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वैसे-वैसे विज्ञान प्रकट होता जाएगा। जब तक ऐसा सब बोलता है, 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं विज्ञान स्वरूप हूँ' तब तक खुद ज्ञान स्वरूप कहलाता हैं। जब 'खुद' पूर्ण विज्ञान स्वरूप हो जाएगा उसके बाद फिर बोलना नहीं पड़ेगा। जब तक बावा है तभी तक ज्ञान स्वरूप और बावा खत्म हो जाएगा तब विज्ञान स्वरूप।
बावा बढ़ता जाता है लेकिन 'मैं' वैसे का वैसा ही रहता है। 99 तक 'मैं' ज्ञान स्वरूप है और 100 हुआ कि विज्ञान स्वरूप हो गया।
'मैं' बावा के रूप में ज्ञान स्वरूप हूँ और रियली 'मैं' विज्ञान स्वरूप हूँ।
ज्ञान मिलने के बाद रिलेटिव यानी कि 'मंगलदास हूँ', वह छूट गया। उसके बाद उसका स्वरूप बावा स्वरूप हो गया। अब जैसे-जैसे फाइलों का समभाव से निकाल होता जाएगा, वैसे-वैसे बावा विलीन होता जाएगा।
356 डिग्री पर बावा है, 357, 358, 359 तक बावा है और 360 डिग्री हुआ कि 'मैं' हो जाएगा! 'मैं' तो शुद्धात्मा है ही लेकिन बावा भी शुद्ध 'मैं' हो गया।
रियल में शुद्धात्मा तो सभी का 360 डिग्री का है लेकिन यह बावा अलग-अलग डिग्री का होता है और अहंकार ही बावा को आगे नहीं बढ़ने देता। इसमें, 'मैं कुछ हूँ', वह भारी जोखिम बन जाता है। दादाश्री कहते हैं कि 'हम ज्ञानी हैं, भगवान नहीं हैं। 360 डिग्री तक पहुँच जाएँगे तो भगवान हैं। 359 तक ज्ञानी हैं। अभी हम 356 डिग्री पर हैं'। दादाश्री के देह विलय के एकाध सप्ताह पहले उन्होंने कहा था, 'इस ए.एम.पटेल की मीठे और मिरची की रुचि और स्वाद गया। अब हमारी दो डिग्री आगे बढ़ीं। 359 डिग्री हो गई'।
345 डिग्री से आगे पहुँचने के बाद ज्ञानी पद कहलाता है, 345 से 359 तक ज्ञानी बावा में ही आता है !
355 डिग्री से 360 डिग्री तक सभी भगवान ही कहलाते हैं। तीर्थंकरों में अंदर और बाहर दोनों जगह 360 डिग्री होती हैं।
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