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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
इसे बहुत बड़ी चीज़ बना दिया है। स्थितप्रज्ञ तो इससे निम्न स्थिति है। उसके बाद प्रज्ञा उत्पन्न होती है। पहले स्थितप्रज्ञ बनता है, उसके बाद धीरे-धीरे-धीरे प्रज्ञा उत्पन्न होती है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर मुझे ऐसा सवाल होता है कि स्थितप्रज्ञ का मतलब है प्रज्ञा प्राप्ति के बाद उसमें स्थिर होना, तो फिर स्थितप्रज्ञ उसके बाद की स्थिति हुई ?
दादाश्री : नहीं, वह बाद की स्थिति नहीं है। पहले की स्थिति है। वह (स्थिति) स्थितप्रज्ञ हुई कि मानो स्थिर ही हो गया। स्थितप्रज्ञ का मतलब तो प्रज्ञा ज़रा-ज़रा सी, एक-एक अंश करके आती है और वह खुद उसमें स्थिर होता जाता है। जबकि हम जब यहाँ पर ज्ञान देते हैं, तब तो प्रज्ञा सर्वांश उत्पन्न हो जाती है।
यह जो स्थितप्रज्ञ है, उसकी विपरीत दशा है स्थितअज्ञ । 'मैं चंदूभाई हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ', वह सारी स्थितअज्ञ दशा है। यह जो अज्ञा छूटी और प्रज्ञा उत्पन्न हुई, उसके बाद प्रज्ञा में दुःख नहीं रहता क्योंकि वह खुद के सनातन सुख का भोगी बन गया।
प्रश्नकर्ता : गीता में जिस स्थितप्रज्ञ दशा की बात कही गई है, वह यही है न?
दादाश्री : स्थितप्रज्ञ से तो बहुत आगे की स्थिति है यह। प्रश्नकर्ता : उससे भी आगे?
दादाश्री : बहुत उच्च स्थिति है यह तो। अद्भुत स्थिति है यह तो! कृष्ण भगवान की जो स्थिति थी, वह स्थिति है यह। यह तो क्षायक समकित की स्थिति है। कृष्ण भगवान को क्षायक सम्यक्त्व था यानी कि मिथ्यात्व दृष्टि पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी।
सम्यक् दृष्टि अर्थात् आत्मा की ही दृष्टि उत्पन्न हुई है, अतः यह तो बहुत उच्च दशा है। स्थितप्रज्ञ वगैरह तो इससे बहुत निम्न कोटि की दशा है लेकिन लोगों को स्थितप्रज्ञ समझ में नहीं आया।