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उपस्थिति ही जगत् का कल्याण करती है। जिस प्रकार बर्फ की सिल्ली की उपस्थिति हमें अंधेरे में भी ठंडक देती है न!
केवलज्ञान, एब्सल्यूट ज्ञान, निरालंब दशा ऐसी है कि जहाँ पर राग-द्वेष नहीं हैं, अवलंबन नहीं है, शब्द भी नहीं हैं, कुछ भी नहीं है। निरा आनंद का ही कंद है। वहाँ पर सिर्फ केवलज्ञान ही है। कोई अवलंबन नहीं है, ऐसा उपयोग।
महात्माओं को दादाश्री ने ज्ञान का अवलंबन दिया है, पाँच आज्ञा का अवलंबन, जो निरालंब बनाएगा। मूल आत्मा प्राप्त करवाएगा। मूल आत्मा विज्ञान स्वरूप है!
[7] अंतिम विज्ञान - मैं, बावा और मंगलदास
परम पूज्य दादाश्री ने आत्मविज्ञान की अंतिम (उच्चतम) बात 'मैं, बावा और मंगलदास' का उदाहरण देकर बहुत गहराई से समझाई है और इससे तत्त्व से संबंधित, कर्ता से संबंधित तमाम उलझनों का एक्जेक्ट स्पष्टीकरण मिल जाता है। ऐसा स्पष्टीकरण किसी भी शास्त्र में या किसी भी ज्ञानी से नहीं मिल सकता।
आत्मज्ञान होने के बाद महात्माओं को कदम-कदम पर ये उलझनें पैदा होती हैं कि "मुझे तो सौ प्रतिशत आत्मा में और ज्ञान में ही रहना है, अकर्ता पद में ही रहना है। फिर भी ऐसी गलती हो जाती है कि कुछ अच्छा हो जाए तो ऐसा रहता है कि 'मैंने किया' और बिगड़ जाए तो 'किसी और ने किया।" 'मैं शुद्धात्मा ही हँ', उसे तो ऐसा होगा ही नहीं न। तो ऐसा किसे होता है ? तन्मयाकार कौन हो जाता है ? मन-वचनकाया तो मिकेनिकल हैं, ऐसा भी अनुभव होता है, तो यह किसके इशारे पर उल्टा काम करता है ? आत्मा तो ऐसा करवाता ही नहीं, कुछ भी नहीं करवाता। यह रहस्य समझ में नहीं आने के कारण प्रगति रुक जाती है और अंदर भयंकर फस्ट्रेशन आ जाता है। 'शुद्धात्मा और यह मिकेनिकल काम करने वाले मन-वचन-काया के बीच में कोई फोर्स है, वह क्या है? वह किस तरह काम करता है? उसका स्वरूप क्या है?', ऐसे तमाम प्रश्न उत्पन्न होते थे। उनका एक्ज़ेक्ट विवरण मिल जाता है दादाश्री के इस गुह्यतम ज्ञान से, 'मैं, बावा और मंगलदास'। अब यह क्या है ?
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