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हैं ही ऐसे ! फाँसी का भी असर नहीं होता और चारों तरफ बम फूट रहे हों तब भी असर नहीं होता ।
गजसुकुमार के सिर पर सिगड़ी जलाई तो भी उन पर वेदना का असर नहीं हुआ और केवलज्ञान हो गया !
भगवान ने गजसुकुमार को समझाया था कि " बहुत बड़ा उपसर्ग आ पड़े तब ‘शुद्धात्मा, शुद्धात्मा' मत करना । शुद्धात्मा तो स्थूल स्वरूप है, शब्द स्वरूप है । तब सूक्ष्म में चले जाना । केवलज्ञान स्वरूप में !" वह कैसा स्वरूप है? केवलज्ञान आकाश जैसा सूक्ष्म है जबकि अग्नि स्थूल है। स्थूल सूक्ष्म को जला सकता है क्या ?
‘केवलज्ञान स्वरूप कैसा दिखाई देता है ?' 'पूरे शरीर में आकाश जितना ही भाग दिखाई देता है, और कुछ भी नहीं दिखाई देता । कोई मूर्त स्वरूप है ही नहीं उसमें ।' आकाश अमूर्त है, सूक्ष्म है ! इस स्वरूप का अनुभव गजसुकुमार को रहा और वे मोक्ष में गए !
महात्माओं की वह दशा कब आएगी ? उसके आए बिना चारा नहीं है। तीर्थंकर के दर्शन होते ही वैसा हो जाएगा। तीर्थंकर की स्थिरता, उनका प्रेम देखते ही वैसा हो जाएगा ।
महात्माओं का अब ऐसा निश्चय हो गया है कि 'अब पुद्गल के अवलंबन चाहिए ही नहीं'। इसलिए निरालंब होने लगे हैं। जो पुद्गल का अवलंबन लेते ही नहीं, वे परमात्मा और जो पुद्गल के आधार पर जीवित हैं, वे जीवात्मा ।
दादाश्री कहते हैं, 'तीर्थंकरों ने ज्ञान में जो आत्मा देखा है वह सब से अंतिम है और वह हमने देखा है, जाना है । वह निर्भय और वीतराग रखता है'। दादाश्री कहते हैं, 'लेकिन मैं तो फेल हो चुका तीर्थंकर हूँ, चार मार्क से! '
ज्ञानी दो प्रकार के होते हैं । एक शुद्धात्मा स्वरूप के शब्दावलंबन वाले और दूसरे निरालंब दशा वाले । दादाश्री निरालंब दशा में थे। इस काल का ग्यारहवाँ आश्चर्य ! दादाश्री को कोई इच्छा थी ही नहीं, इसलिए उनके लिए हर एक चीज़ अपने आप हाज़िर हो जाती थी । दादाश्री की
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