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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
कर दिया। 50,000 लोगों का कल्याण हो गया। ज़रा कम ज़्यादा रहा होगा लेकिन कल्याण तो ज़बरदस्त हो गया।
अहंकार का स्थान स्थितप्रज्ञ में ?
प्रश्नकर्ता : क्या स्थितप्रज्ञ अहंकार का लक्षण है ?
दादाश्री : अहंकार होते हुए भी स्थितप्रज्ञ हो जाए, यों दोनों साथ में हो सकता है।
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प्रश्नकर्ता और नहीं भी हो सकता ?
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दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है, होता ही है।
प्रश्नकर्ता : स्थितप्रज्ञ और वीतराग के बीच की डिमार्केशन लाइन बताइए। दोनों के बीच की लक्ष्मणरेखा...
दादाश्री : स्थितप्रज्ञ अर्थात्, अहंकार की उपस्थिति में संसार का सार-असार निकालकर बुद्धि का स्थिर हो जाना, वह स्थितप्रज्ञ है। स्थितप्रज्ञ दशा को विवेक ही माना जाएगा। वह सार - असार के विवेक को समझता है।
प्रश्नकर्ता: और क्या वीतरागता में अहंकार की हाज़िरी नहीं है ?
दादाश्री : नहीं ! सार - असार निकाला इसलिए अब वीतरागता की ओर चला। उसने सार निकाल लिया यहाँ पर कि इसमें सुख नहीं है, लेकिन अहंकार की उपस्थिति में । अब यहाँ उसे आगे जाने का रास्ता मिल गया, यहाँ से शुरुआत हो गई।
अब अपने यहाँ पर स्थितप्रज्ञ नहीं है, प्रज्ञा है । स्थितप्रज्ञ अहंकारसहित होता है, और यह प्रज्ञा अहंकाररहित होती है । अतः स्थितप्रज्ञ होने के बाद तो बहुत समय बाद 'वस्तु' (आत्मा) की प्राप्ति होती है और प्रज्ञा तो कुछ जन्मों में, एक-दो जन्मों में मोक्ष में ले जाती है।
फर्क, स्थितप्रज्ञ और वीतराग में
प्रश्नकर्ता : तो फिर स्थितप्रज्ञ और वीतराग में क्या फर्क है ?