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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : देखते रहना है बस! जिसने मन को देखा, उसने मन को जीत लिया और उसने जगत् को भी जीत लिया। भगवान महावीर ने इसी प्रकार से जगत् को जीता था। अतः विचार तो मन का काम है। वे तो आएँगे। उन्हें हमें देखते रहना है। विचार प्रज्ञा के नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : उनमें प्रज्ञा की प्रेरणा होती है ?
दादाश्री : नहीं! मन तो विचार दिखाता है अतः उसे हम अपनी भाषा में समझ जाते हैं। प्रज्ञा में विचार होते ही नहीं हैं। विचार का मतलब क्या है ? विचार अर्थात् विकल्प और निर्विचार अर्थात् निर्विकल्प। यह तो निर्विकल्प दशा है अतः मन में जो विचार आते हैं, उन्हें देखना है, बस! और प्रज्ञा उन्हें दिखाती है।
देखने वाले को थकान कैसी? प्रश्नकर्ता : इन मन-वचन-काया को देखने वाली प्रज्ञा है ? दादाश्री : हाँ।
प्रश्नकर्ता : पूरे दिन मन-वचन-काया को देखते-देखते थक जाते हैं तो यह थकने वाला कौन है ?
दादाश्री : वह जो थक जाता है, अपने मन में जो उल्टा असर हो जाता है तो वे असर ही थक जाते हैं, और कोई भी नहीं थकता। थकता ही नहीं है न! देखने वाला थकता नहीं है। काम करने वाला थक जाता है।
प्रश्नकर्ता : देखने वाली तो प्रज्ञा है न?
दादाश्री : प्रज्ञा ही है। अभी तो प्रज्ञा ही काम कर रही है न! जब तक ये सब दखल हैं तब तक प्रज्ञा काम करेगी उसके बाद जब ये दखल नहीं रहेगी तो आत्मा।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, थक तो जाते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि यह सब कब बंद होगा? तो जब थकान होती है तभी ऐसा लगता है न? सहज हो तो ऐसा नहीं होगा न?