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देना चाहिए। फिर भी अगर सामने वाला अपने आप ही उलझन में पड़े तो वह अपनी ज़िम्मेदारी नहीं है। अपनी वजह से उलझन में पड़े तो अपनी जोखिमदारी है। जब तक बावा है तब तक भूल होने की संभावना है। शुद्धात्मा में रहेंगे तभी सब भूलें दिखाई देंगी लेकिन वापस से बावा बन जाते हैं न!
पोतापणुं कौन रखवाता है? अज्ञान। शुद्धात्मा होने के बाद भी अभी तक पक्ष चंदूभाई का रखना है, वह बावा है।
चरणविधि कौन करता है? जिसे बंधन में से छूटना है वह, अर्थात् अहंकार। अहंकार ही प्रतिष्ठित आत्मा है।
एक व्यक्ति ने दादाश्री से कहा कि 'आप ऐसे आशीर्वाद दीजिए कि हम (बावा) और ज्यादा ज्ञाता-दृष्टा पद में रह सकें'। तब दादाश्री ने उसे डाँट दिया, 'अरे, कहीं ऐसे आशीर्वाद होते होंगे? कि आप कुछ ऐसा कर दीजिए कि हम सो रहे हो तो खाना मुँह में आ जाए। ऐसी गलत बातें करके टाइम मत बिगाड़ो। सूक्ष्म बात हो तो करो'।
कषाय भी बावा को होते हैं, शुद्धात्मा को नहीं। बावा जब चिढ़ने लगे तो हमें उसे डाँट लेने देना है। फिर बाद में धीरे से कहना कि, 'भाई, ऐसा क्यों कर रहे हो? इससे क्या फायदा?' ऐसा कहने से एक तो वह नरम पड़ जाएगा और दूसरा हम ज्ञान में रहेंगे तो उससे शक्ति बढ़ेगी। अगर हम बावा को डाँटेंगे तो वह ऐसा है कि विरोध करेगा।
मंगलदास बाहर का स्वरूप है, बावा अंदर का स्वरूप है और मैं शुद्धात्मा! यदि इतना सा ही समझ जाएँ तो तमाम शास्त्रों का सार आ गया!
बावा ही अक्षर पुरुषोतम कहलाता है। मूल पुरुषोतम नहीं। मूल पुरुषोतम तो पूर्ण स्वरूप में ही (रहते) हैं !
क्षर, चंदूभाई है और जो अक्षर है, वह बावा, किसी एक पोइन्ट से लेकर दूसरे पोइन्ट तक और मैं 'पूर्ण स्वरूप' है।
जब योजना गढ़ता है तब ब्रह्म में से बन जाता है ब्रह्मा और जब उसे अमल में लाता है तब हो जाता है भ्रमित । 'मैं हूँ चंदू, इसका पति...'
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