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मंगलदास की रिलेटिव डिग्री 202 है, शुद्धात्मा की 360 डिग्री है, रियल की और बावा की 303 डिग्री, नियर रियल की।
ज्ञान मिलने से पहले हम बावा तो थे ही नहीं, मैं चंदूभाई, मैं डॉक्टर वगैरह सभी को एक ही मानते थे।
ज्ञान मिलने से पहले भी बावा होता है लेकिन वह बिना ड्रेस का बावा होता है। जब से 'मैं कर्ता हूँ, मुझे कर्म भोगना पड़ेगा', ऐसा जाना तभी से वह बावा बन जाता है लेकिन वह एक्ज़ेक्ट ड्रेस वाला बावा नहीं है। 'मुझे यह देहाध्यास बरतता (रहता) है', जब से ऐसा समझे तभी से वह रौब वाला बावा कहलाता है। काफी आगे बढ़ गया, ऐसा कहा जाएगा लेकिन फिर भी वह असल ड्रेस वाला तो है ही नहीं। वास्तव में फुल ड्रेस वाला बावा तो इस ज्ञान प्राप्ति के बाद ही कहलाता है।
मंगलदास को और बावा को सभी को जो जानता है, वह है 'मैं'! जो ज्ञानी है, वह भी 'मैं' नहीं हूँ। 360 डिग्री वाले जो ज्ञानी हैं, उन्हें भी 'मैं' जानता हूँ', ऐसा रहता है।
तीर्थंकरों की 360 डिग्री और दादाश्री की 356 डिग्री है। इसमें फर्क इतना ही है कि दादाश्री खटपटिया वीतराग हैं और तीर्थंकर पूर्ण वीतराग हैं। दादाश्री को दिन-रात सभी को मोक्ष में ले जाने की ही खटपट रहती है।
मंगलदास की प्रकृति नहीं बदलती। बावा पर प्रकृति का असर होता है लेकिन उतने ही भाग में होता है जहाँ पर अज्ञान रहा हुआ है। 360 डिग्री वाले पर बिल्कुल भी असर नहीं होता।
बावा का स्वरूप ज्ञान से दिखाई देता है। जैसे-जैसे डिग्री बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे और अधिक स्पष्ट स्वरूप समझ में आता जाता है।
__बावा का और मंगलदास का स्वरूप जिसे समझ में आता है वह 'मैं' है और वह भी प्रज्ञा के रूप में।
एक महात्मा ने दादाश्री से पूछा कि 'बावा और अहंकार में क्या फर्क है ?' तब दादाश्री ने कहा कि, 'अहंकार खुद ही बावा है और अहंकार कम होता जाता है वह भी बावा है और खत्म होता है वह भी बावा है'।
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