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[१] प्रज्ञा
वह प्रज्ञा है और वही मूल आत्मा है, लेकिन अभी वह प्रज्ञा मानी जाती है। मूल आत्मा की ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जो मोक्ष में ले जाए।
प्रज्ञा अपना काम पूरा करने के बाद वापस जैसी थी वैसे ही आत्मा में स्थिर हो जाती है। अब, हर एक जीव में प्रज्ञा नहीं हो सकती। वह तो, जब ज्ञानीपुरुष आपका खुद का स्वरूप जागृत कर देते हैं, तब प्रज्ञा उत्पन्न होती है । जीवमात्र में प्रज्ञा नहीं होती पर अज्ञा तो रहती ही है।
प्रश्नकर्ता : प्रज्ञा का काम यही है न कि वह अज्ञा को घुसने न दे ?
दादाश्री : अज्ञा को घुसने देने की तो बात ही नहीं है। अज्ञा को तो वहाँ पर घुसने ही नहीं देती लेकिन इसके साथ ही मोक्ष में ले जाने का काम है उसका। अज्ञान उत्पन्न हो जाए तो उसे दबाकर, उसे समझाकर मोक्ष की तरफ ले जाती है। जबकि अज्ञा का काम क्या है कि थोड़ीबहुत भी लाइट होने लगे तो वहाँ अंधेरा कर देती है, वह 'उसे' संसार में ले जाती है।
अतः हमें अज्ञाशक्ति की तरफ नहीं रहना है। अज्ञाशक्ति ने तो संसार में भटका मारा है । अज्ञाशक्ति के पास क्रोध - मान-माया- - लोभ वगैरह सभी हथियार हैं । अहंकार बहुत विकट होता है । वह पूरा लश्कर है ज़बरदस्त। प्रज्ञाशक्ति में अहंकार नहीं है इसीलिए 'हमें' खुद को हाज़िर रहना चाहिए। हम अगर इस पक्ष में रहेंगे, तो प्रज्ञाशक्ति ऐसी है कि हारेगी नहीं । वह अपना काम करती ही रहेगी । यह सारा उपशम भाव है इसलिए अंदर चंचलता खड़ी हुई कि तुरंत दरवाज़े बंद कर देने हैं । वर्ना अगर कोई खुद जान-बूझकर उल्टा करे कि 'अब मुझे राग- - द्वेष करने हैं', तो प्रज्ञा वहाँ से हट जाती है।
प्रज्ञाशक्ति को कोई रुकावट न आए, सिर्फ इसलिए ज्ञानीपुरुष का अनुसरण करना है। इससे वह शक्ति मज़बूत होती जाएगी। इस शक्ति को कोई परेशानी नहीं आनी चाहिए। अभी तो बस आई ही हो और अगर कोई परेशानी आ गई तो चली जाएगी ।