इस प्रकार से स्थिर रह सके तो । हालांकि वे ऐसा कहते हैं कि 'मेरा मोह खत्म हो गया है ' । वह तो बहुत उच्च दशा कही जाती है।
प्रश्नकर्ता : यहाँ पर सामान्य तौर पर सभी की स्थिति लट्टू जैसी है, तो ये अर्जुन भी मनुष्य ही थे और उन्होंने 'स्थितोस्मि' कहा था । उसमें लिखा गया है कि उन्होंने कृष्ण भगवान से कहा, 'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मैं स्थिर हो गया हूँ'। तो क्या मनुष्यों में ऐसी विरोधाभासी स्थिति आ सकती है ?