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अवलंबन को देशी भाषा में ओलंबा (भूलंब, साहुल) कहते हैं । आधार पर लोड पड़ता है, जबकि अवलंबन पर नहीं पड़ता। दीवार बनाने से पहले ओलंबा रखना पड़ता है तभी वह सीधी बनती है न ? अवलंबन से रेग्यूलर हो जाता है सभी कुछ । उसी प्रकार इस शुद्धात्मा के ओलंबे से आत्मा एक्युरेट रहता है। पूर्ण दशा हो जाने के बाद निरालंब दशा को 'शुद्धात्मा' के ओलंबे की ज़रूरत नहीं रहती !
जब आधार हटा लिया जाए तो वह तुरंत निराधार हो जाता है। निरालंब होने में देर लगती है । 'मैंने किया' इस भाव से आधार मिलता है और 'व्यवस्थित' ने किया, 'मैंने नहीं', तो आधार चला गया और हो गया निराधार। आत्मा के लिए कोई आधार - आधारी संबंध नहीं है ।
कर्ताभाव से कर्म को आधार मिलता है और उससे प्रकृति बनती है और एक-एक आधार को पकड़ते हुए संसार खड़ा हो जाता है! ज्ञानी की आज्ञा में रहने से अकर्म दशा आती है
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भेदज्ञान के अवलंबन से शुद्धात्मा पद मिलता है । भेदज्ञान ज्ञानी के अवलंबन से मिलता है । निरालंब पद ज्ञानी की आज्ञा में रहने से मिलता है।
यहाँ पर स्वरूप का आधार है इसीलिए इन सभी में कहीं भी लोड नहीं है और दूसरा है अहंकार का आधार जो सामान्य लोगों को रहता है।
संसार अज्ञान की वजह से है । अज्ञान ही माया है, स्वरूप की अज्ञानता। अज्ञान को फिर मिलता है अहम् का सहारा ! वह सहारा चला जाए तो मुक्त हो सकता है।
रिलेटिव मात्र आधार - आधारी संबंध वाला है । देह पित्त, वायु, कफ और शरीर के अंग- उपांग आधार - आधारी वाले हैं ।
निरालंब की राह पर किस तरह जा सकते हैं ? आलंबन कम करते-करते जाना है। आलंबन की ज़रूरत क्यों महसूस हुई। आलंबन की ही भक्ति की इसलिए । पुद्गल की ही भक्ति की । हूँफ (सहारा, सलामती, सुरक्षा, रक्षण) की वजह से पौद्गलिक इच्छाएँ हुई और इच्छाएँ
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