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[१] प्रज्ञा
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संसार चलाती है बुद्धि
प्रश्नकर्ता: संसार चलाने के लिए हम जितनी बुद्धि का उपयोग करते हैं, वह सब अज्ञा ही कहलाती है न ?
दादाश्री : वह सब अज्ञा कहलाती है।
प्रश्नकर्ता : दादा, यह जो अज्ञा और प्रज्ञा के बीच खींचातानी चलती है, उसमें जो पुण्यशाली होता है, उसी की प्रज्ञा जीत जाती है न ?
दादाश्री : नहीं । उसमें तो अब प्रज्ञा ही जीत जाती है क्योंकि दादा द्वारा दिया हुआ ज्ञान बुद्धि के पैर तोड़ देता है । अर्थात् बुद्धि को अपंग बना देता है। और प्रज्ञा तो मज़बूत है, बार-बार सावधान करती है । वह बात पक्की है न ?
और लोग मुझसे पूछते हैं, 'दादा, क्या मुझे आत्मा का अनुभव होगा? तो कहा, ‘वह तो रोज़ हो ही रहा है न और वापस दूसरा कौन सा करना है ?' जब लाठी मारेंगे तब होगा । नहीं ? पीछे से लाठी मारते हैं न?
प्रश्नकर्ता : लेकिन अज्ञा टूटे हुए पैरों से भी बहुत ज़ोर लगाती रहती है।
दादाश्री : हाँ, अपंगों का काम ही ऐसा है । ज़्यादा उछलते हैं । हमें कहना है, ‘अपंग हो गई है, बैठ जा चुपचाप । बहुत दिनों तक तूने उपकार किया है हम पर, अब बैठ । बहुत हो गया' ।
प्रश्नकर्ता: दादा, ये जो निकाली बातें, विचार वगैरह आते हैं तब सफोकेशन होता है, दम घुटता है । क्या उस समय अज्ञा का ज़ोर रहता है?
दादाश्री : अज्ञा का ज़ोर रहता है न!
प्रश्नकर्ता : उसी कारण सफोकेशन होता है ?
दादाश्री : नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ अज्ञा से ही होता है।