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का अवलंबन रहता है। इसके लिए दादाश्री बहुत सुंदर, स्पष्ट रूप से समझाते हैं कि व्यक्तियों के साथ ऋणानुबंध की वजह से थोड़ा कॉम्प्लेक्स हो जाता है लेकिन वह भी धीरे-धीरे अपने आप छूट जाएगा। दादाश्री खुद के बारे में भी एक अच्छी बात बताते हैं कि 'व्यवहार में तो हमें भी नीरू बहन का अवलंबन हैं, औरों के भी हैं लेकिन यदि निश्चय अवलंबन खड़ा हो जाए यानी कि जिसकी वजह से अंदर अड़चन आए तब अवलंबन से आगे चले जाते हैं। बाकी के लोग अवलंबन का सब्स्टिट्यूट ढूँढते हैं। ज्ञानी को वैसा नहीं होता है।
महात्माओं के लिए तो एक ही शॉर्ट कट है। सभी अवलंबनों को छोड़कर सिर्फ दादाश्री का अवलंबन पकड़ लेना ही सब से बड़ा उपाय है और वास्तव में यह अवलंबन कोई अवलंबन नहीं है क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार का रिएक्शन नहीं है।
दादाश्री ने महात्माओं को मन पर बोझ रखने के लिए मना किया है। बोझा कैसा? निरालंब पद नहीं है उसका! वह तो अपने आप सामने आएगा। मोक्ष के दरवाज़े में प्रविष्ट होने के बाद अब वापस जा सकें, वैसा तो रहा ही नहीं, आगे ही बढ़ना है। तो उस छोर पर मोक्ष ही है न!
दादाश्री कहते हैं कि 'हम थ्योरी नहीं लेकिन थ्योरम ऑफ एब्सॉल्यूटिज़म में हैं। थ्योरम अर्थात् अनुभव में हैं। एब्सल्यूट अर्थात् मूल आत्मा, निरालंब आत्मा!'
महाविदेह क्षेत्र में हमेशा ही तीर्थंकर होते हैं ! बोलो, ब्रह्मांड तो निरंतर पवित्र ही हैं न! हमने वहाँ पर पहुँचकर दादाश्री के अक्रम ज्ञान का वीज़ा दिखाया कि मोक्ष में एन्ट्री!
दादाश्री कहते हैं कि 'मैंने आपको सभी कुछ दे दिया है, मेरे जितना ही। लेकिन आपकी फाइलें आपको बाधक हैं'।
एब्सल्यूट स्थिति का मतलब क्या है ? पर-समय बंद हो गया। समय अर्थात् काल की छोटे से छोटी यूनिट। कोई भी चीज़ टच न हो, ऐसा अपना आत्मा हैं यानी कि 'हम'
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