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[१] प्रज्ञा
दादाश्री : वह जो थकान महसूस होती है, वह भी सिर्फ ऐसा प्रतीत होता है। थकान तो होती ही नहीं है न! देखने वाले को थकान नहीं होती। काम करने वाले को थकान होती है। देखने वाले को तो थकान छूती तक नहीं है। यह पहले का परिचय है न! थक जाने का। उसे ऐसा लगता है कि 'थकान हो गई'।
प्रश्नकर्ता : यह मन ऐसा क्यों करता है? वचन ऐसा क्यों निकला? अंदर ऐसे कुछ अभिप्राय हो जाते होंगे, इसलिए भी थकान होती होगी शायद। दादाश्री : अभिप्राय ! हाँ, ऐसा सब होता है।
अलग हो चुका शुद्ध चित्त, वही है प्रज्ञा अज्ञा तो अंदर रास्ता दिखाती है फायदे-नुकसान के लिए। द्वंद्व खड़े करती है।
प्रश्नकर्ता : अभी आपने कहा कि द्वंद्व खड़े करती है। अब ये जो शब्द निकले कि 'खड़े करती है', वह भाग कौन सा है?
दादाश्री : वह तो, शब्द बोले जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे शब्द, क्या यह जो स्थूल मन है, वह बोलता है?
दादाश्री : नहीं, बुद्धि में से उत्पन्न होते हैं। खड़े होने का मतलब ऐसा नहीं कि कोई इंसान खड़ा होता है। बुद्धि से उत्पन्न होते हैं।
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन आपने यह जो वर्णन किया, वह एक्जेक्ट है न? उत्पन्न होता है, ऐसा आपको दिखाई देता है और आप कहते हैं ?
दादाश्री : हाँ, लेकिन ‘दिखाई देता है और कहते हैं, वह भी औरों को तो नहीं दिखाई देता न! अतः उसके लिए ऐसा कहना पड़ता है कि ये खड़े होते हैं या उत्पन्न होते हैं। वह मन नहीं है, मन का काम नहीं है।