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विनयश्रुत
२५ अध्ययन १: श्लोक ४१-४२ टि०६३-६६
इस प्रकार जो व्यवहार करता है, वह आचार्य का उपघाती आदि-आदि। इसका एक अर्थ यह भी किया जा सकता हैहोता है।
विनीत शिष्य एक ही कार्य के लिए आचार्य से बार-बार कहलाने इसका दूसरा अर्थ यह है-जो शिष्य आचार्य की की इच्छा न करे। वृत्ति का उपघात करता है, वह भी 'बुद्धोपघाती' कहलाता है। ६४. कुपित हुए (कुवियं) आचार्य को दीर्घजीवी देख शिष्य सोचते हैं—'हमलोग कब तक विनीत शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य को कपित इनकी परिचर्या करते रहेंगे? कोई ऐसा प्रयत्न करें, जिससे ये जाने तो उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे। प्रश्न होता है कि अनशन कर लें। वे भिक्षा में पूर्ण नीरस आहार लाते हैं यह कैसे जाना जाए कि आचार्य कुपित हुए हैं? चूर्णिकार ने और कहते हैं--भंते! क्या करें? श्रावक लोग अच्छा आहार देते कपित को जानने के छह लक्षण बताए हैं। वे ये हैं...-- ही नहीं।' उधर श्रावक लोग यह सोचकर कि आचार्य वृद्ध हैं, अचक्षुदानं कृतपूर्वनाशनं, विमाननं दुश्चरिताय कीर्तनम्। सौभाग्य से हमारे यहां स्थान-स्थित हैं, अतः हम स्वतः कथाप्रसंगो न च नाम विस्मयो, विरक्तभावस्य जनस्य लक्षणम्।। प्राप्त प्रणीत-भोजन उन्हें दें। वे भिक्षा के लिए आने वाले साधुओं १. उसकी ओर दृष्टि उठाकर भी न देखना। को प्रणीत-आहार देना चाहते हैं पर वे साधु उन्हें कहते २. पूर्वकृत को भुला देना। हैं—'आचार्य प्रणीत-भोजन नहीं लेना चाहते। वे संलेखना
३. तिरस्कार करना। कर रहे हैं अनशन की तैयारी के लिए काया को कृश कर रहे ४. दुश्चरित्र का कथन करना। हैं।' श्रावक आचार्य को कहते हैं—'भगवन्! आप महान् ५. बातचीत न करना। उद्योतकारी आचार्य हैं, फिर असमय में ही संलेखना क्यों करते
६. उसकी विशेषता पर विस्मय प्रगट न करना। हैं? आप हमारे लिए भारभूत नहीं हैं। हम शक्तिभर आपकी ६५. (पत्तिएण.....पंजलिउडो) सेवा करना चाहते हैं। आपके विनीत साधु भी आपकी सेवा
'पतिएण'-शान्त्याचार्य ने इसे आर्ष प्रयोग मानकर करना चाहते हैं। वे भी आपसे खिन्न नहीं हैं।' आचार्य इस
इसके संस्कृत रूप दो किए हैं—१. प्रातीतिकेन और २. प्रीत्या। सारी स्थिति को जानकर सोचते हैं-'इस अप्रतीतिहेतुक प्राण
प्रातीतिक के दो अर्थ किए गए हैं-शपथ और प्रतीति उत्पादक धारण से क्या अर्थ है? धर्मार्थी पुरुष को अप्रीति उत्पन्न करना
वचन।" उन्होंने मुख्य अर्थ 'प्रातीतिक' किया है। नेमिचंद्र ने उचित नहीं।' वे तत्काल श्रावकों से कहते हैं-मैं नियत-विहारी
इसका मुख्य अर्थ प्रीत्या--प्रेम से किया है।' होकर कितने दिन तक इन विनीत साधुओं को और आपको
_ 'पंजलिउडो'–शान्त्याचार्य के अनुसार इसके संस्कृत रोके रहूंगा। अच्छा है, अब मैं उत्तम-अर्थ का अनुसरण करूं। रूप दो बनते हैं-प्रकताञ्जलिः और प्राजलिपुटः। नेमिचन्द्र इस प्रकार श्रावकों को समझाकर आचार्य अनशन कर लेते हैं। दसरे को मारी किया । शिष्यों की ऐसी चेष्टा भी आचार्य की उपधात करने वाली ।
६६. धर्म से अर्जित (धम्मज्जियं) कहलाती है। इसलिउए विनीत शिष्य बुद्धोपघाती न हो-आचार्य ।
चूर्णिकार ने इस शब्द को 'धार्मिक जीतं—धम्मज्जीतं' इस को अनशन आदि के लिए बाध्य करने वाला न हो।
प्रकार व्युत्पन्न कर, इकार को इस्व मान 'धम्मज्जिय' शब्द ६३. छिद्रान्वेषी (तोत्तगवेसए)
माना है। इसका अर्थ है-धर्म के अनुरूप जीत व्यवहार अर्थात् जिसके द्वारा व्यथा उत्पन्न होती है उसे तोत्त-तोत्र
प्राचीन बहुश्रुत आचार्यों द्वारा आचीर्ण व्यवहार। कहा जाता है। द्रव्य तोत्र हैं—चाबुक, प्रहार आदि और भाव
बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंतोत्र हैं-दोषोद्भावन, तिरस्कारयुक्त वचन, छिद्रान्वेषण
१. धर्मार्जितं क्षमा, संयम आदि धर्मों से प्राप्त।
पच्चक्खायंति, इत्येवं बुद्धोपघाती न सिया। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२,६३ ।
(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४२ : बुद्धो-आयरियो, बुद्धानुपहन्तुं शीलं यस्य स भवति बुद्धोवघाती, उपेत्य घातः उपघातः, स तु त्रिविधः णाणादि, णाणे अप्पसुतो एस देसं गोप्पवइ इओ दसणे उम्मग्गं पण्णवेति सद्दहति वा, चरणे पासत्थो वा कुशीलो वा एवमादी, अहवा आयरियस्स वृत्तिमुपहंति, जहा एको आयरिओ अ (ववा) यमग्गो (अगमओ), तस्स सीसा चिंतेंति केच्चिरं कालं अम्हेहिं एयस्स
ति-केच्चिरं कालं अम्हाह एयस्स वट्टियव्यंति?, तो तहा काहामो जहां भतं पच्चक्खाति, ताहे अंतं एव (विरसं भत्त) उवणेति, भणंति य–ण देति सड्ढा, किं करेमो?, सावयाणं च कहेंति-जहा आयरिया पणीयं पाणभोयणं ण इच्छंति, संलेहणं करेंतित्ति, ततो सड्ढा आगंतूणं भणंति-कि खमासमणा! संलेहणं करेह?, ण वयं पडिचारगा वा णिविपण्णत्ति, ताहे ते जाणिऊण तेहिं चेव बारितंति भणंति-किं मे सिस्सेहिं तुन्भेहिं वाऽवसोहिएहिँ?, उत्तमायरियं उत्तमट्ठ पडिवज्जामि, प, २ भत्तं
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४२। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६३।। ५. सुखबोधा, पत्र १४ : पत्तिएणं ति प्रीत्या साम्नैव।
७. सुखबोधा, पत्र १४ । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४३ : धार्मिक जीतं धम्मज्जीत, इकारस्य इस्वत्वं
काउं। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४।
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