Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : ४७ SENSSISTAN स्याद्वाद और सप्तभंगीनय ( आधुनिक व्याख्या Jain Education internatio 9): 5 सम्पादक-प्रो० ० सागरमल जैन 湯 लेखक डॉ0 भिखारीराम यादव सच्च लोगम्मि सारभूयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी -५ ww.jaidelibrary.org rsonal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : ४७ सम्पादक-प्रो० सागरमल जैन स्याद्वाद और सप्तभंगीनय ( आधुनिक व्याख्या ) भूमिका लेखक प्रो० सागरमल जैन लेखक डॉ० भिखारीराम यादव प्राध्यापक दर्शनशास्त्र एस० एन० सिन्हा महाविद्यालय औरंगाबाद (बिहार) पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५... Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सहयोग-जैन युवक संघ, बम्बई प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५ फोन-६६७६२ संस्करण : प्रथम १९८९ मूल्य : रु० .०० Syādvāda Aur Saptabhangi Naya: Adhunika Vyākhyā By Dr. Bhikhari Ram Yadav Price Rs. 40.00 First Edition 1989 मुद्रक रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स कमच्छा, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त यही जैनधर्म के रथ के दो चक्र हैं। जहाँ अहिंसा व्यावहारिक जगत के संघर्षों का समाधान करती है वहाँ अनेकान्त वैचारिक संघर्षों का समाधान करता है। अपने विरोधी के विचारों में भी सत्यता का दर्शन करना यह अनेकान्त दृष्टि की विशेषता है। आज विश्व में हिंसा की ज्वाला धधक रही है और वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। ऐसी स्थिति में अहिंसा और अनेकान्त ही शान्ति और समन्वय का मार्ग दिखा सकते हैं। पूर्व में हमने विद्याश्रम शोध संस्थान से अहिंसा पर एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है अतः यह आवश्यक था कि दूसरे पक्ष अनेकान्त पर भी एक उच्चकोटि के ग्रन्थ को प्रकाशित किया जाये। अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी एक दूसरे के पूरक हैं। सप्तभंगी अनेकांत की भाषायी अभिव्यक्ति का माध्यम है। आधुनिक तर्कशास्त्र के विचारकों ने भी इसके महत्त्व को स्वीकार किया। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक डा० भिखारीराम यादव, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के शोधछात्र रहे हैं तथा वर्तमान में एस० एन० सिन्हा महाविद्यालय, औरंगाबाद ( बिहार ) में दर्शन के प्राध्यापक हैं। उन्होंने लगभग ३ वर्ष तक कठोर श्रम करके स्याद्वाद और सप्तभंगी जैसे जटिल तार्किक सिद्धांत का अध्ययन करके यह ग्रंथ लिखा है। प्रस्तुत शोधनिबन्ध में उन्होंने न केवल जैन दृष्टिकोण से अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी की व्याख्या की है, अपितु अन्य भारतीय दर्शनों एवं पाश्चात्य दर्शनों के साथ इसका मूल्यांकन कर तुलनात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया है, साथ ही समकालीन प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के सम्बन्ध में इसकी वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की है। इस ग्रन्थ पर उन्हें सन् १९८३ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की थी। __इस ग्रन्थ की भूमिका के रूप में हमने प्रो० सागरमल जैन का एक आलेख प्रकाशित किया है; वस्तुतः यह आलेख इस ग्रन्थ की पूर्व भूमिका के रूप में ही है और इस ग्रन्थ को समझने हेतु उसका अध्ययन आवश्यक - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। हम प्रो० सागरमल जैन के अत्यन्त आभारी हैं कि उन्होंने इस ग्रन्थ के विषय चयन से लेकर प्रकाशन तक की समस्त प्रक्रियाओं में सूत्रधार की तरह कार्य किया है। ग्रन्थ के लेखक डा० भिखारीराम यादव और मार्गदर्शक डा० सागरमल जैन दोनों ही विद्याश्रम के ही अपने लोग हैं अतः उनके प्रति आभार प्रकट करना भी शाब्दिक औपचारिकता ही है। इस अवसर पर हम काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के प्रो० आर० एन० मुखर्जी के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं क्योंकि उन्होंने पाश्चात्य सिद्धान्तों के साथ सप्तभंगी की तुलना में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। ___इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिये हमें डा० रमनलाल सी० शाह की प्रेरणा से जैन नव युवक संघ, बम्बई से १० हजार रुपये का सहयोग प्राप्त हुआ, अतः हम संघ के न्यासियों के आभारी हैं। इसके पूर्व भी संघ ने विद्याश्रम को आर्थिक सहयोग प्रदान किया था। संघ के पदाधिकारियों की जैन विद्या के प्रकाशनों के प्रति यह रुचि अनुकरणीय है । इस ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रक्रिया में डा० शिव प्रसाद, डॉ. अशोक कुमार एवं श्री महेश कुमार से सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ है अतः हम उनके भी आभारी हैं। इसके सुन्दर और द्रुत गति से मुद्रण के लिये रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स के प्रति आभार प्रकट करना भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। ग्रन्थ की महत्ता और मूल्यवत्ता के सम्बन्ध में मैं तो अधिक कुछ नहीं कह सकता, विद्वानों और पाठकों की प्रतिक्रिया ही इस ग्रन्थ के प्रकाशन की मूल्यवत्ता का आधार होगी। भवदीय भूपेन्द्र नाथ जैन मंत्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका स्यावाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण : स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों में रहो है, सम्भवतः उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद", "सम्भवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में probable, may be, perhaps, some how आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है। किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं। दूसरे अनेक बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में होता है। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता। स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती है, उसका मूल कारण उसे तिङन्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, अमतचन्द्र, मल्लिपेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात्यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ संबंधित होने पर वाक्य में Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है।' इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है । मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है । मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सजग थे कि आलोचक था जनसाधारण द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ " एव" शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे "स्यादस्त्येव घटः" अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है । यह स्पष्ट है कि “एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है । "स्यात्" तथा " एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। वस्तुतः इस प्रयोग में “एव” शब्द 'स्यात्' शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और “स्यात्” शब्द “एव” शब्द की निरपेक्षता एवं एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान प्रस्तुत करते हैं । अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं कहा जा सकता है । “वाद” शब्द का अर्थ कथनविधि है । इसप्रकार स्याद्वाद सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है । वह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तु तत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस १. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्य प्रति विशेषक | स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ -आप्तमोमांसा १०३ | २. सर्वथात्व निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः । ३. स्यादित्यव्ययमनेकांतद्योतकं । - स्याद्वादमंजरी - पंचास्तिकाय टोका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य " अनुक्त" अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं ( पर्यायों ) का निषेध न करें । वस्तुतः स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने । संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकांत भी है । सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथन-पद्धति या वाक्ययोजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की संभावना का निषेध करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है । इसी प्रकार अनेकांतवाद भी वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर अनेक निर्णय ( कथन ) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकांत वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की सम्भाव्यता का सिद्धांत है । जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'सर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकांतः' अर्थात् अनेकांत मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है । स्याद्वाद के आधार सम्भवतः यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है ? स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं १. वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता, २. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, तथा ४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य को सीमितता एवं सापेक्षता । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अ) वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मकता सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं । वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसको पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि आदि। यह तो हई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुन: यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों ( सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच जावेगी । अतः यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुँज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते है ।' अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है । एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायद ष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है । पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति १. कीदृशं वस्तु ? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित् अस्तित्वनास्तित्देकत्वानेकत्व नित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् । -स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; २५३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचार धाराओं के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया ।' जिनोपदिष्ट यह त्रिपदो ही अनेकान्तवादी विचार-पद्धति का आधार है। स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धी विपूल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप को सूचक है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन् ! जीव नित्य या अनित्य है ? हे गौतम ! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी। भगवन् ! यह कैसे ? हे गौतम ! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय दष्टि से अनित्य ।२ इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि-हे सोमिल ! द्रव्य-दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं ( पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ है किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपरोक्त एक-दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्म-युगलों को एक साथ उपस्थिति अनुभव सिद्ध है। एक हो आम्रफल खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और पुत्रत्व के दो विरोधो गुण अपेक्षा भेदसे एक ही व्यक्तिमें एक ही समयमें साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है। भिन्न१. उत्पादव्ययध्रौव्युक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र ५-२९ २. गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया-दव्वठ्ठयाए सासया भावट्ठयाए असासया-भगवती सूत्र ७-३-२७३ । ३. भगवतीसूत्र--१-८-१० । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) भिन्न अपेक्षाओं से एक हो व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है अथवा एक हो वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है । जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि ( जोवन -संजीवनी) भी है । अतः यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति देखी जाती है । यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधो धर्म युगलों को उपस्थिति तो होती है, किन्तु सभी विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं होती है । इस सम्बन्ध में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है - "यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जावेगा । अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है । किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताअनित्यता, एकत्व - अनेकत्व, अस्तित्व - नास्तित्व, भेदत्व - अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है । आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो face है वही अनित्य भी है । २ वस्तु एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग व्यवच्छेदिका में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद की मुद्रा से युक्त हैं, कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता । यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, हम क्या करें ? बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं ? पुनः हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना १. धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ - उद्धृत तोर्थंकर महावीर - डॉ० भारिल्ल २. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेवासत्, यदेवनित्यं तदेवानित्यं- - समयसार टीका (अमृतचन्द) ३. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिमेदि वस्तु — अन्ययोगव्यवच्छे दिका ५ । , Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहते हैं, वह है क्या ? जहाँ एक ओर द्रव्य को गण और पर्यायों का आश्रय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है। गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षितता और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक दृष्टि से कैसे सम्भव है ? इसलिए जैन आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के सम्भव नहीं है।' (ब) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप : यह तो हई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप का ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या है; हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और जिज्ञासा को सन्तुष्टि के लिए ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं : १. इन्द्रियाँ और २. तर्कबुद्धि । मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्ष । मानव इन्द्रियों की क्षमता सीमित है, अतः वे वस्तुतत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, वह पूर्ण नहीं हो सकता है। इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम इन्द्रिय संवेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह हआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के विचार को अपने १. न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् । -अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ४, पृ० १८५३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रान्त हो जायेगा। उदाहरणार्थ एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लग कर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें स्थिर प्रतीत होती है । दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने पर बड़ी दिखाई देती है। एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनुभविक ज्ञान सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं । इन्द्रिय सम्वेदनों को उन सब अपेक्षाओं (Conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अतः ऐन्द्रिकज्ञान दिक्, काल और व्यक्ति सापेक्ष ही होता है। किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है। किन्तु क्या ताकिक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है ? प्रथम तो तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय सम्वेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, दूसरे ताकिक ज्ञान वस्तुतः एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है। बौद्धिक चिन्तन कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचार विधाओं से घिरा हुआ है और अपनी इन विचार विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही होगा। तर्कबुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध या असम्बन्ध की ही सूचना प्रदान करती है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान सम्बन्ध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। क्योंकि सभी सम्बन्ध (Relations) सापेक्ष होते हैं। (स) मानवीय ज्ञान को सीमितता एवं सापेक्षता: वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है । अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सत्य, सत्य न रह करके असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व न केवल उतना ही है जितना कि हम इसे जान पा रहे हैं । मनुष्य की ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्क बुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती । साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। जैन दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।' और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही पास है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। अतः ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का निषेध नहीं करते हए अपनी बात कह सके । हम अपने ज्ञान की सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (Possibilities) को निरस्त नहीं कर सकते हैं । क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है ? यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है। इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जब कि दूसरे कुछ विचारकों के अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया ने ने "स्याद्वादमंजरी" की भमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य बताया है। जबकि मुनि श्री नगराजजी ने "जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान" नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने भर को ही 1. “We can only know the relative truth, the real truth is known only to the Universal Observer." -Quoted in Cosmology Old and New p. XIII. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्यान्नास्ति से परे वह भी नहीं है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तू जगत के ज्ञान का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का विषय अनन्त धर्मात्मक वस्तु है। अतः सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त गुणों को अनन्तअपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या वैषयिक ज्ञान (Objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित हैं। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरपेक्ष हो सकता है क्योंकि वह विकल्प रहित होता है । सम्भवतः इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थतः तो वह आत्मा को ही जानता है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है। (द) भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य को सीमितता और सापेक्षता : ___ सर्वज्ञ या पूर्ण के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह सापेक्षिक बन जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण है। "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है। अतः भाषा पूर्ण सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नहीं कर सकती है। प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तू-धर्म हैं, उतने शब्द नहीं हैं । अतः अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही। पुनः मानव की जितनी अनुभूतियाँ हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक-पृथक शब्द नहीं हैं । हम गुड़, शक्कर, आम आदि की मिठास को भाषा में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि सभी को मिठास के लिए अलग-अलग शब्द नहीं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) हैं। आचार्य नेमिचन्द्र 'गोम्मटसार' में लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों का केवल अनन्तवाँ भाग ही कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार जीवकाण्ड ३३४)। चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाय, किन्तु निरपेक्ष कथन तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा भ्रान्ति होने की संभावना रहती है। इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि जगत में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या नय से गर्भित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अतः वक्ता का कथन समझने के लिए भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है । पुनश्च जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल भी रहे हुए हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है। अतः किसी भी कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) ही रह जावेंगे और एक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न' इसीलिए कहा है कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रान्ति भी नहीं होने देता है । स्याद्वाद और अनेकान्त: ___ साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते हैं।' अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है। किन्तु फिर भी दोनों में थोड़ा अन्तर है । अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ का द्योतक है। जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव माना है। अनेकान्त १. स्याकारः सत्यलाञ्छनः । २, ततः स्याद्वाद अनेकांतवाद-स्याद्वादमंजरी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य । अनेकान्त वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक | अनेकान्त वस्तुस्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति । अनेकान्त दर्शन है, तो स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग । विभज्जवाद और स्थाद्वाद : विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती है | सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें ।" इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक ! मैं विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं । विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है । जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित ? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो सकते । किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही आराधक हो सकते हैं। इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों को सोना अच्छा है और कुछ का जागना । पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्माओं का जागना । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है । प्रश्नों के उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा वस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है । इससे वक्ता का विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है । बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है । शून्यवाद और स्याद्वाद :४ भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों को अस्वीकार १. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा - सूत्रकृतांग - १।१।४।२२ । २. मज्झिमनिकाय - सूत्र ९९ ( उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० ५३) । ३. भगवतीसूत्र १२-२-४४३ ॥ ४. देखिए - शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख - पं० दलसुखभाई मालवणिया । - आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २६५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा । जबकि भगवान् महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत करके एक विधिमार्ग अपनाया । भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था । दोनों में फर्क इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद में एक विधायक दृष्टि है । शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थं सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय नय के आधार पर प्रतिपादित करता है । शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है । शून्यवाद अपने निष्कर्षों में निषेधात्मक है और स्याद्वाद्व विधानात्मक है । शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण तार्किक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् नहीं है । जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत करता है कि वस्तुशाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है, असत् भी है । एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता- शून्यता को धारणा और स्याद्वाद द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है । किन्तु जहाँ शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस सदोष एकान्त को निर्दोष बना देता है । दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो वह अपनी निषेधात्मक और विषेधात्मक दृष्टियों का ही है । शून्यवाद का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन दर्शन का वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है । किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो एक ही है । इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और महावीर ने प्रस्तुत की थी । बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद । इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुखभाई का लेख 'शून्यवाद और स्याद्वाद' विशेष रूप से द्रष्टव्य है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) सप्तभंगी सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है । हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभीकभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" (विधि) और "नहीं है" (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं । अर्थात् सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभति को प्रगट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या "अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और "नहीं है" की भाषायो सीमा में बाँध कर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।' सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य ये तीन असंयोगी मौलिक भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य, यह त्रिसंयोगी भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, इन तीन ही रूप में होती है। अतः उससे तीन ही मौलिक भंग बनते हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणितशास्त्र के संयोग नियम (Law of Combination) के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न कम न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार के ही हो सकते हैं। अतः जैन आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था निर्मूल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एक-एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा सकती हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं । श्वेताम्बर आगम भगवतीसुत्र में षट्प्रदेशी स्कन्ध के संबंध में जो २३ भंगों की १ (अ) सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतोगीयते । -स्याद्वादमंज़री कारिका २३ की टीका । . (ब) प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी। -राजवार्तिक १-६ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) योजना है, वह वचन भेद कृत संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही हैं।' पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं हैं । सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किक आकार (Logical forms) मात्र हैं। उसमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को मान्य नहीं हो सकताउदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन नहीं है, अपित कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है । जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं, जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे निम्न सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। १. देखें-जैन दर्शन-डॉ. मोहनलाल मेहता पृ. ३००-३०७ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरब842U ( १८ ) सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है :चिह्न अर्थ यदि-तो(हेतुफलाश्रित कथन) अपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (और) युगपत् (एकसाथ) अनन्तत्व व्याघातक उद्देश्य विधेय भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति अ उ वि है यदि द्रव्यकी अपेक्षासे विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है। स्यात् नास्ति अ- उवि नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। (अ', उ वि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से स्यात् अस्ति नास्ति च अ उ वि नहीं है वि , ही विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। ((अ अ2) य उ यदि द्रव्य और पर्याय दोनों स्यात् अवक्तव्य अवक्तव्य है ही अपेक्षा से एक साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दो अलग-अलग कथन हो सकते हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद् अस्तिच (अ'- उ वि है. अवक्तव्यच 3(अ अ2)य उ) अवक्तव्य है अथवा अ उ वि है. (अ)य-उ अवक्तव्य है स्याद् नास्तिच (अ'- उ वि नहीं है. अवक्तव्य च २(अ' अ)य - उ ( अवक्तव्य है यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। अथवा (अ'- उ वि नहीं है. । (अ००)य- उ अवक्तव्य है अवक्तव्यच स्याद् अस्तिच, (अ' उ वि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार नास्ति च अ उ वि नहीं है. करते हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय दृष्टि ((अ)य उ अवक्तव्य है से विचार करते हैं तो अथवा आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अपनी अनन्त अपे(अ' उ वि है. क्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अव) अ उ वि नहीं है. क्तव्य है। (अ अ)य- उ अवक्तव्य है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाएँ मानी हैं, उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है उसमें वस्तु की अवस्थाओं ( पर्यायों ) एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें तो ये अपेक्षाएँ भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है। ___ इस सप्तभंगी का प्रथम भंग "स्यात् अस्ति" है। यह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि । इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात्, "नास्ति" नामक भंग वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर-चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि । मात्र इतना ही नहीं यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहाँ प्रथम भंग यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि “सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च" अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गण धर्मों की सत्ता भी मान ली जायेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अतः वस्तु में पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। सामान्यतया इस द्वितीय भंग को “स्यात् नास्ति घटः" अर्थात् किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्मा विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। शंकर प्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। 'स्यात् अस्ति घटः' और 'स्यात् नास्ति घटः' में जब स्यात् शब्द को दष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है तो आत्म-विरोध का आभास होने लगता है। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य को दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं। यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय यह सिद्धान्त संशयवाद या आत्म विरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है और द्वितीय भंग में "स्यान्नास्त्येव घटः" का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है ऐसा करेंगे तो आभासी रूप से ऐसा लगेगा कि दोनों कथन विरोधी हैं। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त "स्यात्" शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है। दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व । पुनः दोनों भंगों के "अपेक्षाश्रित धर्म" एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर-चतुष्टय के हैं । अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्म Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विरोध नहीं है । मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में उस विधेय पद ( Predicate ) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है । यदि “ नास्ति" पद को विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुनः यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है ? यदि यह कहा जावे कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, किन्तु पर द्रव्यादि घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं ? यद्यपि यहाँ पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का नहीं, अपितु घट में पर द्रव्यादि का भी निषेध करना चाहते हैं । वे कहना यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में अपेक्षा नहीं बदली है । यदि प्रथम भंग से यह कहा जावे कि घड़ा मिट्टी का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से हैं । अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है । यहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है । द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न- भिन्न हैं । दूसरे यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि परचतुष्टय वस्तु की सत्ताका निषेधक नहीं हो सकता है । वस्तु में परचतुष्टय अर्थात् स्व-भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो होता है किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है । क्या यह कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं ? इस कथन में जैनाचार्यों का आशय तो यही है कि टेबल कुर्सी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है । अतः परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह कहने की अपेक्षा यह कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग होगा । विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अतः यहाँ द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं : सांकेतिक रूप उदाहरण (1) प्रथम भंग-अ उ वि है (1) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) द्वितीय भंग-अ उ नहीं है का विधान किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंगमें उसी धर्म ( विधेय) का निषेध कर देना। जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (2) प्रथम भंग-अ उ वि है (2) प्रथम भंग में जिस धर्म का द्वितीय भंग-अऊ वि है। विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है। जैसे-द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है पर्यायदृष्टि से घड़ा अनित्य है। (3) प्रथम भंग-अ उ वि है (3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को द्वितीय भंग-अ"-उवि नही है पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना। जैसे-रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है। रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन है। अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है। अथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं है। (4) प्रथम भंग-अ उ है (4) जब प्रतिपादित कथन देश या द्वितीय भंग-अ उ नहीं है काल या दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश-काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर देना। जैसे-27 नवम्बर की अपेक्षा से मैं यहाँ पर हूँ। 20 नवम्बर की अपेक्षा से मैं यहाँ पर नहीं था। द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम रूप में एक ही धर्म का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहाँ दसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध धर्मों का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी उपस्थित नहीं रहे । इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो। तीसरा रूप तब बनता है, जबकि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति हो न हो। चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जब कि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो । द्वितीय भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है। तृतीय रूप से अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है। सप्तभंगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है अतः यह विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है ? सामान्यतया यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहते हुए सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रतिपादन करने वाला कोई शब्द नहीं है। अतः विरुद्ध धर्मों की एक साथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भंग की योजना की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है। यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डॉ० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है(१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् __ कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। (२) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत्, असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे-"तदेजति तन्नेजति" अणोरणीयान् महतो महीयान आदि। यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति (३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है उसे "तो वाचो निवर्तन्ते", यद्वाचानभ्युदितं, नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्योः आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) की चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व को धारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (४) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं(१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना। (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना । (३) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय) चारों का निषेध करना। (४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना, अर्थात् यह कि वस्तु तत्त्व अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। (५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना । (६) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं हैं। अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना । यहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन विचार परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि सत और असत् दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है; किन्तु यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा जा सकता। आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप को जिस रूप में वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है। वहाँ कहा गया है कि "आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्तावान है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके।'' इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य माना गया है। आचार्य नेमीचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का अनन्तवा भाग ही कथन किया जाने योग्य है। अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है। इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पांचवें और छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैनं दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय भी है। सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो "है" और "नही है" ऐसे विधि १. सव्वे सरा नियटेंति, तक्का जत्थ न विज्जइ मई तत्थ न गहिया""उवमा न विज्जई अपयस्य पयं नत्थि । आचारांग १-५-१७१ २. पण्णवणिज्जा भावा अणंतभांगो दु अणमिलप्पानं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदनिबद्धो ॥ गोम्मटसार, जीव ३३४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिषेध का युगपद् ( एक ही साथ ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है, अतः अवक्तव्य भंग की योजना है । दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है । तीसरे अपेक्षाएँ अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं (3) (अ) ( य (1 ) ( अ ' अ ) उ अवक्तव्य है, • (2) ~ अवक्तव्य है, २८ ) य उ अवक्तव्य है । सप्तभंगी के शेष चारों भंग सायोगिक हैं । विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं । अतः इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है । सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र : वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं । इसी संदर्भ में डॉ० एस० एस० बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर की एक गोष्ठी में किया था । यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के परिचायक हैं । पुनः जैन दार्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश ( सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य ) और नयवाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य) कहा है । नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । अतः सत्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है । पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है । इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three valued logic) या बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Many valued logic) का समर्थक माना जा सकता है किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें नास्ति नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग क्रमशः असत्य एवं अनियतता (Indeterminate) के सूचक नहीं हैं । सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य-मूल्य का सूचक है यद्यपि जैन विचारकों ने प्रमाण - सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाण - सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चित सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं । असत्य का सूचक तो केवल दुर्नय ही है । अतः सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है । किन्तु मेरे शिष्य डॉ भिखारी राम यादव ने अपने प्रस्तुत शोध निबन्ध में अत्यन्त श्रमपूर्वक सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक सिद्ध किया है और अपने पक्ष के समर्थन में समकालीन पाश्चात्य तर्कशास्त्र से प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। आशा है विद्वज्जन उनके इस प्रयास का सम्यक् मूल्यांकन करेंगे। आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कि मेरे ही शिष्य ने चिन्तन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है । हम गुरु-शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है यह विवाद हो सकता है यह निर्णय तो पाठकों को करना है; किन्तु अनेकान्त शैली में अपेक्षाभेद से दोनों भी सत्य हो सकते है । वैसे शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय गुरु के लिए परम आनन्द का विषय होता है क्योंकि वह उसके जीवन की सार्थकता का अवसर है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि स्याद्वाद और सप्तभंगी एक दुरूह विषय है, फिर भी लेखक ने उसे सहजढंग से प्रस्तुत किया है, उसका यह प्रस्तुतीकरण स्याद्वाद और सप्तभंगी के अध्ययन के क्षेत्र में वर्तमान में एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है । प्रो० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन स्याद्वाद जैन-दर्शन की अपनी विशिष्टता है। जैन-दर्शन में इसका इतना अधिक महत्त्व है कि यह जैन-दर्शन का पर्याय ही माना जाता है। वस्तुतः स्याद्वाद जैन-दर्शन का प्राण है। सम्पूर्ण जैन दर्शन इसी पर आधारित है। स्याद्वाद "स्यात्" और "वाद" इन दो शब्दों से निष्पन्न है। “स्यात्" का अर्थ है दृष्टिकोण-विशेष या अपेक्षा-विशेष और "वाद" का अर्थ है कथन या प्रतिपादन । इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा स्यात् पूर्वक वाद अर्थात् सापेक्षिक प्रतिपादन । __ जैन दर्शन के अनुसार वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं (अनन्त धर्मकं वस्तु)। वस्तु में सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, भावअभाव आदि अनेक परस्पर विरोधी गुण-धर्म पाये जाते हैं। इन अनन्त गुण-धर्मों के कारण ही वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा जाता है। वस्तु का यह अनेकान्तात्मक स्वरूप स्याद्वाद के द्वारा मुखरित होता है। इसीलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद का वाचक कहा जाता है। स्याद्वाद का यह भाषायीरूप जिन प्रकथनों से अभिव्यक्त होता है, उसी को सप्तभंगी कहते हैं। हमारी भाषा “विधि" और "निषेध" से आवेष्टित है। हमारे सभी प्रकथन "है" और "नहीं है" इन दो ही प्रारूपों में अभिव्यक्त होते हैं। सामान्य तर्कशास्त्र भी प्रकथन के विधि और निषेध इन दो ही मानदण्डों को अपनाता है। किन्तु कभी-कभी ऐसी समस्याएँ भी आती हैं जब केवल विधि-मुख से या केवल निषेध-मुख से कथ्य को स्पष्ट करना असम्भव हो जाता है। ऐसे भी विकल्प होते हैं जिनका प्रतिपादन "है"-(विधि) और "नहीं है" (निषेध) से नहीं हो पाता है। ऐसी परिस्थिति में एक तीसरे विकल्प का सहारा लेना पड़ता है। जिसे जैन दर्शन में अवाच्य या "अवक्तव्य" कहा जाता है। इन्हीं तीन "है", "नहीं है" और "अवक्तव्य" -विकल्पों से जैन दर्शन सात प्रकार का प्रकथन तैयार करता है। जिसे सप्तभंगी कहते हैं। वस्तुतः सप्तभंगी मूलरूप से "है" (अस्ति), "नहीं है" (नास्ति) और 'अवाच्य' (अवक्तव्य) पर ही आधारित है । इन तीनों मूलभूत Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) भंगों से सात ही भंग तैयार होते हैं। इसे जैन आचार्यों ने गणितशास्त्र (Mathematics) के आधार पर सिद्ध किया है। यदि अस्ति = अ, नास्ति = ब और अवक्तव्य = स है तो इनके संयोग से अपुनरूक्त भंग सात ही बनेंगे-अ,ब,अब,स,अस, बस और अबस। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या सप्तभंगी के ये सातों कथन तर्कतः सत्य हैं या इनमें सत्यता, असत्यता ऐसी दो ही कोटियाँ हैं ? क्या ये मात्र तार्किक प्रारूप (Logical Form) हैं ? क्या आधुनिक तर्कशास्त्र के विविध सिद्धान्त जैसे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Two Valued Logic), त्रि-मल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three Valued Logic) बहु-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Many Valued Logic), मानक तर्कशास्त्र (Modal Logic), संभाव्य तर्कशास्त्र (Probability Logic) इत्यादि से इनका कोई सम्बन्ध है ? क्या इन सप्तभंगों का सत्य मूल्यांकन सम्भव है ? क्या सप्तभंगी त्रि-मूल्यात्मक है ? अथवा यदि यह त्रि-मूल्यात्मक नहीं है तो क्या यह सप्त-मूल्यात्मक है ? आदि-आदि। प्रस्तुत प्रबन्ध में इन्हीं समस्याओं को लेकर जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या करने का प्रयत्न किया। गया है। इस शोध प्रबन्ध को कूल छ: अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय "अनेकान्तिक दृष्टि का विकास" है। यह अध्याय दो विभागों एवं छः उप-विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में ईसापूर्व छठीं शताब्दी के दार्शनिक चिन्तन की स्थिति का चित्रण है। इस विभाग में क्रमशः उपनिषदों में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं, बौद्धपिटक साहित्य में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं और जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का प्रस्तुतीकरण हुआ है। द्वितीय विभाग में दार्शनिक चिन्तन में उपलब्ध विरोधसमाधान या समन्वय के प्रयत्न को चर्चा है, जो उपनिषदों, बौद्धपिटक साहित्य और जैनागम साहित्य के आधार पर की गयी है। इसी प्रसंग में उपनिषदों के अनिर्वचनीय दृष्टिकोण, बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण और जैन परम्परा के समन्वय के प्रयास पर भी विचार किया गया है। इसके साथ ही बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण को तीन रूपों में अभिव्यक्त किया गया है-एकान्तवाद का निषेध, अव्याकृतवाद और विभज्यवाद। जैन परम्परा में जिस समन्वय दृष्टि का विकास हुआ उसका आधार महावीर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) की विधायक दृष्टि, वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और अनेकान्त की अवधारणा है। इस प्रकार इस अध्याय में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि किस प्रकार यह समन्वयवादी विचारधारा उपनिषद् काल से चलकर बौद्धागमों में होती हई जैन परम्परा में विकसित होकर स्याद्वाद के रूप में परिणत हो जाती है। जैन विद्वानों की यह मान्यता है कि यद्यपि स्याद्वाद के मूलतत्त्व आगम ग्रन्थों में हैं, किन्तु उसका विकास क्रमशः हुआ है। इसका इस अध्याय में विस्तृत विवेचन है। उपनिषद् काल में विश्व के मूलतत्त्व को लेकर विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तर प्रचलित थे। सत्वादी, असत्वादी, चैतन्यवादी, अचैतन्यवादी आदि-आदि। बौद्ध पिटक ग्रन्थों में ६२ मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख है। जैनागम सूत्रकृतांग में भी क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी इन चार मूल दृष्टिकोणों का विस्तृत विवेचन है। किन्तु, उपनिषद् काल से ही इन परस्पर विरोधी विचारधाओं के बीच समन्वय के भी प्रयास चल रहे थे। उपनिषदों में ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध हैं जो अनेक विरोधी विचारधाराओं को अपने में समाहित करते हैं । देखिए तदेजति तन्नेजति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तद सर्वस्यास्य बाह्यतः ।। -ईश० ५. और भी :अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् । -कठ०, १-२-२०. भगवान् बुद्ध ने तत्कालीन शाश्वत्वादी, उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी मान्यताओं की समालोचना की और कहा कि सबके सब मन्तव्य दोषपूर्ण हैं क्योंकि ये सभी तत्त्व के एक-एक पक्ष का ही निरूपण करते हैं। वस्तुतः ये सभी मतवाद एकान्तिक हैं और इसलिए मिथ्या हैं। यही कारण है कि भगवान् बुद्ध ने सभी मतवादों को त्याज्य बताया है परमन्ति दिट्ठीसु परिब्बसानो, यदुत्तरिं कुरुते जन्तु लोके । हीनाति अञ्चे ततो सब्बमाह, तस्सा विवादानि अवीतिवत्तो ॥१॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) अर्थात् इस संसार में जो अपनी दृष्टि को उत्तम मान बैठता है, उस कारण लड़ाई करता है और दूसरों को नीच समझता है। वह विवादों से परे नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा कि ज्ञानीजन ऐसी दृष्टि में नहीं पड़ते हैं दिट्ठिम्मि सो न पच्चेति किञ्च । किन्तु तत्कालीन सभी मतवादों के निषेध करने के कारण ही बौद्ध दर्शन शून्यवाद की ओर अग्रसर हो जाता है। जबकि बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण के विपरीत महावीर ने विधायक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने तत्कालीन सभी मन्तव्यों को स्वीकार कर उनमें समन्वय का प्रयत्न किया। महावीर के अनुसार उक्त सभी मन्तव्य यदि पूर्ण सत्य नहीं हैं तो वे पूर्णतः असत्य भी नहीं हैं। अतः महावीर ने तत्कालीन सभी मतवादों में सत्यांश देखा और सबका समन्वय किया। कहा भी गया है यथा सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारे ते विउस्सिया ॥ -सूत्रकृतांग, १-२-२३. अर्थात् जो पुरुष अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं-दृढ़रूप से आबद्ध हैं । इसी समन्वयात्मक प्रवृत्ति से जैनों की विधायक दृष्टि का विकास हुआ उनके अनुसार नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि एक ही सत् के अनेक पक्ष हैं। ये सभी पक्ष एक ही काल में सत्ता में विद्यमान रहते हैं। यही नहीं, उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को अनन्तधर्मात्मक बताया और कहा कि नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि अनेक परस्पर विरोधी गुण-धर्म प्रत्येक वस्तु में पाये जाते हैं। यही वस्तू की अनन्तधर्मात्मकता है। वस्तु की इसी अनन्तधर्मात्मकता का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है। इस प्रकार इन सभी विषयों का प्रस्तुत अध्याय में विस्तृत विवेचन है। इस प्रबन्ध का दूसरा अध्याय "स्याद्वादः एक सापेक्षिक दृष्टि" है। इस अध्याय में स्याद्वाद के अर्थ, “स्यात्" शब्द के व्युत्पत्तिगत् अर्थ, स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में उत्पन्न विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनके Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) निराकरण, स्यात् पद के वास्तविक अर्थ तथा स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सम्बन्ध के संदर्भ में एक विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में वाच्य-वाचक भाव सम्बन्ध है। “अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः ।" । क्योंकि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक होने से अनेकान्तात्मक हैं और वस्तु की इस अनेकान्तात्मकता का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है। किन्तु वस्तु का यह अनेकान्तात्मक स्वरूप स्याद्वाद के माध्यम से ही अभिव्यक्त होता है। इसलिए स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में वाच्य-वाचक या आधारआधेय सम्बन्ध है। अनेकान्तवाद वाच्य है तो स्याद्वाद उसका वाचक है। स्याद्वाद "स्यात्" और "वाद" इन दो शब्दों के संयोग से निष्पन्न है। "स्यात्" का अर्थ है, दष्टिकोण विशेष या अपेक्षा और वाद का अर्थ है कथन या प्रतिपादन। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा स्यात् पूर्वकवाद अर्थात् सापेक्षतापूर्ण कथन करना। किन्तू, इस स्याद्वाद के संदर्भ में विभिन्न प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ हैं। उन भ्रान्त धारणाओं के कारण के रूप में "स्यात्" पद को ठहराया जाता है। यह कहा जाता है कि स्याद्वाद की समस्त भ्रान्तियों का मूल “स्यात्" शब्द ही है। इसी स्यात् शब्द के अर्थ के संदर्भ में विभिन्न विचारकों ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं। इस अध्याय में उन सभी दार्शनिकों के मन्तव्यों को एकत्रित करके उनकी भ्रान्तियों का निराकरण और “स्यात्" शब्द का युक्तियुक्त अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। तत्पश्चात् “ज्ञान और वचन की प्रामाणिकता" नामक तीसरा अध्याय आता है। इस अध्याय में ज्ञान एवं कथन की प्रामाणिकता के प्रश्न को लेकर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसी प्रसंग में प्रमाण, नय और दुर्नय की भी विवेचना प्रस्तुत की गयी है। ___ जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का स्वरूप इतना गुहय है कि उसका पूर्णतः ज्ञान प्राप्त करना एक सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव है और यदि किसी तरह उसका ज्ञान प्राप्त हो भी जाय तो उसका कहना असम्भव है, क्योंकि वाणी को शक्ति अत्यन्त सीमित है। कहा भी गया है Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अण्णभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पण, अनंतभागो सुदणिबद्धो ॥ - विशेषावश्यक भाष्य, ३५. अर्थात् संसार में ऐसे बहुत से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं । शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय होता है । इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्र में निबद्ध है । वस्तुत: यह कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की ही बात मात्र सत्य है । इसलिए वस्तु के संदर्भ में सापेक्षिक कथन करना आवश्यक हो जाता है । जैन दर्शन के अनुसार ये सापेक्ष कथन प्रमाण हैं । इन्हीं को सम्यक् नय भी कहा जाता है । वस्तु के एक-एक धर्म का निरपेक्षतः कथन करने वाले सभी नय, दुर्नय हैं और वे दुर्नय होने से मिथ्या हैं, किन्तु वे जब सापेक्ष होते हैं तो सम्यक् नय और यथार्थ हो जाते हैं । नय को सम्यक् नय होने के लिए जैन दर्शन में एक परिमाणक के रूप में " स्यात् " पद की योजना है । यह " स्यात्" कथन के पूर्व में आकर कथन को सापेक्ष बनाता है । वस्तुतः स्यात् पूर्वक सापेक्ष कथन ही प्रामाणिक है । इस प्रबन्ध के चौथे अध्याय में भंगवाद के विकास को स्पष्ट करते हुए उन भंगों की आगमिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । जैन दर्शन के अनुसार सप्तभंगी का विकास आगम ग्रन्थों, विशेषतः भगवतीसूत्र या वियाहपति से ही हुआ है । सप्तभंगी के चार भंग तो उपनिषद् काल से ही चले आ रहे हैं - सत्-पक्ष, असत्-पक्ष, उभय पक्ष और अनुभय पक्ष | ये चारों पक्ष बौद्ध दर्शन में भी उपलब्ध हैं । जैनागमों में इन्हीं चारों पक्षों को विकसित करके सात प्रकार का बना दिया गया है । इसी को सप्तभंगी कहते हैं । वस्तुतः सप्तभंगी के पूर्व के चार भंग आगमिक और उत्तर के तीन भंग नवीन हैं जो कि जैनों के द्वारा दिये गये हैं । यद्यपि ये सभी उसी रूप में यहाँ स्वीकृत नहीं हैं जिस रूप में औपनिषदिक् ग्रन्थों में या बौद्धागमों में प्रयुक्त हैं । इनके अर्थ के सम्बन्ध में कुछ परिवर्तन हुआ है । जहाँ बौद्ध दर्शन इन पक्षों को निषेध रूप से प्रयुक्त करता है वहीं जैन दर्शन विधायक रूप अंगीकार करता है । इसीलिए सप्तभंगी के सभी भंगों को विधेयात्मक कहा गया है। इसकी विशद् चर्चा प्रस्तुत अध्याय में है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) जिसे चित्र द्वारा इस प्रबन्ध के पंचम अध्याय में पाश्चात्य प्रतीकवादी और बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी का मूल्यांकन किया गया है । इस अध्याय में यह स्पष्ट किया गया है कि सप्तभंगी न तो द्विमूल्यात्मक है और न त्रिमूल्यात्मक | परन्तु यह सप्त मूल्यात्मक है । इस संदर्भ में जैन विचारकों की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए भौतिक विज्ञान के सिद्धान्त से तुलना की गयी है और उसके आधार पर सप्तभंगी की सप्तमूल्यात्मकता को निर्धारित करने का प्रयत्न किया गया है । भौतिक विज्ञान में यह कल्पना की गयी है कि यदि भिन्न-भिन्न रंग वाले तीन प्रक्षेपक इस प्रकार व्यवस्थित किये जायें कि तीनों के प्रकाश एक दूसरे पर अंशतः पड़ें और प्रत्येक प्रक्षेपक से निकलने वाले प्रकाश को यदि हम एक अवयव मानें तो उनसे सात प्रकार के क्षेत्र का निर्धारण होगा और वे सातों क्षेत्र एक दूसरे से भिन्न होंगे । स्पष्ट किया गया है । इसी प्रकार सप्तभंगी में पूर्व के तीन भंगों को मूल और शेष चार भंगों को उनका सांयोगिक भंग माना जाय तो वे सभी एक दूसरे से भिन्न और अलग-अलग मूल्य वाले होगें । इस बात की चर्चा प्रो० जी० बी० बर्च ने भौतिक विज्ञान के तीन सिद्धान्त - तरंग - सिद्धान्त, कणिका - सिद्धान्त और क्वान्टम थियरी (Undulatory theory, Corpuscular theory and Quantum Theory) के आधार पर की है । जिसका पूर्णतः विवेचन एवं समीक्षण प्रस्तुत अध्याय केप्रारम्भ में किया गया है । तत्पश्चात् सप्तभंगी के सातों भंगों का प्रतीकात्मक प्रारूप और एक चित्रात्मक प्रारूप भी प्रस्तुत किया गया है । सप्तभंगी को प्रतीकीकृत करने के लिए संभाव्यता - तर्कशास्त्र का सहारा लिया गया है । यद्यपि सप्तभंगी संभाव्य नहीं है और न तो इसे संभाव्यात्मक मूल्य ही दिया जा सकता है, क्योंकि सप्तभंगी संभाव्यात्मक नहीं है । यह वस्तु के सन्दर्भ में निश्चयात्मक कथन करती है । किन्तु, संभाव्यता- तर्कशास्त्र में प्रकथन के अनेक सत्यता मूल्यों की अवधारणा है, जिसमें से किसी भी मूल्य को प्राप्त करना सरल है । इसलिए सप्तभंगी हेतु सात मूल्यों को संभाव्यता के आधार पर प्राप्त करना संभव हैं । इसके लिए हमने संभाव्यता- तर्कशास्त्र से आकार ग्रहण किया है, क्योंकि संभाव्यता- तर्कशास्त्र के एक सिद्धान्त से सप्तभंगी की आकृतिगत समानता है । वह इस प्रकार है Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) P (AB) = P (A). P (B) P(AC) = P(A). P (C) P(BC) = P (B).P ( C ) P(ABC) = P(A). P (B). P (C). जिसमें A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनाएँ ( Independent events ) हैं और P संभाव्यता (Probability) रूप परिमाणक है तथा " . " संयोजन ( Conjunction ) का प्रतीक है । यद्यपि सप्तभंगी के प्रत्येक भंग स्वतन्त्र घटनायें नहीं हैं, किन्तु उक्त स्वतन्त्र घटनाओं का व्यवहार उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार सप्तभंगी के तीन मूल भंगों का । इसी व्यावहारिक समानता के कारण हमने स्यादस्त को P (A) स्यान्नास्ति को P ( ~ B) और स्यादवक्तव्य को P ( ~C) माना है । इसमें P " स्यात् " पद का प्रतीक है। इन प्रतीकों का आशय ऊपर के प्रतीकों के आशय से भिन्न हैं किन्तु मात्र उनके प्रतीकों को लेने सप्तभंगी का निम्नलिखित प्रारूप बनता है १. स्यादस्ति = P (A) २. स्यान्नास्ति = P (~B) ३. स्यादस्ति च नास्ति = P (A. ~ B) ४. स्यादवक्तव्य = P (~C) ५. स्यादस्ति चावक्तव्य = P(A.~C) ६. स्यान्नास्ति चावक्तव्य P(~ B. ~C) ७. स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्य च = P (A.~B.~C) इसमें सप्तभंगी के प्रत्येक कथन को विधेयात्मक रूप से ही ग्रहण नहीं किया गया है। ऐसा क्यों किया गया है, इस बात को भी प्रस्तुत प्रबन्ध में विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है निम्न चित्रों के द्वारा भी चित्रित किया जा । सप्तभंगी की सप्तमूल्यता को सकता है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) लाल वायलेट पाला 124 काला KURIA नीला यद्यपि यह चित्रण वेन डाइग्राम जैसा नहीं है, क्योंकि यह उसके किसी भी सिद्धान्त के अन्तर्गत नहीं आता है। लेकिन, यह चित्र सप्तभंगी के सातों भंगों के क्षेत्र-निर्धारण में समर्थ है। इससे सप्तभंगी की सप्तमल्यता निश्चित होती है। वस्तुतः यह कहा जा सकता है कि सप्तभंगी सप्तमूल्यात्मक है। इसके सातों भंगों का तार्किक मूल्य है। इनका यह मूल्यांकन समकालीन तर्कशास्त्रों के द्वारा करना संभव है। इस प्रबन्ध का छठाँ और अन्तिम अध्याय उपसंहार है। जिसमें इस प्रबन्ध का सार प्रस्तुत है। उसमें सप्तभंगी की सप्तभंगिता का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। उसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है और न तो त्रि-मूल्यात्मक है। प्रत्युत् यह सप्त मूल्यात्मक है। इस प्रसंग में इसे बहु-मूल्यात्मक भी कहना अप्रासंगिक नहीं है। ___इस प्रकार प्रस्तुत प्रबन्ध में सप्तभंगी का आधुनिक तर्कशास्त्रीय संदर्भो में पुनर्मूल्यांकन करने का यथाशक्ति प्रयत्न किया गया है। हमारा यह प्रयास रहा है कि इसका कोई भी पक्ष अछूता न रहे । यद्यपि इसका अध्ययन प्रो० संगम लाल पाण्डेय ने त्रि-मल्यात्मक तर्कशास्त्र के संदर्भ में, डॉ० (श्रीमती) आशा जैन ने मानक तर्कशास्त्र के संदर्भ में, प्रो० बारलिंगे ने संभाव्यता के सन्दर्भ में, डॉ० डी० एस० कोठारी ने भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में, प्रो० जी० बी० बर्च ने भौतिक विज्ञान के संदर्भ में, डॉ० महलनविस (सचिव, भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, कलकत्ता) ने सांख्यिकी के सन्दर्भ में, डॉ० आर० एन० मुकर्जी ने संभाव्य तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में और डॉ० सागरमल जैन ने आधुनिक तर्कशास्त्रीय प्रतीकात्मकता के Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) संदर्भ में किया है, फिर भी उसकी सप्तमूल्यात्मकता को किसी ने भी स्पष्ट नहीं किया। किन्तु हमारी दृष्टि में जैन आचार्यों ने सप्तभंगी को सप्त मल्यात्मक ही माना है। इसलिए यह आवश्यक था कि सप्त मूल्यात्मकता के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या का प्रयत्न किया जाय । यद्यपि मुझे अपने इस प्रयास में कितनी सफलता मिली है, यह निर्णय तो विद्वत्जन ही करेंगे। भिखारीराम यादव प्राध्यापक दर्शन एस० एन० सिन्हा कालेज औरंगाबाद (बिहार) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार अब इस शोध-प्रबन्ध को पूरा करने में मुझे जिन-जिन महानुभावों से स्नेह पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है, मैं उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर देना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ । सर्वप्रथम मैं पितृतुल्य निर्देशक विद्वत्-वर पूज्य डॉ० सागरमल जैन एवं पूजनीया माता श्रीमती कमला बाई जैन के पावन आशीर्वाद से इस अनुष्ठान को पूर्ण करने में समर्थ हो सका हूँ । उनके पौरोहित्य के बिना मुझ अकिंचन अग्निहोत्री द्वारा इस कार्य का श्रीगणेश करना तक सम्भव नहीं था । वस्तुतः यह प्रबन्ध उनकी पावन अनुकम्पा का ही प्रतिफल है । एतदर्थ इस महान् सहयोग हेतु उन्हें इन अक्षम शब्दों के द्वारा धन्यवाद देना तो संभव नहीं है, उनके स्नेहपूर्ण बहुमुखी निर्देशन हेतु मैं चिराभारी रहूँगा । इसके साथ ही मुझ पर पूज्य गुरु डॉ० आर० एन० मुकर्जी, रीडर, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का भी कम ऋण नहीं हैं, जिनके तर्कशास्त्रीय निर्देशन के बिना इस निबन्ध का समापन कदापि संभव नहीं था । अतएव मैं उनके सौहार्द्रपूर्ण निर्देशन हेतु कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ । पुनः, पूज्य पिता श्री घुरपत्तर यादव, माता श्रीमती सहदेई के पावन आशीष एवं पत्नी शारदा देवी के सहयोग को भी भुलाया नहीं जा सकता । तदुपरान्त मैं अपने विभागाध्यक्ष प्रो० रामशंकर मिश्र का भी आभारी हूँ, जिनके कार्यकाल में मुझे हर आवश्यक विभागीय सहायता प्राप्त हुई, जिससे समस्त कार्य सहज होता गया । इस प्रसंग में मैं प्रो० एन० एस० एस० रमन ( दर्शन विभाग का० हि० वि० वि०) का भी ऋणी हूँ, क्योंकि उन्होंने मुझे अपने कार्यकाल में पा० वि० शोध संस्थान से उक्त विषय पर कार्य करने की अनुमति प्रदान की थी । इसके साथ ही मैं डॉ० रेवतीरमण पाण्डेय रीडर, दर्शन विभाग, का० हि० वि० वि०, डॉ० एल० एन० शर्मा, प्रोफेसर, दर्शन विभाग, का०हि०वि०वि०, श्री केदार नाथ मिश्र, रीडर, दर्शन विभाग, का०हि०वि०वि०, श्री कमलाकर मिश्र, डॉ० बद्रीनाथ सिंह, प्रो० ए० के० चटर्जी आदि सभी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) गुरुजनों का आभारी हूँ जिनसे मुझे समय-समय पर स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन प्राप्त होता रहा है। इसी प्रसंग में मैं उन तर्कविदों एवं विद्वानों को भी धन्यवाद देता हूँ, जिनकी कृतियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस प्रबन्ध को पूरा करने में सहायता प्राप्त हुई है। खासतौर से मैं पं० दलसुख भाई मालवणिया, प्रो० संगमलाल पाण्डेय, प्रो० बारलिंगे, प्रो० कोठारी, प्रो० जी० बी० बर्च, प्रो० महलनविस, प्रो० मोहनलाल मेहता आदि तर्कविदों का आभारी हूँ। सप्तभंगी की तार्किक व्याख्या का प्राथमिक प्रयास इन्हीं सब विचारकों का रहा है। मैंने इस प्रबन्ध में जो कुछ भी किया है, वह सब इन्हीं के कृतियों से प्राप्त दृष्टि का प्रतिफल है। इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन हेतु मुझे श्री गणपतराज जी बोहरा एवं न्यूकेमप्लास्टिक्स से शोध-वृत्ति प्राप्त हुई अतः उनका भी आभारी हूँ। ___ इसके बाद मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान एवम् इसके पदाधिकारियों यथा-मन्त्री आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन, मंगल प्रकाश मेहता तथा कार्यालय अधिकारी श्री मोहनलालजी को धन्यवाद देता हूँ, जिनसे मुझे यथासंभव आर्थिक, पुस्तकीय एवं अन्य सहायता प्राप्त होती रही है। तत्पश्चात् मैं अपने अनन्य मित्रों डॉ० अरुणप्रताप सिंह, डॉ० रवि शंकर मिश्र, डॉ० श्रीराम यादव, श्री शिवशंकर यादव, डॉ० नरेन्द्र बहादुर और श्री महेन्द्र यादव तथा डॉ० ओम प्रकाश (औरंगाबाद) के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। __इस शोध-प्रबन्ध के प्रूफ-संशोधन में श्री महेश कुमार, डॉ० शिवप्रसाद एवं डा० अशोककुमार सिंह ने अत्यधिक सहयोग किया है इसलिए इन सबके प्रति भी आभार ज्ञापित करता हूँ। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना के रूप में श्रद्धेय गुरुवर्य प्रो० सागरमल जैन का निबन्ध प्राप्त हुआ एतदर्थ उनके प्रति मैं पुनः आभार प्रकट करता हूँ। ( भिखारीराम यादव ) प्राध्यापक दर्शन एस० एन० सिन्हा कालेज, औरंगाबाद (बिहार) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम प्रथम अध्याय : अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ईसा पूर्व छठीं शताब्दी का दार्शनिक चिन्तन १; उपनिषदों, बौद्धपिटक साहित्य और जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें ११; दार्शनिक चिन्तन में उपलब्ध विरोध के समाधान या समन्वय के प्रयत्न १५ औपनिषदिकचिन्तन में उपलब्ध विरोध- समाधान के सूत्र १५; बुद्ध का दृष्टिकोण १८; एकान्तवाद का निषेध १८; अव्याकृतवाद २१; विभज्यवाद २५; जैन परम्परा में समन्वय का प्रयास २८; महावीर का विधायक दृष्टिकोण २९; वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता ३५; अनेकान्तवाद की अवधारणा ४२; द्वितीय अध्याय: स्याद्वाद एक सापेक्षिक दृष्टि स्याद्वाद का तात्पर्य ५०; स्यात् शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ ५६; वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता ६१; मानवीय ज्ञान की अपूर्णता ६२; भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता ६३; स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनका निराकरण ६४; सप्तभंगों में एक ही वस्तु का विधान और निषेध करना ६९; प्रत्येक वस्तु को स्वधर्माश्रयी के साथ ही विरुद्ध धर्म युगलाश्रयी सिद्ध करना ७०; प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना ७१; प्रत्येक भंग को एक निश्चितमूल्य प्रदान न करना ७२; स्यात् पद को अनेकार्थक मानना ७२; स्यात् पद का वास्तविक अर्थ ७२; अनन्तधर्मता का द्योतक ७५; वस्तु में कथ्य धर्म की सापेक्षता का सूचक ७५; प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना ७५; एकान्तता का निषेधक ७५; 'एव' से योजित होकर प्रकथन को निश्वयात्मक बनाना और तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेद करना ७६; अनेकान्तवाद और स्यादवाद का सम्बन्ध ७६; १-४९ ५०-८० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) तृतीय अध्याय : ज्ञान एवं वचन को प्रामाणिकता ८१-११८ ज्ञान की प्रामाणिकता का प्रश्न ८१; यथार्थ ८६; अबाधित्व ८६; अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन या अपूर्व अर्थ प्रापण ८६; अविसंवादित्व या संवादी प्रवृत्ति ८७; प्रवृत्ति सामर्थ्य या अर्थक्रियाकारित्व ८७; वचन की प्रामाणिकता का प्रश्न ८९; १. पर्याप्तिक भाषा ९४:-पर्याप्तिक सत्य भाषा ९४; जनपदसत्य ९५; सम्मत सत्य ९६; स्थापना सत्य ९६; नाम सत्य ९६; रूप सत्य ९७; प्रतीति सत्य ९६; व्यवहार सत्य ९७; भाव सत्य ९७; योग सत्य ९७; उपमा सत्य ९७; तथा पर्याप्तिक मृषा (असत्य) भाषा ९७; अपर्याप्तिक भाषा ९८; अपर्याप्तिक भाषा ९८; उत्पन्न मिश्रक ९८; विगत मिश्रक ९९; उत्पन्न-विगत मिश्रक ९९; जीव मिश्रक ९९; अजीव मिश्रक ९९; जीवाजीवमिश्रक १००; अनन्त मिश्रक १००; परित्त मिश्रक १०१; एवं अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मषाभाषा १०१; आमन्त्रणी भाषा १०१; आज्ञापनीय भाषा १०१; याचनीय भाषा १०१; प्रच्छनीय भाषा १०२; प्रज्ञापनीय भाषा १०२; प्रत्याख्यानीय भाषा १०२; इच्छानुकूलिका भाषा १०२; अनभिग्रहीता भाषा १०२; अभिग्रहीता भाषा १०३; संदेहकारिणी भाषा १०३; व्याकृता भाषा १०३; अव्याकृता भाषा १०३; प्रमाण १०४; नय ११०; दुनय ११५; चतुर्थ अध्याय : जैन न्याय में सप्तभंगी ११९-१६९ भंगवाद का विकास ११९; भंगों की आगमिक व्याख्या १४९; प्रथमभंग १४९; द्वितीय भंग १५२; तृतीय भंग १५७; चतुर्थ भंग १५९; पंचम भंग १६७; षष्ठ भंग १६७; सप्तम भंग १६८ पंचम अध्याय : समकालीन तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७०-२०५ षष्ठ अध्याय : उपसंहार २०६-२२३ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची २२४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ( अ ) ईसा पूर्व छठीं शताब्दी का दार्शनिक चिन्तन ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में मानव को जिज्ञासा-वृत्ति काफी प्रौढ़ हो चली थी । अनेक विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन का बौद्धिक प्रयास कर रहे थे । यद्यपि उनके चिन्तन में तर्क की अपेक्षा कल्पना का ही पुट अधिक था । विश्व की मूल सत्ता का स्वरूप, विश्व की उत्पत्ति का कारण, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता और कर्मों शुभाशुभ के प्रतिफल आदि प्रश्नों पर विचारक अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत कर रहे थे । साथ ही प्रत्येक चिन्तक अपने मन्तव्य को सत्य और दूसरे के मन्तव्य को असत्य बता रहा था । इस प्रकार उस युग में अनेक स्वतन्त्र दार्शनिक अवधारणायें अस्तित्व में आ गयी थीं और दार्शनिक विवाद उग्र रूप धारण कर रहे थे । प्राचीन भारतीय विचारक चिन्तन के लिए किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं थे । उस युग में स्वतन्त्र चिन्तन करने की पूर्णत: छूट थी । मनीषी गण स्व-चिन्तन के आधार पर अपने-अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत कर रहे थे । यही कारण है कि उनके मन्तव्यों में एकरूपता नहीं आ सकी और विभिन्न वादों की धारायें बह चलीं । वस्तुतः हिरियन्ना का यह कथन समुचित ही है कि - उपनिषदों में ठीक क्या-क्या कहा गया है, यह प्रश्न जब पूछा जाता है तब उनके मत परस्पर बहुत भिन्न हो जाते हैं ।"" इसी बात की परिपुष्टि डॉ० राधाकृष्णन् के इस बात से होती है, "क्या उपनिषदों के विचार एक ही लड़ी में पिरोये हुए हैं ? क्या सृष्टि की साधारण व्यवस्था के विषय में कोई निश्चित सर्वमान्य नियम सबमें एक समान पाये जाते हैं ? हम साहस के साथ इस प्रश्न का उत्तर हाँ में नहीं दे सकते । इन उपनिषद्ग्रन्थों में आवश्यकता से अधिक संख्या विचार भरे हुए हैं; अत्यधिक संख्या में सम्भावित अर्थ भरे पड़े हैं; गूढ़ १. द्रष्टव्य : भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ५२ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ये कल्पनाओं और वितर्कों की समृद्ध खान हैं । ..( फिर भी) उपनिषदों के अन्दर दार्शनिक संश्लेषण नाम की कोई वस्तु, जैसी कि अरस्तू, काण्ट अथवा शंकर की पद्धतियों में है, नहीं पायी जाती"।' इसका कारण यही हो सकता है कि प्रत्येक विचारक अपने मन्तव्य को सत्य और दूसरे के मन्तव्य को असत्य बता रहा था। जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके चिन्तन में अनेक प्रकार के विरोध और अनियमिततायें आ गयीं। डा० राधाकृष्णन् ने ही कहा है कि "यह एक युग था जो अद्भुत अनियमितताओं एवं पारस्परिक विरोधों से भरभूर था। "तन्त्र-मन्त्र एवं विज्ञान, संशयवाद एवं अन्धविश्वास, स्वच्छन्द जीवन एवं तपस्या ( आत्मसंयम) साथ-साथ एक दूसरे से मिले-जुले हुए पाये जाते हैं।" २ इस तरह उस युग के विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन के बौद्धिक प्रयासों में निरत पाये जाते हैं। इस सन्दर्भ में उन जिज्ञासू चिन्तकों के समक्ष अनेक समस्याएँ उपस्थित थीं जैसे विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् है ? यदि वह सत् है तो वह पुरुष (चेतन सत्ता ) है या पुरुष से इतर जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक है ? श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस तरह की समस्या उठायी गयी है यथा-इस जगत् का कारण क्या है ? हम कहाँ से उत्पन्न हुए हैं ? हम किसके द्वारा धारित हैं और अन्तिम परिणति कहाँ है ? हम किसके द्वारा प्रेरित होकर सुख-दुःख की व्यवस्था (संसार यात्रा ) का अनुवर्तन करते हैं ? हे ब्रह्मवेत्ताओं! क्या इन सबका कारण ब्रह्म ही है ? केनोपनिषद् में गुरु से शिष्य पूछता है कि “किसकी इच्छा से प्रेरित होकर मन अपने अभिलषित प्रयोजन की ओर आगे बढ़ता है ? किसकी इच्छा से वाणी १. द्रष्टव्य : भारतीय दर्शन भाग १, ( राधाकृष्णन् ) पृ० १२८ । २. वही, पृ० २५० । ३. श्वेताश्वतरोपनिषद् १.१ किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः । अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु कर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास बोलते हैं ? कौन सा देव आँख या कान को प्रेरणा देता है ?'' इस प्रकार इसी तरह की विभिन्न दार्शनिक शंकायें उठाकर पूर्ण रूप से विचार किया गया है जिसका कुछ परिचय हमें उपनिषदों, बौद्ध पिटक ग्रन्थों एवं जैनागम सूत्रकृताङ्ग में मिलता है। इसी आधार पर हम उस युग की दार्शनिक स्थिति का कुछ आकलन कर सकते हैं। सर्व प्रथम उपनिषदों की ओर आयें। (१) उपनिषदों में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें : हमने पूर्व में ही कहा है कि उपनिषदों में किसी भी सुव्यवस्थित दार्श'निक विधा का अभाव है। विभिन्न मनीषियों के दार्शनिक विचार यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उनमें से अनेक परस्पर विरोधी मन्तव्य भी उपलब्ध हैं। जो इस बात के सूचक हैं कि वह युग दार्शनिक चिन्तन को अस्त-व्यस्तता का युग था, उसमें किसी भी सुव्यवस्थित दर्शन का विकास नहीं हो पाया था। उपनिषदों में वे परस्पर विरोधी दार्शनिक मन्तव्य कहाँ-कहाँ उपलब्ध हैं, इसे निम्नलिखित उद्धरणों से समझा जा सकता है । सृष्टि का मूल तत्त्व सत् है या असत् । इस समस्या के सन्दर्भ में हमें दोनों प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। कुछ विचारक उसे सत् कहते हैं तो कुछ विचारक उसे असत् कहते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि "प्रारम्भ में असत् ही था। उसी से सत् की उत्पत्ति हुई।"२ इसी विचारधारा का समर्थन छान्दोग्य उपनिषद् में भी उपलब्ध है । उसमें कहा गया है कि "सर्वप्रथम असत् ही था उससे सत् हुआ और उस सत् से सृष्टि की उत्पत्ति हुई।"३ किन्तु इस 'असत्वादी" विचारधारा के विपरीत "सत्वादी" विचारधारा के तत्त्व भी उपनिषदों में उपलब्ध होते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् १. केनोपनिषद् १.१ केनेषितां वाचामिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति । २. तैत्तिरीय उपनिषद्-२.७ । "असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत ।" ३. छान्दोग्य उपनिषद् -३.१९.१ । "असदेवेदमग्र आसीत् । तत् सदासीत् । तत्समभवत् ।" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या में ही इस "सत्वादी" विचारधारा के समर्थन में कहा गया है कि पहले अकेला सत् ही था। दूसरा कोई नहीं था। उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ।"" बृहदारण्यक उपनिषद् में भी कहा गया है कि "जो कुछ भी सत् है उसकी सत्ता इस लोकातीत सत् से ही है। इस प्रपञ्चात्मक जगत् की सृष्टि इसी सत् से होती है।"२ बृहदारण्यक के इस कथन से भी इसी सत्वादी विचारधारा की ही पूष्टि होती है। इस प्रकार उपनिषदों में सत्वाद और असत्वाद दोनों ही विचारधाराओं के बीज उपलब्ध हैं। इस विश्व का मूल तत्त्व जड़ है या चेतन । इस प्रश्न के सन्दर्भ में भी उपनिषदों में दो प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। कुछ विचारक उसे जड़ कहते हैं तो कुछ विचारक चेतन । बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से संवाद करते हुए कहते हैं कि "विज्ञानघन ! (यह विश्व) इन भूतों से ही समुत्थित होकर इन्हीं में लीन हो जाता है परलोक या पुनर्जन्म जैसी कोई बात नहीं है।" किन्तु इसके विपरीत छान्दोग्य उपनिषद् में चैतन्यवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए कहा गया है कि "पहले अकेला सत् ही था दूसरा कोई नहीं था उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ।" ४ इसके पश्चात् उसके विभिन्न रूपों में उत्पन्न होने की बात कही गयी है। "पहले उससे तेजस, अप् और पृथ्वी इन तीन महाभूतों को उत्पत्ति हुई। फिर अन्न और तब अण्डज-जीवों एवं उद्भिज जीवों की सृष्टि हुई।"५ इस प्रकार उक्त कथन में मूलतत्त्व (सत्) के सोचने की बात को कहकर चैतन्यवादी विचारधारा का ही समर्थन किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी उसके कामना करने की बात कहकर उसी चैतन्यवादी विचारधारा का समर्थन किया गया है। उसमें कहा गया है कि "उस १. छान्दोग्य उपनिषद्-६.२.१,३ । “सदेवंसोम्येदमग्र आसीत् एक मेवाद्वितीयम् । तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ।" २. बृहदारण्यक उपनिषद्-१.४.१-४ । ३. वही २.४.१२ "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" ४ छान्दोग्य उपनिषद्-६.२.१, ३ । ५. बृहदारण्यक उपनिषद्-२.४.१२ की टीका । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास परमात्मा ने कामना की" मैं बहत हो जाऊँ अर्थात् मैं उत्पन्न हो जाऊँ। अतः उसने तप किया। उसने तप करके ही यह जो कुछ है इन सबकी रचना की । इसे रचकर वह इसी में अनुप्रविष्ट हो गया। इसमें अनुप्रविष्ट होकर वह सत्य स्वरूप परमात्मा मूर्त-अमूर्त कहे जाने योग्य और न कहे जाने योग्य, आश्रय-अनाश्रय, चेतन-अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य-असत्य रूप हो गया। यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग "सत्य" इस नाम से पुकारते हैं।" ___ इस प्रकार की और भी अनेक विचारधारायें उपनिषदों में उपस्थित हैं किन्तु स्थानाभाव के कारण उन सबका उल्लेख हम यहाँ नहीं करेंगे। (२) बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें : उपनिषद्कालीन चिन्तन की स्थिति पर विचार करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि उस युग में तत्त्व चिन्तन सम्बन्धी विभिन्न प्रकार की विधायें प्रचलित थीं। ये विचारधारायें स्व-चिन्तन के आधार पर अपनेअपने मत का निरूपण ही नहीं अपितु तद् विरोधी विचारधाराओं का खण्डन भी कर रही थीं जिनका उल्लेख बौद्ध पिटक ग्रन्थों में भी है। दीघनिकाय के "ब्रह्मजालसुत्त" में ऐसी अनेक परस्पर विरोधी विचारधाराओं का चित्रण मिलता है। जिनका स्पष्टीकरण हम नीचे प्रस्तुत क्तर रहे हैं___ आत्मा और लोक नित्य है या अनित्य ? इस प्रश्न के सन्दर्भ में परस्पर विरोधी मन्तव्य उपस्थित थे। कुछ विचारक इस निष्कर्ष पर पहुंचते थे कि आत्मा और लोक नित्य है, केवल मनुष्य मरता और जन्म लेता है। परन्तु इसके विपरीत कुछ विचारक इस निष्कर्ष पर भी पहुँच रहे थे कि यह आत्मा और लोक आदि अनित्य हैं। शरीर के नष्ट होते ही ये सब भी १. तैत्तिरीय उपनिषद, २:६. "सोऽकामयत । बहु स्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा । इदं सर्वमसृजत । यदिदं किंच । तत्सृष्ट्वा । तदेवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य । सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं चानिरुक्तं च । निलयनं चानिलयनं च । विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् । यदिदं किंच । तत्सत्यमित्याचक्षते ।" Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या नष्ट हो जाते हैं। दीघनिकाय में इन विचारों का चित्रण निम्नलिखित रूप में किया गया है "भिक्षओं! कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है जिससे समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों को जैसे एक संवर्त-विवर्त (कल्प), दस संवर्त में इस नाम का था, स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह अपने पूर्वजन्म के सभी आकार प्रकारों को स्मरण करता है । अतः वह (इसी के बल पर) कहता है-आत्मा और लोक दोनों नित्य है।"' किन्तु इस शाश्वतवादी विचारधारा के विपरीत उच्छेदवादी विचारकों का मत है कि आत्म तत्त्व नित्य नहीं है। वह चार महाभूतों के संयोग से उत्पन्न है और उनके इस संयोग के नष्ट होते ही उच्छिन्न, विनष्ट हो जाता है। इसका भी उल्लेख दीघनिकाय में है "कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानते हैं-यथार्थ में आत्मा रूपी = चार महाभूतों से बना है और माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होता है, १. "इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति यथासमाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतुप्पक्किलेसे अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं-एक पि जाति द्वे पि जातियो तिस्सो पि जातियो चतुस्सो पि जातियोपञ्च पि जातियो दस पि जातियो वीसं पि जातियो तिसं पि जातियो चत्तालीसं पि जातियो पञ्चासं पि जातियो जातिसतं पि जाति सहस्सं पि जातिसतसहस्सं पि अनेकानि पि जातिसतानि अनेकानि पि जातिसहस्सानि अनेकानि पि जातिसतसहस्सानिः "अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवं वण्णो एवमाहारो एवं सुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि, तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।" ___ सो एवमाह--"सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्टो एसिकट्ठायिट्टितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थि त्वेव सस्सतिसमं ।" --दीघनिकाय--ब्रह्मजालसुत्त १:३१: पधानसंसोधको-भिक्खु जगदीसकस्सपो । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाता है।" ___ इसी नित्यता और अनित्यता के प्रश्न को लेकर एक तीसरी विचारधारा भी थी। इस विचारधारा वाले विचारक ऐसा कहते थे कि यह आत्मा न तो नित्य है और न तो अनित्य । यह अंशतः नित्य है और अंशतः अनित्य । चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियाँ तथा शरीर अनित्य है और चित्त, मन या विज्ञान नित्य है। इसके संदर्भ में बुद्ध ने कहा है कि "भिक्षुओं! कितने श्रमण या ब्राह्मण तर्क करने वाले हैं ? वे तर्क और न्याय से ऐसा कहते हैं जो यह चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा और शरीर है, वह अनित्य, अध्रुव है और (जो) चित्त, मन या विज्ञान है (वह) नित्य ध्रुव है।" इस प्रकार इन तीन परस्पर विरोधी मन्तव्यों के अतिरिक्त और भी अनेक विरोधी मतवादों का उल्लेख "ब्रह्मजालसुत्त" में है, जो नित्यता और अनित्यता के सम्बन्ध में अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत कर रहे थे। इसी प्रकार आत्मा चेतन है या अचेतन । इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी विचारकों में मतैक्यता नहीं थी। कुछ चिन्तक यह मानते थे कि आत्मा, शरीर के नष्ट हो जाने पर भी रूपवान, रोगरहित एवं आत्मप्रतीति के साथ विद्य १. "इध, भिवखवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्टि “यतो खो, भो, अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिसम्भवो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति ।" दीघनिकाय १.३.८५ "इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी । सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह -"यं खो इदं वुच्चति चवखं इति पि सोतं इति पि धानं इति पि जिव्हा इति पि कायो इति पि अयंअत्ता अनिच्चो अर्धवो असस्सतो विपरिणामधम्मो । यं च खो इदं वुच्चति चित्तं ति वा मनो ति वा विज्ञाणं ति वा अयं अत्ता निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथैव ठस्सती'ति ।" वही १.३.४९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या मान रहता है किन्तु कुछ मनीषी इसके विपरीत यह मानते थे कि शरोरनाश के साथ ही आत्मा और उसकी चेतना का भी नाश हो जाता है। मरणोपरान्त शेष कुछ भी नहीं रहता है। इन मतों का भी उल्लेख दोघनिकाय में है___ "भिक्षुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण" मरने के बाद आत्मा संज्ञी रहता है। ऐसा मानते हैं। मरने के बाद आत्मा रूपवान, रोगरहित और आत्म प्रतीति (संज्ञा-प्रतीति) के साथ रहता है।"" परन्तु इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि शरीर-नाश के बाद आत्मा असंज्ञी हो जाता है। बुद्ध ने कहा है कि "भिक्षओं! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से, मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है; ऐसा मानते हैं।" उस युग में इसी प्रश्न के सन्दर्भ में चिन्तन करने वाले कुछ ऐसे भी मनीषी थे जो यह कहते थे कि मरणोपरान्त आत्मा न तो चेतन ही रहता है और न तो अचेतन । इनके इस मत का भी उल्लेख दोघनिकाय में है । बुद्ध कहते हैं__ "भिक्षओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से, मरने के बाद आत्मा नैवसंजी, नैवासंज्ञी रहता है। ऐसा मानते हैं।३।। १. "इमेहि सो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमा धातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सञि अत्तानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सोळसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ज तरेन; नत्थि इतो बहिद्धा ।" दोघनिकाय १.३७.७ २. “सन्ति, भिक्खवे, एके समण ब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा. उद्ध माघातनं असझिं अत्तानं पअपेन्ति अट्टहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असञि अत्तानं पञ पेन्ति अट्टहि वत्थू हि ?" १.३.७८ ३. "सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासी वादा, उद्धमाघातनं नेवसञिीनासञ्चि अत्तानं पञपेन्ति अट्टहि वत्थूहि । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इसी प्रकार उस युग में कुछ ऐसे भी विचारक थे जो यह मानते थे कि किसी भी प्रश्न का एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। किसी भी वस्तु को नित्य या अनित्य, एक या अनेक, सत् या असत् नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वे कोई भी निश्चित निर्णय देना असंगत समझने लगे और प्रत्येक वस्तु तत्त्व के सम्बन्ध में वह है, नहीं है, न है और न नहीं है ऐसा कहने लगे। दीघनिकाय में इनके इस मत का चित्रण करते हुए कहा गया है कि "महाराज! यदि आप पूछे, "क्या परलोक है ? और यदि मैं समझू कि परलोक है, तो आप को बतलाऊँ कि परलोक है मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि "यह है, मैं यह भी नहीं कहता कि "परलोक नहीं है; परलोक है भी और नहीं भो; परलोक न है और न नहीं है।'' शभाशभ कर्मों और तज्जन्य फलों के सन्दर्भ में भी विचारकों ने अपनेअपने मत प्रस्तुत किये हैं। कुछ मनीषी यह कहते थे कि शुभ-अशुभ, पाप और पुण्य आदि अपने-अपने कर्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। इनका ज्ञान प्राप्त करना भी सम्भव है। किन्तु इसके विपरीत कुछ विचारक यह मानते थे कि शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा, पाप और पुण्य आदि के के सन्दर्भ में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। उनका ज्ञान प्राप्त होता है या नहीं यह भी नहीं कह सकता। इस प्रकार के संशय में पड़कर वे यही कहते थे कि-यह अच्छा है या बुरा है हम इसे नहीं जान सकते। दीघनिकाय में बुद्ध ने कहा है, "भिक्षुओं ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मन में ऐसा होता है-मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा । तब ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसीनासनि अत्तानं पञपेन्ति अढहि वत्थूहि ? वही १.३ ८१ १. "अत्थि परो लोको ति इति चे मं पुच्छसि, अत्थि परो लोको ति इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोको ति इति ते नं ब्याकरेय्यं । एवं ति पि मे नो, तथा ति पि मे नो, अञ या ति पि मे नो, नो ति पि मे नो, नो नो ति पि मे नो ति । नत्थि परो लोकोपे० ''अत्थि च नत्थि च परो लोको'"पे...." नेवत्थि न नत्थि परो लोको ।” वही १.३.६५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या मैं ठीक से बिना जाने कैसे कह दूँ-"यह अच्छा है" और "यह बुरा" ? यदि कहता हूँ कि "यह अच्छा है" या 'यह बुरा है" तो यह असत्य होगा। जो मेरा असत्य भाषण होगा, सो मेरा घातक होगा, वह अन्तराय बाधक) होगा । अतः वह असत्य भाषण के भय और घृणा से न यह कहता है कि "यह अच्छा है" और न यह कि "यह बुरा"' । ___ इस लोक की उत्पत्ति सकारण है या अकारण | इसके सन्दर्भ में कुछ ऐसे लोग थे जो यह कहते थे कि इस विश्व की उत्पत्ति अकारण है। इसका कोई कारण नहीं हो सकता यह तो स्वयं से उत्पन्न हुआ है। अतः इसकी उत्पत्ति के लिए किसी कारण को मानना असंगत है । भगवान् बुद्ध ने कहा है कि भिक्षओं ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ताकिक होता है। वह स्वयं तर्क करके ऐसा समझता है-आत्मा और लोक अकारण ही उत्पन्न होते हैं।२ इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन में हमने देखा कि उस युग में ऐसी अनेक विचारधारायें थीं जो अपने-अपने मन्तव्यों को निरूपित कर रही थीं १. "इध, भिक्खवे, एकच्ची समणो वा ब्राह्मणो वा इदं कुसलं ति यथाभूतं नप्पजानाति, इदं अकुसलं ति यथाभूतं नप्पजानाति । तस्स एवं होतिअहं खो इदं कुसलं ति यथाभूतं नप्पजानामि, इदं अकुसलं ति यथाभूतं नप्पजानामि । अहं चे खो पन इदं कुसलं ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, इदं अकुसलं ति यथाभूतं अप्पजानन्तो इदं कुसलं ति वा व्याकरेय्यं, इदं अकुसलं ति वा व्याकरेय्यं, तं ममस्स मुसा । यं ममस्स मुसा सो ममस्स विधातो। यो ममस्स विघातो सो ममस्स अन्तरायो "ति । इति सो मुसावादभया मुसावादपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलं ति व्याकरोति, न पनिदं अकुसलं ति व्याकरोति, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्टो समानो वाचाविवखेपं आपज्जति अमरा विक्खे--एवं ति पि मे नो; तथा ति पि मे नो; अञ्चथा ति पि मे नो; नो ति पि मे नो; नो नो ति पि मे नो"ति । इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविवखे पिका तत्थ तत्थ पञ्हं पट्टा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ।" वही १.३.६२ २. "इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणे वा तक्की होति वीमंसी। सो तक्कपरियाहतं वीमसानुचरियं सयंपटिभानं एवमाह "अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको चा" ति ।" वही १.३.६९ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ११ परन्तु वे अपने-अपने मन्तव्यों को सत्य ही नहीं अपितु दूसरे के मन्तव्य को असत्य भी बता रही थीं । जब कि वास्तविकता यह थी कि सबके सब मिथ्या दृष्टियों का ही निरूपण कर रही थीं। यही कारण है कि बुद्ध उन दृष्टियों को मिथ्या दृष्टियों के नाम से सम्बोधित किया है । ऐसी बासठ मिथ्या दृष्टियों का उल्लेख दीघनिकाय में है । ' (३) जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधारायें इसी प्रकार उस युग में प्रचलित ऐसी ही अनेक मिथ्या दृष्टियों का उल्लेख जैनागम सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है । जिस प्रकार तत्कालीन विचारक आत्मा और लोक की नित्यता अनित्यता, चेतनता -अचेतनता आदि के सन्दर्भ में अपने-अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे ठीक उसी प्रकार विश्व के मूल तत्त्व की एकता - अनेकता, नित्यता- अनित्यता, चेतनता अचेतनता आदि के विषय में भी मनीषीगण अपने-अपने मन्तव्य निरूपित कर रहे थे । कुछ चिन्तक ऐसा मानते थे कि वह विश्व का मूल तत्त्व एक ही है किन्तु वह अपने को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करता है । जिस प्रकार मिट्टी घट, ईंट, कपाल, आदि विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती हैं परन्तु उन सबके मूल में मिट्टी ही रहती है उसी प्रकार यह विश्व यद्यपि विभिन्न रूपों में दिखलायी पड़ता है किन्तु इन सबके मूल में आत्म तत्त्व ही है । वही अपने को इन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करता है । महावीर ने इस विचारधारा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "जिस प्रकार एक ही पृथिवी पिण्ड नाना रूपों में दिखाई देती है उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त लोकों में विविध रूप से दिखाई देती है । परन्तु इसके विपरीत कुछ विचारक यह मानते थे कि वह मूल तत्त्व एक नहीं है अपितु वे पांच हैं। उन्हीं पांचों तत्त्वों के संयोग से इस विश्व की उत्पत्ति होती है और उनके संयुक्तावस्था के भंग होते ही यह विश्व भी छिन्न-भिन्न हो जाता है । उन विचारकों का ऐसा कहना है कि १. द्रष्टव्य : दीघनिकाय भाग - १ ब्रह्मजाल सुत्त । २. जहा य पुढवीथूभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो कसिणे लोए, विन्नु नाणाहि दीसइ || सूत्रकृतांग १:१:१:९ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या "इस संसार में जो कुछ हैं वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पंच भूत ही हैं, यहाँ शरीर या जोव इन पांचों में से उत्पन्न होता है और इन पांचों के नष्ट होने पर इनके साथ शरीर रूप जीव का भी अन्त हो जाता है ।" 1 किन्तु इसी सन्दर्भ में एक दूसरी विचारधारा भी प्रचलित थी, जो यह मानती थी कि मूलतत्त्व पांच ही नहीं बल्कि छ: हैं और ये सबके सब नित्य हैं । अतः ये नष्ट नहीं होते । इनकी भी चर्चा सूत्रकृतांग में की गई है । "छः तत्त्व हैं - पंच महाभूत और एक आत्मा । ये सब शाश्वत नित्य हैं । इनमें से एक भी नष्ट नहीं होता । इस प्रकार जो वस्तु है ही नहीं वह क्यों कर उत्पन्न हो सकती है ? इस प्रकार पदार्थ सर्वथा नित्य है । " परन्तु इसके विपरीत कुछ चिन्तक उच्छेदवाद का समर्थन करते हुए कहते थे कि तत्व क्षणिक है ये क्षण-क्षण उत्पन्न होते हैं और क्षण-क्षण नष्ट भी हो जाते हैं । रूपादि पंच स्कन्धों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । नित्य, शाश्वत, विभु आत्मा की कल्पना करना व्यर्थ है । इनके इस विचार का चित्रण करते हुए कहा गया है कि - " क्षण-क्षण उत्पन्न और नष्ट होने वाले रूपादि पांच स्कन्धों के सिवाय कोई ( आत्मा जैसी ) वस्तु ही नहीं है ।"‍ इसी प्रकार इस विश्व को विचित्र रचना के सम्बन्ध में भी कुछ जिज्ञासु विचार व्यक्त करते थे कि इस विचित्र रूपा सृष्टि को रचना किसने १. “संति पंच महब्भूया, इमेगेसिमाहिया । यह पुढवी आउ तेऊ वा, वाउ आगासपंचमा || एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह सिविणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ सूत्रकृतांग १:१:१:७,८ । २. संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिओहिया । आछट्टो पुणो आहु, आया लोगे य सासए || दुहओ ण विणस्संति, नो य उप्पज्जए असं । सब्बे व सव्वा भावा, नियत्तो भावमागया ॥ वही १:१:१:१५, १६ । ३. "पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । अण्णी अण्णी वाहु, हेउयं च अहेउयं ॥ वही १:१:१:१७ | Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास १३ की ? क्या कोई ऐसा नियामक है जो इस सृष्टि को रचना करता है और पुनः इसे नष्ट भी कर देता है ? अथवा स्वयं से हो यह सृष्टि उत्पन्न होती है और स्वयं से ही लुप्त हो जाती है ? इन सारे प्रश्नों के सम्बन्ध में भी विभिन्न विचारकों के विभिन्न विचार हैं, विभिन्न मत हैं । उनके विचारों में एकरूपता नहीं है क्योंकि कुछ लोग कहते थे कि सृष्टि किसी देव के द्वारा रचित है । वही इसका नियामक है, वही इसका कर्त्ता है । तो कुछ जिज्ञासु कहते थे कि इस सृष्टि को स्वयं ईश्वर रचता है, तो कुछ लोग कहते थे कि इसकी रचना ब्रह्मा ने की। परन्तु इसके विपरीत कुछ मनीषी यह कहते थे कि इस सृष्टि की रचना न तो ईश्वर ने की है न तो देव और न तो ब्रह्मा ने ही की है । यह स्वयं उत्पन्न होती है और स्वयं नष्ट भी हो जाती है । इसका ऐसा स्वभाव ही है । इस प्रकार इन जिज्ञासुओं के भी विचार सूत्रकृतांग में उपलब्ध हैं । महावीर ने कहा है "कोई कहते हैं - देव ने इस संसार को बनाया है, कोई कहते हैं ब्रह्मा ने; कोई कहते हैं जड़ चेतन से परिपूर्ण तथा दुःख सुख वाले इस जगत् को ईश्वर ने रचा है और कोई कहते हैं; नहीं स्वयंभू आत्मा से इस जगत् की उत्पत्ति हुई है । ( इसी प्रकार ) कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु ने अपनी माया शक्ति से इस अशाश्वत जगत् की रचना की है। वहीं कुछ श्रमण और ब्राह्मण यह भी कहते हैं कि यह संसार अंडे में से उत्पन्न हुआ हैं । " शुभाशुभ कर्मों और उनसे प्राप्त फलों के सन्दर्भ में भी उन दिनों अनेक प्रकार की विचारधारायें प्रचलित थीं । कुछ जिज्ञासु कहते थे कि १. इणमन्नं तु अन्नाणं, इह मेगेसि माहियं । देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेत्ति आवरे ॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे | जीवाजीवसमाउत्ते, सुदुक्खसमन्वि ॥ सयंभुणा कडे लोए, इति वृत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए | माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥ सूत्रकृतांग १:१:३:५-८ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या शुभाशुभ कर्म एवं तज्जन्य फलरूप पाप-पुण्य, सुख-दुःखादि देव-निर्मित हैं । जीव उसे करता नहीं, मात्र भोगता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है"जीव हैं, उन्हें सुख-दुःख का अनुभव होता है तथा वे अन्त में अपने स्थान से नाश को प्राप्त होते हैं इसको सब लोग मान लेंगे। जो सुख-दुःखादि हैं, ये जीव के स्वयं किये हुए नहीं हैं - ये तो देव नियत हैं ।" परन्तु इसके विपरोत कुछ लोग यह मानते थे कि पाप-पुण्य, दुःख-सुख, शुभाशुभ कर्म आदि मानव कृत हैं; जो जैसा कर्म करता है उसको वैसा फल प्राप्त होता है । ये कर्म जन्य फल मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों कर्मों से उत्पन्न होते हैं । इसका भी उल्लेख सूत्रकृतांग में है । वहाँ कहा गया है कि "जो मनुष्य विचार करने पर भी हिंसा नहीं करता तथा जो अनजान में हिंसा करता है, उसे कर्म का स्पर्श होता तो है अवश्य, पर उसे पूरा पाप नहीं लगता । पाप लगने के स्थान तीन हैं—स्वयं विचार पूर्वक करने से, दूसरों से कराने से, दूसरे के कार्य का अनुमोदन करने से । परन्तु यदि हृदय पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। २ १४ इसी प्रकार कुछ ऐसे भी विचारक थे जो यह मानते थे कि शुभाशुभ कर्मों को करना या उनके विषय में सोचना भी व्यर्थ है क्योंकि कितने संयम से रहने पर भी अन्त में पापयुक्त होना ही पड़ता है । वस्तुतः इसके सन्दर्भ में सोचना ही नहीं चाहिए । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि १. न तं सयं कडं दुक्खं, सुहं वा जइ वा दुक्खं कओ अन्नकडं चणं । सेहियं वा असे हियं ॥ न सयं कडं न अहिं, वेदयन्ति पुढो जिया । संगइअं तं तहा तेसिं, इहमेगेसिं आहिअं || सूत्रकृतांग १:१:२:२,३ ॥ २. जाणं काएणणाकुट्टी, अबुहो जं च हिंसति । पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावज्जं ॥ संति तउ आयाणा, जेहि कीरइ पावगं । अभिकम्माय पेसाय, मणसा अगुजाणिया || एते उतर आयाणा जेहि कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छइ ॥ वही १:१:२:२५,२६,२७ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास १५ "शुद्ध ( स्वच्छ ) पानी जैसे मलिन हो सकता है, वैसे ही प्रयत्नों से शुद्ध निष्पाप संयमी मुनि फिर पापयुक्त मलिन हो सकता है तो फिर ब्रह्मचर्यादि प्रयत्नों का क्या फल रहा ?" सब वादी अपने वाद का गौरव गाते थे ।" इस प्रकार उस युग में ऐसो हो अनेक विचारधारायें प्रचलित थीं जो अपने-अपने मन्तव्य को प्रस्तुत कर उसे ही सत्य एवं दूसरे को असत्य बता रही थी । जिसके परिणामस्वरूप वे सभी तत्त्व की यथार्थता से बहुत दूर थे। परन्तु अपने मतवाद को पूर्ण सत्य से कम नहीं मानते थे । (ब) दार्शनिक चिन्तन में उपलब्ध विरोध- समाधान या समन्वय का प्रयत्न अनेक विचारणाओं की उपस्थिति में विवाद उग्र रूप ले रहा था । विचारक निरर्थक कल्पनाओं के जाल में फँसकर तर्क-वितर्क कर रहे थे, किन्तु उन अनेक विचारधाराओं के प्रवर्तकों के बीच कुछ लोग ऐसे भी थे जो तत्कालीन तर्क-वितर्कों को समाप्त करने का अथक प्रयास कर रहे थे । उन समन्वयवादी विचारकों का ऐसा विश्वास था कि उपर्युक्त सभी विचारधारायें मुलतत्त्व के केवल एक-एक पक्ष का ही निरूपण कर रही हैं । विश्व का मूलतत्त्व तो एक और पूर्ण है । उसे न केवल सत् कहा जा सकता है और न केवल असत् । यदि उसे केवल सत् या केवल असत् कहा जाय तो वह सापेक्ष एवं अपूर्ण हो जायेगा । अतः वह न केवल सत् है और न केवल असत्; अपितु वह सदसत् रूप है, अर्थात् वह सत् और असत् दोनों है । इस प्रकार के समाधान सूत्र उपनिषदों, बौद्ध पिटक ग्रन्थों एवं जैनागमों में पाया जाता है जिनका क्रमशः स्पष्टोकरण किया जायेगा | (१) औपनिषदिक चिन्तन में उपलब्ध विरोध- समाधान के सूत्र उपनिषद् कालीन समन्वयवादी विचारक तत्कालीन प्रचलित विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं में समन्वय करने का प्रयत्न कर रहे थे । उनके उस समाधानवादी विचार के सूत्र उपनिषदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । उन सूत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि विश्व का मूलतत्व न तो १. इह संवुडे मुणी जाए, पच्छा होई अपावए । बियडं व जहा भुज्जो, नीरयं सरयं तहा ॥ सूत्रकृतांग १:१:३:१२ | Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या मात्र सत् है और न तो मात्र असत् । अपितु वह सत् और असत् दोनों ही है। जब वह अव्यक्त अवस्था में रहता है तब मनीषीगण उसे असत् ऐसा कहते हैं, किन्तु जब वह अपने को इस जगत् के रूप में उड़ेलता है तब उसे सत् ऐसा कहते हैं अर्थात् उसकी अव्यक्तावस्था का नाम असत् और व्यक्तावस्था का नाम सत् है । उसके इस स्वरूप का विवेचन ऋग्वेद में भी किया गया है । वहाँ कहा गया है कि "देवताओं से भी पूर्व समय में असत् (अव्यक्त ब्रह्म) से सत् ( व्यक्त संसार) की उत्पत्ति हुई है ।"" अतः केवल सत् या केवल असदुप मूलतत्त्व की कल्पना व्यर्थ है । दोनों एक ही तत्व के दो नाम हैं । पुनः ऋग्वेद में ही उल्लिखित है कि "सत् तो एक ही है मनीषीगण उसका अनेक प्रकार से कथन करते हैं ।"२ भगवद्गीता में भी उसके ठीक इसी स्वरूप का विवेचन किया गया है - " अनादिमान परमात्मतत्त्व ब्रह्म न तो केवल स है और न केवल असत् है बल्कि दोनों ही है ।"‍ तत्कालीन समन्वयवादी विचारकों ने किसी भी मन्तव्य का न तो पूर्णतः समर्थन किया और न तो पूर्णतः निषेध; बल्कि सभी मन्तव्यों को आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार कर उन्हें एक ही परमात्मतत्त्व में घटाया ! उसे उन्होंने सत् भी कहा और असत् भी, एक भी और अनेक भी । परन्तु इसके बाद भी उसे एकमात्र कल्याणमय शिव, अविनाशी, अतिसूक्ष्म एवं अविज्ञेय तथा समस्त जगत् का आधार बताया | मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि " (जो) प्रकाश स्वरूप अत्यन्त समीपस्थ (हृदयरूप गुहा में स्थित होने के कारण ) गुहाचर नाम से प्रसिद्ध (और) महान पद (परमप्राप्य) हैं; जितने भी चेष्टा करने वाले; श्वास लेने वाले और आँखों को खोलने - मंदने वाले ( प्राणी हैं) ये (सब-के-सब ) इसी में समर्पित ( प्रतिष्ठित ) हैं; इस परमेश्वर को तुम लोग जानो जो सत् (और) असत् है; सबके द्वारा वरण करने योग्य (और) अतिशय श्रेष्ठ (तथा) समस्त प्राणियों की बुद्धि १. “देवानां पूर्व्येयुगेऽसतः सदजायत ।” - ऋग्वेद १०:७२:२ । २. " एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।” — ऋग्वेद १:१६४:४६ ॥ ३. "अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।” — श्रीमद्भगवद्गीता - १३:१२ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास १७ से परे अर्थात् जानने में न आने वाला है। इसी समन्वयवादी विचारधाग का उल्लेख ईशोपनिषद् में भी प्राप्त होता है। वहाँ विचारकों ने कहा है कि 'वह (परमात्म तत्त्व) चलता है; वह नहीं चलता; वह दूर भी है; वह अत्यन्त समीप है; वह इस समस्त जगत् के भीतर परिपूर्ण है; (और) वह इस समस्त जगत् के बाहर भी है।"२ गीता में भी यही कहा गया है कि "वह चर और अचर भूतों के बाहर और भीतर है, सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है, दूर भी है और निकट भी है।" इस जीवात्मा के हृदय रूप गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म (और) महान् से भी महान है।"४ "जब अज्ञानमय अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है; उस समय (अनुभव में आने वाला तत्त्व) न दिन है, न रात है, न सत् है, न असत् है; एकमात्र विशद्ध कल्याणमय शिव हो है; वह सर्वथा अविनाशी है; वह सूर्याभिमानी देवता का भी उपास्य है; तथा उसी से (यह पुराना ज्ञान फैला है।" इस प्रकार उपनिषद्कालीन सुधारवादी विचारक विश्व के मूलतत्त्व के उक्त स्वरूप का विवेचन करके तत्कालीन विचारकों में मतैक्यता लाने का प्रयास कर रहे थे। वे जगह-जगह पर समझौता करने के लिए १. "आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रतत्समर्पितम् । एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठ प्रजानाम् ॥" -मुण्डकोपनिषद्-२:२:१ । २. "तदेजति तन्नैजति तदूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥" -ईशावास्योपनिषद्-५ । ३. "बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥" -श्रीमद्भगवद्गीता-१३:१६ । ४. "अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् ।" -कठोपनिषद्-२:२० । ५. “यदाऽतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्नसन्न चासञ्छ्वि एव केवलः । तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥" -श्वेताश्वतरोपनिषद्-४:१८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी तत्पर थे। इस समझौतावादी विचार का उल्लेख करते हुए डा० राधाकृष्णन् कहते हैं कि “पाँच गृहस्थ पुरुष उद्दालक को अग्रणी बनाकर अश्वपति नामक राजा के पास पहुँचे, राजा ने उनमें से हर एक से पूछा ! तुम आत्मा के रूप में किसका ध्यान करते हो? पहले ने उत्तर दिया द्यलोक का, दूसरे ने कहा सूर्य का, तीसरे ने कहा वायु का, चौथे ने कहा शन्य आकाश का और पाँचवें ने कहा जल का। राजा उत्तर देता है उन सब में से हर एक ने सत्य के केवल एक पार्श्व की पूजा की है। उस मुख्य सत्ता का धुलोक शीर्षस्थानीय है, सूर्य चक्षुस्थानीय है, वायु प्राणस्वरूप है, शून्याकाश धड़ के समान है, जल मूत्रालय है और भूमि पदस्थानीय है-यह विश्वात्मा का चित्र है। अल्पमत के मान्य दार्शनिक विश्वासों और अधिकतर संख्या के काल्पनिक अन्धविश्वासों के बीच समझौता हो जाना हो एक मात्र परस्पर समन्वय का सम्भव उपाय है।" इस प्रकार इन समन्वयवादी विचारकों ने विश्व के मूलतत्त्व को विश्वात्म रूप में स्वीकार किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसका वाणी द्वारा विवेचन करना असंभव हो गया। तत्पश्चात् वे उसे अनिर्वचनीय अवाच्य, अवक्तव्य एवं नेति-नेति आदि कहकर अलंकृत करने लगे। (२) बुद्ध का दृष्टिकोण बुद्ध के समन्वय सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है : (क) एकान्तवाद का निषेध (ख) अव्याकृतवाद और (ग) विभज्यवाद (क) एकान्तवाद का निषेध भगवान् बद्ध ने तत्कालीन सभी मतवादों का परीक्षण करके देखा कि ये जितने भी मन्तव्य हैं वे सब के सब, चाहे शाश्वतवादी हों, या अशाश्वतवादी; जड़वादी हों या चैतन्यवादी, आत्मवादी हों या अनात्मवादो, दोष. १. भारतीय दर्शन भाग १ पृ० १३२ । (Indian Philosophy का अनुवाद-अनुवादक-स्व० नन्द किशोर गोभिल). Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास पूर्ण हैं क्योंकि ये सभी मन्तव्य मूलतत्व के एक-एक अंश का ही निरूपण करते हैं। वस्तुतः ये सभी मन्तव्य एकान्तिक होने के कारण त्याज्य हैं। यदि विश्व के मूल में किसी चेतन्य-स्वरूप परमात्मतत्त्व को माना जाय तो यह एक अन्त होता है। इसी प्रकार यदि विश्व के मूलतत्त्व के रूप में केवल जड़तत्त्वों को स्वीकार किया जाय तो यह भी एक अन्त हो होगा। अतएव इनमें से किसी का भी समर्थन करना ठीक नहीं है। संयुत्तनिकाय में कहा गया है-"भिक्षुओं! जो जीव है वही शरीर है अथवा जीव दूसरा है और शरीर दूसरा है। ऐसी मिथ्या दृष्टि होने से ब्रह्मचर्यवास नहीं हो सकता है। भिक्षुओं! इन दोनों अन्तों को छोड़ बुद्ध मध्यम मार्ग से धर्म का उपदेश करते हैं। क्योंकि उनको ऐसा प्रतीत हआ था कि अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है और संसरण करती है ऐसा मानने पर शाश्वतवाद होता है; और चार महाभूतों के संयोग से चेतन आत्मा उत्पन्न होती है और उनके संयोग के नष्ट होते ही वह भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाती है। ऐसा मानने पर उच्छेदवाद होता है। इस प्रकार ये दोनों विचारधारायें यथार्थता के एक-एक पार्श्व का ही निरूपण करती हैं क्योंकि आत्मा शरीर से न तो अत्यन्त भिन्न ही है और न तो अत्यन्त अभिन्न ही। अतएव आत्मा न तो सर्वथा शाश्वत ही है और न तो सर्वथा अशाश्वत । वस्तुतः ये दोनों ही दृष्टिकोण एकांगी हैं। अतः इन दोनों अन्तों को छोड़ देना ही न्यायसंगत है । इस प्रकार बुद्ध तत्कालीन एकान्त रूप नाना मतवादों का निषेध करके उनमें समन्वय का प्रयास अवश्य कर रहे थे तथापि उन्होंने अपनी मान्यता के अनुरूप कुछ भी विधायक रूप से नहीं कहा। उसका एकमात्र कारण यही है कि कुछ भी विधायक रूप से कहने पर उनको किसी एक मतवाद में फंस जाने का भय था। इसीलिए वे सभी प्रश्नों का उत्तर निषेध रूप से देकर अपने “वाद" को कुछ भी नाम देना पसन्द नहीं १. "तं जीवं तं शरीरं" इति वा भिक्खो, दिदिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति । “अझं जीवं अनं शरीरं' इति वा, भिक्खवे, दिट्ठिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति । एते ते, भिक्खने, उभो अन्ते अनुपगम्य मज्झेन तथागतो धम्म देसेति ।" --संयुत्तनिकाय पालि भाग २, १२-३६ (दुतियअविज्जापच्चयसुत्तं) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या किये । वे कहते थे कि पंडित किसी भी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता । "सुत्तनिपात" में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं पण्डित इन सबमें नहीं पड़ता । दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्ति रहित वह क्या ग्रहण करें ।"" अतः वे उन नाना वादों के सन्दर्भ में केवल इतना ही कहकर रह गये कि ये सभी वाद ठीक नहीं हैं । सुत्तनिपात में ही कहा गया है कि "मैं यह नहीं कहता कि "यही सत्य है " " क्योंकि उनको ऐसा आभास हुआ था कि सब कुछ विद्यमान है ऐसा कहना एक अन्त है और सब कुछ शून्य है, ऐसा कहना दूसरा अन्त हैं । इसीलिए वे इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग से उपदेश करते थे । जीव, जगत्, सुख, दुःख आदि के सन्दर्भ में बुद्ध से जो भी प्रश्न किये जाते थे वे लगभग उन सभी प्रश्नों के उत्तर निषेध रूप से ही देते थे । उनके इस विचार का स्पष्टीकरण निम्नलिखित उद्धरण से भी होता है : -- गौतम ! क्या दुःख स्वकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है । गौतम ! क्या दु:ख परकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है । गौतम ! क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है । गौतम ! क्या दुःख अस्वकृत और अपरकृत है ? काश्यप ! ऐसा नहीं है । १. " या काचिऽमा सम्मुतियो पुथुज्जा | सब्बाऽव एता न उपेति विद्धा । अनूपयो सो उपयं किमेयय । दिट्टे सुते खन्तिमकुब्जमानो || ३ || २. " न चाहमेतं तथियन्ति ब्रूमि" । - सुत्तनिपात - ५०.५. ३. "सब्बमत्थी" ति खो, कच्चान, अयमेको अन्तो । "सब्बे नत्थी'ति अयं दुतियो अन्तो । एते ते, कच्चान, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो. धम्मं देसेति । " -- संयुत्त निकाय, भाग २, १२:१५ ( कच्चानगोत्तसुत्त) " -सुत्तनिपात, ५१:३. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास २१ तब क्या है ? आप तो सभी प्रश्नों का उत्तर नकार में देते हैं, ऐसा क्यों ? तब पुनः गौतम ने कहा कि "दुःख स्वकृत है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवाद का अवलम्बन होता है और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तब इसका मतलब होगा कि किया किसी दूसरे ने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है। अतएव इन दोनों को छोड़कर मध्यम मार्ग का ही अनुगमन करना उचित है।' इस प्रकार भगवान् बुद्ध ने किसी एक मतवाद में पड़ जाने के भय से तत्कालीन सभी मन्तव्यों का निषेध कर दिया क्योंकि उनको यह प्रतीत हुआ कि वे सभी मन्तव्य एकान्तिक हैं और जो भी एकान्तिक हैं वे असत्य हैं । अतः ये त्याज्य हैं। बुद्ध की यह एकान्तवादी दृष्टि की आलोचना जैनों की एकान्तवादी दृष्टि की आलोचना के निकट बैठती है। जैनदर्शन को भी यह मान्यता है कि सभी एकान्तिक दृष्टियाँ असत्य होती हैं। जैनदर्शन भी सभी एकान्तिक दृष्टियों का निषेध करता है । इसका पूर्णरूपेण स्पष्टीकरण हम आगे प्रस्तुत करेंगे । (ख) अव्याकृतवाव भगवान् बद्ध तत्कालीन तत्त्वमीमांसा सम्बन्धी प्रश्नों के सन्दर्भ में या तो मौन रहे अथवा उन्हें असमुचित कहकर टाल दिया और यदि उनके सन्दर्भ में कुछ कहना ही आवश्यक हुआ तो उन्होंने उन्हें अव्याकृत या अव्याख्येय कहा । उनके वे सभी अव्याकृत प्रश्न अधोलिखित हैं।' १. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? १. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २:१७, (अचेलकस्सप सुत्तं)। "सस्सतो लोको' ति पि, "असस्सतो लोको" ति पि, 'अन्तवा लोको" ति पि, “अनन्तवा लोको" ति पि, "तं जीवं तं सरीरं ति पि, अझं जीवं अनं सरीरं" "ति पि, "होति तथागतो परं मरणा" “ति पि, “न होति तथागतो परं मरणा" ति पि, होति च न च होति तथागतो परं मरणा" ति पि, नेवहोतिन न होति तथागतो परं मरणा" ति पि तानि ये भगवा न व्याकरोति । -मज्झिमनिकाय पालि भाग २, १३:१ (चूळमालुक्यसुत्त)। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ३. क्या लोक अन्तवान् है ? ४. क्या लोक अनन्त हैं ? ५. क्या जीव और शरीर एक है ? ६. क्या जीव और शरीर भिन्न है ? ७. क्या मरने के बाद तथागत होते हैं ? ८. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत होते हैं और नहीं होते ? १०. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते? ये सभी प्रश्न निम्नलिखित चार ही प्रश्नों के अन्तर्गत आ सकते हैं (१) लोक की नित्यता-अनित्यता का प्रश्न (२) लोक की सान्तता-अनन्तता का प्रश्न (३) जीव-शरीर के भेदाभेद का प्रश्न, और (४) जीव की नित्यता-अनित्यता का प्रश्न । ये ही प्रश्न बुद्ध के समय प्रमुख दार्शनिक प्रश्न थे। इन्हीं प्रश्नों को लेकर उन दिनों तरह-तरह के वाद-विवाद चल रहे थे। इन्हीं प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा था। उनके सम्मुख प्रमुख समस्या यह थी कि यदि लोक या जीव को मात्र नित्य कहा जाय तो शाश्वतवाद स्वीकार करना होगा और यदि उसे मात्र अनित्य कहा जाय तो वह अशाश्वतवाद या उच्छेदवाद होगा। जबकि दोनों ही वादों में उन्हें दोष दिखलायी दिया था। इसीलिए उन्होंने उन दोनों ही मतवादों के सम्बन्ध में कुछ कहना अनुचित समझा। उनको यह भय था कि विधेय रूप से कुछ भी कहने पर वे निश्चित ही किसी मतवाद में फंस जायेंगे। अतएव इन एकान्तिक मतवादों से बचने के लिए उन्होंने तात्त्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में मौन रहना ही ज्यादा उचित समझा। इस प्रकार बुद्ध ने तत्कालीन दार्शनिक प्रश्नों का या तो निषेधपरक उत्तर दिया अथवा उन प्रश्नों को ही अव्याकृत एवं असमीचीन कहकर टाल दिया। मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं? अथवा जीव नित्य है या नहीं ? इस तरह के प्रश्न को ही बुद्ध ने अनुपयोगी बताया है। उनका कहना है कि "ऐसा प्रश्न सार्थक नहीं, यह ब्रह्मचर्य के लिए, निवेद के लिए, अभिज्ञा के लिए, सम्बोधि के लिए और निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं हैं। इसीलिए मैं उन्हें अव्याकृत कहता Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास हैं।' मैं भूतकाल में था कि नहीं था ? मैं भूतकाल में क्या था? मैं भतकाल में कैसा था ? मैं भूतकाल में क्या होकर फिर क्या हुआ ? मैं भविष्यत् काल में होऊँगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् काल में क्या होऊँगा ? मैं हूँ कि नहीं ? मैं क्या हूँ? मैं कैसे हूँ? यह सत्त्व कहां से आया ? यह कहाँ जायेगा ?२ आदि प्रश्नों को उन्होंने असमीचीन कहा है । उनका कहना है कि "भिक्षुओं !(इन प्रश्नों को)असम्यक् प्रकार से धारण करने पर अनुत्पन्न आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव बढ़ते हैं।''३ अतएव इन आस्रव सम्बन्धी प्रश्नों में लगना साधक के लिए अनुचित है। इन सभी प्रश्नों को छोड़कर चार आर्य सत्यों में लगना ही निर्वाण फलदायक है। तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं? ऐसा प्रश्न अन्य तीथिकों को अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। उन्हें रूपादि का अज्ञान होता है। अतएव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादि को आत्मा समझते हैं या आत्मा को रूपादि युक्त समझते हैं; या आत्मा में रूपादि को समझते हैं; या रूप में आत्मा को समझते हैं जबकि तथागत वैसा नहीं समझते ५ अतः तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरों के ऐसे प्रश्न को वे अव्याकृत कहते हैं । मरणानन्तर रूप, वेदना आदि प्रहीण हो जाते हैं, अतएव अब प्रज्ञापना के साधन रूपादि के न होने से तथागत के लिए "है" या "नहीं है" ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणानन्तर तथागत "है" या "नहीं है" इत्यादि प्रश्नों को मैं अव्याकृत बताता हूँ। मरणानन्तर तथागत की स्थिति को अव्याकृत कहने का एक कारण यह भी हो सकता है कि परम तत्त्व कुछ इतना गुह्य है कि उसके आद्योपान्त का न तो ज्ञान १. न हेतं, आवुसो अत्थसंहितं नादिब्रह्मचरियकं न निब्बिदाय, न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञायन सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति । तस्मा तं अब्याकतं भगवता" ति । संयुत्तनिकाय भाग २, १६:१२ । २. मज्झिमनिकाय भाग १, २:१ ( सब्बासवसुत्त) ३. वही ४. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २, ३३:१ ( वच्छगोत्तसंयुत्तं) ५. संयुत्तनिकाय पालि-भाग २, ४४:८ ( व्याकत संयुत्तं ) ६. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:८ ( अव्याकत संयुत्तं ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या ही संभव है और न इन अशक्त शब्दों (भाषा) से कथन ही संभव है, क्योंकि वह तो अपरिमेय है, अगम्य है, अगोचर है फिर उसका विधिमलक वर्णन भी तो उसको संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध कर संकुचित कर देता है । बुद्ध ने कहा है कि जैसे गंगा के बालू की नाप नहों; जैसे समुद्र की गहराई का पता नहीं, वैसे ही मरणोत्तर तथागत भी गम्भोर है। अप्रमेय है । अतएव अव्याकृत हैं।' इसी प्रकार जीव और शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को भी उन्होंने अव्याकृत बताया है। उनका कहना था कि जोव और शरीर एक है या भिन्न ? इस विषय में भी कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; क्योंकि "यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाय तो ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं और यदि अभिन्न माना जाय तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं । अतएव इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग का अनुगमन करना ही उचित है। इस प्रकार बुद्ध ने जीव तथा शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को अव्याकृत बताया। लोक नित्य है या अनित्य ? सान्त है या अनन्त ? आदि प्रश्नों को भी उन्होंने अव्याकृत कहा। इस कथन की परिपुष्टि संयुत्तनिकाय के मोग्गल्लानसुत्त से होती है। वत्सगोत्र परिव्राजक महामोग्गल्लान से इस प्रकार बोला मोग्गल्लान ! क्या लोक शाश्वत है ? वत्स ! भगवान् ने इसे अव्याकृत बताया है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अशाश्वत है ? वत्स ! इसे भी भगवान् ने अव्याकृत कहा है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अन्तवान है ? वत्स ! इसे भो भगवान् ने अव्याकृत बताया है। मोग्गल्लान ! क्या लोक अनन्त है ? वत्स ! इसे भी भगवान् ने अव्याकृत बताया है। इस प्रकार बुद्ध ने ऐसे तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों को अव्याकृत की कोटि में रखा है क्योंकि ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जिनके विषय में एकान्तिक कथन १. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:१ ( अव्याकत संयुत्तं )। २. संयुत्तनिकाय पालि भाग-२, १२:३५ ( निदान संयुत्तं ) । ३. संयुत्तनिकाय पालि भाग-३, ४४:६ ( अव्याकत संयुत्तं )। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास २५ उचित नहीं है और अनेकान्तिक कथन करना संभव नहीं, और बुद्ध तो "अप्पदीवाभाव" में विश्वास करते थे । वस्तुतः वे चाहते थे कि हर व्यक्ति परम सत्य का स्वयं दर्शन करे । इसलिए भी वे इन तात्त्विक प्रश्नों ओर 1 उनके उत्तरों के वाक् जाल में फँसना नहीं चाहते थे और उन्हें अव्याकृत कहकर शान्त हो जाते थे। साथ ही, उन्होंने यदि कुछ प्रश्नों का उत्तर दिया है तो वह विभज्यवाद के सहारे ही दिया है जिसका विवेचन आगे प्रस्तुत है । (ग) विभज्यवाद विभज्यवाद का मूलाधार है प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देना' ; अर्थात् दो विरोधी बातों को एक सामान्य में स्त्रोकार करना और पुनः उसी को विभाजित करके उन विभागों को संगत बनाना हो विभज्यवाद का फलितार्थ है । इस विभज्यवाद का उल्लेख बौद्ध एवं जैन-ग्रन्थों में मिलता है । एक बार शुभ माणवक ने गौतम से पूछा, भगवन् ! मैंने - ब्राह्मणों को यह कहते हुए सुना कि गृहस्थ हो आराधक होता है प्रव्रजित - नहीं ! इस सम्बन्ध में आप का क्या मत है ? तब उन्होंने कहा - "हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं ।" माणवक ! गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं हो सकता और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वो है तो वह भो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं हो सकता । किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं तो दोनों ही आराधक होते हैं । इस प्रकार उक्त प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने न तो केवल हाँ ही कहा और न केवल न ही । बल्कि एक तीसरा हो दृष्टिकोण अपना कर अपने को विभज्यवादी बतलाया । यदि वे विधेयात्मक उत्तर देकर यह कहते कि हाँ, -गृहस्थ ही आराधक होता है प्रव्रजित नहीं, तो एकांशवादी होते । इसी प्रकार यदि वे निषेधात्मक उत्तर देकर यह कहते कि नहीं, प्रव्रजित हो आराधक होता है गृहस्थ नहीं; तो भो वे एकांशवादी हो होते, क्योंकि किसी भी प्रश्न का उत्तर एकान्त रूप से दे देना कि यह ऐसा हो है अथवा यह ऐसा है ही नहीं, एकांशवाद है । परन्तु उन्होंने गृहस्थ और त्यागो दोनों १. " सम्यगर्थान् विभज्य पृथक् कृत्वा तद्वादं वदेत् ।” - अभिधान राजेन्द्र : पू० १२०१ । २. मज्झिमनिकाय भाग-२, ४९: १ ( सुभसुत्तं ) । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या को आराधक और अनाराधक दोनों ही बताकर अपने आप को विभज्यवादी सिद्ध किया। वस्तुतः वे ऐसे प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी थे, एकांशवादी नहीं। किन्तु यहां पर यह ध्यान रखना चाहिए कि बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी नहीं थे। वे केवल उन्हीं प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी थे जिनके उत्तर विभज्यवाद के सहारे देना संभव था । वस्तुतः कुछ प्रश्नों के उत्तर में वे विभज्यवादी थे तो कछ प्रश्नों के उत्तर में एकांशवादी भी थे। दीघनिकाय में उन्होंने कहा भी है कि "पोट्रपाद ! हमने कितने ही धर्म को एकांशिक कहा है और कितने ही धर्म को अनेकांशिक भी कहा है।' परन्तु अधिकांश प्रश्न ऐसे थे जिनका समाधान वे विभज्यवाद के सहारे किया करते थे। दीघनिकाय में कहा गया है कि "मैं केवल चार आर्य सत्यों के सम्बन्ध में ही एकांशवादी हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि सामान्यतया बुद्ध विभज्यवादी ही थे । जैन-आगमों में भी इसी विभज्यवाद का उल्लेख मिलता है। भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए इसके उत्तर में महावीर ने कहा है कि भिक्षु "विभज्यवाद" का प्रयोग करें। भगवतीमूत्र में इस विभज्य. वाद का लक्षण निम्न उद्धरण में प्राप्त होता है हे भगवन् ! क्या जीव, सवीर्य ( वीर्यवाले ) हैं ? या अवीर्य ( वीर्यरहित) हैं ? हे गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी । हे भगवन् ! क्या नारकीय जीव सवीर्य हैं या अवीर्य हैं ? हे गौतम ! नारकीय जीव, लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं और करणवीर्य से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। १. दीघनिकाय भाग-१, ९:४ पोट्टपादसुत्तं)। २. वही। ३. "भिवखू ! विभज्जवायं च वियागरेज्जा।" -सूत्रकृतांगसूत्र-१:१:१४:२२ । ४. भगवतीसूत्र भाग १, १:८:२७५-२७७ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास २७ हे भगवन् ! जीव सकम्प हैं या निष्कम्प ? हे गौतम ! जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी।' भगवन् ! जीव की सबलता अच्छी है या दुर्बलता? जयन्ती! कुछ जीवों की सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की दुर्बलता।२ इस प्रकार हमें जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में विभज्यवाद, अब्याकृतवाद के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं । जहाँ तक बुद्ध और महावीर की विभज्यवादी दृष्टि का प्रश्न है ऐसा नहीं लगता है कि दोनों में कोई मूलभूत अन्तर हो । विभज्यवाद में दोनों ही कथ्य सम्बन्धी विरोध को विधिमुख से स्वीकार करते हैं। मज्झिमनिकाय और भगवतीसूत्र के पूर्व प्रस्तुत सन्दर्भो को देखने से इसी बात की पुष्टि होती है। जहाँ तक अव्याकृतता और अवक्तव्यता का प्रश्न है, जैन और बौद्ध दष्टिकोण थोड़े भिन्न प्रतीत होते हैं। बुद्ध जिन संदर्भो में अव्याकृतता को स्वीकार करते हैं वहाँ ऐसा लगता है कि वे उसे समग्र रूप से ही स्वीकार कर रहे हैं। जो प्रश्न अव्याकृत हैं वे पूरी तरह से अव्याकृत हैं। उन्हें किसी भी रूप में व्याकृत नहीं किया जा सकता। जबकि जैन-परम्परा में जिस अवक्तव्यता को स्वीकार किया गया है। वह अवक्तव्यता भी निरपेक्ष नहीं सापेक्ष ही है। जो अवाच्य या अवक्तव्य है, वह वक्तव्य भी है और जो वक्तव्य है, वह अवक्तव्य भी है। दूसरे शब्दों में जैन दष्टि से सत्ता अंशतः वाच्य और समग्रतः अवाच्य है । उसमें वाच्यता और अवाच्यता दोनों ही सापेक्ष रूप से स्वीकृत हैं। इस प्रकार बुद्ध का अव्याकृतवाद जैन परम्परा की अवक्तव्य की धारणा से किसी सीमा तक भिन्न है। यद्यपि दोनों ही अवक्तव्यता को स्वीकार करते हैं, तथापि दोनों की अवक्तव्यता सम्बन्धी अवधारणायें एक नहीं कही जा सकती। इस सम्बन्ध में उनमें आंशिक समानता और आंशिक असमानता है। १. भगवतीसूत्र भाग ७, २५:४:३५। २. भगवतीसूत्र भाग ४, १२:२:८ । ३. विशेष जानकारी के लिए देखें-'सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य ? जैन दर्शन के संदर्भ में ।" लेखक-डा० सागरमल जैन । प्रकाशित-तुलसी प्रज्ञा-अक्टूबर, नवम्बर १९८१ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या ___ जैन एवं बौद्ध परम्परायें एकान्तिक धारणाओं के निराकरण के सन्दर्भ में दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाती हैं। जहां बौद्ध परम्परा उभय विकल्पों का निषेध करती है वहाँ जैन परम्परा उन उभय विकल्पों को स्वीकार करके चलती है, जहाँ बौद्ध दृष्टि विश्लेषणात्मक और निषेधात्मक है वहाँ जैन दृष्टि संश्लेषणात्मक और स्वोकारात्मक है। बौद्ध परम्परा निषेध मुख से दोनों ही विकल्पों को अस्वीकार कर देती है और जैन परम्परा विधि मुख से दोनों हो विकल्पों को सापेक्ष रूप से स्वीकार करती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जहाँ महावीर का विभज्यवाद अपने मूल स्वरूप को स्थिर रखते हुए विधिमूलक पद्धति के द्वारा विकसित होकर अनेकान्तवाद में पर्यवसित हुआ वहाँ बुद्ध का विभज्यवाद अव्याकृतवाद और निषेधमूलक पद्धति के माध्यम से गुजरता हुआ अन्त में शून्यवाद में पर्यवसित हो गया। (३) जैन-परम्परा में समन्वय का प्रयास बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों का यह विचार है कि कोई भी एकान्तिक मान्यता सत्य नहीं होती है। अतः सभी एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना ही इन दर्शनों का मुख्य उद्देश्य रहा है। बुद्ध इन एकान्तिक मान्य. ताओं से बचने के लिए ही तात्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में अक्सर या तो मौन धारण कर लेते थे या फिर उन्हें अव्याकृत कहकर टाल देते थे। यद्यपि कभी-कभी विभज्यवाद के आधार पर उन प्रश्नों का सम्यक विश्लेषण कर उत्तर देने का प्रयास भी करते थे; जबकि महावीर एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए तात्त्विक समस्याओं के संदर्भ में सर्वथा एकान्तिक कथनों का प्रतिषेध कर विभज्यवादी एवं सापेक्ष कथन पद्धति के द्वारा उनका उत्तर देते थे। इन दोनों ही महापुरुषों की दृष्टि में पूर्ण एकान्तिक दृष्टि सत्यता का प्रतिषेध करतो है। यही कारण है कि इन्होंने किसी भी एकान्तिक विचारधारा का अनुगमन नहीं किया और अपने युग में प्रचलित एकान्त उच्छेदवादो तथा शाश्वतवादी दृष्टियों का विरोध किया। इसीलिए वे किसी भी वस्तु को न तो मात्र नित्य कहना चाहते थे और न तो मात्र अनित्य । किन्तु जहाँ बुद्ध ने दोनों हो मन्तव्यों का निषेध कर अशाश्वतानुच्छेदवाद का समर्थन किया और औपनिषदिक् नेति-नेति की तरह १. देखें-जैन भाषादर्शन, डॉ० सागरमल जैन पृ० ९-१० । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास २९ वस्तुस्वरूप की निषेधपरक व्याख्या करने का प्रयत्न किया; वहीं महावीर ने विधायक दृष्टिकोण अपनाकर वस्तु-स्वरूप का विवेचन किया अर्थात् जिन प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा, उन्हीं प्रश्नों को महावीर ने व्याकृत बताया; जहाँ बुद्ध ने निषेधात्मक उत्तर दिया, वहीं महावीर ने विधिरूप से उत्तर दिया । इसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए पं० दलसुख मालवणिया ने कहा है कि भगवान् बुद्ध ने शाश्वत और विच्छेद इन दोनों का निषेध किया और अपने मार्ग को 'मध्यम मार्ग' कहा । जबकि भगवान् महावीर ने शाश्वत और उच्छेद इन दोनों को अपेक्षा भेद से स्वीकृत करके विधि मार्ग अपनाया ।' (१) महावीर का विधायक दृष्टिकोण तथागत बुद्ध लोक की सान्तता - अनन्तता और जीव की नित्यताअनित्यता तथा जीव और शरीर के भेदाभेद सम्बन्धी दार्शनिक प्रश्नों पर मौन रहे और इन प्रश्नों को उन्होंने अनुपयोगी बताया, क्योंकि जब वस्तु नित्यता- अनित्यता, एकता - अनेकता आदि सभी पक्ष सापेक्षिक रूप से विद्यमान हैं तब वस्तु स्वरूप का विवेचन एकान्तिक भाषा के द्वारा कैसे सम्भव हो सकता है । किन्तु बुद्ध की अपेक्षा महावीर की विशेषता यह है कि उन्होंने उपर्युक्त सभी प्रश्नों को सार्थक एवं व्याकरणीय बताया; क्योंकि जब वस्तु स्वरूप में नित्यता- अनित्यता आदि सभी पक्ष विद्यमान हैं तब किसी एक पक्ष को स्वीकार करना अथवा उन सबका निषेध करना कहाँ का न्याय है ? वस्तुतः उनमें से किसी एक को स्वीकार करने पर जो दोष उत्पन्न होता है वही दोष उन सबका निषेध करने पर भी उत्पन्न होता है । यही कारण है कि महावीर ने उनमें से किसी भी पक्ष का निषेध न कर उन सबको स्वीकार किया और उनमें समन्वय का प्रयत्न किया । उनके दृष्टिकोण से वस्तु को यथार्थता या उसकी सम्पूर्णता का ज्ञान एकान्तता या दुराग्रह से नहीं हो सकता, क्योंकि उससे विपक्ष में निहित सत्य का ज्ञान प्राप्त करना असंभव हो जाता है। वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद आदि जितने भी मत-मतान्तर हैं, वे सभी वस्तुतत्त्व के कम से कम एक-एक पक्ष का निरूपण तो करते ही हैं । इसलिए आपेक्षिक रूप से सत्य हैं । यद्यपि महावीर ने भी उन १. श्री आनन्दऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० २६६ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या समस्त विचारधाराओं को मिथ्या धारणायें ही कहा है। तथापि वे उन्हें तभी तक मिथ्या कहते हैं जब तक वे एकान्तिक हों; एकान्तरूप से वस्तुतत्त्व का निरूपण करते हुए अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध करती हों; किन्तु ज्योंही वे सापेक्षिक होकर अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध न करते हुए वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करती हैं त्योंहो वे सत्य हो जाती हैं।२ अतएव किसी एक पक्षीय आग्रह से सत्य का ज्ञान संभव नहीं है। सत्य के ज्ञान के लिए तो उनका समन्वय आवश्यक है। इसीलिए जैन विचारकों ने समन्वयात्मक प्रवृत्ति अपनाकर वस्तु-स्वरूप का विवेचन किया और तत्कालीन सभी प्रश्नों का उत्तर विधायक रूप से दिया। - इस प्रकार बौद्ध परम्परा में जिन प्रश्नों को अर्थहीन एवं अनुपयोगी कह कर टाल दिया गया था उन्हीं प्रश्नों से हो जैन परम्परा के दार्शनिक चिन्तन की शुरुआत होती है। इस बात का स्पष्टीकरण जैन-आगम आचारांगसूत्र से होता है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध में कहा गया है-इस संसार में कई जोवों को ऐसा ज्ञान नहीं होता कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ, या पश्चिम दिशा से आया हूँ अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ ? मैं उर्ध्व दिशा से आया हूँ या अधो दिशा से आया हूँ ? मैं किसी एक दिशा से आया हूँ या विदिशा से आया हूँ। इसो प्रकार कई जीवों को ऐपा भी ज्ञान नहीं होता कि मेरो आत्मा पूनर्जन्म धारण करने वाली हैं या पुनर्जन्म धारण करने वाली नहीं है ? मैं (पूर्वजन्म में) कौन था ? यहाँ से मरकर (आगामो जन्म में) क्या होउँगा ? आचारांग के इस प्रकथन से यह फलित होता है कि जीव को नित्यताअनित्यता आदि तात्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में चिन्तन होना चाहिए। ऐसे प्रश्नों के प्रति उदासीन रहना उचित नहीं है। उनके समाधान को ढूढ़ने का प्रयत्न करना ही चाहिए। ___ इसी ग्रन्थ में आगे पुनः कहा गया है कि "जो आत्मा को पुनर्जन्म धारण करने वाला, अतएव शाश्वत एवं स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में जान १. (अ) सूत्रकृतांग-१:१:१:२३-२५ । (ब) सूत्रकृतांग-१:१:२:१०-१३-३२ । २. विशेष जानकारी के लिये देखें, इसो ग्रन्थ में विवेचित नयवाद । ३. आचारांगसूत्र १:१:१:१-३ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ३१ } लेता है; वही आत्मवादी है, वही लोकवादी है, वही कर्मवादी है और वही क्रियावादी है ।" " आशय यह है कि जो एक से दूसरे भव में जाने वालो आत्मा को स्वीकार करेगा, वही इहलोक - परलोक को स्वीकार करेगा, उसे उनके कारणभूत कर्म को भी स्वीकार करना पड़ेगा और जो कर्म को स्वीकार करेगा उसे कर्म की कारण भूत क्रियाओं को भी स्वीकार करना पड़ेगा । क्रिया के बिना कर्म कर्म के बिना इहलोक-परलोक और इहलोकपरलोक के बिना आत्मा का स्वतन्त्र और शाश्वत अस्तित्व नहीं बन सकता । अतएव आत्मा या जीव को नित्य मानना आवश्यक है। किन्तु जैन- विचारकों ने आत्मा के नित्यत्व पक्ष को स्वीकार करने के बाद भी उसके अनित्यत्व पक्ष को अस्वीकार नहीं किया; अपितु शाश्वतवाद के साथ ही विच्छेदवाद को भी स्वीकार कर उनमें समन्वय करने का प्रयास किया । जहाँ जेन दार्शनिकों ने लोक और जीव को नित्य कहा वहीं उसे अनित्य भी कहा था । उनका यह प्रकथन निम्नलिखित उद्धरण से परिपुष्ट होता है जब जमाली ने पूछा कि, "भगवन् ! लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ?" तब महावीर ने कहा - " हे जमाली ! लोक शाश्वत है, क्योंकि "लोक कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा" - ऐसा नहीं है । लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । हे जमालो ! लोक अशाश्वत भी है, क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है, उत्सर्पिणी काल होकर अवसर्पिणी काल होता है; अर्थात् उसमें परिवर्तन या विकास और ह्रास होता है । अतएव लोक नित्य-अनित्य दोनों है और जिस प्रकार लोक नित्य और अनित्य दोनों है उसी प्रकार जोव या आत्मा भी नित्य और अनित्य दोनों है । जहाँ द्रव्य दृष्टि से जो नित्य है वहीं पर्याय दृष्टि से जोव अनित्य भी है । चेतना का जोव से कभी विच्छेद नहीं होता है; क्योंकि वह ( जीव ) चैतन्य स्वरूप है । अतएव चैतन्य गुण की दृष्टि से भी जीव नित्य है । किन्तु उसकी अन्य पर्यायें उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं । अतएव पर्यायों की दृष्टि से जीव अनित्य है । १. आचारांगसूत्र - १ : १ १ : ५ ( से आयावादी, लोयाबादी, कम्मावादी, किरियावादी ) । २. भगवतीसूत्र, भाग ४, ९:३३:३४ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार जीव या आत्मा में जैन-दार्शनिकों ने नित्यता के साथ ही अनित्यता को भी प्रश्रय दिया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि जीव परिणामी नित्य है। इसीलिए उसमें परिवर्तन भी होता रहता है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि-'हे जमाली ! जीव शाश्वत है, क्योंकि “जीव कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा"ऐसी बात नहीं है, किन्तु “जीव था, है और रहेगा।" यावत् जीव नित्य है। हे जमाली ! जीव अशाश्वत भी है क्योंकि वह नैरयिक होकर तिर्यञ्च योनिक हो जाता है, तिथंच योनिक होकर मनुष्य हो जाता है और मनुष्य होकर देव हो जाता है।" गौतम ने भी जब महावीर से पूछा कि हे भगवन् ! नैरयिक जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? तो उन्होंने यही कहा कि हे गौतम ! जीव कश्चित् शाश्वत है और कश्चित् अशाश्वत है । इसका कारण पूछने पर पुनः उन्होंने कहा कि वह द्रव्यदृष्टि से शाश्वत है और पर्याय या भाव की दृष्टि से अशाश्वत है ।"३ ।। ___ इस प्रकार जैन विचारकों के दृष्टिकोण से लोक और जीव नित्यानित्यात्मक है, भावाभावात्मक है। अतएव वे उन्हें न तो मात्र नित्य कहना चाहते और न तो मात्र अनित्य । अपितु उन्हें नित्य-अनित्य दोनों ही कहते हैं । इसी प्रकार लोक और जीव की सान्तता-अनन्तता के विषय में भी अपना मत व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि वह न तो मात्र एक है, न तो मात्र अनेक; न तो केवल सान्त है और न तो केवल अनन्त । अपितु वह एक भी है, और अनेक भी है। वह सान्त भी है और अनन्त भी है। उनका कहना है कि लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है किन्तु वह भाव अर्थात् पर्यायों की अपेक्षा से अनन्त है। क्योंकि लोक द्रव्य की अनन्त पर्याय हैं। काल की दृष्टि में लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई भी काल नहीं था जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। लोक की इस सान्तता और अनन्तता को सिद्ध करने के लिए वे उसके चार विभाग किये हैं-द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक। इन चारों विभागों के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि लोक सान्त भी है और अनन्त भी है; एक भी है और अनेक भी है। इसी प्रकार जीव १. भगवतीसूत्र, भाग, ४, ९:३३:३४ । २. भगवतीसूत्र, भाग, ३, ७:३:१५ । ३. भगवतीसूत्र, भाग १, २:१ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास की सान्तता-अनन्तता के विषय में उनका कहना है कि "द्रव्य ( दृष्टि ) से जीव एक है, ( इसलिए ) ससीम या सान्त है। क्षेत्र की दष्टि से भी जीव असंख्यात प्रदेश वाला है, ( वस्तुतः वह) असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन किये हुए है, ( इसलिए ) समीप या सान्त है । काल (की दृष्टि) से जीव नित्य है, अर्थात् ऐसा कोई समय नहीं था, न है और न होगा, जब जीव न रहा हो, यावत् जीव नित्य है, अन्तरहित है (और ) भाव ( की अपेक्षा ) से जीव के अनन्त ज्ञान-पर्यायें हैं, अनन्त दर्शन-पर्यायें हैं, अनन्त चरित्र-पर्यायें हैं और अनन्त अगरुलघु पर्याय हैं, ( इसलिए जीव ) अन्तरहित हैं। इस प्रकार द्रव्य जीव और क्षेत्र जीव सान्त ( अन्त सहित ) हैं तथा काल जीव और भाव जीव अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक ! जीव अन्त सहित भी है और अन्त रहित भी है।'' जीव और शरीर परस्पर भिन्न है या अभिन्न है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों ने दोनों ही पक्षों (भेद-अभेद) को स्वीकार कर उनमें समन्वय किया और कहा कि एकान्त भेद या एकान्त अभेद मानने पर जो दोष उत्पन्न होते हैं वे दोष उभय रूप मानने पर नहीं उत्पन्न होते । अतएव जीव-शरीर में भेद और अभेद दोनों ही पक्षों को स्वीकार करना चाहिए। भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर के नष्ट होने पर भी जीव रहता है, इसका पुनर्भव होता है। सिद्धावस्था में भी तो अशरीरी आत्मा रहती ही है। आचारांगसूत्र में मुक्तात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है, वह न कृष्ण, नील, पोत, रक्त एवं श्वेत वर्णवाला है, न दुर्गन्ध एवं सुगन्ध वाला है, न तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है, न गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत एवं उष्ण स्पर्श वाला है, न स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद वाला है अर्थात् शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विशेषणों से रहित है। इसलिए मुक्तात्मा को अपद कहा गया है।"२ इस प्रकार जैन आचार्यों के दृष्टिकोण से यदि आत्मा को शरीर से भिन्न न माना जाय तो उपर्युक्त प्रकथन सर्वथा मिथ्या और निराधार हो जायेगा । मुक्तात्मा के सभी विशेषण शरीर-भिन्न आत्मा पर ही लागू होते १. भगवतीसूत्र-भाग १, २:१ । २. आचारांगसूत्र-१:५:६:६ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या हैं। इसी प्रकार अभेद इसलिए मानना चाहिए क्योंकि संसारी जीवन में जीव और शरीर का अग्निलौह-पिण्डवत् सम्बन्ध होता है क्योंकि कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। साथ ही साथ, शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन तो होता ही है। अतः आत्मा और शरीर में अभेद सम्बन्ध भी मानना आवश्यक है। भगवतीसूत्र' में गति, इन्द्रिय, कषाय, लेश्या, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वेद ये जीव के दस परिणाम गिनाये गये हैं। ये सभी परिणाम शरोरयुक्त संसारी जीव पर लागू होते हैं। यदि जीव का शरीर से अभेद न माना जाय तो इन परिणामों को जीव का परिणाम नहीं कहा जा सकता। इस संदर्भ में स्वयं महावीर ने ही कहा है कि "हे गौतम ! मैं यह जानता है, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित जाना है और मैंने यह सर्वथा जाना है कि तथाप्रकार के रूप वाले, कर्म वाले, राग वाले, वेद वाले, मोह वाले, लेश्या वाले, शरीर वाले और उस शरीर से अविमुक्त जोव के विषय में ऐसा ही ज्ञात होता है, यथा-उस शरीर युक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धिपन या दुर्गन्धिपन, कटुपन यावत् मधुरपन तथा कर्कशपन अथवा यावत् रूक्षपन होता है। जीव के ये सारे विशेषण आत्मा और शरीर के अभेद मानने पर ही लागू होते हैं। वस्तुतः आत्मा और शरीर में भेदाभेद सम्बन्ध है। यह तथ्य निम्नलिखित संवाद से और भी स्पष्ट हो जाता है। भगवन् ! काय (शरीर) आत्मा है या आत्मा से भिन्न ? गौतम ! काय, आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी । भगवन् ! काय रूपी है या अरूपी ? गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी। इसी प्रकार पूर्ववत् एक-एक प्रश्न करना चाहिए। हे गौतम ! काय सचित्त भी है और अचित्त भी। काय जीव रूप भी है और अजीव रूप भी। काय जीवों के भी होते हैं और अजोवों के भो ।' इस प्रकार उक्त १. भगवतीसूत्र, भाग ५, १४:४:७ । २. भगवतीसृत्र, भाग ५, १७:२ । ३. भगवतीसूत्र भाग ५, १३:७:१३,१४ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ३५ प्रश्नों का उत्तर देकर यह परिपुष्ट किया गया है कि जीव और शरीर में भेद भी है और अभेद भी है। वस्तुतः आत्मा को शरीर से न तो अत्यन्त भिन्न माना जा सकता है और न तो अत्यन्त अभिन्न ही । अतः आत्माशरीर में भेदाभेद सम्बन्ध है । 1 इस प्रकार जैन विचारक तत्कालीन नाना प्रश्नों के उत्तर विधायक रूप से देते थे । उनके इसी विधायक दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि उन्हें वस्तुओं में नित्यत्व - अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व, भेदत्व - अभेदत्व आदि अनेक पक्षों को स्वीकार करना पड़ा । तत्पश्चात् वस्तुओं की अनन्त धर्मात्मकता और अनेकान्तवाद जैसे सिद्धान्तों की स्थापना हुई । जिनका विवेचन हम आगे प्रस्तुत करेंगे । (२) वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता जैन दर्शन का प्रतिपाद्य विषय है वस्तु-स्वरूप की अनेकान्तात्मकता । उसके अनुसार वस्तु अनेकान्त स्वरूप है । अनेकान्त शब्द का आशय है अनेक अन्तों वाला (अनेक + अन्त) | अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ है धर्म | इस प्रकार अनेकान्त का अर्थ हुआ वस्तु का एक से अधिक यानी अनन्त धर्मात्मक होना- "अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" । वस्तु का स्वरूप विराट् है । वह अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों का अखण्ड - पिण्ड है । उसमें अवस्थित उन अनन्त धर्मों में से समय-समय पर व्यक्ति अपने प्रकथन के उद्देश्य से अपेक्षित धर्मों को हो ग्रहण करता है, जबकि उसमें उसके अतिरिक्त और भी अनेक धर्म विद्यमान हैं । परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से उस वस्तु पर स्वेच्छित धर्म का आरोपण करता है। अपितु वस्तुएँ स्व-स्वरूप से हो अनन्तधर्मात्मक होती हैं और यही कारण है कि वस्तुएँ अनन्त धर्मात्मक कहलाती हैं। डॉ० सागरमल जैन का कहना है कि "वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्त धर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तु के भावात्मक गुण धर्मों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगो । उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसकी पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि-आदि । यह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याझ्या तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का फूल, मोगरे का फूल या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुनः यदि वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच जायेगी। वस्तु के स्वरूप का निर्धारण उसके भावात्मक और अभावात्मक दोनों ही प्रकार के धर्मों के आधार पर होता है। वह क्या है और क्या-क्या नहीं है-इन दोनों से मिलकर वह अपना वस्तु-स्वरूप पाती है। कुर्सी को कुर्सी होने के लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि उसमें कुर्सी के गुणधर्म हैं अपितु उसकी मेज आदि से भिन्नता भी आवश्यक है। अतः यह कथन सत्य ही है कि वस्तुतत्व अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुंज है" ।' यद्यपि हमारी अनुभूति में वस्तुओं के कुछ ही गुणधर्मों का ग्रहण होता है किन्तु उसमें मात्र उतने ही गुणधर्म नहीं होते। वस्तु में तो ऐसे भी अनेक गुणधर्म हैं जिनका ज्ञान हमारी सामान्य अनुभूति से परे है । उन सबका ज्ञान केवल सर्वज्ञ को ही हो पाता है। वस्तुतः वस्तु नाना रूपवती सत्ता है। एक-एक प्रकथन उस नाना रूपवती सत्ता के एक-एक अंश का प्रतिपादन करने में अपना महत्त्व रखता है। यह सम्भव है कि वस्तु स्वरूप सम्बन्धी दो भिन्न प्रकथन परस्पर विरोधी प्रतीत हों; किन्तु फिर भी, उनमें आपस में किसी प्रकार का विरोध नहीं होता है क्योंकि दोनों ही कथ्य धर्म अपेक्षा भेद से उस वस्तु में विद्यमान हैं। स्वयंभूस्तोत्र में यह कहा गया है कि "विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं विवक्षा से उनमें मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है ।२ इसका आशय यही है कि विधि और निषेध, यद्यपि परस्पर विरोधी हैं किन्तु वस्तु के स्वरूपनिर्धारण में दोनों की अपेक्षा है। इन दोनों में से किसी एक के अभाव में वस्तु का अपना स्वरूप नहीं बन सकता; अन्यथा वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी। १. द्रष्टव्य-जैन-दर्शन और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५८. २. विधिनिषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ । विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था ॥ -स्वयंभूस्तोत्र, का० २५. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास हमने पीछे कहा है कि कुर्सी को होने के लिए उसमें मेज के गुण-धर्मों का अभाव होना ही चाहिए। अतः वस्तु को वस्तु होने के लिए उसमें अभावात्मक गुण-धर्म का निषेधात्मक पक्ष भी स्वीकार्य है । वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुणधर्म मान लेती है वे भी एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ हम प्रतिदिन यह व्यवहार में देखते हैं कि एक ही व्यक्ति पितृत्व और पुत्रत्व अथवा भ्रातृत्व और पतित्व आदि विरोधी गुणधर्मों से सम्पन्न है। वस्तुतः जो व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है वही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है। इतना ही नहीं, एक ही आम्रफल में अम्लता के साथ ही मधुरता भी विद्यमान रहतो है; क्योंकि यदि कच्चे आम्रफल में भी व्यक्त या अव्यक्त रूप से मधुरता का गुण न होता तो पकने पर वह मधुरता के गुण से युक्त नहीं हो पाता। अतः उसमें अपेक्षाभेद से अम्लता के साथ ही मधुरता भी विद्यमान रहती है। उसमें अन्तर सिर्फ इतना ही होता है कि उसके कच्चेपन में अम्लता की प्रधानता रहती है और पकने पर मधुरता को । यदि उसमें किसी एक भी गुण का नितान्त अभाव होता तो निश्चय हो कालान्तर में उस गुण का व्यक्त होना कथमपि संभव नहीं होता। परन्तु कालान्तर से वह गुण व्यक्त होता है और उसकी अनुभूति भी होती है। अतः उसमें अपेक्षा भेद से दोनों गुणों का रहना संभव है। इसी प्रकार एक ही वस्तु में अनेक परस्पर विरोधी गुणधर्म अपेक्षाभेद से विद्यमान रहते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार वस्तुएँ अनेक धर्मात्मक होने के साथ ही परस्पर विरोधी धर्म युगलों से भी युक्त होती हैं। अतः वे सदसदात्मक, नित्यानित्यात्मक, भावाभावात्मक भी हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि सभी वस्तुएँ अनेक धर्मात्मक होने के कारण अनेकान्त स्वभाव वाली होती हैं......जो तदात्मक है वह अतदात्मक है, जो एकान्तात्मक है वह अनेकान्तात्मक है, जो सदात्मक है वह असदात्मक १. कीदृशं वस्तु ? नानाधर्मयुक्तं विविध स्वभावैः सहितं कथंचित् अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वप्रमुखैराविष्टम् । -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका, गा० २५३. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी है।' अर्थात् नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म युगल एक ही वस्तु के दो पक्ष या पहलू हैं। वे एक ही वस्तु में सदा अपेक्षाभेद से विद्यमान रहते हैं। सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा अनित्यत्व स्वरूप कोई वस्तु नहीं। नित्यता और अनित्यता दोनों को एक दूसरे की अपेक्षा है। नित्यता के बिना अनित्यता और अनित्यता के बिना नित्यता और इसी प्रकार एकता के बिना अनेकता और अनेकता के बिना एकता का कोई अर्थ नहीं; वे परस्पर सापेक्ष हैं। डा० सागरमल जैन के शब्दों में अस्तित्व नास्तित्वपूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्वपूर्वक है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति नहीं है । पंचास्तिकाय में भी कहा गया है कि किसी भाव अर्थात् सत्त्व का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत्त्व का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ (धर्म) अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद-व्यय करते रहते हैं। लोक में जितने सत् हैं वे त्रैकालिक सत् हैं। उनकी संख्या में कभी भी हेर-फेर नहीं होता। उनके गण और पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है। उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता।' पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा; क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण है कि जैन आचार्यों १. "स तु सर्वमनेकांतात्मकमित्यनुशास्ति'"....तत्र यदेव तत्तदेवातत् यदेवैक तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासव यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येव वस्तु । -समयसार गा० २४७ की टीका. २. जैन-दर्शन और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में, पृ. ५९. ३. भावस्स णत्थि णासो णत्थिअभावस्स चैव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ।। -पंचास्तिकाय, का. १५.. ४. जैन-दर्शन और संस्कृति-आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५९. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ने वस्तु या सत्ता को परिणामी नित्य कहा है। उनका कहना है कि पदार्थ सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य नहीं है किन्तु परिणामी नित्य है। परिणामी नित्य का अर्थ है-"प्रतिसमय निमित्त के अनुसार नाना रूपों में परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वरूप का परित्याग न करना।" प्रत्येक द्रव्य हर समय अपने निमित्तों के कारण अपने मूल स्वरूप का परित्याग किये बिना परिवर्तित होता रहता है अर्थात् उसका निमित्त उसको विभिन्न पर्यायों (अवस्थाओं) में बदलता रहता है। जैसे यद्यपि स्वर्णकार के कारण स्वर्ण का विभिन्न रूपों में परिवर्तन होता रहता है। फिर भी स्वर्ण अपने स्वर्णत्व गुण को नहीं छोड़ता है। पर्यायों को यह परिवर्तनशीलता ही द्रव्य का परिणमन कहलाती है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक द्रव्य में नित्यता-अनित्यता दोनों ही धर्म विद्यमान हैं। एक ऐसा है जो तीनों कालों (भूत, भविष्य और वर्तमान) में शाश्वत है और दूसरा ऐसा है जो सदा परिवर्तनशील है। इसी शाश्वतता के गुण-धर्म के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक अर्थात् स्थिर है और परिणमनशीलता के कारण प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् अस्थिर है। यही कारण है कि महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय करते हुए, अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तु-तत्त्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया।' वस्तुतः प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों गुण विद्यमान हैं। ध्रौव्य गुण नित्यता और उत्पाद एवं व्यय (उत्पत्ति और विनाश) अनित्यता के परिचायक हैं। यद्यपि उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यता के गुण एक दूसरे से भिन्न हैं फिर भी, वे एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं । यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को एक दूसरे से स्वतन्त्र या निरपेक्ष मानें, तो उनमें से किसी की भी सत्ता नहीं रह जायेगी; क्योंकि उत्पाद के बिना व्यय और ध्रौव्य का कोई अर्थ नहीं, कोई अस्तित्व नहीं । इसी प्रकार ध्रौव्य के बिना उत्पाद और व्यय भी असम्भव है; क्योंकि उत्पाद और व्यय का आधार कोई वस्तूतत्व होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि तीनों उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को एक दूसरे की अपेक्षा है। अतः विश्व की व्यवस्था में तीनों का रहना आवश्यक है। द्रव्य-स्वरूप का लक्षण करते हुए सन्मति-तर्क में कहा गया है कि उत्पाद १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र - ५:२९. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या एवं नाश रूप पर्यायों से रहित द्रव्य नहीं होता और द्रव्य अर्थात् ध्रुवांश से रहित पर्याय नहीं होते, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये तीनों द्रव्य -सत् के लक्षण हैं । " ४० जैन- दार्शनिकों ने इन्हीं तीनों शक्तियों ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ) को त्रिपदी पद से भी संबोधित किया है । भगवतीसूत्र में इस त्रिपदी का निर्देश करते हुए कहा गया है - ' उप्पन्नेवा विगयेवा धुवेवा' । जैन - दर्शन के अनुसार यही त्रिपदी अनेकान्तवादी विचार पद्धति का आधार है । स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धो विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है । त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हुआ है । यह वस्तुतत्त्व के अनेकान्तिक स्वरूप को सूचक है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र के विविध प्रसंगों में किया 2 गया है । उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि भगवन् ! जीव नित्य है या अनित्य ? तब महावीर ने उत्तर देते हुए कहा कि गौतम ! जीव अपेक्षा भेद से नित्य भी है और अनित्य भी । पुनः गौतम ने पूछा भगवन् ! यह कैसे ? तब महावीर ने बताया कि गौतम ! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य । इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल से कहा था कि सोमिल ! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतना की अवस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ । इसी प्रकार भगवती सूत्र में वस्तुतस्त्व की अनन्तधर्मात्मकता और उसकी अनेकान्तिकता का प्रतिपादन बहुत ही विस्तार से किया गया है । १. दव्वं पज्जविउयं दव्व विउत्ता या पज्जवा णत्थि । उपाय-द्वि-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं || - सिद्धसेन दिवाकर कृत- सन्मतितर्कप्रकरणम् भाग ३, १:१२. २. द्रष्टव्य - जैन- दर्शन और संस्कृति : आधुनिक सन्दर्भ में, पृ० ५९ । ३. गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया भावट्टयाए असासया । ४. भगवतीसूत्र भाग ६, १८:१०:१८ । — भगवतीसूत्र, भाग ३,७:२:२३. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इस प्रकार आनुभविक एवं शास्त्रीय साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक, अनेकान्तिक एवं अनेक विरोधी धर्म युगलों वाली हैं। परन्तु यहाँ कुछ आचार्यों का यह भी कहना है कि एक ही वस्तु तत्व में समस्त विरोधी धर्म युगलों का रहना सम्भव नहीं है; क्योंकि ऐसा होने पर एक हो चेतन्य स्वरूप आत्मा को चेतन-अचेतन दोनों ही मानना पड़ेगा। जबकि जो चेतन है उसे अचेतन और जो अचे. तन है उसे चेतन नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जो सुन्दर है उसे असुन्दर और जो असुन्दर है उसे सुन्दर नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः चैतन्य और अचैतन्य, सुन्दर और असुन्दर आदि विरोधी धर्म युगलों का एकाश्रयी सिद्ध करना कथमपि सम्भव नहीं है । धवला में भी कहा गया है कि यदि ( वस्तू में ) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाय तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग भी आ जायेगा। सत्य यह है कि जिन धर्मों का वस्तु तत्त्व में अत्यन्ताभाव है उन धर्मों का उसमें उपस्थित रहना कथमपि संभव नहीं है। किन्तु जैन आचार्यों के अनुसार यदि ये परस्पर विरोधी धर्मयुगल वस्तु में नहीं हैं तो भी इससे वस्तु के अनन्त धर्मात्मकता का हनन नहीं होता। वस्तुएँ तो अनन्त धर्मात्मक हैं ही। उसमें नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म-यगलों का रहना भी सम्भव है। उसमें यदि किन्हीं धर्म युगलों का रहना सम्भव नहीं है तो वे हैं उसकी सत्ता के निर्धारक भावात्मक धर्मयुगल । पर उसका निषेधात्मक धर्मयुगल तो है ही। वस्तुतः जब जैन-आचार्य अचैतन्य धर्म को आत्मा में घटाते हैं तब उनके उस कथन का प्रतिपाद्य यही होता है कि आत्मा में 'अचैतन्यता का अभाव' रूप धर्म है। उनके इस कथन से भी तो आत्मा की चेतनता की ही पुष्टि होती है। वस्तुतः उसकी अनेकान्तता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोगव्यवच्छेदिका में वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद के मुद्रा से युक्त हैं कोई भी उसका १. (अ) धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ । (ब) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग १, पृ० ११३ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या उल्लंघन नहीं कर सकता। ___ अतः वस्तुएँ अनेकान्तिक एवं अनन्त धर्मात्मक हैं। यद्यपि यह ठीक है कि वस्तुओं का यह अनेकान्तिक और अनन्तधर्मात्मक स्वरूप व्यक्ति को असमंजस में डाल देता है किन्तु जब वस्तु का स्वरूप ही कुछ इस तरह का है तो इसके लिए कोई कर ही क्या सकता है ? बौद्ध दार्शनिक धर्मकोति का भी यही कहना है “यदींदं स्वयमेभ्यो रोचते के वयं ?" पुनः हमारा विवेचनीय विषय वस्तुतत्त्व गुण-पर्यायों के आश्रय के अतिरिक्त और है ही क्या ? वह मात्र गुण-धम-पर्यायों का पुंज ही तो है। इस बात को पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी स्वीकार किया है। वे भी द्रव्य को "गुण पर्यायवत् द्रव्यम्" ही कहकर परिभाषित करते हैं। अतः वस्तुएँ अनन्त धर्मात्मक हैं। वस्तु के इसी अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है जिसे अब आगे प्रस्तुत किया जायेगा। (३) अनेकान्तवाद को अवधारणा ___ जैन-दर्शन एक वस्तुवादी एवं बहुतत्त्ववादी दर्शन है। वह तत्त्वों की अनेकता के साथ ही उनकी अनन्तधर्मता एवं अनेकान्तिकता में भी विश्वास करता है। उसके अनुसार न केवल विश्व में अनन्त सत्ताएँ हैं अपितु प्रत्येक सत्ता अनन्त धर्म, अनन्त गुण और अनन्त पर्यायों से युक्त है। इसीलिए वस्तु को अनन्त धर्मात्मक कहा गया है।२ मात्र इतना ही नहीं, प्रत्येक वस्तुओं में अनेक भावात्मक एवं अभावात्मक धर्मों के साथ ही परस्पर विरोधी धर्म युगल भी पाये जाते हैं। इसीलिए भी उसे अनेकान्तिक कहा गया है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वस्तु की अनन्तधर्मता एवं उसकी अनेकान्तिकता दोनों अलग-अलग बातें हैं । जहाँ अनन्त धर्मता वस्तु के अनन्त धर्मात्मक होने की सूचना देती है वहीं अनेकान्तिकता उससे एक कदम आगे बढ़कर यह सूचित करती है कि वह मात्र अनन्त धर्मात्मक ही नहीं है अपितु उसमें अनेक परस्पर विरोधी धर्म युगल भी हैं। एक ही वस्तु में एक ही साथ अनन्त धर्मों का पाया जाना वस्तु की अनन्त १. "आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वाद मुद्रा नतिमंदि वस्तु ।" -अन्ययोगव्यवच्छेदिका, ५-१ । २. "अनन्त धर्मात्मकं वस्तु'–स्याद्वादमञ्जरी श्लोक २२ की टोका । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ४३ धर्मात्मकता है और उसी अनन्त धर्मात्मक वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगल का पाया जाना उसकी अनेकान्तिकता है । विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों का पुंज है। साथ ही प्रत्येक धर्म अपने-अपने विरोधी धर्म युगल के साथ ही वस्तु में रहा हुआ है। पं० वंशीधर के अनुसार अनेकान्त शब्द का अर्थ है-“वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का पाया जाना" जिसमें अनेक शब्द का तात्पर्य दो संख्या से है।' ___ इस तरह अनेकान्त शब्द का वास्तविक अर्थ "वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों का एक साथ पाया जाना" होता है । यह अर्थ वास्तविक इसलिए है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मों में ही सम्भव है; तीन, चार आदि संख्यात, असंख्यात व अनन्त धर्म मिलकर कभी परस्पर विरोधी नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि एक धर्म का विरोधी यदि दूसरा एक धर्म है तो शेष सभी धर्म परस्पर विरोधी उन दो धर्मों से किसी एक धर्म के नियम से अविरोधी हो जायेंगे। उपर्युक्त कथन से यह बात सिद्ध होती है कि वस्तु का अनन्त धर्मात्मक होना एक बात है और उसका (वस्तु का) अनेकान्तात्मक होना दूसरी बात है। इस प्रकार जैन दर्शन की दृष्टि में वस्तु का स्वभाव अनन्त धर्मात्मक एवं अनेकान्तिक है। मात्र यही नहीं जैन आचार्यों ने अचेतन द्रव्यों के साथ ही चेतन द्रव्यों को भी अनन्त धर्मात्मक एवं अनेकान्तिक बताया है। उनके अनुसार चैतन्य स्वरूप आत्मा में भी अनन्त धर्म, अनन्त गुण एवं अनन्त पर्याय पाये जाते हैं। डॉ० चन्द्रधर शर्मा के शब्दों में, पुद्गल और जीव पृथक् एवं स्वतन्त्र सत्ताएँ हैं असंख्य पुद्गल अणु और असंख्य वैयक्तिक आत्मायें हैं जो पृथक एवं स्वतन्त्र रूप से सत् हैं और प्रत्येक अण और प्रत्येक आत्मा के अपने संभावित असंख्य आयाम हैं । ३ यद्यपि यहाँ डॉ० १. श्रमणोपासक, पृ० ७०२. वर्ष ६, अंक १६, फरवरी १९६९ । २. वही। ३. Matter (pudgala) and spirit (jiva) are regarded as separate and independent realities. There are innumerable material atoms and innumerable individuals souls which are all separately and independently real And each atoms and each soul possesses innumerable Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या शर्मा ने असंख्य एवं अनन्त शब्द के अन्तर को भुला दिया है; क्योंकि जैन आचार्यों के अनुसार असंख्य वह है जिसकी गणना संभव नहीं होतो परन्तु वह सान्त है जबकि अनन्त वह है जिसका अन्त कथमपि संभव नहीं है । यहाँ डॉ० शर्मा के असंख्य का आशय आत्मा की अनन्तता ( अनेकान्तता) से ही है । अतः इस असंख्य को अनन्त का हो सूचक समझना चाहिए । ४४ २ डॉ० मोहन लाल मेहता ने इस बात की पुष्टि की है कि आत्मा में भी चैतन्य गुण के अतिरिक्त अन्य गुण धर्म भी हैं। उनके हो शब्दों में - "उपयोग के अतिरिक्त उत्पाद, व्यय, धौग्य, सत्व, प्रमेयत्वादि अनेक साधारण धर्म भी उसमें (जोव में ) पाये जाते है ।" पंचास्तिकाय ? में भी कहा गया है कि किसी भाव अर्थात् सत् का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद व्यय करते रहते हैं । लोक में जितने सत् हैं, वे त्रैकालिक सत् हैं । उनको संख्या में कभी हेर-फेर नहीं होता । किन्तु उनके स्वरूप लक्षण को छोड़कर अन्य गुणों में और पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है । कोई भी द्रव्य इसका अपवाद नहीं हो सकता; अर्थात् प्रत्येक सत् प्रतिसमय परिणमन करता है । वह पूर्व पर्यायों को छोड़कर उत्तर पर्यायों को धारण करता है । उसकी यह पूर्व व्यय तथा उत्तरोत्पाद की धारा अनादि और अनन्त है, कभो भो विच्छिन्न नहीं होती । चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भो वस्तु सत्, उत्पाद व्यय के चक्र से बाहर नहीं है । यह उसका निज स्वभाव है । उसका मौलिक धर्म है | अतः उसे प्रतिसमय परिणमन करना चाहिए । आत्मा जो कि द्रव्य दृष्टि से नित्य है वहीं अपनी चेतन पर्यायों को aspects of its own. A thing has got an infinite number of characteristics of its own. —A Critical Survey of Indian Philosophy, p. 50. १. जैन दर्शन पृ० १५८. २. भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेवउप्पादो | गुणपज्जयेसु भावा उपाय वयं पकुव्वति । - पंचास्तिकाय, गा. १५. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास अपेक्षा से अनित्य है। चूंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप है अर्थात् ज्ञान और आत्मा में भी अपृथक् सम्बन्ध है और ज्ञान में उत्पाद-व्यय होता है। अतः आत्मा में भी उत्पाद-व्यय उपस्थित है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अन्य द्रव्यों के समान ही आत्मा भी अनेकान्त रूप है। धवला में भी तो यही कहा गया है कि आत्मा की अनेकान्तिकता असिद्ध नहीं है; क्योंकि अनेकान्त के बिना उसका अर्थक्रियाकारित्व नहीं बन सकता।' ___इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थों में चाहे वे चेतन हों या अचेतन; उनमें अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का सहवास है । जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ मात्र ही अनेकान्त रूप है। यही कारण है कि केवल एक ही दृष्टिकोण से दिये गये पदार्थ के निश्चय को जैन-दर्शन अपूर्ण एवं एकान्तिक समझता है और यह ठीक भी प्रतीत होता है; क्योंकि जब पदार्थ का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि उसमें अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अनेक प्रतिद्वन्दी परस्पर विरोधी धर्म भी सापेक्ष रूप से उपस्थित रहते हैं, उनका निषेध नहीं किया जा सकता, तब वस्तु के किसी एक धर्म के आधार पर उसका निश्चय करना एकान्तवाद का ही समर्थन करना है। डा० मोहन लाल मेहता का भी कहना है कि "जो लोग एक धर्म का निषेध करके दूसरे धर्म का समर्थन करते हैं वे एकान्तवाद की चक्की में पिस जाते । वस्तु का कथंचित् भेदात्मक है, कथंचित् अभेदात्मक है, कथंचित् सत्कार्यवाद के अन्तर्गत् है, कथंचित् असत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् निर्वचनीय है, कथंचित् अनिर्वचनीय है, कथंचित् तर्क-गम्य है, कथंचित् तर्क-अगम्य है। प्रत्येक दृष्टि की एक मर्यादा है उसका उल्लंघन न करना ही सत्य के साथ न्याय करना है। यही कारण है कि वस्तुओं को न केवल अस्ति रूप कहा जा सकता है और न केवल नास्ति रूप ही। उनके विषय में सापेक्षिक कथन ही सम्भव है। यही सापेक्षिक प्रकथन जैन-दर्शन के अनुसार यथार्थ एवं सत्य है। इसी यथार्थता एवं सत्यता का उद्घाटन अनेकान्तवाद करता है। अनेकान्तवाद वस्तु की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता । वह उसकी रक्षा १. (अ) घवला, खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ । (ब) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भाग १, पृ० ११३ । २. जैन-दर्शन, पृ० २८२ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या करता है; वस्तु में अवस्थित नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् आदि परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय करता है । यदि अनेकान्तवाद के शाब्दिक अर्थ पर ही ध्यान दिया जाय तो यह बात और भी स्पष्ट हो जायेगी। जैन दर्शन के अनुसार अनेकान्तवाद शब्द में अनेक + अन्त + वाद इन तीन शब्दों का संयोग है । जिसमें अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ है धर्म या गुण । इस आधार पर अनेकान्त का अर्थ होगा एक हो वस्तु का अनेक धर्मयुक्त होना । अष्टसाहस्री' में अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वस्तु में न सर्वथा सत्त्व है और न सर्वथा असत्त्व, न सर्वथा नित्यत्व है और न सर्वथा अनित्यत्व | किन्तु किसी अपेक्षा से उसमें सत्व है तो किसी अपेक्षा से असत्त्व, किसी अपेक्षा से नित्यत्व है तो किसी अपेक्षा से अनित्यत्व; सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि सर्वथा एकान्तों के अस्वोकृति अथवा प्रतिवाद का नाम ही अनेकान्त है । धवला में, अनेकान्त किसको कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप कहा गया है "जच्चंत रत्तं" अर्थात् जात्यन्तर भाव को अनेकान्त कहते हैं अनेक धर्मों के एक रसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तर भाव उत्पन्न होता है. वही अनेकान्त शब्द का अर्थ है । सप्तभंगी तरंगिणोर भी अनेकान्त को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित करती है - "जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुण रूप अनेक अन्त या धर्म हैं वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता ।" इसी प्रकार डॉ० रतन चन्द अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते कि अनेकान्त शब्द में "अन्त" का अर्थ धर्म है । एक ही वस्तु में परस्पर समस्त वस्तु अनेकान्त अनेकान्त है विरुद्ध दो धर्मों का उल्लेख होना स्वभाव वाली है इसलिए अनेकान्त वस्तु स्वरूप को सिद्ध करने वाला है । इसी प्रकार " वाद" शब्द का अर्थ है प्रकटोकरण या प्रभावना । १. सन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्ष गोनेकान्तः ।” अष्टसहस्री गा० १०३ की टोका, पृ० २८६ । २. ( अ ) धवला, १५:२५:१ । (ब) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १, पृ० १०८ । ३. "अनेके अन्ताः धर्माः सामान्य विशेष पर्याया गुगा सस्येति सिद्धोऽनेकान्तः ।" सप्तभंगीतरंगिणी; पृ० ३० I ४. श्री भँगरोलाल बांकोलाल स्मारिका, पृ० १७७ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में "वाद" शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि " व्यवहार में धर्म प्रभावना" अर्थात् व्यवहार में वस्तुओं को अनन्त धर्मता को प्रकट करना ही वाद है । किन्तु " वाद" शब्द के इस अर्थ का आशय यह नहीं है कि उसको कोई स्वतन्त्र अर्थ दिया गया है बल्कि वह कथन या उल्लेख्य मत के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अनेकान्तवाद का अर्थ होगा वस्तुओं को अनन्त धर्मता को प्रकट करना; अर्थात् विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना । परन्तु अनेकान्तवाद का यह अर्थ मेरे विचार से युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद केवल वस्तु की अनन्तधर्मता को ही सूचित नहीं करता, अपितु वह उसकी अनेकान्तिकता को भी सूचित करता है । श्री सुरेश मुनि जी का कथन है कि अनेकान्तवाद खास तौर से विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का ही प्रतिपादन करता है । उनका कहना है कि "अनेक प्रकार की विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप ( अनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् सः अनेकान्तः) में पाया जाता है । जो (धर्म) विशेषतायें परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं वे ही विशेषतायें एक ही पदार्थ में ठोक सही तौर पर पायो जातो हैं। पदार्थ की इस अनेकरूपता (धर्मात्मकता) का प्रतिपादन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद हैं । २ इस प्रकार अनेकान्तवाद के उक्त आशय के आधार पर अनेकान्त का अर्थ अनेक + अन्त ( एक से अधिक धर्म ) न होकर अन् + एकान्त अर्थात् एकान्त का निषेध है । जैन दर्शन में किसी भी वस्तु को सत्ता को उसके गुणों से निरपेक्ष नहीं माना गया है। प्रत्येक वस्तु को अपने अस्तित्व (सत्ता) के लिए गुणों की भी अपेक्षा रहती है । तत्त्वार्यसूत्र में कहा भो गया है कि द्रव्य गुण - पर्याय वाला होता है । अतः वस्तु को अपनी सत्ता के लिए उसमें अनेक धर्मों का ज्ञात-अज्ञात, भावात्मक अभावात्मक अवस्था में रहना नितान्त आवश्यक है। न तो मनुष्य का जन्म एकान्तिक रूप से सत्य है और न ही उसका मरण । दोनों को एक दूसरे को अपेक्षा होतो १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ५४१ । २. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ३५० । ३. " गुणपर्यायवद् द्रव्यम्", तत्त्वार्थसूत्र, ९:३७ । ४७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या है । अतएव प्रत्येक पदार्थ को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य, सामान्य और सत् तथा पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से अनित्य, विशेष और असत् मानना युक्तिसंगत है । वस्तु को सर्वथा एकान्तिक मानने से विरोध आता है। अतः उसे अनेकान्तिक ही कहना चाहिए। एकान्त का अर्थ होता है वस्तु में एक ही धर्म को स्वीकार करना, किन्तु यह वस्तु की यथार्थता के सर्वथा विपरीत और असत्य है । परन्तु यह एकान्तताभी तभी तक मिथ्या होती है जब तक कि वह निरपेक्ष है या निरपेक्ष रूपसे किसी धर्मका कथन करती है। किन्तु सापेक्ष होने पर वही एकान्तता सत्य हो जाती है, सम्यक् हो जाती है । सम्यक् एकान्तता और मिथ्या एकान्तता में यही अन्तर है । सम्यक् एकान्त सापेक्ष होता है। जबकि मिथ्या एकान्त निरपेक्ष होता है । सम्यक् एकान्त भी अनेकान्त का ही वाचक है। सम्यक् एकान्त भी उसी प्रकार सत्य का उद्घाटन करता है जिस प्रकार अनेकान्त । पं० सुखलाल जी का कहना है कि "विचार करने और अनेकान्त दृष्टि के साहित्य का अवलोकन करने से मालम होता है कि अनेकान्त दृष्टि सत्य पर खड़ी है। यद्यपि सभी महान पुरुष सत्य को पसन्द करते हैं और सत्य की ही खोज तथा सत्य के निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं तथापि"..."उससे भगवान् महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है। महावीर की सत्य प्रकाशन शैली का दूसरा नाम अनेकान्तवाद है। उसके मूल में दो तत्त्व हैं-पूर्णता और यथार्थता। जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है वही सत्य है।' इस प्रकार संक्षेप में अनेकान्तवाद ही एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तओं के विषय में होने वाले मताग्रहों एवं विरोधों का परिहार कर उसकी पूर्णता और यथार्थता का प्रकाशन करता है। इससे वस्तु के किसी भी पक्ष की हानि नहीं होती, अर्थात् यह वस्तु के सम्यक् स्वरूप का प्रतिपादन करता है। संक्षेप में यही अनेकान्तवाद का सार है। यही जैनदर्शन वी मूल दृष्टि है। समूचा जैन-दर्शन इसी पर आधारित है। डा० ब्रज बिहारी के अनुसार यही दृष्टिकोण ( अनेकान्तवाद ) जैन-दर्शन का सार है और इसी आधार पर जीव व जगत् की व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। १. दर्शन और चिन्तन भाग २, पृ० १५१ । २. जैन-दर्शन और संस्कृति, पृ० ८९ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ४९ देवेन्द्र मुनि के शब्दों में अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की चिन्तन-धारा का मूल स्रोत है, जैन-दर्शन का हृदय है, जैन वाङ्मय का एक भी ऐसा वाक्य नहीं, जिसमें अनेकान्तवाद का प्राणतत्त्व न रहा हो । यदि यह कह दिया जाय तो तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जहाँ पर जैन-धर्म है वहाँ पर अनेकान्तवाद है और जहाँ पर अनेकान्तवाद है वहाँ पर जैन-धर्म है। जैन-धर्म और अनेकान्तवाद एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।' डॉ० पद्मराजे का कथन है कि अनेकान्तवाद जैन-दर्शन का हृदय है तथा नयवाद और स्याद्वाद इसकी रक्तवाहिनी धमनियाँ हैं। अनेकान्तवाद रूपी पक्षी नयवाद और स्याद्वाद रूपी पंखों से उड़ता है ।२।। इस प्रकार अनेकान्तवाद जैन-दर्शन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । सम्पूर्ण जैन-दर्शन इसी पर आधारित है। मेरे विचार से यदि इसे जैन-दर्शन का निचोड़ कहा जाय तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। १. जैन-दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ० २५२ । 8. 'Anekanta is the heart of Jain Metaphysics and Nayavada and Syadvada (or Saptabhangi) are its main arteries. Or, to use a happier metaphor, the bird of Anekantavada, flies on its two wings of Nayavada and Syadvada. Late Dr. Y. J. Padmarajiah-A Comparative Study of the Jaina Theories of Reality and Knowledge, p. 273. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि स्याद्वाद का तात्पर्य स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ज्ञान मीमांसीय रूप है । अनेकान्तवाद के अनुसार वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं- “ अनन्तधर्मकं वस्तु" । सामान्य मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अपूर्ण होता है । अतः वह वस्तु के अनन्त गुणधर्मों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वस्तु के अनन्त - गुणधर्मों में से अव्यक्त गुणधर्मों का पुनः वह जो कुछ । कुछ धर्म व्यक्त होते हैं और कुछ अव्यक्त वस्तु के ज्ञान साधारण व्यक्ति के लिए सम्भव ही नहीं है । जानता है उसे समग्रतया एक ही प्रकथन में अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है; क्योंकि उसकी वाणी की सामर्थ्य उसकी ज्ञान- सामर्थ्य की अपेक्षा सीमित है । उदाहरणार्थ - किसी वस्तु को देखते ही उसके रंग, रूप, मोटाई, चौड़ाई आदि अनेक आयामों का ज्ञान एक साथ प्राप्त किया जा सकता है, पर उन समस्त दृष्टिगत आयामों को एक ही वाक्य या कथन के द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । वस्तुतः मुनि नथमल का यह कहना ठीक ही प्रतीत होता है कि "ज्ञेय अनन्त, ज्ञान अनन्त, किन्तु वाणी अनन्त नहीं ।" इस प्रकार ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमाओं को बताना ही स्याद्वाद का उद्देश्य है । जैन विचारकों के अनुसार अधिकांश दार्शनिक विवादों, आलोचनाओं, प्रत्यालोचनाओं का मूलकारण ज्ञान एवं अभिव्यक्ति की इन सीमाओं की उपेक्षा कर अपने ज्ञान एवं कथन को ही निरपेक्ष एवं पूर्ण सत्य मान लेना है । यही आग्रह है, एकान्त है । इसी एकान्तता के कारण ज्ञान दूषित बन जाता है । स्याद्वाद ही एक ऐसा सिद्धान्त है, जो ज्ञान और वाणी की सीमा को ध्यान में रखते हुए कथन की सत्यता को उद्घाटित कर सकता है । यद्यपि सर्वज्ञ (केवली) वस्तु के व्यक्त एवं अव्यक्त अनन्त धर्मों को जान सकता है परन्तु वह भी वाणी द्वारा उन सबको एक साथ अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है; क्योंकि वाणी (भाषा) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ५१ की अपनी सीमा है । वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती । यद्यपि उन समस्त धर्मों का प्रतिपादन वाणी (भाषा) द्वारा ही संभव है फिर भी शब्द - सामर्थ्य सीमित होने के कारण प्रत्येक प्रकथन किसी एक विशिष्ट गुण-धर्म को ही अभिव्यक्त कर पाता है; क्योंकि वचन व्यापार क्रम से ही होता है । वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन क्रमपूर्वक एवं सापेक्ष रूप से ही संभव है ! जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा गया है कि “किसी भी एक शब्द या वाक्य द्वारा सारो की सारो वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को । मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है" । " इस प्रकार स्याद्वाद एक निश्चित दृष्टिकोण से अनेकान्तात्मक अर्थों का प्रकाशन करते हुए यह स्पष्ट घोषित करता है कि वस्तु में सभी धर्म समान रूप से विद्यमान हैं । वक्ता को वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा जिस समय होती है उस समय वह मुख्य और शेष अविवक्षित धर्म गौण हो जाते हैं । " पुरुषार्थसिद्धयुपाय" में गोपी के दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस तरह मथानी की रस्सी को क्रमशः खींचकर और शिथिल कर गोपी दधि मन्थन कर अपने अभीष्ट तत्त्व (मक्खन) को प्राप्त कर लेती है, ठीक उसी प्रकार स्याद्वाद नीति भी वस्तु के विवक्षित धर्म के आकर्षण और शेष अविवक्षित धर्मों के शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व की उपलब्ध करा देती है ।"२ आचार्य उमास्वामी का भी यही कहना है कि मुख्यता और गौणता से ही अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन सिद्ध होता है । समन्तभद्र ने भी कहा है कि “किसी पदार्थ (के गुण-धर्मों) का या उसकी पर्याय (विशेष) का विधान या निषेध विवक्षा ( कहने की इच्छा) के अनुसार किसी बात को मुख्य और अन्य बात को गौण (अमुख्य ) मान १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४९७ । २. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनीनी तिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ ३. "अर्पितानपित सिद्धेः ।" तत्त्वार्थसूत्र, ५:३१. —पुरुषार्थसिद्ध्युपाय; श्लोक २२५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कर कथञ्चित् रूप से (किसी दृष्टिकोण से ) किया जाता है ।" वस्तुतः शब्द व्यापार क्रमशः होने के कारण मनुष्य वस्तु के अनेक धर्मों में से एक धर्म को मुख्य और शेष को गौण रखकर ही प्रतिपादन करता है । परन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि मुख्यता और गोणता वस्तु में विद्यमान धर्मों में नहीं होती, अपितु वक्ता की अपेक्षा अनपेक्षा में होती है । वस्तु में तो सभी धर्मं समान रूप से रहते हैं । उनमें मुख्य और गौण होने का कोई प्रश्न नहीं होता; क्योंकि वस्तु में उन्हें समान रूप से धारण करने की शक्ति निहित होती है । शब्द व्यापार उसे एक साथ अभिव्यक्त नहीं कर पाता । इसीलिए वह मुख्य और गौण का भेद करता है । वस्तुतः मुख्य और गौण का भेद वाणी में होता है वस्तु के अनन्त धर्मों में नहीं । डॉ० हुकुमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ "तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ" में स्याद्वाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए यही बात कही है । जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवती है । वह न सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है; न सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है । किन्तु किसी अपेक्षा से सत् है तो किसी अपेक्षा से असत् है; किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है | अतः सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथञ्चित् सत्, कथञ्चित् असत् कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य आदि रूप होना अनेकान्त है और वस्तु के उस अनेकान्तात्मक स्वरूप के कथन करने की विधि स्याद्वाद है । वस्तु के १. विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था । २. द्रष्टव्य तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृ० १५२. ३. असत् का अर्थ वस्तु की सत्ता का अभाव नहीं अपितु वस्तु में किन्हीं विशिष्ट गुण-धर्मों का अभाव है । जैसे गो में अश्वत्व के विशिष्ट गुणधर्म का अभाव । ४. " अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः । " — लघीयस्त्रय टीका - न्यायकुमुद चन्द्र, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक - २५. तृतीयः प्रवचनं प्रवेशः, श्लो० ६२ की टीका Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादक होने से स्याद्वाद अनेकान्त का वाचक है और अनेकान्त स्याद्वाद का वाच्य है। यदि इसे इस प्रकार भी कहा जाय तो भी ठीक ही है कि अनेकान्त साध्य है और स्याद्वाद उसका साधक । वस्तुतः स्याद्वाद सिद्धान्त अपनी सापेक्ष शैली के द्वारा वस्तु के अनन्त धर्मों का सूचन करते हुए अनेकान्त की सिद्धि करता है। स्वामी समन्तभद्र ने स्याद्वाद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि "किञ्चित्, कथञ्चित्, कथञ्चन आदि शब्दों से जिसका विधान होता है तथा जो सर्वथा एकान्त को त्याग कर (अनेकान्त को स्वीकार कर) सप्तभङ्गीनय से विवक्षित (उपादेय) का विधायक और अविवक्षितों (शेषधर्मों) का निषेधक (सन्मात्रसूचक) है, वह स्याद्वाद है। स्याद्वाद के बिना हेय और उपादेय की व्यवस्था नहीं बनती।' जैन आचार्यों की यह भी मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु में अनेक भावात्मक (स्वीकारात्मक) धर्मों के साथ अनेक अभावात्मक (निषेधात्मक) धर्म भी विद्यमान रहते हैं। मात्र यही नहीं, उसमें अनेक विरोधी धर्म युगल भी उपस्थित रहते हैं, किन्तु अपेक्षा भेद से उनमें किसी प्रकार का विरोध नहीं होता; अर्थात् प्रत्येक वस्तु में भावात्मक (स्वीकारात्मक), अभावात्मक (निषेधात्मक) और विरोधी गुण विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक धर्म स्व-रूप से विद्यमान रहता है और पर-रूप से अविद्यमान । यदि उसे पर-रूप से भी भावरूप स्वीकार किया जाय तो एक वस्तु के सद्भाव में सम्पूर्ण वस्तुओं का सद्भाव मानना पड़ेगा और यदि उसे स्व-रूप से भी अभाव रूप माना जाय तो वस्तु स्वभाव रहित हो जायगी; जो कि वस्तु-स्वरूप से सर्वथा विपरीत है । वस्तु में परस्पर विरोधी-अविरोधी अनेक धर्मों या गुणों की विद्यमानता से जगत् का प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मात्मक है। जैसे एक ही जीव-तत्त्व में दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य, श्रद्धा, मदुता आदि अनेक गुण नित्यत्व, अनित्यत्व, सत्त्व, असत्त्व, आदि विरोधी धर्मयुगल हैं और एक १. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचि द्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ -आप्तमीमांसा, श्लो० १०४ । २. सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभवः ॥ -प्रमाणमीमांसा, सू. १६ की टीका । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ही देवदत्त पिता, पुत्र, चाचा, भाई, पति, मामा, नाना आदि होता है अर्थात् विभिन्न दृष्टियों से देखने पर एक ही जीव तत्त्व या एक ही देवदत्त अनेक रूपों में दिखायी देता है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले भी ये सभी धर्म अपेक्षा भेद से प्रत्येक वस्तु में यथार्थ रूप में रहते हैं, उनमें किसी प्रकार का विरोध नहीं होता, जैसे एक ही देवदत्त में पिता की अपेक्षा से पुत्रत्व, पुत्र की अपेक्षा से पितत्व, पत्नी की अपेक्षा से पतित्व आदि के धर्म विद्यमान होते हैं वैसे ही जीव तत्त्व में भी द्रव्य दृष्टि से नित्यत्व और पर्याय की दृष्टि से अनित्यत्व तथा स्वभाव की अपेक्षा से सत्त्व और परभाव की अपेक्षा से असत्त्व के धर्म विद्यमान रहते हैं। स्याद्वाद सिद्धान्त वस्तु में विद्यमान इन अनन्त धर्मों को अपनी विशिष्ट युक्तिपूर्ण प्रणाली से प्रतिपादित करता है।' __ इस प्रकार जब प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होती है तब उसके सम्बन्ध में किसी एक गुण-धर्म का सर्वथा विधान करके उसके विरोधी गुण-धर्म का सर्वथा निषेध कर देना एकान्तिक प्रकथन है और ऐसा एकान्तिक प्रकथन असत्य का प्रतिपादक है। स्याद्वाद प्रत्येक पदार्थ में भिन्नभिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न धर्मों को स्वीकार करता है और उन स्वीकृत धर्मों का सापेक्ष रूप से ही कथन करता है; यही उसका उद्देश्य है। कहा भी गया है कि "स्यात् अर्थात् कथंचित् या विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से वदना, वाद करना, जल्प करना, कहना, प्रतिपादन करना स्याद्वाद है।" वस्तुतः स्याद्वाद का फलितार्थ है अनेकान्त प्रतिरूपक भाषायी पद्धति । अतएव अनेकान्तवाद इसी स्याद्वाद पद्धति से प्ररूपित होता है। डॉ० महेन्द्र कुमार ने कहा है कि "स्याद्वाद" भाषा की निर्दोष प्रणाली है जो वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करती है। इसमें लगा हुआ "स्यात्" शब्द प्रत्येक वाक्य के सापेक्ष होने की सूचना देता है । "स्यात् अस्ति" वाक्य में "अस्ति" पद वस्तु के अस्तित्व धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है तो “स्यात्' शब्द उसमें रहने वाले नास्तित्व आदि शेष अनन्त धर्मों का १. संपूर्णार्थ विनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते । -न्यायावतार, का० ३० । २. स० सा०/ता० वृ० स्याद्वाद अधिकार/५१३/१७ स्यात्कथंचित विवक्षितप्रकारेणानेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादन मिति स्याद्वादः । -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४९८ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ५५ सद्भाव बताता है कि "वस्तु अस्ति" मात्र ही नहीं है, उसमें गौण रूप से नास्तित्व आदि धर्म भी विद्यमान हैं।' स्याद्वाद के इसी आशय का विवेचन करते हुए डॉ० सागरमल जैन ने कहा है कि वह एक ऐसा सिद्धांत है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्व में निहित अन्य "अनुक्त" अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुतः स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तदनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है। अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी का पूर्ण निषेधक न बने । २ सारांश यह है कि स्याद्वाद एक ऐसी भाषायी पद्धति है जो वस्तुओं में निहित अनन्त धर्मों के कथन में प्रयुक्त होने वाली भाषा शैलो को सुसम्बद्ध, सुनियोजित एवं अनुशासित बनाती है जिससे वह विभिन्न मत-मतान्तरों में उपस्थित विरोधों का शमन एवं समन्वय करते हुए सापेक्षिक कथन करने में समर्थ हो सके । संक्षेप में, यही स्याद्वाद का अर्थ है । यह स्याद्वाद "स्यात्" और "वाद" इन दो शब्दों के संयोग से निष्पन्न है। 'स्यात्" का अर्थ है अपेक्षा विशेष अथवा सापेक्षिक दृष्टिकोण और "वाद" का अर्थ है वदना, वाद करना या प्रभावना। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा "स्यात्" पूर्वक वाद करना या सापेक्षिक प्रतिपादन करना । जैन दर्शन के अनुसार कथन सत्य वही होता है जो सापेक्ष हो । उस सापेक्षता का सूचन स्यात् पद करता है। इसीलिए जन-दर्शन प्रत्येक कथन (जैसे सप्तभंगी में) के पूर्व "स्यात्" पद जोड़ता है। किन्तु जैन-दर्शन के इस "स्यात्" पद के सन्दर्भ में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं जिसके कारण स्याद्वाद को ही दूषित समझा जाता है । वस्तुतः इस 'स्यात्' पद के सन्दर्भ में यहां विस्तृत विवेचन की अपेक्षा है जिसे हम आगे प्रस्तुत कर रहे हैं। १. जैन-दर्शन, पृ० ३६१-६२ । २. जैन-दर्शन और संस्कृति-आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५७ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या "स्यात्" शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ सप्तभङ्गी के प्रत्येक भंग के प्रारम्भ में प्रयुक्त "स्यात्" शब्द संस्कृत साहित्य के अस धातु, विधिलिङ्ग का एक क्रियापद रूप भी है। संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग कहीं विधिलिङ्ग की क्रिया के रूप में तो कहीं प्रश्न के रूप में तो कहीं प्रकथन की अनिश्चयात्मकता को अभिव्यक्त करने के लिए होता है। इस आधार पर हिन्दी भाषा में इसका अर्थ "शायद", "हो सकता है", "संभवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probable, May be, Perhaps, Somehow आदि होता है और इन्हीं अर्थों के आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद, संभववाद, अनिश्चयवाद आदि समझने की भूल की जाती है। किन्तु “स्यात्" शब्द का यह अर्थ जैन-दार्शनिकों को कभी भी अभिप्रेत नहीं रहा है। दुर्भाग्य यही है कि जैनेतर विचारकों ने जैन-ग्रन्थों के अवलोकन के बिना ही परम्परानुसार इसका व्याकरणसम्मत अर्थ ही ग्रहण किया और उसके प्रायोगिक अर्थ पर ध्यान नहीं दिया । ___ यह आवश्यक नहीं है कि भाषा में प्रत्येक शब्द अपने व्युत्पत्तिप रक या धात्विक अर्थ में हो प्रयुक्त हो; यद्यपि अनेक शब्द ऐसे होते हैं जो अपने धात्विक अर्थ में प्रयुक्त किये जाते हैं। किन्तु कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जिनका प्रयोग धात्विक अर्थ में न होकर प्रायोगिक अर्थ में ही होता है। और अनेक शब्दों के अर्थ अपने प्रयोग के दौरान इतने बदल जाते हैं कि उनका प्रायोगिक अर्थ उनके धात्विक अर्थ से भिन्न होता है। कुछ ऐसे भी प्रसंग होते हैं जहां किसी शब्द विशेष को एक प्रतीकात्मक अर्थ प्रदान कर दिया जाता है और बाद में उसका प्रयोग उस प्रदत्त अर्थ के सन्दर्भ में ही किया जाता है। जैन आचार्यों ने अनेक प्रसंगों में शब्दों को अपने धात्विक अर्थ से भिन्न किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त किया है जैसे धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ के सन्दर्भ में हुआ हैं । यहाँ धर्म शब्द का तात्पर्य न तो "रीलिजन' है न कर्तव्य है, न वस्तु के स्वाभाविक गुण-धर्म हैं। दूसरे शब्दों में, यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग अपने धात्विक अर्थ से भिन्न विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में हुआ है। इसी प्रकार कर्म शब्द क्रिया का वाचक न होकर पुद्गल के एक विशिष्ट वर्ग का वाचक बताया गया है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि इसी प्रकार 'स्यात्' शब्द का प्रयोग उसके धात्विक अर्थ में न करके 'विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में किया गया है। जैन-आचार्यों ने अनेक स्थानों पर इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि "स्यात्" शब्द से क्या अर्थ अभिप्रेत है। हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि जैनाचार्यों द्वारा अभिप्रेत "स्यात्" शब्द का अर्थ उसके धात्वर्थ या व्याकरण सम्मत अर्थ से बिल्कुल भिन्न है और इसीलिए उन्होंने इसे विधिलिङ्ग का एक क्रियापद न मानकर एक निपात माना है । यद्यपि "स्यात्" शब्द का धात्विक अर्थ "हो सकता है", "शायद", "संभवतः", "कदाचित्" आदि भी होता है; किन्तु सप्तभंगी में "स्यात्" शब्द इन अर्थों में प्रयुक्त नहीं हुआ है । जैन-आचार्यों ने इसे निपात अव्यय मानकर इसका एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग किया है। अतः धात्विक आधार पर उसका अनिश्चयात्मक अर्थ लगाना उचित नहीं है । तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया कि “स्यात्" शब्द लिङ्लकार का क्रियापद नहीं है, अपितु तिङन्तप्रतिरूपक निपात अर्थात् क्रियाविशेषण (अव्यय) है। स्यात् निपात भी अनेकान्त, संशय, सम्भवतः, कदाचित् आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, परन्तु यहाँ पर इसका अनेकान्त-रूप अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए।' आचार्य समन्तभद्र ने भी कहा है कि "स्यात्" यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ सम्बन्धित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी "स्यात्" शब्द का अर्थ अनेकान्तता का प्रतिपादक मानकर उसे एक निपात ही बताया है। उन्होंने कहा है कि "स्यात्" एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कयंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है। १. स च तिङन्त प्रतिरूपको निपातः । तस्यानेकान्त विधिविचारादिषु बहुवर्थेषु सम्भवत्सु इह विवक्षावशात् अनेकान्ताऽर्थो गृह्यते । __ --तत्त्वार्थवार्तिक पृ०२५३ । २. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ ---आप्तमीमांसा, का० १०३ । ३. अत्र (सप्तभंग्यां) सर्वथात्वनिषेधकोऽनैकान्तिकोद्योतकः कथंचिदर्थे स्थाच्छब्दो निपातः । --पंचास्तिकाय-गाथा १४ की टीका पृ० ३० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जैनाचार्य " स्यात् " शब्द के अन्य अनिश्चयात्मक अर्थों से भी अवगत थे और इस सम्बन्ध में भी सावधान थे कि अन्य लोग इसके अनिश्चयात्मक अर्थों को ग्रहण कर सकते हैं । इसीलिए उन्होंने इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि हम " स्यात् " शब्द को अनेकान्त-सूचक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग करते हैं और इसको इसी अर्थ में ग्रहण करना चाहिए अन्य अर्थ में नहीं । उनके इस स्पष्टीकरण के बावजूद भी उसे अन्य अनिश्चयात्मक अर्थों में ग्रहण करना उचित नहीं होगा । ५८ आचार्य मल्लिषेण ने लिखा है कि "स्याद्वाद" में " स्यात् " एक अव्यय है जो एकान्त का निराकरण कर अनेकान्त का प्रतिपादन करता है । ' अष्टसहस्री में स्यात् शब्द को अनेकान्त का सूचक माना गया है । उसमें कहा गया है कि " स्यात् " निपात अनेकान्त का सूचक है, क्योंकि जब वाक्य के साथ स्यात् निपात को सम्बद्ध किया जाता है तब वह प्रकृत अर्थ का पूर्णतया सूचन करता है, क्योंकि निपात प्रायः ऐसे ही स्वभाव वाले होते हैं । " द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः " इस कथन से भी यही बात परिलक्षित होती है । " स्यात् " निपात केवल अनेकान्तता का द्योतक ही नहीं होता; अपितु विवक्षित अर्थ का वाचक भी होता है । अतएव " स्यात्" शब्द संशयादि का सूचक न होकर निश्चयात्मक ज्ञान का ही द्योतक है । स्वामी समन्तभद्र, भट्ट अकलंक, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र एवं मल्लिषेण आदि सभी आचार्यों ने इस बात को स्पष्ट किया है। वस्तुतः वह अनेकान्त भी है और एकान्त भी है । विवक्षित के साथ ही अविवक्षित अर्थों का द्योतक होने से वह अनेकान्तरूप है और अपेक्षा विशेष से विवक्षित अर्थ का वाचक होने से वह एकान्तरूप भी है । १. स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादः । स्याद्वादमंजरी श्लो० २५ की टीका. २. ( अ ) " तत्र क्वचित्प्रयुज्यमानः स्याच्छन्दस्तद्विशेषणतया प्रकृतार्थतत्त्वमवयवेन सूचयति, प्रायशो निपातानां तत्स्वभावत्वात् ।” अष्टसहस्री, (निर्णयसागर प्रेस) पृ० २८६. (ब) " स्याद्वचनार्थस्य कथञ्चिच्छब्देन प्रतिपादनात् तेनानेकान्तस्य द्योतकेन वाचकेन वा " । अष्टसहस्री, ( निर्णयसागर प्रेस) पृ० १२७.. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि इस प्रकार स्यात्-निपात एक ऐसा शब्द प्रतीक है जो एक ओर तो वस्तु के अनेकान्तात्मक होने की सूचना देता है और दूसरी ओर विवक्षित धर्मों के प्रकाशन के साथ-साथ अविवक्षित धर्मों की वस्तु में उपस्थिति को सूचित भी करता है अर्थात् यह बतलाता है कि विवक्षित धर्म के अतिरिक्त अविवक्षित धर्म भी वस्तुतत्त्व में अवस्थित हैं। डॉ० महेन्द्र कुमार का कथन है कि " स्यात् " शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो शब्द की मर्यादा को संतुलित रखता है । वह संदेह या संभावना को सूचित नहीं करता, किन्तु एक निश्चित स्थिति को बताता है कि वस्तु अमुक दृष्टि से अमुक धर्मवाली है ही ।" वस्तुतः " स्यात् " शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोण अथवा निर्णीत अपेक्षा का सूचक है । २ " स्यात् " शब्द को "सिया " शब्द का पर्यायवाची मानकर उसके अर्थं का स्पष्टीकरण करते हुए डॉ० महेन्द्र कुमार कहते हैं कि प्राकृत और पाली में " स्यात् " का "सिया" रूप होता है । यह वस्तु के सुनिश्चित भेदों के साथ सदा प्रयुक्त होता रहा है । जैसे "मज्झिम निकाय" के " महाराहुलोवादसुत्त" में आपो धातु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "कतमा च राहुल आपोधातु ?” "आपोधातु सिया अज्झत्तिका सियावाहिरा"आपोधातु (जल) कितने प्रकार की है ? आपोधातु स्यात् आभ्यन्तर है. और स्यात् बाह्य । यहाँ आभ्यन्तर धातु के साथ “सिया” शब्द का प्रयोग आपधातु के आभ्यन्तर भेद के सिवा द्वितीय बाह्य भेद की सूचना के लिए है, और बाह्य के साथ "सिया" शब्द का प्रयोग बाह्य के सिवा आभ्यन्तर भेद की सूचना देता है; अर्थात् आपोधातु न तो (मात्र) बाह्य रूप ही है और न ( मात्र ) आभ्यन्तर रूप ही । इस उभय-रूपता की सूचना “सिया”" स्यात् " शब्द देता है । यहाँ न तो " स्यात् " शब्द का "शायद " ही अर्थ है, और न "संभव” और न " कदाचित् " ही; क्योंकि आपोधातु शायद आभ्यन्तर और शायद बाह्य नहीं है और न संभवतः आभ्यन्तर और संभवतः बाह्य और न कदाचित् आभ्यन्तर और बाह्य अपितु उभय ५९ १. जैन दर्शन, पृ० ४४. २. "सिया” प्राकृत और पाली साहित्य का शब्द है जिसका अर्थ होता है"किसी अपेक्षा से" । देखें - जैनागम शब्द संग्रह, पृ० ७७६. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या भेदवाली है। इसी प्रकार "स्यात्" शब्द न तो मात्र वस्तु की अनेकान्तात्मकता को सूचित करता है और न तो मात्र कथन हेतु अपेक्षित धर्म को ही । अपितु वह वस्तु की अनेकान्तात्मकता के साथ ही विवक्षित धर्म का सूचन करते हुए कथन को सापेक्ष एवं निश्वयात्मक बनाता है। इस प्रकार स्यात् शब्द के निम्नलिखित कार्य होते हैं : १. वस्तु की अनन्तधर्मता को सूचित करना । २. वस्तु में आपेक्षित धर्म का निर्देशन करना । ३. प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित करना। ४. एकान्तता का निषेध करना। ५. प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना। स्यात् शब्द के इन कार्यों का निर्देश डॉ० सागरमल जैन ने भी किया है । उन्होंने कहा है कि यदि हम स्यात् को कथन को अनेकान्तता का सूचक भी मानें तो यहाँ कथन को अनेकान्तता से हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि "वह (स्यात्) वस्तुतत्व (उद्देश्यपद) की अनन्तधर्मात्मकता को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं अव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से किसी एक विधेय का सापेक्षित रूप में किया गया विधान या निषेध है।" किन्तु यदि कथन को अनेकान्तता से हमारा आशय है कि वह उद्देश्य पद के संदर्भ में एक ही साथ एकाधिक परस्पर विरोधी विधेयों का विधान या निषेध है अथवा किसी एक विधेय का एक ही साथ विधान और निषेध दोनों हो है तो यह धारणा भ्रान्त है और जैन-दार्शनिकों को स्वीकार्य नहीं। इस प्रकार "स्यात्" शब्द की योजना के तोन कार्य हैं, एक कथन या तर्कवाक्य के उद्देश्य पद की अनन्त धर्मात्मकता को सूचित करना, दूसरा विधेय को सोमित या विशेष करना और तीसरे कथन को सोपाधिक (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative) बनाना है। इस प्रकार उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जैनआचार्यों ने कभी भा "स्यात्" शब्द का अर्थ कदाचित्, संभवतः, शायद, हो सकता है, आदि नहीं किया है। उन्होंने उसे एक निश्चित अर्थ देने का १. जैन-दर्शन, पृ० ४५. २. महावीर जयन्तो स्मारिका १९७७, पृ० १.४१. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहाद : एक सापेक्षिक दृष्टि प्रयत्न किया है। स्यात् शब्द संशय या अनिश्चयात्मकता का सूचक है; यह कभी भी उन्हें अभिप्रेत नहीं रहा है। हाँ इतनी बात अवश्य है कि जैन-तार्किकों ने स्यात् शब्द के जिन अर्थों को इंगित किया था उनमें अपेक्षित स्पष्टता नहीं आ पायी थी क्योंकि उन्होंने स्वयं भी एक ही प्रतीक "स्यात्" का कई अर्थों में प्रयोग किया था। "स्यात्" शब्द को अनेकान्तता का द्योतक होने के साथ-साथ एकान्तिक प्रकथन का निषेधक तथा विवक्षित अर्थ का सापेक्ष रूप से प्रतिपादक माना गया था । यद्यपि उसकी इन सभी विशेषताओं का स्पष्ट उरलेख प्रारम्भ में तो नहीं किया गया किन्तु अपेक्षानुसार उन्हें स्पष्ट अवश्य किया गया है। (१) तत्वार्थवार्तिक (अकलंक)-अनेकान्तता का सूचक । (२) अष्टसहस्री (अकलंक)-अनेकान्तता का सूचक एवं कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक । (३) आप्तमीमांसा (समन्तभद्र)-अनेकान्तता का द्योतक एवं विवक्षित अर्थ का विशेषण। (४) पंचास्तिकायटीका (अमृतचन्द्र)-अनेकान्तता का प्रतिपादक, एकान्तता का निषेधक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक। (५) स्याद्वादमंजरी (मल्लिषेण)-एकान्तता का निषेधक और अने कान्तता का प्रतिपादक । "स्यात्" शब्द को सप्तभंगी में क्यों प्रयुक्त किया गया; इस संदर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-आचार्यों के समक्ष वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान एवं उनके अभिव्यक्तीकरण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ थीं। उन्हीं समस्याओं के कारण ही जैन-आचार्यों ने प्रत्येक प्रकथन के परिमाणक के रूप में इसका प्रयोग किया है। उनकी वे सभी समस्याएँ अधोलिखित हैं-' (क) वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता । (ख) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता। (ग) भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता । (क) वस्तुओं को अनन्तधर्मात्मकता जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है-"अनन्त १. जैन-दर्शन और संस्कृति-आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५८. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या धर्मकं वस्तु" । प्रत्येक वस्तु में सत्त्व-असत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्वअनित्यत्व आदि अनेक गुण-धर्म अपेक्षा भेद से रहते हैं। एक ही वस्तु में जिस समय द्रव्य-दष्टि से सत्त्व-एकत्त्व, नित्यत्व और सामान्यत्व के गुणधर्म हैं उसी समय उसमें स्व-पर्याय-दृष्टि से अनेकत्व, अनित्यत्व और विशेषत्व तथा पर-पर्याय की दृष्टि से असत्त्व के भी गुण-धर्म हैं। जिसकी व्याख्या हमने पिछले अध्याय में की है। इस प्रकार जब वस्तु में विविध अपेक्षाओं से विविध गुण-धर्म हैं तो उसको जानने के लिए अनेकान्तिक दृष्टि अपनानी होगी; और जब उसको जानने वाली दष्टि अनेकान्तिक है तब वस्तु के एकांश का निरूपण करने वाली एकान्तिक भाषा शैली उसके यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन में कैसे समर्थ हो सकती है; जैसे एक कलम अपेक्षा भेद से लम्बी, छोटी, मोटीपतली, हल्की-भारी तथा बहुरंग आदि अनेक धर्मों का युगपत् आधार है तब यदि यह कहा जाय कि यह कलम "लम्बी ही है" तो इस वाक्य से इसमें उपस्थित अन्य धर्मों का लोप ही फलित होता है। वस्तुतः बिना अपेक्षा के निरपेक्ष प्रकथन द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन कथमपि संभव नहीं है। जैन-आचार्यों ने कहा है कि (अनन्तधर्मात्मक) बहु-आयामी जटिल तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के संभव नहीं है।' इसीलिए प्रकथन में कथन की सापेक्षता का सूचक "स्यात्" पद का प्रयोग करना आवश्यक माना गया है। (ख) मानवीय ज्ञान को अपूर्णता __ जैन-विचारकों की दृष्टि में साधारण मानव का ज्ञान अपूर्ण एवं सोमित है क्योंकि ऐन्द्रिक सामर्थ्य और तर्कबुद्धि या चिन्तन-शक्ति सीमित है और इनके माध्यम से पूर्ण सत्य को जानने के उसके प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। मानव जब अपने उसी आंशिक ज्ञान को ही एक मात्र सत्य मान लेता है तो वह सत्य, सत्य न रहकर असत्य हो जाता है। परन्तु उपर्युक्त कथन से यह नहीं समझना चाहिए कि पूर्ण सत्य अज्ञेय है; वह ज्ञेय है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता है। आइन्स्टोन ने तो इससे एक कदम १. "न विवेच यितुं शक्यं बिनाऽक्षां हि मिश्रितम् ।' -अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ४, पृ० १८५३; Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ६३ और आगे बढ़कर कहा है कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।"" क्योंकि वस्तुतत्त्व मात्र उतना ही नहीं है जितना कि हम ग्रहण कर पा रहे हैं। हमारी ऐन्द्रिक ज्ञान, शक्ति एवं तर्कबुद्धि इतनी सीमित एवं अपूर्ण है कि वह वस्तुतत्त्व को सम्पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर सकती। यदि किसी प्रकार उसका अपनी सम्पूर्णता में ग्रहण भी हो जाय तो भी वाणो के द्वारा उसका सम्पूर्ण रूप से प्रकाशन असंभव ही है। वस्तुतः अपने वचनव्यापार को यथार्थ बनाने एवं अपने और दूसरों के अनुभूत तथा अननभत सत्यों का निषेध न करने के लिए किसी न किसी कथन पद्धति की योजना करनी ही होगी जो कथन में अप्रयोजित सत्यों का निराकरण न करते हए अपनी बात को स्पष्ट कर सकें। इस कार्य के लिए जैन-आचार्यों ने "स्यात्" शब्द को योजना की। (ग) भाषाभिव्यक्ति को सीमितता एवं सापेक्षता जैन-आचार्यों की दृष्टि में सर्वज्ञ या पूर्ण सत्य द्रष्टा के लिए भी जो कि सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, उस सत्य का निरपेक्ष प्रकथन असंभव है; अर्थात् सम्पूर्ण सत्य को जानना यदि संभव है तो भी उसका अभिव्यक्तीकरण संभव नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति का जब कभी भी कोई प्रयास किया जाता है तो वह सापेक्षिक बन जाता है क्योंकि भाषा का कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्ण रूप को स्पर्श कर सके। हर एक शब्द एक निश्चित गुण-धर्म के लिए ही प्रयुक्त होता है। इतना ही नहीं, वस्तुतत्त्व में कितने ऐसे भी धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिए भाषा के पास कोई शब्द नहीं है; अर्थात् वस्तु तत्त्व के अनेक ऐसे धर्म हैं जो अनुक्त ही रह जाते हैं। उदाहरणार्थ-गुड़ को मिठास, चोनी की मिठास, आम, अमरूद आदि-आदि फलों की मिठास को मीठा शब्द से ही सम्बोधित करते हैं जबकि हर-एक की मिठास एक दूसरे से भिन्न है। वस्तुतः प्रत्येक विशिष्ट प्रकार की मिठास के प्रकाशन के लिए भाषा में भिन्न-भिन्न शब्द होने चाहिए किन्तु ऐसा है नहीं। १. "We can only know the relative truth, the real truth is known only to the Universal Observer." -Quoted in Jain-Darsana and Sanskriti, p. 62. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या पुनश्च प्रत्येक वस्तुतत्त्व अनेक विरुद्ध धर्मं-युगलों का अखण्ड पिण्ड है । इन विरुद्ध धर्म युगलों का एक साथ प्रतिपादन असंभव है । उन्हें क्रमिक रूप से ही कहा जा सकता है । जब प्रत्येक प्रकथन में वस्तु के एक-एक धर्म के ही प्रतिपादन की शक्ति है तो अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का युगपत् प्रतिपादन कैसे संभव हो सकता है ? अतः किसी भी प्रकथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त रह ही जायेंगे। तब यह आवश्यक है कि हमारा प्रकथन उसी समय वस्तुतत्त्व में विद्यमान अविवक्षित शेष धर्मों की उपस्थिति का निषेधक नहीं है, इस बात को सूचित करने के लिए प्रकथन में किसी प्रतीक का प्रयोग किया जाय जैन आचार्यों के अनुसार वह प्रतीक " स्यात् " है जो एक ओर अन्य अविवक्षित धर्मों की उपस्थिति का सूचक है तो दूसरी ओर उस अपेक्षा को स्पष्ट करता है जिसके आधार पर किसी विवक्षित गुण-धर्म का विधान या निषेध किया गया है । इस प्रकार " स्यात् " शब्द किसी एक सुनिश्चित दृष्टिकोण से वस्तु में उपस्थित विवक्षित धर्म के विधान या निषेध के साथ अन्य अविवक्षित धर्मों के अस्तित्व को भी द्योतित करता है। साथ ही उस अपेक्षा को भी स्पष्ट करता है जिसके आधार पर प्रकथन किया गया है। चूंकि भाषा में कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो प्रकथन के इतने बड़े उद्देश्य की पूर्ति कर सके | अतः जैन आचार्यों ने " स्यात्" शब्द के जो कि उनके अपेक्षित अर्थ के निकट था, एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त कर इस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति की । " स्यात् " पद को उक्त विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त करने का यही संक्षिप्त कारण है । ६४ " स्यात्" शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनका निराकरण जैन दर्शन में " स्यात् " शब्द ही स्याद्वाद सम्बन्धी समस्त भ्रान्तियों का मूल है । इसके अर्थ के संदर्भ में सम्भवतः जितनी भ्रान्तियाँ हैं उतनी अन्य किसी शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में नहीं । जिस अर्थ में जैन- दार्शनिकों ने " स्यात् " शब्द का प्रयोग स्याद्वाद में किया था उस सांकेतिक अर्थ को जैनेतर दार्शनिकों ने ग्रहण नहीं किया । अर्वाचीन एवं प्राचीन सभी दार्शनिक " स्यात् " पद को संस्कृत भाषा का एक सामान्य शब्द मानकर उसके व्युत्पत्तिपरक अर्थ के आस-पास घूमते रहे और स्याद्वाद के मूल रहस्य से अपरिचित रहकर उस पर तरह-तरह के आक्षेप करते रहे । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ६५ अर्वाचीन भारतीय चिन्तकों में डॉ० बलदेव उपाध्याय, डॉ० देवराज और डॉ० राधाकृष्णन् को भी यही भ्रान्ति हुई हैं । इस संदर्भ में सर्वप्रथम डॉ॰ बलदेव उपाध्याय जी को ही देखिये । उन्होंने लिखा है - " स्यात्" ( शायद, सम्भवतः ) शब्द को अस् धातु के विधिलिङ् के तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है । घड़े के विषय में हमारा मत स्यादस्ति सम्भवतः यह विद्यमान है इसी रूप में होना चाहिए ।"" किन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय द्वारा प्रदत्त " स्यात् " पद का यह अर्थ जैन-ग्रन्थों में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । जैन आचार्यों ने सर्वत्र " स्यात् " पद को निपात ही कहकर परिभाषित किया है और उसे अपेक्षाभेद का सूचक बताया है। यदि उसका अर्थ अपेक्षाभेद न करके सम्भवतः आदि ही किया जाय तो उससे संशयात्मकता की ही उद्भावना होती है । अतः स्यात् का अर्थ संभवतः आदि करना सर्वथा अनुचित और जैन दृष्टिकोण के विपरीत है । हम पूर्व में बता चुके हैं कि " स्यात् " निपात और निपात एक निश्चित अर्थ वाला होता है निपात के लिए प्रदत्त या आरोपित अर्थ के अतिरिक्त दूसरा अर्थ असह्य होता है । अतः उसका प्रयोग सर्वदा और सर्वत्र उसी प्रदत्त अर्थ में ही करना चाहिए। किन्तु निपात के इस लक्षण के विपरीत डॉ० देवराज ने " स्यात् " निपात का अर्थ " कदाचित्" किया है । यद्यपि उन्होंने हिन्दी में इसका अर्थ " अपेक्षा - विशेष" ही किया है तथापि इस अर्थ को कोष्ठक में रखकर मुख्यता " कदाचित् " को ही प्रदान की है । "कदाचित् " का अर्थ होता है किसी समय । इसके इस अर्थ से फलित होता है कि वस्तु में अमुक-अमुक धर्मं अमुक-अमुक समय में हैं और अमुक-अमुक समय में नहीं हैं । जैसे स्यादस्त्येव घटः का अर्थ होगा किसी समय में घट में घटत्व धर्म है ही । किन्तु जैन आचार्यों ने वस्तु में जिन-जिन धर्मों का सद्भाव माना है वे काल सापेक्ष नहीं हैं; वे सर्वदा वस्तु में विद्यमान रहते हैं | वस्तुतः " स्यात् " पद का " कदाचित् " अर्थ भी भ्रामक और जैनदृष्टिकोण के विपरीत है । यदि इसका यह अर्थ जैन-ग्रन्थों भी कहीं १. भारतीय दर्शन - पृ० १५५ । २. देखिये- आप्तमीमांसा १०३, पंचास्तिकाय टीका, स्याद्वादमञ्जरी, अष्टसहस्री, अष्टशती आदि । ३. " पूर्वी और पश्चिमी दर्शन", पृ० ९४ । ५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या उपलब्ध हो तो वह भी अनुचित ही है क्योंकि यह अर्थ स्याद्वाद के सन्दर्भ में ठीक-ठीक बैठता नहीं है । अतः "स्यात्" पद का "कदाचित्" यह अर्थ करना भी उपयुक्त नहीं है। डॉ० राधाकृष्णन् भी “स्यात्' पद के उपर्युक्त अर्थ पर हो बल देते हैं । उन्होंने लिखा है कि "यह (स्याद्वाद) समस्त ज्ञान को केवल सम्भावित रूप में ही मानता है। प्रत्येक स्थापना “सम्भव है", "हो सकता है" अथवा शायद इत्यादि रूपों में ही हमारे सामने आती है। हम किसी भी पदार्थ के विषय में निरुपाधिक या निश्चित रूप से स्वीकृतिपरक अथवा निषेधात्मक कथन नहीं कर सकते । वस्तुओं के अन्दर अनन्त जटिलता होने के कारण निश्चित कुछ नहीं है। (यह सिद्धान्त) यथार्थ सत्ता के अत्यधिक जटिल एवं अनिश्चित स्वरूप के ऊपर बल देता है।' __ यद्यपि यह सत्य है कि स्याद्वाद निरुपाधिक अखण्ड सत्य को वचनबद्ध करने का दावा नहीं करता और हमें सापेक्ष सत्य की ही दिशा में ले जाता है। तथापि यह ज्ञान को सम्भावित रूप में न मानकर निश्चयात्मक रूप में ही स्वीकार करता है। यह सत् के सन्दर्भ में एक निश्चित, व्यापक या समग्र दृष्टि लेकर चलता है। जैन-दर्शन में संशय या सम्भाव्यता अथवा अनिश्चयात्मकता के निराकरण के लिए ही "स्यात्" पद के साथ "ही" (एवकार) लगाने की योजना को गयो है। "स्यात्" अनेकान्तता का द्योतक, निश्चित अपेक्षा का सूचक तथा कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक है। अतः “स्यात्" पद को संभव, शायद, हो सकता है आदि इन रूपों में ग्रहण करना सर्वथा अनुचित है, और इस रूप में ग्रहण करने पर स्याद्वाद में संशय की ही प्रधानता होती है। जबकि स्याद्वाद के माध्यम से प्रत्येक स्थापना या प्रकथन हमारे समक्ष निश्चित रूप में आता है सम्भव या शायद के रूप में नहीं। इस तथ्य की पुष्टि हमने पिछले प्रकरण में की है। अतः "स्यात्" पद का अर्थ सम्भव है, हो सकता है, शायद आदि करना ठीक नहीं है। इन आधुनिक दार्शनिकों के अतिरिक्त कुछ भाष्यकारों ने भी “स्यात्" शब्द का अर्थ जेन-आचार्यों के विपरीत किया है। जैसे श्री वल्लभाचार्य ने १. भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० २७७ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि "स्यात्" शब्द को अभीष्ट वचन का द्योतक माना है और श्री निम्बार्काचार्य ने उसे किंचित् अर्थ का बोधक कहा है। इसी प्रकार श्रीकण्ठाचार्य ने "स्यात्" पद को ईषत् अर्थ वाला शब्द माना है किन्तु स्यात् पद के इन अर्थों से स्याद्वाद का अभिधेय ठीक रूप में प्रतिफलित नहीं होता है क्योंकि 'स्यात्" शब्द न तो मात्र अभीष्ट वचन का द्योतक है और न तो किंचित् अर्थ का सूचक और न ईषत् अर्थ वाला ही है। बल्कि वह अपेक्षाभेद का सूचक तथा वस्तु की समग्रता का द्योतक है। "स्यात्" शब्द का वाच्यार्थ ही है अपेक्षाभेद। इसी अपेक्षाभेद से ही वस्तुओं में अनन्तधर्मता आदि को स्वीकार किया गया है। यदि इस अपेक्षाभेद अर्थ को छोड़कर अभीष्ट अर्थ ही किया जाय तो वस्तु में अनभीष्ट धर्मों की उपेक्षा हो जायेगी और इसी प्रकार किंचित् अर्थ मानने पर भी विरोध उत्पन्न होता है। कुछ है और कुछ नहीं है इस प्रकथन में सापेक्षता का लोप हो जाता है। जबकि जैन-दर्शन में “स्यात्" पद से सापेक्ष कथन ही अभीष्ट है। इसी प्रकार ईषत् अर्थ युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है। वस्तुतः "स्यात्" पद के उपर्युक्त अर्थ भ्रान्तिमूलक ही हैं। __"स्यात्" शब्द या स्याद्वाद के संदर्भ में इस तरह की भ्रान्तियाँ क्यों उत्पन्न हुई ? इस प्रसंग में डॉ. महेन्द्र कुमार जैन का कथन है कि "वैदिक आचार्यों ने स्याद्वाद को गलत रूप में प्रस्तुत किया ही था जिसका संस्कार आज के विद्वानों के मस्तिष्क में बना हुआ है और वे उसी संस्कार के वशीभूत होकर "स्यात्" शब्द का अर्थ 'शायद", "संभवतः", "कदाचित्" आदि करते हैं ।४ डॉ० जैन का यह कथन युक्तिसंगत ही प्रतीत होता है; क्योंकि डॉ० बलदेव उपाध्याय ने आचार्य शंकर की वकालत करते हुए लिखा है कि "यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टि से वह पदार्थों के विभिन्न रूपों का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परमतत्त्व तक पहुँच जाता। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर शंकराचार्य ने १. “स्याच्छब्दोऽभीष्ट वचनः" । -अणुभाष्यम्, २:२:३३ । २. श्री निम्बार्क भाष्यम्, २:२:३३ । ३. ..."स्याच्छब्द ईषदर्थः" । -श्रीकण्ठ भाष्यम्, २:२:३३ । ४. जैन-दर्शन, पृ० ३९६ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस स्याद्वाद का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य (२-२-३३) में प्रबल युक्तियों के सहारे किया है।"१ यद्यपि डॉ० उपाध्याय ने शंकर से इतर रहकर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को संशयवाद नहीं माना है क्योंकि उन्होंने लिखा है कि "यह अनेकान्तवाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है"२ फिर भी, इनके आलोचना को प्रवृत्ति संशयवाद के तरफ ही है, और वह आचार्य शंकर के प्रभाव का प्रतिफल है इसी प्रकार अन्य दार्शनिकों को भी समझाना चाहिए। ___ अब प्रश्न यह है कि यदि आधुनिक दार्शनिकों में वैदिक-आचार्यों के प्रभाव से स्याद्वाद को गलत रूप में समझने की भ्रान्ति हुई तो वैदिक आचार्यों को यह भ्रान्ति क्यों हुई ? इनका दायित्व किसी सीमा तक जैनआचार्यों पर ही आता है । वस्तुतः स्याद्वाद की व्याख्या में भाषा सम्बन्धी कुछ अस्पष्टता रही है जिसके कारण वैदिक आचार्य भ्रमित हुए। जैनआचार्यों के स्याद्वाद सम्बन्धी प्रकथनों में उस अस्पष्टता के कारण उनके अभिव्यक्तीकरण में ही विरोध प्रतीत होने लगा और उस विरोध की प्रतीति ब्रह्मसूत्रकार बादरायण को हुई और उन्होंने "नैकस्मिन्नसम्भवात्" कहकर उसकी आलोचना की । बादरायण के इसी सूत्र पर श्री शंकराचार्य ने भाष्य लिखा और स्याद्वाद को संशय दोष से युक्त बताया। उस संशय दोष की सिद्धि के लिए आधुनिक आचार्यों ने स्यात् शब्द का व्यत्पत्तिपरक अर्थ प्रस्तुत किया । यदि सर्वप्रथम जैन-आचार्यों ने ही इस सम्बन्ध में सतर्कता बरती होती तो शायद इस तरह की भ्रान्तियाँ उत्पन्न न हई होती। जैनविचारकों के अभिव्यक्तीकरण में मुझे अधोलिखित त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं(अ) सप्तभंगी के प्रथनों में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति कहकर वस्तु का हो विधान और निषेध करना। (ब) प्रत्येक वस्तु को न केवल सर्व धर्माश्रयी अपितु विरोधी धर्म युगला श्रयी सिद्ध करना। (स) प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना। (द) प्रत्येक भंग को एक निश्चित मूल्य न दे पाना। (य) एक ही प्रतीक रूप "स्यात्' पद को अनेक अर्थों का द्योतक बताना । १. भारतीय-दर्शन, पृ० १७५ । २. वही, पृ. १७४ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि (अ) सप्तभंगों में वस्तु का ही विधान और निषेध करना जैन आचार्यों ने अपने प्रकथनों में वस्तु के गुणधर्म के स्थान पर वस्तु का ही विधान या निषेध कर दिया है। यही परवर्ती भ्रान्तियों का सबसे बड़ा कारण है। क्योंकि घट है और घट नहीं है ऐसा कहना विरोधात्मक है। जो वस्तु हमारे समक्ष प्रस्तुत है उसी का निषेध करना कैसे सम्भव है ? यद्यपि जैन आचार्यों का आशय वस्तु का ही विधान या निषेध करना नहीं था बल्कि उनका आशय वस्तु के गुण-धर्मों के विधान या निषेध से ही था। जैसे 'स्यादस्त्येव घटः' में घट वस्तु का विधान नहीं है। घट का अस्तित्व तो है ही। उस कथन में केवल घट के घटत्व धर्म का विधान है। वस्तुतः इस प्रकथन में केवल यही स्पष्ट किया गया है कि स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से घट में घटत्व धर्म है। किन्तु इस तथ्य को जैनआचार्यों ने प्रारम्भ में स्पष्ट नहीं किया था। जिसके कारण उनके कथन में जैनेतर दार्शनिकों को विरोध प्रतीत होने लगा और उस सम्बन्ध में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गयीं। इस तथ्य का स्पष्टीकरण डॉ० सागरमल जैन ने अपने लेख ("सप्तभंगी, प्रतीकात्मक और त्रिमूल्यात्मक, तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में"') में बड़े अच्छे ढंग से किया है। उन्होंने लिखा है कि इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्म-विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। शंकर प्रभति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उनका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। 'स्यात् अस्ति घटः और स्यात् नास्ति घट:' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर "अस्ति" और "नास्ति" पर बल दिया जाता है तो आत्म विरोध का आभास होने लगता है। पूनः, जैन-आचार्यों के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जायेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त संशयवाद या १. देखिये-महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४५ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या आत्म विरोध के दोषों से ग्रस्त हो जायेगा, किन्तु ऐसा नहीं है । यदि प्रथम भंग में स्यादस्त्येव घटः का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है और द्वितीय भंग में "स्यान्नास्त्येव घटः " का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है ऐसा करेंगे तो आभासी रूप से ऐसा लगेगा कि दोनों कथन विरोधी हैं, क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को हो सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त " स्यात् " शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है । दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व । पुनः, दोनों भंगों के " अपेक्षाश्रित धर्म" एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं । प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का विधान है, वे अन्य अर्थात् स्वचतुष्टय के हैं और द्वितीय भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है वे दूसरे अर्थात् पर चतुष्टय के हैं । ' वस्तुतः उनमें कोई विरोध नहीं है । ७० (ब) प्रत्येक वस्तु को सर्वधर्माश्रयी के साथ ही विरुद्ध धर्म युगलाश्रयी सिद्ध करना जैन आचार्यों ने वस्तुओं की अनन्तधर्मता के समर्थन में प्रत्येक वस्तु को सर्व विरुद्ध धर्माश्रयी बताया है । उन्होंने कहा है कि "अनेकान्त स्वभाववाली होने से सब वस्तुएँ अनेकान्तात्मक हैं । जो वस्तु तत् है वही अतत् है जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है - इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुतत्त्व की परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है । किन्तु यहाँ कठिनाई यह है कि प्रत्येक वस्तु में सभी विरोधी धर्मं युगलों को आरोपित करना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है; क्योंकि चेतन-अचेतन, भव्यत्व - अभव्यत्व धर्मं भी विरोधी धर्मं युगल हैं और ये विरोधी धर्मं युगल एक साथ एक वस्तु में नहीं रह सकते । जिसमें चेतना का अत्यन्त अभाव है उसमें चेतना का सद्भाव कैसे माना जा सकता है । इसी प्रकार जो चेतन है १. द्रष्टव्य - महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४६ । २. समयसार, गा० २४७ की टीका । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि उसे अचेतन कैसे कहा जा सकता है। कम से कम आत्मा या जोव, जो चैतन्य स्वरूप है उसे अचेतन तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जीव में अचेतना का अत्यन्त अभाव है । अतः जीव को चेतन-अचेतन दोनों कहना ठीक नहीं है। इसी प्रकार भव्यत्व और अभव्यत्व धर्म को भी एक आत्माश्रयी सिद्ध करना विरोधपूर्ण है। इन्हीं विरोधों के कारण प्राचीनआचार्यों में भ्रान्तियाँ उत्पन्न हुई थीं। किन्तु यहाँ भी जैन-आचार्यों का आशय ऐसा नहीं था। उन्होंने सभी विरोधी धर्मों को सभी वस्तुओं में स्वीकार नहीं किया है। विशेष रूप से चेतन-अचेतन जैसे विरोधी धर्म युगलों को आत्मा आदि में तो नहीं ही स्वीकार किया है। क्योंकि धवला में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि "कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहना सम्भव है ? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाये तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक साथ आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए । किन्तु जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा से युगपततः भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।' कुछ आचार्यों को अस्तित्व और नास्तित्व धर्म युगल में भी विरोध प्रतीत होता है । किन्तु इसे यहाँ इस प्रकार समझना चाहिये कि अस्तित्व धर्म से जैन-आचार्यों का आशय स्वचतुष्टय से वस्तु में स्व सत्ताक धर्मों की सत्ता है और नास्तित्व या परचतुष्टय से वस्तु में पर सत्ताक धर्मों का अभाव है। जैसे स्वचतुष्टय से कुर्सी में कुसित्व का सद्भाव है यह अस्तित्व का सूचक है, और परचतुष्टय से कुर्सी में मेजत्व का अभाव है यह नास्तित्व का सूचक है। अतः इस प्रकार समझने से इनमें भी कोई विरोध नहीं आता है। इसी प्रकार अन्य धर्म युगलों को भी समझना चाहिए। (स) प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना ___ सप्तभंगी में प्रत्येक भंग का क्या उद्देश्य है और क्या विधेय है। उसके १. (अ) धवला, पु० १, खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ । (ब) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १, पृ० ११३ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या द्वारा किसका कथन किया जा रहा है घट या घट-धर्म का ? इसका स्पष्टीकरण नहीं हुआ था। इस अस्पष्टता के कारण भी आचार्यों में भ्रान्तियां उत्पन्न हुई थीं। (द) प्रत्येक भंग को एक निश्चित मूल्य न प्रदान करना सप्तभंगी के प्रत्येक भंगों के मूल्यों का स्पष्टीकरण नहीं किया गया था कि उसके अलग-अलग भंगों के द्वारा पृथक-पृथक कौन-कौन सा नया ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक भंग का अलग-अलग क्या मूल्य है। उनके अलग-अलग क्या प्रयोजन हैं। इस तथ्य की अस्पष्टता भी उसके संदर्भ में भ्रान्ति उत्पन्न होने का एक कारण है । (य) "स्यात्" पद को अनेकार्थक मानना जैन-आचार्यों ने अपने प्रत्येक कथन के परिमाणक के रूप में "स्यात्" पद को प्रस्तुत किया है। चाहे वहाँ एक धर्म का कथन करना हो या अनेक धर्म का, स्वीकारात्मक कथन हो या निषेधात्मक, यहाँ तक कि अपेक्षा बदलने के बाद भी परिमाणक के रूप में एक ही प्रतीक का प्रयोग सर्वत्र किया गया है | किन्तु प्रतीक रूप में "स्यात्" पद को कहाँ-कहाँ और किन-किन अर्थों में और किन-किन अपेक्षाओं के सूचन हेतु प्रयुक्त किया जायेगा इसका स्पष्ट उल्लेख उन्होंने नहीं किया था। अतः एक निश्चित अर्थ और एक निश्चित सीमा के अभाव में भी "स्यात्" पद के अनेक अर्थ होने लगे; जिसके कारण सप्तभंगी में विभिन्न प्रकार का दोष उत्पन्न हुआ। वस्तुतः इन कमियों पर यदि जैन-आचार्यों ने पहले ही ध्यान दिया होता तो निश्चय ही इसमें किसी प्रकार का संशय आदि दोष उत्पन्न न हुआ होता। "स्यात्" पद का वास्तविक अर्थ हमने उपर्यक्त विवेचन में देखा कि समन्तभद्र, अकलंक, अमतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने “स्यात्" शब्द को अनेकान्तता का द्योतक, विवक्षा या अपेक्षा का सूचक, कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक माना है न कि संशयपरक या अनिश्चयात्मक अर्थ का द्योतक या प्रतिपादक। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन-दार्शनिकों को 'स्यात्" शब्द का अर्थ संदेह, संभवतः, संशयादि कभी भी अभिप्रेत नहीं रहा है। यद्यपि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ७३ उन्हें यह आशंका थी कि कहीं "स्याद्वाद" को संशयवाद-संभववाद, अनिश्चयवाद आदि के अर्थ में ग्रहण नहीं कर लिया जाये। इसी आशंका से बचने एवं प्रकथन को निश्चयात्मक बनाने की दृष्टि से उन्होंने प्रत्येक प्रकथन में 'स्यात्' के साथ "एवकार" (ही) के प्रयोग का प्राविधान किया (जैसे स्यादस्त्येवघट:); और यह स्पष्ट भी किया कि “एवकार" (हो) यह द्योतित करता है कि जिस अपेक्षा से वस्तु में अमुक धर्म का प्रतिपादन किया गया है उस अपेक्षा से वह वैसी ही है"उसमें किसो प्रकार के संदेह आदि का अवकाश नहीं है। “एवकार" (ही) का प्रयोग किसी दुराग्रह को प्रकट करने के लिए न होकर यह स्पष्ट करने के लिए होता है कि वस्तु तत्त्व के बारे में जो कुछ कथन किया गया है, वह उस अपेक्षा से पूर्णतः सत्य है, उस दृष्टिकोण या अपेक्षा से वस्तु वैसो ही है अन्य रूप नहीं। इस प्रकार "एवकार" (ही) अपने विवक्षित विषय के संदर्भ में शंकाओं का निराकरण करके उसे दृढ़ता प्रदान करता है । श्लोकवार्तिक में "एवकार" (ही) के प्रयोग के विधान का आशय स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "वाक्यों में 'ही' का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढ़ता के लिए करना ही चाहिए, अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।"' युक्त्यनुशासन में स्वामी समन्तभद्र ने “एवकार" (ही) के इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि "जो पद एवकार से उपहित है (अर्थात् अवधारणार्थक "एव" नाम के निपात से विशिष्ट है, जैसे "जोव एव") वह अविवक्षित अर्थ से विवक्षित अर्थ को अलग करता है अर्थात् अविवक्षित अर्थ का व्यवच्छेदक है। वह सब विवक्षित पर्यायों, सामान्यों और विशेषों को अविवक्षित पर्यायों, सामान्यों और विशेषों से अलग करता है अन्यथा उस एक पद से ही उन अविवक्षितों का भी बोध हो जायेगा और इससे पदार्थ की भी हानि उसी प्रकार ठहरतो है जिस प्रकार कि विरोधी की हानि होती है। १. वाक्येवधारणं तावदनिष्टार्थ निवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्त समत्वात्तस्य कुत्रचित् ।। श्लोकवार्तिक, १:६:५३ । २. यदेवकारोपहितं पदं तद्-अस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्वं पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥ युक्त्यनुशासन, का. ४१ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या अर्थात् विवक्षित और अविवक्षित अर्थों के स्पष्टीकरण के बिना पदार्थ के स्वरूप का निर्धारण करना भी संभव नहीं होगा । पुनश्च उन्होंने यह भी कहा है कि " एवकार" (ही) के अभाव में उक्त वाक्य भी अनुक्ततुल्य हो जाता है । यथाहि "जो पद एवकार से रहित है वह अनुक्ततुल्य है । ' ७४ यद्यपि यहाँ " एव" शब्द का यह प्रयोग अनेकान्तिक सामान्य वाक्य को सम्यक् एकान्तिक विशेष वाक्य के रूप में परिणत कर देता है किन्तु यदि वाक्य में " एव" का प्रयोग न किया जाय तो उस प्रकथन में निश्चयात्मकता का अभाव तो रहता ही है । साथ ही वह तद्- विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेदक भी नहीं बन सकता है । उदाहरणार्थ - " स्यादस्तिघटः " अर्थात् किसी अपेक्षा से इसमें घटत्वधर्म है । इस वाक्य में एवकार नहीं है और " अस्ति" पद के साथ अवधारणार्थक 'एव' शब्द के न होने से 'नास्तित्व' का व्यवच्छेद नहीं बनता और नास्तित्व का व्यवच्छेद न बन सकने से उसमें पटत्व आदि नहीं है इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता । वस्तुतः नास्तित्व आदि के व्यवच्छेद के लिए " एव" का प्रयुक्त होना आव श्यक है । इस प्रकार " स्यात् " पद के साथ " एव" शब्द के आ जाने से प्रकथन में निश्चयात्मकता आ जाती है और "एव" शब्द के साथ " स्यात्" का प्रयोग करने से " स्यात् " शब्द तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेदक बन जाता है । इस प्रकार " स्यात् " पद के अधोलिखित कार्यं होते हैं १. वस्तु की अनन्तधर्मता को सूचित करना । में अपेक्षित धर्म का निर्देशन करना । २. वस्तु ३. प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना । ४. एकान्तता का निषेध करना । और ५. " एव" से योजित होकर प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना और तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेद करना । १. अनुक्त-तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावान्नियमद्वयेऽपि । पर्याय-भावेऽन्यतर प्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म हीनम् ॥ युक्त्यनुशासन, का० ४२ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि १ - अनन्तधर्मता का द्योतक " स्यात् " शब्द का वस्तु की अनन्तधर्मता का द्योतक होने का आशय है कि वह वस्तुतत्त्व जिसके संदर्भ में किसी गुणधर्मं ( विधेय) का विधान या निषेध किया जा रहा है, अनन्तधर्मात्मक है । जैसे " स्यात् अस्त्येव घटः " तर्कवाक्य में " अस्ति" पद उद्देश्य घट के "अस्तित्व" धर्म का वाचक है तो " स्यात् " पद उसकी अनेकान्तता का द्योतन करता है अर्थात् वह उस समय उद्देश्य के अस्तित्व धर्म से भिन्न शेष अन्य धर्मों का भी प्रतिनिधित्व करता है । ७५. २ - वस्तु में कथ्य धर्म की सापेक्षता का सूचक " स्यात् " शब्द वस्तु के कथ्य धर्म की सापेक्ष सत्ता या अवस्थिति का सूचक है । इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु के जिस धर्म को हम प्रकथन का विधेय बना रहे हैं वह धर्म उस वस्तुतत्त्व अर्थात् प्रकथन के उद्देश्य पद में सापेक्षतया अवस्थित है । ३- प्रकथन को सापेक्ष एवं सोमित बनाना " स्यात् " शब्द का तीसरा कार्यं प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना है । वह यह बताता है कि उद्देश्य के सम्बन्ध में जिस विधेय का विधान या निषेध किया गया है वह अपेक्षाश्रित ही है निरपेक्षतः नहीं । इसके साथ ही " स्यात् " पद यह भी स्पष्ट करता है कि प्रकथन में उद्देश्य के केवल एक ही विधेय (धर्म) की अभिव्यंजना की गयी है उसमें अवस्थित सभी भावात्मक-अभावात्मक विधेयों (धर्मों) को नहीं । जैसे "स्यादस्त्येव घट: " में घट के मात्र अस्तित्व धर्म की अभिव्यंजना की गयी है; वह भी मात्र द्रव्यदृष्टि से पर्याय आदि दृष्टियों से नहीं। इस प्रकार " स्यात् " प्रकथन की सापेक्षता एवं सीमितता का भी वाचक है । ४- एकान्तता का निषेधक जैन-दर्शन के अनुसार एकान्तिक कथन असत्य होते हैं और सापेक्षिक कथन सत्य । इसीलिए जैन दर्शन सभी भंगों के पूर्व "स्यात् " पद जोड़ता है । वस्तुतः सप्तभंगी का यह " स्यात् " पद एकान्तिक कथनों का निषेध भी करता है अर्थात् यह स्पष्ट करता है कि उक्त कथन एकान्तिक नहीं है, वह अनेकान्तिक अथवा सापेक्ष है । कथन में " स्यात् " पद के प्रयुक्त होने से कहे Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या गये धर्मों के साथ ही साथ अनुक्त धर्मों की उपेक्षा नहीं होती है। वस्तुतः उससे यह सूचन होता है कि वस्तु में विवक्षित धर्म के अतिरिक्त अविवक्षित धर्म भी हैं। हम उनको अवहेलना नहीं कर सकते हैं। ५-“एव" से योजित होकर प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना और तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेद करना प्रकथन में अभिव्यंजित अपेक्षित गुण-धर्म अपेक्षा विशेष से वस्तुतत्त्व में हैं ही; इसका विनिश्चय एव पद यक्त "स्यात्" शब्द के द्वारा होता है। एव पद से युक्त "स्यात्" शब्द प्रकथन को निश्वयात्मक बनाकर उसी अपेक्षा से उसके विरोधी प्रकथन की सत्यता का प्रतिषेध करता है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य हो है। इस प्रकथन में अपेक्षायुक्त "ही" पद से नित्यत्व धर्म का विनिश्चय तो होता ही है परन्तु उसके साथ ही अनित्यत्व धर्म का प्रतिषेध भी हो जाता है । इस प्रकार “स्यात्" शब्द एक निपात के रूप में सप्तभंगी में जो योगदान देता है वह उसके व्युत्पत्तिमूलक अर्थ से भिन्न है। वस्तुतः वह उपर्युक्त बातों का एक प्रतीक है। अतः जैन-दर्शन में "स्यात्" शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही हआ है और वही उसका वास्तविक अर्थ है संशय, संभवतः, अनिश्चय आदि नहीं । अनेकान्तवाद और स्यावाद का सम्बन्ध __ जैन-दार्शनिकों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसमें अनन्तगुण, अनन्तधर्म और अनन्तपर्यायें अपेक्षा भेद से सदैव विद्यमान रहती हैं। इतना ही नहीं, प्रत्येक वस्तु न केवल अनन्त गुण-धर्मों से युक्त है अपितु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले विरोधो धर्म यगल भी उसमें अविरुद्ध भाव से विद्यमान रहते हैं। अतएव प्रत्येक वस्तु को एक, अनेक, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, सादि-सान्त, आदि कहा जा सकता है। वस्तु में सत् पक्ष (भाव पक्ष) तथा असत् पक्ष (अभाव पक्ष) दोनों है। वह सामान्य भी है और विशेष भी। वह स्थायी भी है और क्षणिक भी। वह एक भो है और अनेक भी। यदि हम वस्तु को द्रव्य दृष्टि से देखते हैं तो वह सामान्य, स्थायी, एक रूप और अपरिवर्तनशील (अपरिणामी) प्रतीत होती है; किन्तु यदि हम उसे पर्यायों की दृष्टि से देखते हैं तो वही विशेष, क्षगिक, अनेक और परिवर्तनशील Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ७७ (परिणामी) प्रतीत होती है। इसीलिए प्रत्येक वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा जाता है और वस्तु की उस अनेकान्तात्मकता का.प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है। जैन-दर्शन के अनुसार अनेकान्तात्मक वस्तु के सम्बन्ध में हमारे सभी परामर्श ( Judgement ) आवश्यक रूप से सापेक्ष तथा सीमित होते हैं । हम अपनी सीमित ज्ञान एवं अभिव्यक्ति सामर्थ्य के कारण उसके यथार्थ स्वरूप के अवलोकन एवं कथन करने में असमर्थ रहते हैं। हम उसके अनेक धर्मों में से कुछ ही धर्मों को ग्रहण कर पाते या कह पाते हैं । जब हम किसी एक विवक्षा से ही वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं तब निश्चय ही उसके समग्र स्वरूप की अवहेलना होती है। इसी सच्चाई को न जानने के कारण ही सातों अन्धे हाथी के यथार्थ स्वरूप के विवेचन में असमर्थ रहे । जिसका यथार्थ निरूपण स्याद्वाद करता है। जैन-आचार्यों का कहना है कि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवती है। वस्तु में सत् पक्ष, असत् पक्ष, नित्य पक्ष, अनित्य पक्ष आदि सभी पक्ष विद्यमान हैं। उनमें किसी अपेक्षा से सत् पक्ष है तो किसी अपेक्षा से असत् पक्ष है, किसी अपेक्षा से नित्य पक्ष है तो किसी अपेक्षा से अनित्य पक्ष है। अतः सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य आदि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि पक्ष युक्त होना अनेकान्त है और वस्तु के उस अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है।' स्वामी समन्तभद्र ने भी कहा है कि "स्याद्वाद वह सिद्धान्त है जो सदा एकान्त को अस्वीकार कर अनेकान्त को ग्रहण करता है। "अनेकान्तवाद" वस्तुओं में अवस्थित विभिन्न धर्मों का सूचक है और स्याद्वाद उनको अभिव्यक्त करने की भाषायी पद्धति है। वस्तुतः अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति का रूप ही स्याद्वाद है। वस्तुओं में स्थित अनन्त धर्म स्याद्वाद के माध्यम से ही मुखरित होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वाच्य-वाचक १. "अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः" लघीयस्त्रय टीका, श्लो० ६२ । २. आप्तमीमांसा, श्लोक १०४ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भाव सम्बन्ध है । अनेकान्तवाद वाच्य है और स्याद्वाद उसका वाचक है । क्योंकि स्याद्वाद अनेकान्तवाद को ही अभिव्यक्त करता है और अनेकान्तवाद स्याद्वाद के माध्यम से ही अभिव्यक्त हो सकता है । इसलिए श्री विजयमुनि का भी कहना ठीक हो है कि "अनेकान्तवाद विचार प्रधान होता है और स्याद्वाद भाषा प्रधान होता है ।" अतः दृष्टि जब तक विचार रूप है तब तक वह अनेकान्त है और दृष्टि जब वाणी का चोगा पहनती है तब वह स्याद्वाद बन जाती है।' इस प्रकार स्याद्वाद अनेकान्तवाद को ही अभिव्यक्त करता है । ७८ यद्यपि कुछ जैन आचार्यों ने स्याद्वाद और अनेकान्तवाद को एक ही बताया है । उन आचार्यों ने यह स्पष्ट किया हैं कि जो स्याद्वाद है वही अनेकान्तवाद है और जो अनेकान्तवाद है वही स्याद्वाद है । किसी सीमा तक स्याद्वाद को अनेकान्तवाद का पर्यायवाची माना जा सकता है, क्योंकि स्याद्वाद से जिस वस्तु का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है और स्याद्वाद उस अनेकान्तात्मक अर्थ का सूचक है । इस प्रकार स्थूल दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की अभेदता सिद्ध होती है । स्याद्वादमंजरी में इस अभेदता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "स्थात्" यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है, इसीलिए स्याद्वाद को कहते हैं । अनेकान्तवाद भी "अनेकान्त" शब्द सूचक हैं अर्थात् स्याद्वाद में " स्यात् " शब्द और अनेकान्तवाद में की प्रधानता होती है । " स्यात् " शब्द "अनेकान्त" का अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए ही "स्पात्" शब्द प्रयुक्त होता है । वस्तुतः उसके वाचक शब्द के साथ जब तक " स्यात् " शब्द का प्रयोग नहीं होता तब तक उसकी प्रतोति नहीं होती । उदाहरणार्थ "यह पुस्तक लाल है" ऐसा कहने से उसकी लालिमा का भान तो होता है किन्तु उसमें उसके अतिरिक्त और भी अनेक धर्म हैं इसका बोध नहीं होता । अतएव उसके उस अर्थ का बोध कराने के लिए "स्वात् " शब्द का प्रयुक्त होना आवश्यक है । इस प्रकार जैन दर्शन में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को १. अनेकान्तवाद : एक परिशीलन, पृ० १३ । २. " स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः " - स्याद्वादमंजरी, श्लोक २५ की टीका. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ७९ अपने प्रतिपाद्य विषयवस्तु की अनेकान्तात्मकता को अभिव्यक्त करने के लिए ही प्रस्तुत किया गया है। जैन दर्शन में वस्तु की इस अनेकान्तात्मकता को स्पष्ट करने के लिए स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार एक स्थूल दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं । यद्यपि स्थूलतः स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त एक ही हैं किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर उनमें कुछ अन्तर भी प्रतीत होता है । जहाँ अनेकान्तवाद वस्तु की अनेकान्तात्मकता का सूचक है वहाँ स्याद्वाद वस्तु की उस अनेकान्तात्मकता को द्योतित करते हुए एकान्तिक भाषा - दोष का परिमार्जन करता है । जैनाचार्य आनन्द ऋषि जी का कहना है कि - " यद्यपि अनेकान्तवाद स्याद्वाद का और स्याद्वाद अनेकान्तवाद का पर्यायवाची शब्द कहा जाता है, फिर भी दोनों में यह अन्तर है कि स्याद्वाद भाषा- दोष का परिमार्जन करता है कि ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाये जो अपने कथन की प्रामाणिकता को प्रदर्शित करते हुए भी पदार्थ के स्वरूप को सुरक्षित रखे ।" " सारांश यह है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में एक अटूट सम्बन्ध है जिसे आधार - आधेय का सम्बन्ध कह सकते हैं । अनेकान्तवाद स्याद्वाद का आधार है और स्याद्वाद अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति की एक शैली है । अतः वे एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । यदि इस सम्बन्ध कोन स्वीकार किया जाय तो अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति किसके माध्यम से होगी ? स्याद्वाद किस सिद्धान्त को अभिव्यक्त करेगा और वह किस पर आधारित होगा ? वस्तुतः उनके इस सम्बन्ध के अभाव में स्थाद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों अपूर्ण रह जायेंगे। दोनों सिद्धान्तों में पूर्णता इस सम्बन्ध को लेकर हो जाती है। इसी प्रकार स्याद्वाद को न मानने पर अनेकान्तवाद और अनेकान्तवाद को न मानने पर स्याद्वाद अपूर्ण रह जाता है; क्योंकि स्याद्वादरूपी भवन अनेकान्तवादरूपी नींव पर ही खड़ा होता है । यदि अनेकान्तवादरूपी नींव को निकाल दिया जाय तो स्याद्वादरूपी भवन भी धराशायी हो जायेगा । इसी तरह स्वाद्वादरूपी महल के अभाव में अनेकान्तवादरूनी नोंव का कोई महत्व नहीं है । अतः १. स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन, पृ० २७ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या यह कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का गहरा और अटूट सम्बन्ध है। चूंकि अनेकान्तवाद स्याद्वाद के द्वारा ही मुखरित होता है । इसलिए स्याद्वाद अनेकान्तवाद का भाषायी रूप है। स्याद्वाद का यह भाषायी रूप जिस कथन पद्धति का सहारा लेता है। उसे सप्तभंगी कहते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि सप्तभंगी की यह कथन पद्धति कितनी सत्य है और कितनी असत्य है ? क्या सप्तभंगी के सभी प्रकथन सत्य हैं ? या उनमें कुछ असत्य हैं और कुछ सत्य हैं ? इन प्रश्नों को समझने के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि हमारा ज्ञान और तत्सम्बन्धी कथन कितना सत्य होता है और कितना असत्य होता है ? इसका पूर्णतः विवेचन हम अग्रिम अध्याय में प्रस्तुत करेंगे। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ज्ञान की प्रामाणिकता का प्रश्न देखना, जानना समझना मानव का सहज स्वभाव है। वह प्रत्येक वस्तु के मूल-स्वरूप को जानने का प्रयास करता है और मात्र उसके बाह्य प्रतीति या इन्द्रियानुभूति से सन्तुष्ट नहीं होता। वह अपनी प्रतीत्यात्मक अनुभूति के पीछे भी झाँकना चाहता है। वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है। उसके लिए उसके पास मात्र दो हो साधन उपलब्ध हैं-एक इन्द्रियाँ और दूसरा तर्क बुद्धि । मानव इन्हीं सीमित साधनों से तत्त्वाधिगम का प्रयास करता है। किन्तु इन्द्रियानुभूति से प्राप्त वस्तुतत्त्व के बाह्य-स्वरूप के ज्ञान से असन्तुष्ट मानव उसके सारतत्त्व को तर्क बुद्धि से समझने का प्रयत्न करता है। फिर भी उसकी यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि वास्तव में सत्य क्या है ? यथार्थ क्या हैं ? उसे कैसे जाना जा सकता है ? वस्तु के सन्दर्भ में हमें जो यह ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह कैसा है ? वह सत्य है या असत्य है ? प्रामाणिक है या अप्रामाणिक है ? आदि-आदि। ____ यहाँ हमारे विवेचन का विषय यह नहीं है कि ज्ञान कहाँ से प्राप्त हो रहा है ? अपितु मात्र इतना ही है कि जो यह ज्ञान हमें प्राप्त हो रहा है वह सत्य है या असत्य ? प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? और उसकी प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का कारण क्या है ? जैन-दर्शन के अनुसार, ज्ञान प्रज्ज्वलित दीपक के समान है। जिस प्रकार दीपक पर पदार्थों को प्रकाशित करते हुए अपने को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान पर पदार्थों को जानने के साथ ही साथ अपने को भी जानता है। डॉ. महेन्द्र कुमार जैन दार्शनिक साहित्य के आधार पर ज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि "ज्ञान का सामान्य धर्म है अपने स्वरूप को जानते हुए पर पदार्थ को जानना । वह अवस्था विशेष में पर को जाने या न जाने, पर अपने स्वरूप को तो हर हालत Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या में जानता ही है । ज्ञान चाहे प्रमाण हो, संशय हो, विपर्यय हो या अनध्यवसाय आदि किसी भी रूप में क्यों न हो, वह बाह्यार्थ में विसंवादी होने पर भी अपने स्वरूप को अवश्य जानेगा और स्वरूप में अविसंवादी ही होगा। यह नहीं हो सकता कि ज्ञान घट पटादि पदार्थों की तरह अज्ञात रूप में उत्पन्न हो जाय और पीछे मन आदि के द्वारा उसका ग्रहण हो । वह तो दीपक की तरह जगमगाता हुआ ही उत्पन्न होता है। स्वसंवेदो होना ज्ञान सामान्य का धर्म है। अतः संशयादि ज्ञानों में ज्ञानांश का अनुभव अपने आप उसी ज्ञान के द्वारा होता है। यदि ज्ञान अपने स्वरूप को न जाने यानी वह स्वयं के प्रत्यक्ष न हो; तो उसके द्वारा पदार्थ का बोध भी नहीं हो सकता।"' आप्तमीमांसा में कहा गया है कि भाव (ज्ञान) को प्रमेय मानने की अपेक्षा से कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है । अतः ज्ञान स्व-रूप से प्रमाण रूप ही होता है। यदि ज्ञान अपने स्वरूप का ही प्रतिभास करने में असमर्थ है तो वह पर पदार्थों का अवबोधक कैसे हो सकता है ? अतः सभी ज्ञानों का स्वरूप की अपेक्षा से प्रमाण रूप होना संभव है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि स्व-संवेदन की दृष्टि से कोई भी ज्ञान असत्य यानी अप्रमाण नहीं होता । यहाँ तक कि स्व-संवेदन की अपेक्षा से मिथ्या ज्ञान भी प्रमाण ही होता है। चूंकि ज्ञान की बाह्यार्थ के साथ संगति निश्चित नहीं होती। कभी ज्ञान ज्ञेय वस्तु के अनुरूप होता है तो कभी नहीं होता। अतः बाह्य वस्तु से संगति-असंगति के कारण ही ज्ञान यथार्थ-अयथार्थ होता है । इसलिए प्रमाण-अप्रमाण की व्यवस्था बाह्यार्थ की अपेक्षा से होती है स्व-संवेदन की अपेक्षा से नहीं। आधुनिक तर्कशास्त्र में “यह टेबल लकड़ी की है" और "मैं यह जानता हूँ कि टेबल लकड़ी की है" इन दो ज्ञानों में अन्तर माना गया है। प्रथम ज्ञान में हमारा प्रमेय या ज्ञान का विषय (ज्ञेय ) लकड़ी की टेबल है अर्थात् बाह्यार्थ है जबकि दूसरे में हमारे ज्ञान का विषय या प्रमेय ( ज्ञेय ) टेबल नहीं है अपितु स्वयं हमारा ज्ञान है । अतः जहाँ प्रथम ज्ञान को प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का प्रश्न है वह ज्ञान को ज्ञेय वस्तु से संवा १. जैन-दर्शन, पृ० १९० । २. "भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः।" -आप्तमीमांसा, तत्त्वदीपिका, पृ० २७० । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ८३ दिता पर निर्भर करता है जबकि दूसरे में ज्ञान की संवादिता वस्तु से न - होकर स्वयं ज्ञान से ही है, क्योंकि यहाँ ज्ञेय स्वयं ज्ञान है । इस प्रकार जैनों का यह मानना कि ज्ञान स्व-स्वरूप की अपेक्षा से स्वतः प्रामाण्य होता है उचित ही हैं किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि यहाँ उसका मिथ्या होना बाह्यार्थ पर निर्भर नहीं करता अर्थात् जब ज्ञान ही ज्ञेय होता है तो उसकी प्रामाणिकता स्वयं ज्ञान पर ही निर्भर करती है न कि वस्तु पर । किन्तु जब ज्ञान का प्रमेय या ज्ञेय बाह्यार्थ होता है तो उसकी प्रामाणिकता वस्तु ( बाह्यार्थ ) पर निर्भर करती है और इस दृष्टि से ज्ञान को परतः प्रामाण्य मानना भी उचित है । संक्षेप में कहें तो ज्ञान, ज्ञान के रूप में स्वतः प्रामाण्य है और बाह्यार्थ के प्रकाशक के रूप में ज्ञान परतः प्रामाण्य होता है । आप्तमीमांसा में कहा गया है कि बाह्य अर्थ को प्रमेय मानने की अपेक्षा से ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास ( अप्रमाण ) दोनों होता है ।" इसलिए यथार्थ और अयथार्थ ज्ञान की ये दोनों कोटियाँ बाह्य वस्तुओं से उस ज्ञान की संवादिता पर ही निर्भर करती हैं । जो ज्ञान बाह्यार्थ अर्थात् ज्ञेय वस्तु का संवादी होता है वह यथार्थ और जो विसंवादी होता है वह अथार्थ होता है । दूसरे शब्दों में, ज्ञान तभी सत्य होता है जब वह ज्ञेय वस्तु के अनुरूप हो । यदि ज्ञान ज्ञेय वस्तु के अनुरूप नहीं है तो वह असत्य हो जाता है । इस बात का स्पष्टीकरण डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने इस प्रकार किया है कि "ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास" इनकी व्यवस्था बाह्य अर्थ के प्रतिभास करने और प्रतिभास के अनुसार बाह्य पदार्थ के प्राप्त होने और न होने पर निर्भर करती है । जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ ठीक उसी रूप में मिल जाय जिस रूप में उसका बोध हुआ है तो वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है अन्य (ज्ञान) प्रमाणाभास ( अप्रमाण ) | इसी बात का निरूपण करते हुए सिद्धिविनिश्चय में कहा गया है कि जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ जैसा - का तैसा मिल जाता है वह अविसंवादी ज्ञान सत्य एवं प्रमाण है और शेष अप्रमाण । १. " बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ।" - आप्तमीमांसा, तत्त्वदीपिका, पृ० २७० । २. जैन दर्शन, पृ० १८८ । ३. " यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।" - सिद्धिविनिश्चय, १:१९ को टीका में उद्धृत । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार ज्ञान की सत्यता-असत्यता, प्रमाणता-अप्रमाणता बाह्य वस्तुओं के अवबोधन पर निर्भर करती है। किन्तु ज्ञान की इस प्रमाणताअप्रमाणता का निश्चय भिन्न-भिन्न रीतियों से होता है। कुछ ज्ञान ऐसे होते हैं जिसकी प्रामाणिकता का निश्चय स्वतः ज्ञान से ही हो जाता है। किन्तु कुछ ज्ञान ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रमाणता का निश्चय स्वतः नहीं हो सकता। उनकी प्रमाणता के लिए बाह्य-वस्तुओं का सहारा लेना पड़ता है। जिन ज्ञानों को प्रमाणता का निश्चय स्वतः ज्ञान से ही हो जाता है उन्हें स्वतः प्रामाण्य और जिनकी प्रमाणता का निश्चय स्वतः न होकर स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर ज्ञान या बाह्य वस्तुओं से होता है उन्हें परतः प्रामाण्य कहते हैं। स्वतः प्रामाण्य में ज्ञान की प्रामाण्यता या सत्यता का बोध स्वयं ज्ञान से ही होता है। उसके लिए किसी बाह्यार्थ का सहारा नहीं लेना पड़ता है। इस प्रकार जब ज्ञान अपनी प्रामाणिकता को स्वतः प्रकट कर दे, तो वह ज्ञान स्वतः प्रामाण्य कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में, जब ज्ञान की सत्यता की कसौटी ज्ञान स्वयं हो तो वह स्वतः प्रामाण्य है। जैसे त्रिभुज तीन भुजाओं से घिरी हुई एक आकृति है। यहाँ त्रिभुज के तीन भुजाओं वाला होने का ज्ञान सत्य है। इसके लिए हमें त्रिभुज को देखने या प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि "त्रिभुज" पद ही एक ऐसा पद है, जो उसके तीन भुजाओं वाला होने का ज्ञान देता है। दूसरी बात यह है कि हम पूर्व से भी त्रिभुज से परिचित हैं कि वह (त्रिभुज) तीन भुजाओं वाला ही होता है। वस्तुतः उस पूर्व के अभ्यास से भी उक्त ज्ञान की प्रामाणिकता निश्चित होती है। जैन-दर्शन में स्वतः प्रामाण्य के निश्चय हेतु अभ्यास-दशापन्न ज्ञान को स्वीकार किया गया है। परीक्षामुख में कहा गया है कि अभ्यासदशा में ज्ञान स्वतः प्रामाण्य होता है। किन्तु कुछ ज्ञान ऐसे भी हैं जिनकी प्रामाणिकता का निश्चय स्वतः यानी तद् ज्ञान से ही नहीं हो सकता। उनके प्रामाण्य-निश्चय के लिए बाह्य वस्तुओं या स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। उसके लिए ज्ञानोपरान्त प्रमेय यानी ज्ञेय वस्तु के परीक्षण आदि की आवश्यकता पड़ती है, अर्थात् वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने के बाद हम उस वस्तु के पास जाकर १. "अभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायां च परतः इति" । -परीक्षामुखम्, १:१३ की टीका । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ८५ उसकी परीक्षा करते हैं कि वस्तु हमारी पूर्व प्रतीत्यानुरूप है अथवा नहीं । यदि वह पूर्व प्रतीति के अनुरूप ही है तो वह पूर्व प्रतीति रूप ज्ञान सत्य यानी प्रामाणिक होगा । अन्यथा असत्य अर्थात् अप्रामाणिक हो जायेगा । वस्तुतः ऐसे ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए बाह्य वस्तुओं पर निर्भर करना पड़ता है । इस प्रकार ज्ञान की प्रमाणता अप्रमाणता का निश्चय उपर्युक्त दो विधियों से होता है । स्वतः और परतः जैन दर्शन में ज्ञान की प्रामाण्यताअप्रामाण्यता के निश्चय हेतु ये दोनों ही विधियाँ स्वीकृत हैं । जानने के साथ-साथ जब ऐसा निश्चय होता है कि यह जानना ठीक है तो वह स्वतः निश्चय है और जानने के साथ-साथ जब यह जानना ठीक है ऐसा निश्चय नहीं होता तब दूसरी कारण सामग्री से -संवादक प्रत्यय से उसका निश्चय किया जाता है तो वह परतः निश्चय होता है। वस्तुतः किसी-किसी परिस्थिति में ज्ञान - प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है और किसी-किसी परिस्थिति में परत: । विद्यानन्द के अनुसार ज्ञान-प्रामाण्य अभ्यासदशा में स्वतः सिद्ध होता है और अनभ्यासदशा में परतः । ' इस प्रकार तदाकार रूप ज्ञान यथार्थ और अतदाकार रूप ज्ञान अयथार्थं होता है । यथार्थ ज्ञान प्रामाणिक और अयथार्थ ज्ञान अप्रामाणिक होता है । ज्ञान की प्रमाणता - अप्रमाणता का निश्चय जिसके कारण होता है वह है प्रामाण्य । प्रामाण्य का अर्थ है यथार्थ । प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है उसका उसी रूप में प्राप्त होना यानी प्रतिभास (ज्ञेय) विषय का अव्यभिचारी होना प्रामाण्य कहलाता है । यह प्रमाण का धर्म है । वस्तुतः ज्ञान का सत्य होना प्रामाण्य और असत्य होना अप्रामाण्य है । ज्ञान की इस प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता के प्रतिपादन हेतु दार्शनिकों ने विभिन्न कसौटियों को स्वीकार किया है और विभिन्न कसौटियों के कारण ही दार्शनिकों ने सत्यता को विभिन्न रूप में परिभाषित किया है । यथार्थ, अबाधित्व, अप्रसिद्ध अर्थख्यापन या अपूर्व अर्थप्रापण, अविसंवादित्व या संवादो प्रवृत्ति, प्रवृत्ति-सामर्थ्यं या क्रियात्मक उपयोगिता के रूप २ १. " प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा ।” - प्रमाणपरीक्षा, परीक्षा ६३, २. देखिये, जैन- दर्शन पृ० १९६; डॉ० महेन्द्रकुमार जैन । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या में सत्यता को विभिन्न परिभाषायें दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत और निराकृतः होती रही हैं । अब हम इनका विवेचन पृथक्-पृथक् रूप में करेंगे। (अ) यथार्थ यथार्थ शब्द दो शब्दों यथा + अर्थ से बना है। इसका तात्पर्य है अर्थ (ज्ञेय) का ज्ञान के अनुरूप होना। दूसरे शब्दों में, ज्ञान की तथ्य से संगति । जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु के अनुरूप है वह सत्य या यथार्थ है। यद्यपि जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु की प्रतीति करा रहा है वह भी ज्ञेयाकार होकर ही प्रमाण रूप होता है किन्तु ऐसा मानने पर सीप में चाँदी का प्रतिभास करने वाला ज्ञान भी प्रमाण यानी यथार्थ हो जायेगा । सामान्यतया ऐसा ज्ञान बाह्यार्थ से अपनी अविसंवादिता के कारण अयथार्थ अर्थात् अप्रमाण कहा जाता है तथापि ज्ञानानुभूति की अपेक्षा से वह (ज्ञान) भी प्रमाणरूप होता है। जैसे रज्जु में सर्प की प्रतीति “यह सर्प है" ऐसा ज्ञान संवादिता की दृष्टि से अप्रमाण है किन्तु "मैं यह जानता हूँ कि यह सर्प है" यह ज्ञानानुभूति तो अपने आप में प्रमाण ही है। इसलिए अनुभूति की तदाकारता की अपेक्षा से वह ज्ञान कथंचित् सत्य भी होता है। लेकिन उस ज्ञान में प्रतिभास के अनुरूप बाह्यार्थ की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए उसे अयथार्थ माना जाता है। वस्तुतः ज्ञेय वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में ग्रहण करने वाला ज्ञान यथार्थ होता है। (ब) अबाधित्व अबाधित शब्द में अ+ बाध + क्त प्रत्यय का संयोग है। जिसका अर्थ है बाधारहित होना अथवा बाधविवजित होना । वह ज्ञान जो बाधा रहित हो या बाधविवर्जित हो, अबाधित ज्ञान कहलाता है और ज्ञान का बाधविवर्जित गुण सम्पन्न होना अबाधित्व है। यहाँ बाधित का अर्थ है निराकृत या खण्डित । वह ज्ञान जो किसी अन्य ज्ञान से निराकृत या खण्डित न हो, अबाधित ज्ञान कहलाता है । इस प्रकार ऐसे ज्ञान को यथार्थ या प्रमाण ज्ञान कहा जाता है। (स) अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन या अपूर्व अर्थ प्रापण अप्रसिद्ध का अर्थ है अज्ञात, अर्थात् जो किसी अन्य प्रमाण से ज्ञात न हुआ हो और ख्यापन का अर्थ है उद्घाटन करना। इस प्रकार अप्रसिद्ध Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ८७ अर्थ-ख्यापन का अर्थ होगा अज्ञात अर्थ का उद्घाटन करना । वह ज्ञान जो किसी अज्ञात अर्थ (ज्ञेय) का उद्घाटक हो अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापक ज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार अपूर्व का अर्थ है अभूतपूर्व, जो पहले विद्यमान न था अर्थात् बिल्कुल नवीन यानी जो किसी अन्य ज्ञान से कभी न जाना गया हो। प्रापण (प्र + आप् + ल्युट) का अर्थ है प्राप्त करना, अधिग्रहण, अवाप्ति । इस प्रकार अपूर्व अर्थ प्रापण का अर्थ होगा जो पहले किसी अन्य ज्ञान से न जाना गया हो ऐसे अज्ञात अर्थात् बिल्कुल नवीन ज्ञान को ग्रहण करना । इस प्रकार ऐसे ज्ञान को ग्रहण करने वाला अपूर्व अर्थ प्रापक ज्ञान कहलाता है और अपूर्व अर्थ ग्रहण करने के कारण यथार्थ होता है। (द) अविसंवादित्व या संवादी प्रवृत्ति संवादी का अर्थ है सदृश या समान, और विसंवादी का अर्थ है असदृश या असमान । विसंवादी में "अ" उपसर्ग के जोड़ने से अविसंवादी शब्द बनता है और "अ" अविसंवादी पद में पहले आकर विसंवादी का निराश करता है जिसके कारण अविसंवादी का पुनः वही अर्थ होगा सदश या समान । अविसंवादी से अविसंवादित्व या अविसंवादिता पद बनता है। जिसका फलितार्थ है समानता या तुल्यता । इसी प्रकार प्रवृत्ति का अर्थ है शब्दों के अर्थ का बोध कराने की एक शक्ति या मन का किसी विषय की ओर झुकाव । जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु के तुल्य या समान हो वह अविसंवादी और जो ज्ञान ज्ञेय के संवादी होने की शक्ति से युक्त है वह ज्ञान अविसंवादी या संवादी प्रवृत्ति युक्त ज्ञान कहलाता है । (य) प्रवृत्ति सामर्थ्य या अर्थक्रियाकारित्व ___ प्रवृत्ति सामर्थ्य का सामान्य तात्पर्य है अर्थ बोध कराने की शक्ति । किन्तु अर्थक्रियाकारित्व का आशय होगा ज्ञान के आधार पर सार्थक क्रिया का सम्पादन अथवा ज्ञान का व्यवहार में उपयोगी होना। वह ज्ञान जो व्यवहार में उपयोगी हो अर्थ क्रियाकारी ज्ञान कहलाता है। जैसे हमें तालाब में पानी का प्रतिभास होता है और यदि प्रतिभासित पानी हमारी प्यास बुझाने में समर्थ है तो यह कहा जा सकता है कि हमारा प्रतिभासित पानी का पूर्व-ज्ञान अर्थ क्रियाकारी है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या सारांश यह है कि चाहे ज्ञान-ज्ञान रूप से तो स्वतः प्रामाण्य हो किन्तु जहां तक वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता का प्रश्न है वहाँ तक उस ज्ञान की प्रामाण्यता अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं पर ही निर्भर होती है। अर्थात् वह ज्ञान परतः प्रामाण्य होता है। चंकि इन्द्रियों की ग्राहकता सीमित है। इसलिए वस्तुगत ज्ञान कभी बाह्य वस्तु के अनुरूप होता है और कभी नहीं होता। इस प्रकार ज्ञान की यथार्थता-अयथार्थता, प्रामाण्यता-अप्रामाण्यता की व्यवस्था ज्ञेय वस्तु के स्वरूप पर निर्भर होती है। अतः वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता बाह्य वस्तुओं पर ही निर्भर होती है। यद्यपि स्वतः प्रामाण्य के रूप में वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता ज्ञानान्तर ज्ञान या अभ्यासदशापन्न ज्ञान से भी निश्चित होती है। किन्तु यह ज्ञानान्तर ज्ञान अथवा अभ्यासदशापन्न ज्ञान भी अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं (ज्ञेय) पर निर्भर होता है; क्योंकि उस ज्ञान की पूर्व प्रतीति बाह्य वस्तुओं के रूप में ही हुई थी। इसलिए ज्ञान की स्वतः प्रामाण्यता भी बाह्य वस्तुओं पर आश्रित है और परतः प्रामाण्यता तो बाह्यवस्त्वाश्रित है ही। जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं । अतएव ज्ञेय वस्तुओं के सन्दर्भ में स्वतः और परतः दोनों ही प्रामाण्य व्यवस्था बाह्य वस्तुओं पर अवलम्बित है। इस प्रकार ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रामाण्य निश्चय की स्वतः और परतः दो ही विधायें हैं और दोनों ही विधायें अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं पर निर्भर हैं। इसलिए सम्पूर्ण ज्ञान की यथार्थता बाह्य वस्तुओं पर आश्रित है। यद्यपि पारमार्थिक सत्ता जो इन्द्रियानुभव का विषय नहीं है, जिनकी अपरोक्षानुभूति मात्र होती है; ऐसे ज्ञान को प्रामाण्यता के लिए स्वतः प्रामाण्य को स्वीकार करना ही पड़ता है । किन्तु जहाँ तक वस्तुनिष्ठ ज्ञान की प्रामाण्यता की बात है वहाँ तक तो वह परतः प्रामाण्य होता है। डॉ. महेन्द्र कुमार जैन ने कहा है कि "प्रमाणता या अप्रमाणता सर्वप्रथम तो परतः ही गृहीत होती है, आगे परिचय और अभ्यास के कारण भले ही वे अवस्था विशेष में स्वतः हो जायें। गुण और दोष दोनों वस्तु के ही धर्म हैं। वस्तु या तो गुणात्मक होती है या दोषात्मक । अतः गण को ‘स्वरूप" कह कर उसका अस्तित्व नहीं उड़ाया जा सकता। दोनों की स्थिति बराबर होती है। यदि काचकामलादि दोष हैं तो निर्मलता चक्षु का गुण है । अतः गुण और दोष रूप कारणों से उत्पन्न होने के कारण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन को प्रामाणिकता ८९ प्रमाणता और अप्रमाणता दोनों ही परतः मानी जानी चाहिए।"१ अस्तु वस्तुनिष्ठ ज्ञान की प्रमाणता-अप्रमाणता परतः ही होती है। वचन को प्रामाणिकता का प्रश्न इस प्रकार हमने ऊपर संक्षेप में ज्ञान की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की बात को समझा, किन्तु अब प्रश्न यह है कि कौन सा कथन (वचन) प्रामाणिक है और कौन सा (कथन) अप्रामाणिक ? इस संदर्भ में वस्तुवादी दार्शनिकों का मत है कि सत्य कथन वह है जो तथ्य यानी वस्तु के यथार्थ स्वरूप के अनुकूल हो अर्थात् हमारा कथन तभी सत्य हो सकता है जब वह वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का संवादी हो अन्यथा असत्य और अपूर्ण होगा। वस्तु के “यथार्थ स्वरूप" से हमारा तात्पर्य यह है कि वस्तु के जिस धर्म का कथन हम कर रहे हैं वह उसी रूप में उस लक्षित वस्तु (उद्देश्य) में प्राप्य हो और इस तरह के विधेय युक्त कथन यथार्थ होते हैं। इस संदर्भ में जार्ज पैट्रिक ने लिखा है कि "यह ऐसे सामान्य व्यक्ति का दष्टिकोण होता है जो यथार्थ का भेद यथार्थ के कथन से करता है और जब कथन का संवाद तथ्य से हो तो उसे वह सत्य मानता है इसलिये यह कथन कि नवीन इंग्लैण्ड के किनारे अटलांटिक के जल से धुलते हैं सत्य है, क्योंकि यह कथन तथ्य का संवादी है। किसी भी व्यक्ति को इस निर्णय के बताने के पूर्व वास्तव में अटलांटिक के जल से नवीन इंग्लैण्ड के किनारे धुलते थे । अतः प्रत्येक कथन को सत्य होने के लिए लक्षित तथ्य का संवादी होना आवश्यक है। जिस प्रकार ज्ञान का ज्ञेय वस्तु के तुल्य होना अनिवार्य है, अर्थात् यथार्थ या प्रामाणिक ज्ञान ज्ञेय वस्तु का संवादी होता है। उसी प्रकार कथन भी तभी सत्य होता है जब वह तथ्य का संवादी हो । अतः यदि कथ्य विधेय उद्देश्य में है तो वह कथन यथार्थ है अन्यथा अयथार्थ । किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हमारा कथन या हमारा निर्णय वास्तव में तथ्य का संवादी होता है ? क्या उस वस्तु में निहित जो धर्म हैं उन सबका उसी रूप में कथन करना संभव है ? कदापि नहीं। जार्ज पैट्रिक ने निर्णय और तथ्य के बीच एक गहरी खाई को स्वीकार किया है। उनके १. जैन-दर्शन, पृ. १९९. २. दर्शन-शास्त्र का परिचय, पृ० ३७९-८०. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या अनुसार निर्णय या कथन कथ्य की प्रतिलिपि या कथ्य का संवादी हो ही नहीं सकता। वस्तुतत्त्व जैसा है उसका वैसा कथन करना असंभव है। उन्होंने कहा है कि "बाह्य सत्ता से किसी भी कथन अथवा निर्णय की तुलना करना असंभव है। आप अपने प्रामाणिक माप को एक तख्ते के बराबर में रखकर देख सकते हैं कि उनमें संवादिता है अथवा नहीं, किन्तु आप किसी निर्णय को तथ्य की बराबरी में यह देखने के लिए नहीं रख सकते कि उनमें संवादिता है या नहीं। क्या यह कहने का कोई अर्थ है कि निर्णय तथ्य का "संवादी" होता है अथवा वह बाह्य सत्ता की "प्रतिलिपि" होती है। वास्तव में निर्णय या कथन व्यवहार में तथ्य का प्रतीक तो होता है किन्तु वह उसकी हूबहू प्रतिलिपि नहीं होती। वस्तुतः कथ्य धर्म वस्तु में जिस रूप में रह रहा है अथवा उसका जैसा स्वरूप है उसी रूप में उसका कथन करना कथमपि संभव नहीं है। हम उन्हें प्रकथन रूप प्रतीक के द्वारा अवश्य अभिव्यक्त करते हैं किन्तु यह दावा करना गलत है कि वस्तु का स्वरूप जैसा है उसका उसी रूप में अभिव्यक्तीकरण होता है। डॉ० सागरमल जैन ने इस संदर्भ में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। उन्होंने यह प्रश्न करते हुए कहा है कि "क्या इन शब्द प्रतीकों में भी अपने विषय या अर्थ की अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है ? क्या कुर्सी शब्द कुर्सी नामक वस्तु को और "प्रेम" शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है ? यह ठीक है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक अथवा संकेतक है, किन्तु क्या कोई भी शब्द अपने वाच्य विषय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम है ? क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण-धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) का एक समग्न चित्र प्रस्तुत कर सकता है ? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक नहीं है तो फिर भाषा की प्रामाणिकता या उपयोगिता संदेहात्मक बन जाती है । विन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ है और अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख. प्रस्तुत कर देता है।"२ १. दर्शन-शास्त्र का परिचय, पृ० ३८०. २. तुलसी प्रज्ञा, खण्ड ७, अंक ७-८, अक्टूबर-नवम्बर १९८१, पृ० १३. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता अतएव वस्तु-स्वरूप का तद्रूपतः कथन करना असम्भव है। हम जब भी उसके अभिव्यक्तीकरण का प्रयास करते हैं तब उसके आंशिक स्वरूप का ही निर्वचन हो पाता है। यही कारण है कि जैन-दार्शनिकों ने शब्द (भाषा) और अर्थ (विषय) के सम्बन्ध के संदर्भ में एक मध्यवर्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। उनकी यह मान्यता है कि सम्पूर्ण सत्य (वस्तु) का ज्ञान भले ही हो जाय किन्तु उसे उसी रूप में कहा नहीं जा सकता। वस्तु की अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास उसे सापेक्ष और आंशिक रूप में ही प्रस्तुत कर पाता है। वस्तु के संदर्भ में जो कुछ भी कहा जाता है वह वास्तव में किसी न किसी विवक्षा अथवा नय से गभित होता है। सर्वज्ञ को भी सत्य की अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है, जो सीमित एवं अपूर्ण है तथा अस्ति और नास्ति की विचार कोटियों से घिरी हई है। ऐसी अपूर्ण एवं सीमित भाषा-शैली पूर्ण सत्य का प्रकाशन कैसे कर सकती है ? अतएव ऐसी अपूर्ण एवं सीमित भाषा शैली के माध्यम से सम्पूर्ण सत्य (यथार्थता) का निर्वचन असंभव है। इसीलिए प्रभाचन्द्र ने शब्द और अर्थ के तप सम्बन्ध का खण्डन किया था। उनके दष्टिकोण से "मोदक शब्द के उच्चारण से मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती है, अतः मोदक शब्द और मोदक नामक वस्तु दोनों भिन्न-भिन्न हैं।"' अतः कथ्य वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में कथन हो ही नहीं सकता है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम सब कुछ असत्य ही कहते हैं ? क्या सत्य कथन करना संभव ही नहीं है ? आखिर वह कौन सा कथन है जो सत्य है ? इस संदर्भ में जैन-दर्शन का विचार है कि सत्य की अभिव्यक्ति निरपेक्ष न होकर सापेक्ष रूप में होती है। सत्य कथन असत्य तभी बनता है जब वह निरपेक्ष हो जाता है। अतः वस्तुतत्त्व की यथार्थता का कथन सापेक्ष रूप से ही संभव है और वही सत्य है। समन्तभद्र ने कहा है कि "निरपेक्ष अर्थात् एक-एक धर्म का कथन करने वाले जो नय हैं वे सब मिथ्या हैं । जो नय सापेक्षता को लेकर कथन करते हैं वे सम्यक् नय हैं और वही वस्तुभूत हैं तथा वही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं।" २ इस बात १. न्यायकुमुदचन्द, भाग २, पृ. ५३६. २. "निरपेक्षानयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ।” -आप्तमीमांसा, श्लो० १०८. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या को एक उदाहरण के द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है । जैसे हम किसी कच्चे आम को खट्टा कहते हैं । यद्यपि यह सत्य है कि उस समय वह खट्टा है किन्तु जिस आम को हमने खट्टा कहा है वही पकने पर मीठा हो जाता है । तब इस कथन को कि "यह आम खट्टा है" कैसे सत्य मान लिया जाय ? इतना ही नहीं; यदि भाषा की अक्षमता पर ध्यान दें तो यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जायेगी। जैसे नीबू, इमली, आँवला आदि खट्टे होते हैं । पर क्या नीबू, इमली, आँवला आदि सभी के खट्टेपन एक हो हैं ? यदि एक ही हैं तब उनमें भेद क्या रहा? वस्तुओं में भेद उनके गुण-धर्मों से ही तो होता है और यदि उन सबके खट्टेपन भिन्न-भिन्न हैं तब उन्हें एक ही खट्टे शब्द से क्यों सम्बोधित किया जाता है ? किन्तु इतना होने के बाद भी हम सभी के खट्टेपन को एक ही खट्टे शब्द से सम्बोधित करते हैं । वस्तुतः यह समस्या बनी ही रह जाती है कि वह किस प्रकार के खट्टेपन का सूचक है ? परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि वस्तु का अभिव्यक्तीकरण हो हो नहीं सकता अथवा भाषा और वस्तु में कोई सम्बन्ध ही नहीं है । उनमें सम्बन्ध है अवश्य । वस्तु का जो कुछ भी अभिव्यक्तीकरण होता है वह भाषा के माध्यम से ही होता है । भाषा अपने अर्थ (विषय) का सकेतक तो है ही । किन्तु उसके हूबहू प्रतिलिपि का संवादी नहीं है । जैनदर्शन के अनुसार शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित, वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध है । शब्द अपने विषय का वाचक तो होता है किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में असमर्थ है। वस्तुतः कोई भी कथन तथ्य का पूर्ण संवादी नहीं होता है । यद्यपि आंशिक रूप से वस्तु का संकेतक होने से आंशिक सत्य है । इसीलिए जैन आचार्यों ने कहा है पूर्ण या निरपेक्ष तथ्य कथ्य नहीं है । उन्होंने सापेक्ष कथन को ही सत्य कहा है । जैन दर्शन के अनुसार चूँकि प्रत्येक कथन तथ्य के सम्बन्ध में आंशिक ज्ञान ही प्रदान करता है । अतः प्रत्येक कथन आंशिक सत्य होता है । किन्तु स्मरणीय है कि कथन - कथन होता है कथ्य नहीं । इसलिए वह मात्र कथ्य का संकेतक होता है । लेकिन कथ्य का प्रतिरूप नहीं । अतः उसकी सत्यता-असत्यता तथ्य के सम्बन्ध में उसकी संकेतक शक्ति पर निर्भर करती है । वस्तुतः जो कथन कथ्य का जितना अधिक स्पष्ट संकेत करता · Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता है, वह उतना ही अधिक सत्य के समीप होता है। दूसरे शब्दों में, जो कथन श्रोता के मानस-पटल पर तथ्य का संवादी प्रतिबिम्ब उत्पन्न करने में जितना अधिक समर्थ है, वह कथन उतना ही अधिक सत्य होता है। कथन के सत्य-असत्य की बात श्रोता के अर्थ-बोध की सामर्थ्य पर भी निर्भर है। यह कथन की सत्यता-असत्यता का एक दूसरा आधार है। श्रोता यदि वक्ता के कथन का कुछ अर्थ बोध कर पाता है तभी उसके मानस-पटल पर तद्वस्तु सम्बन्धी प्रतिबिम्ब उत्पन्न हो सकता है और तद्वस्तु तथा प्रतिबिम्ब का मिलान किया जा सकता है । जैसे “यह एक कलम है" इस कथन का अर्थबोध उसी को हो सकता है जो हिन्दी भाषा जानता है। हिन्दी भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए इस कथन का कोई अर्थ नहीं और न ये शब्द उसमें कोई प्रतिबिम्ब ही उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए कथन के सत्य-असत्य निर्णय हेतु श्रोता के अर्थबोध-सामर्थ्य को भी स्वीकार किया जा सकता है । __इस प्रकार कोई भी कथन श्रोता की योग्यता और शब्द की संकेतक शक्ति के अनुसार सत्य और असत्य होता है। वस्तुतः कथन निरपेक्षतः न तो सत्य होता है और न तो असत्य । किसी भी कथन को सत्यता-असत्यता किसी संदर्भ विशेष में होती है। जैन-दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर बड़ी गम्भीरता से विचार किया है । "पन्नवणा" सूत्र में भाषा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अर्थ को संकेतित करके उसका ज्ञान कराने वाली भाषा स्यात् सत्य है, स्यात् असत्य है, स्यात् सत्यमृषा है व स्यात् अ-सत्य अ-मषा है।' इस प्रकार भाषा को सत्य मृषा भाषा, मृषा भाषा, सत्यमषा भाषा और अ-सत्य अ-मृषा भाषा चार भेदों में विभक्त कर सत्य और मृषा भाषा को पर्याप्तिक तथा सत्यमषा और अ.सत्य अ-मृषा भाषा को अपर्याप्तिक भाषा कहा गया है। इस प्रकार जैन-दर्शन के अनुसार भाषा दो प्रकार की होती है : (१) पर्याप्तिक भाषा (२) अपर्याप्तिक भाषा १. पन्नवणा सूत्र, "एकादस भाषापदम्". २. वही. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या पर्याप्तिक भाषा से जैन आचार्यों का आशय है समर्थवान् भाषा। वह भाषा जो श्रोता को अर्थबोध कराने में समर्थ हो, पर्याप्तिक भाषा है। भाषा (कथन) चाहे स्वीकारात्मक हो अथवा निषेधात्मक, यदि वह एक निश्चित अर्थ देने में समर्थ है तो वह पर्याप्तिक भाषा कहो जायेगी। इसे हम आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से निश्चयात्मक भाषा कह सकते हैं । जिस भाषा में यह संशय बना रहे कि यह सत्य है या असत्य है अथवा उसमें निश्चयात्मकता का अभाव हो, उसे अपर्याप्तिक भाषा कहते हैं। इसे हम आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से संभाव्य भाषा कह सकते हैं। कथन की सत्यता-असत्यता को पूर्ण रूप से समझने के लिए इस पर्याप्तिक और अपर्याप्तिक भाषा को समझना अपेक्षित है। जैन-आचार्यों ने पर्याप्तिक भाषा के सत्य और मृषा दो भेद तथा अपर्याप्तिक 'भाषा के सत्यमृषा और अ-सत्य अ-मृषा दो भेद किया है। अब हम संक्षेप में पर्याप्तिक और अपर्याप्तिक भाषा के उक्त भेदों पर विचार करेंगे। १. पर्याप्तिक भाषा जैन-दर्शन के अनुसार पर्याप्तिक भाषा दो प्रकार की होती है : (१) पर्याप्तिक सत्य भाषा (२) पर्याप्तिक मृषा भाषा (१) पर्याप्तिक सत्य भाषा सत्य भाषा का अर्थ स्पष्ट करते हुए पनवगा सूत्र में कहा गया है कि सत्य वस्तु का स्थापन करने में सर्वज्ञ-पथ का अनुसरण करने वालो तथा जो भाषा मोक्ष प्राप्ति का साधन हो सके वह सत्य भाषा है।' जैन-दार्शनिकों ने असत्य वचन को मोक्ष का बाधक और सत्य वचन को मोक्ष का साधन माना है। इसीलिए जैन-दर्शन सत्य-भाषा पर सर्वाधिक जोर देता है। जैन-दर्शन के अनुसार सर्वज्ञ का कथन यथार्थ होता है; क्योंकि वह वस्तु को यथार्थ रूप में देखता है और वह उसे जिस रूप में देखता है उसो रूप में अभिव्यक्त भी करता है। यही कारण है कि जैन-दर्शन सत्य वचन को सर्वज्ञ को वचनों से नापना चाहता है। आशय यह है कि जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में निरूपण करने वाला कथन सत्य होता है। १. पनवणासूत्र, "एकादस भाषापदम् -२" Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता यद्यपि सर्वज्ञ वस्तु के समग्र स्वरूप का ज्ञाता होने पर भी उसका कथन तो आंशिक रूप से या सापेक्ष रूप से ही कर पाता है । इसलिए पर्याप्तिक सत्य भाषा निश्चयात्मक होते हुए भी आंशिक सत्य या सापेक्ष सत्य को अभिव्यक्त करती है । इसीलिए सूत्रकार ने उसे "सिय सच्चा" ( स्यात् सत्य) कहा है । वस्तुतः कथन की सत्यापनीयता या तथ्य से संवादिता निरपेक्षतः या पूर्णतः नहीं; प्रत्युत सापेक्षतः ही संभव है । यद्यपि जैन दर्शन में कथन की सत्यता वस्तुगत सत्यापनीयता या तथ्य की संवादिता तक ही सीमित नहीं है; क्योंकि जैन- दार्शनिकों ने व्यावहारिक सत्यता को स्वीकार किया है । अतः व्यावहारिक कथन भी सत्य या असत्य हो सकते हैं । उनकी सत्यता उनकी अर्थक्रियाकारिता पर निर्भर करती है । जैन आचार्यों ने सत्य के विभिन्न भेद स्वीकार किये हैं । स्थानांगसूत्र', पत्रवणासूत्र और भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में सत्यवचन के दसदस भेद गिनाये गये हैं :― २ (अ) जनपद सत्य, (आ) सम्मत सत्य, (इ) स्थापना सत्य, (ई) नाम सत्य, ( उ ) रूप सत्य, (ऊ) प्रतीति सत्य, (ए) व्यवहार सत्य, (ऐ) भाव सत्य, (ओ) योग सत्य और ( औ) उपमा सत्य । अकलंक ने सम्मति, संभावना और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना, देश और समय-सत्य को रखकर सत्य का दस भेद स्वीकार किया है । भगवती आराधना में योग सत्य के स्थान पर संभावना सत्य का उल्लेख प्राप्त होता है | इस प्रकार जैन दर्शन में पर्याप्तिक सत्य भाषा के दस भेद हो स्वीकृत हैं; भले ही उनमें कुछ हेर-फेर हो पर उनकी संख्या दस हो मानो गयी है । अब हम उन दसों पर्याप्तिक सत्य कथनों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे (अ) जनपद सत्य जिस देश या प्रदेश में जो शब्द जिस अर्थ में व्यवहृत होता है उसका वही अर्थ ग्रहण करना जनपद सत्य है जैसे "बाई", "लौण्डा" आदि शब्द । "बाई" शब्द यदि उत्तर प्रदेश में वेश्याओं के लिए प्रयुक्त होता है तो १. स्थानांगसूत्र, ७४१ । २. पन्नवणासूत्र, एकादस भाषापदम् - १। ३. भगवती आराधना, पृ० १९९२-९३ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या राजस्थान आदि प्रदेशों में "माता" का सूचक है। इसी प्रकार "लौण्डा" शब्द किसी प्रदेश में "पुत्र" का सूचक है तो किसी प्रदेश में “समलैङ्गिक युवा" का प्रतिपादक है। वस्तुतः ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रदेश के अनुसार करना समुचित माना गया है और ऐसे सत्य वचन को जनपद सत्य कहते हैं। (आ) सम्मत सत्य वह शब्द प्रतीक जो किसी वस्तु को सर्वसम्मति से दे दिया गया है उसे उसी रूप में स्वीकार करना अथवा व्यवहृत करना सम्मत सत्य है । जैसेपंक से पंकज (कमल) के साथ ही मेढक आदि जीव भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु सर्वसम्मति से कमल को ही पंकज कहा जाता है मेढक आदि जीवों को नहीं । वस्तुतः कमल को पंकज कहना सम्मत सत्य है । (इ) स्थापना सत्य जिस वस्तु को जिस रूप में मान्य कर लिया गया है उसको उसी रूप में प्रयुक्त करना स्थापना सत्य है। जैसे किसी पत्थर की मूर्ति को किसी देवता के रूप में मान लेना स्थापना सत्य है। (ई) नाम सत्य जिस व्यक्ति या वस्तु को जो नाम दे दिया गया है उसको उसी नाम से पुकारना नाम सत्य है। उदाहरणार्थ-नयनसुख, चक्रधारी आदि । यद्यपि चक्रधारी चक्र को नहीं धारण करते हैं फिर भी उन्हें उनके नाम के अनुसार चक्रधारी कहना नाम सत्य है। (उ) रूप सत्य वेश-भूषा या आकृति के आधार पर किसी व्यक्ति या वस्तु का कथन करना रूप सत्य है । जैसे साधु के वेश को धारण किये हुए व्यक्ति को साधु कहना रूप सत्य है। चाहे अपने आचरण में वह पतित ही क्यों न हो। पर रूप के आधार पर उसे साधु कहना सत्य ही है। (ऊ) प्रतीति सत्य जो वस्तु जैसी दिखायी पड़ती है उसको उसी रूप में कहना प्रतीति सत्य है। जैसे चलती हुई रेलगाड़ी में से देखकर वृक्ष आदि को गतिमान बताना, सूर्य को अस्थिर और पृथ्वी को स्थिर बताना आदि । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता (ए) व्यवहार सत्य व्यवहार में जैसी भाषा का प्रयोग होता है वैसी ही भाषा का प्रयोग करना व्यवहार सत्य है। जैसे-गाँव आ गया, चूल्हा जल गया आदि कहना। यद्यपि गाँव नहीं आता अपितु हम पहुँचते हैं, चूल्हा नहीं जलता बल्कि लकड़ी जलती है किन्तु प्रतिदिन व्यवहार में उक्त भाषा का ही प्रयोग किया जाता है जिसे असत्य नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वे कथन व्यवहार में सत्य हैं; क्योंकि व्यवहार में उनका ऐसा प्रयोग होता ही है । (ऐ) भाव सत्य किसी विशिष्ट गुण की प्रधानता के आधार पर वस्तु को तद्रूप कहना भाव सत्य है । जैसे-गुड़ में मिठास की प्रधानता के कारण उसे मीठा कहना। यद्यपि उसमें मिठास के अतिरिक्त खट्टापन या कसैलापन भी होता है। (ओ) योग सत्य किसी सम्बन्ध विशेष के आधार पर वस्तु या व्यक्ति का तद्रप प्रतिपादन करना योग सत्य है जैसे-दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति को दण्डी, बनारस में रहने वाले व्यक्ति को बनारसी, कन्नौज में रहने वाले व्यक्ति को कन्नौजिया कहना । मात्र यही नहीं, यदि वे वर्तमान में उस गुण से युक्त नहीं हैं फिर भी पूर्व सम्बन्ध के आधार पर उन्हें उसी नाम से सम्बोधित किया जाता है। (औ) उपमा सत्य किसी वस्तु या व्यक्ति को उपमा के आधार पर विवेचित करना उपमा सत्य है। जैसे--चन्द्रमुखी, मृगलोचनी आदि । यद्यपि उपमा मात्र उपमा है। उपमा के कारण उस उपमेय और उपमान में कोई अनिवार्य और आवश्यक सम्बन्ध नहीं है। फिर भी उपमेय और उपमान में तुलना की जाती है । वस्तुतः ऐसे उपमा सम्बन्धी कथन को सत्य कहा जाता है। (२) पर्याप्तिक मृषा (असत्य) भाषा पन्नवणासूत्र की हिन्दी टीका में असत्य वचन (भाषा) का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "जिस वचन से आत्मगुण की, सर्वज्ञ के वचन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या की व मोक्ष पद की विराधना हो। वह असत्य भाषा है।' जिस भाषा में आत्मगत संगति न हो, सर्वज्ञ के वचन के विपरीत हो तथा जिससे मोक्ष प्राप्ति में बाधा हो, ऐसी भाषा असत्य होती है। जैन-आचार्यों ने इस असत्य भाषा को भी दस भेदों वाली बताया है। किन्तु असत्य भाषा के वे सभी भेद तार्किक न होकर साधुचर्यापेक्षित हैं। ऐसे वचनों को क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः बोल देते हैं; किन्तु इन वचनों को जैन आचार्यों ने मृषा और साधुचर्या में अव्यवहार्य बताया है। यहाँ इसके भेदों-प्रभेदों का विवेचन उपयुक्त नहीं है । २. अपर्याप्तिक भाषा जैन-दर्शन के अनुसार अपर्याप्तिक भाषा के भी दो प्रकार होते हैं :(१) अपर्याप्तिक सत्य मृषा भाषा (२) अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मृषा भाषा (१) अपर्याप्तिक सत्यमषा भाषा सत्य और असत्य से मिश्रित भाषा सत्य-मृषा भाषा है। इसे न तो पूर्णतः सत्य कह सकते हैं और न तो पूर्णतः असत्य । साथ ही इसे सत्य और असत्य से भिन्न भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि इसमें सत्य और असत्य दोनों ही समाहित हैं। वह भाषा जो सत्यता या असत्यता का निश्चयात्मक ज्ञान देने में असमर्थ हो उसे सत्यमृषा भाषा कहते हैं। जैनदर्शन में इसके भी दस भेद बताये गये हैं : (क) उत्पन्न मिश्रक (ख) विगत मिश्रक (ग) उत्पन्न विगत मिश्रक (घ) जीव मिश्रक (ङ) अजीव मिश्रक (च) जीवाजीव मिश्रक (छ) अनन्त मिश्रक (ज) परित्त मिश्रक (झ) अद्धा(काल) मिश्रक (ञ) अद्धद्धा (कालांश) मिश्रक (क) उत्पन्न मिश्रक चूंकि प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है। उसमें उत्पाद, विनाश और ध्रुवत्व का क्रम साथ-साथ चलता है। इसलिए “यह उत्पन्न हुआ" ऐसा १. पन्नवणा सूत्र, एकादस भाषापद्म-२ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता कहना सर्वथा सत्य नहीं हो सकता है। किन्तु इसे पूर्णतः असत्य भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि यह प्रक्रिया भी वस्तु में घटित होती है । इसलिए इसे सत्य और असत्य से मिश्रित माना जा सकता है। (ख) विगत मिश्रक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यत्व की प्रक्रिया के साथ-साथ रहने के कारण "यह विनष्ट हो गया" ऐसा कहना भी पूर्णतः सत्य नहीं है। किन्तु सापेक्षतः यह कथन सत्य भी है। इसलिए इस कथन को भी जैन आचार्यों ने सत्यअसत्य मिश्रित कथन कहा है। (ग) उत्पन्न विगत मिषक चूंकि उत्पाद और विनाश दोनों ही किसी सत् (ध्रौव्यगुणयुक्त) वस्तु में पाये जाते हैं अतः उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी क्रमिक कथन को भी पूर्णतः सत्य नहीं कहा जाता है; क्योंकि जो उत्पन्न हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह नित्य भी है । अतः उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी कथन भी सत्यता और असत्यता दोनों से युक्त है । अतः वह मिश्र कथन है । (घ) जोव मिश्रक पुद्गलाणुओं से निर्मित होने के कारण यह शरीर जड़ और इस शरीर में रहने वाला जीव चेतन है। इसलिए सशरीरी जीव शरीर की अपेक्षा से जड़ और जीव की अपेक्षा से चेतन है । अतः सशरीरी जीव को "मात्र चेतन कहना" सर्वथा सत्य नहीं है। यद्यपि इस कथन को सर्वथा असत्य भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह जीव की अपेक्षा से तो चेतन होता ही है। वस्तुतः ऐसे कथन को सर्वथा सत्य या सर्वथा असत्य न कहकर मिश्रित कथन ही मानना होगा। (ङ) अजीव मिश्रक __ सशरीरी जीव को मात्र अचेतन भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह जीव की अपेक्षा से चेतन होता है किन्तु शरीर के रूप में उसमें अचेतनता भी रहती है। वस्तुतः बद्ध या सशरीरी जीव अंशतः चेतन और अंशतः अचेतन होता है। अतः उसे अचेतन कहना भी न तो पूर्णतः असत्य होता है और न तो पूर्णतः सत्य । प्रत्युत वह सत्य-असत्य दोनों हो होता है। जैन-दर्शन की भाषा में इसे "अजीव मिश्रक" कथन कहते हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या (च) जीवाजीव मिश्रक जैन आचार्यों के अनुसार जीव और अजीव अथवा शरीर और आत्मा के एकत्व और भिन्नत्व का प्रतिपादन निरपेक्षतया संभव नहीं है । इसलिए उसके भिन्नत्व और अभिन्नत्व सम्बन्धी प्रश्नों को न तो सत्य कहा जा सकता है और न तो असत्य । इसलिए इन्हें सत्य और असत्य दोनों ही कहा जा सकता है । वस्तुतः ऐसे कथनों को जीवाजीव मिश्रक भाषा में रखा जाता है । (छ) अनन्त मिश्रक विश्व की प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से अनन्त है तो किसी अपेक्षा से सान्त भी है । इसलिए उसे मात्र अनन्त कहना न तो सत्य है और न तो असत्य है । वस्तुतः ऐसे कथन को अनन्त मिश्रक कथन कहना चाहिए | (ज) परित्त मिश्रक यद्यपि परित्त मिश्रक का अर्थ "प्रत्येक मिश्रक" किया जाता है और "अर्द्धमागधी कोश" में भी परित्त का अर्थ प्रत्येक दिया गया है किन्तु प्राकृत भाषा के "परित" का संस्कृत रूप " प्रत्येक" नहीं है । वस्तुतः यहाँ " परित" शब्द सीमितता या परिमितता के सन्दर्भ में आया है । आकाश परिमित है या अपरिमित है ? इस प्रश्न के सन्दर्भ में कोई एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है; क्योंकि आकाश परिमित (सीमित) भी है अपरिमित (असीमित) भी । इसलिए उसे मात्र परिमित या सीमित ही बताना समग्रतया न तो सत्य है और न असत्य । इसलिए ऐसे कथन को सत्य और असत्य दोनों ही कहना पड़ेगा । इसीलिए इसे परित्त मिश्रक कहते हैं । (झ) अद्धा मिश्रक कालांश सम्बन्धी कथन जैसे दो बज गया है, जनवरी मास व्यतीत हो रहा है आदि व्यावहारिक सत्य है; क्योंकि पारमार्थिक काल में यह विभाजन नहीं है । अतः सभी कालिक कथन पूर्णतः सत्य या असत्य नहीं कहे जा सकते । इसीलिए उन्हें अद्धा मिश्रक कथन माना गया है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता १०१ (अ) अद्धद्धा मिश्रक काल-निरपेक्ष कथन भी पूर्णतः सत्य या असत्य नहीं होते हैं। अतः उन्हें भी अंशतः सत्य और अंशतः असत्य मानना होगा। (२) अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मृषा भाषा वाणी-व्यापार की यह एक ऐसी भाषा है। जो प्रतिदिन व्यवहृत तो होती है किन्तु यह सत्य और असत्य की कोटियों से परे होती है। जब किसी वाणी-व्यापार में वस्तुगत विधेय के स्थान पर किसी ऐसे विधेय को प्रयुक्त किया जाता है जिनका सत्यापन कथमपि संभव नहीं है । ऐसी भाषा को जैन आचार्यों ने अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें उद्देश्य के सन्दर्भ में किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं होता है। बल्कि आदेश, इच्छा आदि को अभिव्यक्त किया जाता है। पन्नवणा सूत्र में इस भाषा के १२ भेद बताये गये हैं। यहाँ भाषा (कथन) की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के सन्दर्भ में इनका भी संक्षेप में विचार कर लेना अपेक्षित है (क) आमन्त्रणी भाषा किसी व्यक्ति को उत्सव आदि में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित करने में जिस भाषा का प्रयोग होता है उस भाषा को आमन्त्रणी भाषा कहते हैं। जैसे-आप हमारे गृह-प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित होवें। यह एक ऐसी भाषा है जिसका सत्यापन संभव नहीं है। इसलिए इसे अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं। (ख) आज्ञापनीय भाषा किसी को आज्ञा देने के लिए प्रयुक्त की गयो भाषा का भी सत्यापन नहीं हो सकता है। इसलिए उस भाषा को भी सत्य और मृषा की कोटि से परे माना गया है। जैसे-दीपक बुझा दो, दरवाजा बन्द कर दो आदि । (ग) याचनीय भाषा जैन आचार्यों ने याचनीय भाषा को भी सत्य और असत्य की कोटि से परे माना है। किसी से कुछ मांगने में प्रयोग की गयी भाषा का भी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या सत्यापन सम्भव नहीं है। जैसे—पानी दो, कागज लाओ आदि । इसलिए इस भाषा को भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं । (घ) प्रच्छनीय भाषा किसी से कुछ पूछने में जिस भाषा का प्रयोग होता है उसकी भी सत्यापनीयता संभव नहीं है। इसलिए उसे भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं । जैसे-तुम कहाँ जा रहे हो ? क्या खा रहे हो ? आदि । (ङ) प्रज्ञापनीय भाषा ऐसी भाषा, जिससे किसी व्यक्ति को उपदेश दिया जाता हो। चूंकि वह तथ्यात्मक नहीं होती है और तथ्यात्मक न होने के कारण असत्यापनीय होती है। वस्तुतः उसे अ-सत्य अ-मषा भाषा की कोटि में रखना पड़ता है। जैसे-हिंसा करना पाप है, अहिंसा मोक्ष प्रदाता है; आदिआदि। (च) प्रत्याखनीय भाषा किसी व्यक्ति की याचना की उपेक्षा या अस्वीकार ज्ञापन हेतु जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है वह प्रत्याखनीय भाषा होती है। जैसेयहाँ से चले जाइए, तुम्हें भिक्षा नहीं दी जायेगी। (छ) इच्छानुकूलिका भाषा जिस भाषा के माध्यम से अपनी इच्छा ज्ञापित की जाती है उसे इच्छानुकूलिका भाषा कहते हैं। जैसे-मझे मिठाई बड़ी अच्छी लगती है। मैं शराब पीना पसन्द नहीं करता हूँ आदि। यह भाषा भी अतथ्यात्मक होने के कारण असत्यापनीय होती है। वस्तुतः इस भाषा को भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं। (ज) अनभिग्रहीता भाषा ऐसा कथन जिसके माध्यम से वक्ता किसी वस्तु से अपनी तटस्थता अभिव्यक्त करता है। उसे अनभिग्रहीता भाषा कहते हैं। जैसे-तुम्हें जो पसन्द हो वह खाओ, जैसे सुख हो वैसा करो। आदि-आदि। यह भाषा भी असत्यापनीय होने से अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहलाती है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता (झ) अभिग्रहीता भाषा जिस भाषा से किसी व्यक्ति के कथन का समर्थन या अनुगमन सूचित होता हो उसे अभिग्रहीता भाषा कहते हैं । जैसे-हाँ, तुम ऐसा ही करो आदि। (अ) संदेहकारिणी भाषा संदेहात्मक भाषा भी सत्य-असत्य की कोटि से परे, अ-सत्य अ-मृषा भाषा के अन्तर्गत आती है। इसलिए यह भी असत्यापनीय भाषा है। जैसेसैन्धव अच्छा होता है। यहाँ यह वाक्य सन्देहात्मक है। क्योंकि सिन्धु देश के घोड़े की अच्छायी स्वीकृत है या नमक की अच्छायी । इसका स्पष्टीकरण इस कथन में नहीं हो पाता है। (ट) व्याकृता भाषा व्याकृता भाषा से जैन-विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं होता है। हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना, ऐसा हो सकता है। वे कथन जो किसी तथ्य की परिभाषायें हैं इसकी कोटि में आते हैं। आधुनिक भाषावादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो ये पुनरुक्तियाँ हैं । जैन-विचारक पुनरुक्तियों को सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखना चाहते हैं; क्योंकि ये पुनरुक्तियाँ न तो कोई नवीन कथन करती हैं और न तो इनका कोई विधेय ही निश्चित होता है। दूसरे, इन्हें ग्रहीतग्राही भाषा भी कह सकते हैं । वस्तुतः वे कथन जो गृहीत विधेय को ही ग्रहण करते हैं। इस व्याकृता भाषा की कोटि में आते हैं। ये व्याकृत कथन भी असत्यापनीय होते हैं। इसलिए इन्हें भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते है। (ठ) अव्याकृता भाषा वह भाषा जो किसी विधि या निषेध रूप निर्णय से परे हो, अव्याकृता भाषा कहलाती है। यह भाषा असत्यापनीय है। इसलिए इसे भी अ-सत्य अ मृषा भाषा कहते हैं। इस प्रकार जैन आचार्यों ने सत्यापनीय कथनों को सत्य और असत्यापनीय कथनों को असत्य कहा है। चाहे वे निषेधात्मक हों या स्वीकारात्मक हों। यदि वे सत्यापनीय हैं तो सत्य है अन्यथा असत्य हो जाते हैं। इस Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रकार यह सत्यापनीयता सम्बन्धी सिद्धान्त आधुनिक तर्कशास्त्र के संवादिता सिद्धान्त के निकट तो बैठता है पर इस सत्यापनीयता को जैनआचार्यों ने सापेक्ष रूप से ही स्वीकार किया है निरपेक्ष रूप से नहीं । वस्तुतः यह प्रतिफलित होता है कि जैन दर्शन में वे ही कथन सत्य माने जाते हैं जो सापेक्ष हों । उनकी यह सत्यापनीयता आगे प्रमाण, नय और दुर्नय के विवेचन में और भी स्पष्ट हो जायेगी प्रमाण, नय और दुर्नय ( १ ) प्रमाण से सामान्यतया प्रमाण का लक्षण है " प्रमायाः करणम् प्रमाणम्” । अर्थात् प्रमाता जिस साधन से ज्ञान प्राप्त करता है वही प्रमाण है । प्रमा का अर्थ है यथार्थ ज्ञान । अर्थात् जो वस्तु जैसो है उसकी वैसी ही प्रतीति प्रमा है ( तद्वति तत्प्रकारानुभवः प्रमा ) । करण का अर्थ है साधकतम । अव्यवहित व्यापारवान् साधक ही साधकतम है । अतएव अव्यवहित व्यापार वाले असाधारण कारण को करण कहते हैं ( व्यापारवद् असाधारणं कारणं करणं ) । फल की प्राप्ति में अव्यवहित उपकारक ही करण होता है । यद्यपि ज्ञान प्राप्ति में अनेक सहयोगी होते हैं, परन्तु वे सब करण नहीं होते । करण तो वही होता है जिसका फल की प्राप्ति निकटतम सम्बन्ध होता है । यद्यपि अन्य सहयोगियों के न रहने पर भी फल की प्राप्ति असंभव हो सकती है । परन्तु वे सब फल की प्राप्ति में गौण रूप होते हैं । उदाहरणार्थं गन्ना को छीलने में चाकू और हाथ मुख्य रूप से दोनों हो सहायक होते हैं । किन्तु उसको छीलने का आत्यन्तिक सम्बन्ध चाकू से ही होता है । यद्यपि गन्ना और चाकू दोनों को रख देने मात्र से भी गन्ना नहीं छीला जा सकता, उसमें हाथ आदि अंग भी कार्य करते हैं । तथापि गन्ने को छीलने में सबसे नजदीकी या निकटस्थ सम्बन्ध चाकू से ही होता है । अर्थात् चाकू से ही गन्ना छोला जाता है हाथ आदि अंग उसकी सहायता मात्र करते हैं । अतः गन्ना को छीलने के कार्य में कारणभूत करण चाकू ही है हाथ आदि अंग नहीं । सर्वप्रथम प्रमाण-लक्षण निर्दिष्ट करते हुए कणाद ने कहा था - " अदुष्टं विद्या" ।' अर्थात् निर्दोष ज्ञान रूप विद्या ही प्रमाण है । न्यायसूत्रकार १. वैशेषिक सूत्र, ९:२७ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता १०५ गौतम ने यद्यपि प्रमाण का कोई सामान्य लक्षण सूत्रबद्ध नहीं किया था तथापि उनके टीकाकार वात्स्यायन ने न्यायसूत्र पर भाष्य लिखते हए कहा कि "उपलब्धि साधनरूप प्रमाकरण ही प्रमाण है। उनके इसी प्रमाणलक्षण को उद्योतकर, जयन्त भट्ट आदि नैयायिकों ने भी स्वीकार किया है। उदयन ने प्रमाण के सामान्य लक्षण में "अनुभव" ४ पद को सन्निविष्ट करके उपर्युक्त परिभाषा में कुछ भिन्नता प्रस्तुत को है। तथापि उन्हें प्रमाकरण रूप प्रमाण-लक्षण हो अभीष्ट रहा है। मीमांसक दार्शनिक प्रभाकरादि प्रमाण-लक्षण स्वरूप “पाँच विशेषणों"५ को बताने के बाद भी उसके उपर्युक्त अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं। सांख्यदर्शन में भी श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति ( व्यापार ) को हो प्रमाण का सामान्य लक्षण बतलाया गया है। बौद्ध दर्शन में "अज्ञात अर्थ के प्रकाशक रूप ज्ञान"" को प्रमाण कहा गया है। जैन परम्परा में भी लगभग इसी अर्थ का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि जैन-दर्शन में प्रमाण-लक्षण-स्वरूप बहुत सारो १. 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि समाख्या निर्वचन सामर्थ्यात् बोधव्यम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः ।। न्यायभाष्य, पृ० १८ । उद्धृत जैन दर्शन और प्रमाण शास्त्र परिशीलन, पृ० ३२१ । २. "उपलब्धिहेतुः प्रमाणं......"यदुपलब्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।” न्यायवार्तिक, पृ० ५ । ३. "प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति कर णसाधनोऽयं प्रमाणशब्दः ।" न्यायमंजरी, पृ० २५ । ४. “यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते" न्यायकुसुमाञ्जलिः ४:१ । ५. “तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधविवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।। उद्धृत-जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ३२२ । ६. “रूपादिषु पञ्चानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः" । सांख्य का० २८। ७. "अज्ञातार्यज्ञापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्य लक्षणम् ।" प्रमाणसमुच्चय का० ३ की टीका । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या परिभाषायें दी गयी हैं। किसी ने "स्वपरावभाषोज्ञान'' को प्रमाण कहा है, तो किसी ने "स्वपरावभाषी-बाधविवर्जित ज्ञान"२ को प्रमाण बतलाया है। किसी की दृष्टि में "स्वपरावभाषी व्यवसायात्मक ज्ञान"३ प्रमाण है, तो किसी की दृष्टि में "अनधिगतार्थक अविसंवादी ज्ञान" ही प्रमाण है । किसी ने "सम्यक् ज्ञान"५ को प्रमाण कहा है तो किसी ने 'स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान" को प्रमाण कहा है। फिर भी इन परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है । इनमें जो कुछ अन्तर हो सकता है वह शब्दो के आधार पर ही हो सकता है। इस प्रकार जहाँ तक प्रमाण के सामान्य लक्षण की बात है वहाँ तक तो लगभग समस्त भारतीय दर्शन एवं दार्शनिक एकमत हैं। परन्तु जैसे उसके कारणभूत करण की बात आती है उनके विचार परस्पर भिन्न हो जाते हैं। किसी ने सन्निकर्ष को करण कहा है तो किसी ने इन्द्रिय को। किसी ने इन्द्रिय-वृत्ति को तो किसी ने सारूप्य और योग्यता को प्रमिति का करण माना है। नैयायिकों ने ज्ञानात्मक और ज्ञान-भिन्न दोनों प्रकार की सामग्री को प्रमा के करण के रूप में स्वीकार किया है। उनका कहना है कि अर्थोपलब्धि रूप कार्य सामग्री रूप कारण से उत्पन्न होता है और इस सामग्री में इन्द्रिय, मन, पदार्थ प्रकाशादि ज्ञान-भिन्न वस्तुएं ज्ञान १. "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्' । स्वयम्भूस्तोत्र, का० ६३ । २. "प्रमाणंस्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम्"। न्यायावतार, का० १॥ ३. "व्यवसायात्म ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् ।" ___ लघीय, का०६०। ४. "प्रमाणविसंवादि ज्ञानमनाधिगतार्थ लक्षणत्वात् ।" अष्टशती, आप्तमीमांसा का० ३६, पृ० २२ । सनातनग्रन्थमाला प्रकाशन । ५. "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' प्रमाण-परीक्षा, पृ० १ । ६. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' । __ परीक्षामुख, १:१। ७. "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावसामग्री प्रमाणम्' । न्यायमञ्जरी, पृ० २५; १:१:३ की टीका । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता १०७. के साथ काम करती हैं। अन्वय और व्यतिरेक भी इसी सामग्री के सम्बन्ध में होता है। मशीन का एक छोटा पुरजा भी यदि न हो तो सारी मशीन बेकार हो जाती है उसी प्रकार ज्ञान-सामग्री के छोटे से कारण के हटने पर ज्ञान नहीं हो पाता है। ज्ञान के सभी कारकों के रहने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसे साधकतम करण कहा जाय ? सभी अपनी-अपनी जगह उसके घटक हैं और सभी साकल्य रूप से प्रमा के करण हैं। इस प्रकार नैयायिकों ने सामग्री को प्रमाकरण रूप में स्वीकार किया है। किन्तु इसके विपरीत समन्तभद्रादि जैन आचार्यों ने "स्वपरावभासक ज्ञान" को ही प्रमिति का करण माना है और सन्निकर्ष एवं इन्द्रियादि सामग्री को प्रमिति-करण (प्रमाण) मानने में दोषोद्भावन भी किया है।' उनके विचार से इन्द्रिय, मन, पदार्थ और सन्निकर्षादि सामग्रियाँ केवल अर्थ-बोध की सहयोगी हैं करण नहीं, क्योंकि सन्निकर्षादि के अभाव में ज्ञान उत्पन्न होता है और कभी-कभी सन्निकर्षादि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में सन्निकर्षादि को ही प्रमा का कारणभूत करण कैसे माना जाय ? वास्तव में प्रमाण का फल जब अज्ञान की निवृत्ति है तब उसका करण भी अज्ञान विरोधी स्व और पर का अवभासक ज्ञान ही होना चाहिए इन्द्रियाँ आदि सामग्री नहीं। __यद्यपि जैन दार्शनिकों ने ज्ञानोद्भावन रूप सामग्री की कारणता को अस्वीकार नहीं किया है । तथापि उनको नैयायिकों की सामग्री-प्रामाण्यता अथवा कारक साकल्यता की प्रमाणता अभीष्ट नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी कहा गया है कि ज्ञान को साधकतम करण कहकर हम सामग्री की अनुपयोगिता या व्यर्थता सिद्ध कर रहे हैं। किन्तु हमारा यह अभिप्राय है कि इन्द्रियादि सामग्री ज्ञान की उत्पत्ति में तो साक्षात् कारण होती हैं; पर प्रमा अर्थात् अर्थोपलब्धि में साधकतम करण तो उत्पन्न हुआ ज्ञान ही हो सकता है । अतः सामग्री आदि को प्रमाण का करण नहीं माना जा सकता। १. सर्वार्थसिद्धि, १:१० । २. "तस्याज्ञानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपर परिच्छतौ साधकतमत्वाभावतः प्रमाणत्वायोगात् । तत्परिच्छितौ साधकतमत्वस्य अज्ञान विरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात् ।" प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ८ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या __ इसी प्रकार बौद्ध-सम्मत “सारूप्य (ज्ञानाकार) एवं योग्यता"' को भी करण मानना उचित नहीं है। यद्यपि ज्ञान अर्थग्राहो होने पर पदार्थाकार या ज्ञेयाकार होता है परन्तु उसके ज्ञेयाकार होने का अर्थ मात्र इतना ही हो सकता है कि वह उस ज्ञेय को जानने के लिए अपना व्यापार कर रहा है। यदि ज्ञान का ज्ञेयाकार होना ही प्रमाण है, ऐसा मान लिया जाय तो वह ज्ञान जिसमें ज्ञेय का प्रतिभास मात्र हो रहा है वह भी प्रमाण हो जायेगा । ऐसी स्थिति में, रज्जु में सर्प का प्रत्यक्ष करने वाले ज्ञान को भी प्रमाण मानना पड़ेगा; क्योंकि रज्जु में सर्प का प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान भी प्रतिभास की दृष्टि से ज्ञेयाकार ही है। चाहे वह ज्ञेयाकारता एक सेकेण्ड की ही क्यों न हो; पर उस ज्ञेयाकारता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः उस ज्ञान को भी प्रमाण को कोटि में रखना पड़ेगा। साथ ही संशय आदि ज्ञान भी तो पदार्थाकार ही होते हैं। जबकि उनमें प्रतिभास के अनुसार बाह्यार्थ को प्राप्ति नहीं होती। अतः वे ज्ञान प्रमाण नहीं हैं। इसीलिए सारूप्यता (ज्ञानाकारता), योग्यता आदि को प्रमाण का कारणभूत करण नहीं माना जा सकता। चकि प्रमाण का फल है अज्ञान को निवृत्ति, इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग; और ये सब प्रमाण के ज्ञान-स्वरूप होने पर हो संभव है। अतः अज्ञान को निवृत्ति में अज्ञान विरोधी ज्ञान हो करण हो सकता है । अज्ञान दो तरह का होता है १- ज्ञानाभाव रूप अज्ञान, और २- मिथ्या ज्ञान रूप अज्ञान । अब यहाँ यदि कहा जाय कि मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान ज्ञानाकरण को ग्रहण करता है जिसका निवारण प्रमाण ज्ञान से होता है। तब ज्ञानाभाव रूप अज्ञान का निवारण किस प्रमाण से होगा? यदि यह कहा जाय कि प्रमाण-ज्ञान हो दोनों अज्ञानों का निवारण करता है तो ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि ज्ञान के प्राप्त होने पर ही उसकी सत्यताअसत्यता का स्पष्टीकरण प्रतीत होता है । वस्तुतः प्रमाण ज्ञान मिथ्या ज्ञान रूप अज्ञान की ही निवृत्ति करता है ज्ञानाभावरूप अज्ञान की नहीं । १. "प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा। तत्त्वसंग्रह, श्लोक १३४३ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता १०९ किन्तु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है; क्योंकि जब यह कहा जाता है कि " प्रमाण का फल है अज्ञान का निवारण, इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग", तब उसका आशय यही होता है कि प्रमाण- ज्ञान गलत- ज्ञान का निवारण तो करता ही है । परन्तु उसके साथ ही नवीन ज्ञान भी प्रदान करता है । अर्थात् 'इष्ट वस्तु के ग्रहण" का तात्पर्य ज्ञानाभावरूप ज्ञान की प्राप्ति से ही है । उदाहरणार्थ - " कथंचित् यह कुर्सी ही है" जब ऐसा ज्ञान होता है तब उसमें उक्त सभी कार्य होते हैं; अर्थात् "यह कुर्सी नहीं है मेज आदि है" ऐसे गलत ज्ञान का निवारण होता है; अर्थात् उसमें मेज आदि रूप अनिष्ट वस्तु का त्याग होता है। साथ ही कुर्सी के कुसित्व रूप नवीन ज्ञान की प्राप्ति भी होती है । वस्तुतः प्रमाणज्ञान से मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान के नाश के साथ ही ज्ञानाभाव रूप अज्ञान की भी निवृत्ति होती है। एक और उदाहरण देखिए- जब सीप को रजत समझ कर हम उसके पास जाते हैं और उसे उठाकर देखने के पश्चात् कहते हैं कि यह तो सीप है चाँदी नहीं । तब वहाँ उसे रजत समझने वाले मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान का निराकरण तो होता ही है । किन्तु उसके साथ ही " यह सीप है" ऐसा एक नवीन ज्ञान भी प्राप्त होता है और यही ज्ञानाभावरूप अज्ञान का निराकरण है । इस प्रकार प्रमाण- ज्ञान से इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग होता है और इसी रूप में वह दोनों प्रकार के अज्ञानों का निराकरण करता है | ये कार्य तभी सम्भव हैं जब वह सम्यक् हो एवं स्वपरावभासक हो । स्वपरावभासक का अर्थ है स्व-पर का प्रकाशक अर्थात् ज्ञान अपने स्वरूप को प्रकाशित करते हुए पर पदार्थ को भी प्रकाशित करता है । उसे स्वयं प्रकाशित होने के लिए किसी दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणार्थ - दीपक घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ ही स्वयं को भी प्रकाशित करता है । उस दीपक को प्रकाशमान होने के लिए किसी अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं होती । वह प्रकाश रूप उत्पन्न होकर ही दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है । जो स्वयं अप्रकाशित है वह दूसरे को कैसे प्रकाशित कर सकता है । इसीलिए ज्ञान को "स्व-पर प्रकाशक" कहा गया है । इस प्रकार जैन आचार्यों की दृष्टि में ज्ञान प्रकाशमान दीपक के समान है । जो स्वयं को प्रकाशित करते हुए पर पदार्थों को भी प्रकाशित Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या करता है, और वही स्व-पर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर आदि आचार्यों ने प्रमाण-लक्षण में इसी "स्वपरावभासक" पद को सन्निविष्ट किया है। ज्ञान न तो अज्ञात रहता है और न तो उसे ज्ञात करने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता ही होतो है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए जैनाचार्यों ने प्रमाण-लक्षण में "स्व" और "पर" पदों को समाहित करके ज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी आदि दार्शनिकों के मतों का निरास किया है। __ जैन-दर्शन में प्रमाण-ज्ञान को अन्य प्रकार से भी परिभाषित किया गया है। जो ज्ञान ज्ञेय को समग्रतया ग्रहण करता है वह ज्ञान प्रमाण है। शेष ज्ञान या तो नय के रूप में प्रमाणांश होता है या दुर्नय के रूप में अप्रमाण होता है। वस्तुतः सर्वांशग्राही ज्ञान प्रमाण है अंशग्राही ज्ञान नय है। जैन-दर्शन में सर्वांशग्राही ज्ञान को सकलादेशी और अंशग्राही ज्ञान को विकलादेशी ज्ञान कहा गया है। चूंकि अनेकान्तात्मक वस्तु का समग्रतया ग्रहण प्रमाण का विषय है । इसोलिए प्रमाण को सकलादेशी कहा जाता है। अंशग्राही ज्ञान प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु को अंशतः ही ग्रहण करता है। इसलिए उस अंशग्राही ज्ञान को विकलादेशो ज्ञान कहते हैं। चूँकि नय प्रमाणद्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एकांश को ही प्रधान करके निर्णय देता है। इसलिए उसे प्रमाण न कहकर प्रमाणांश कहा जाता है यद्यपि प्रमाण भी ज्ञान है और नय भी ज्ञान है। किन्तु नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश में ही प्रवृत्ति करता है। अतः उसे न तो प्रमाण कहते हैं और न अप्रमाण; अपितु प्रमाणांश कहते हैं। इसी प्रमाण और नय व्यवस्था के कारण ही सप्तभंगो के-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी-ऐसे दो विभाग किये गये हैं जिनका हम यथावसर विवेचन करेंगे। (२) नय जैन-दर्शन में ज्ञानके दो वर्गीकरण किये गये हैं । सर्वांशग्राही ज्ञान और अंशग्राही ज्ञान । जो ज्ञान समग्र वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता या जानता है उसे सर्वांशग्राही ज्ञान और जो ज्ञान वस्तु के किसी एक पक्ष या पहलू को जानता है उसे अंशग्राही ज्ञान कहते हैं। इसी सर्वांशग्राही ज्ञान को प्रमाण और अंशग्राही ज्ञान को नय कहा गया है । पं० सुखलाल जी ने प्रमाण और नय की व्याख्या करते हुए कहा है कि "नय और प्रमाण" Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता १११ दोनों ही ज्ञान हैं, परन्तु उनमें अन्तर यह है कि नय वस्तु के एक अंश का बोध कराता है और प्रमाण अनेक अंशों का।"" वस्तुएँ अनन्त धर्मात्मक हैं। प्रमाण उसे समग्र भाव से ग्रहण करता है। जबकि नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ही जानता है। उदाहरणार्थ-प्रमाण घड़े को अखण्ड भाव से अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि उसके अनेक धर्मों का विभाग न करके पूर्णतः जानता है। जबकि नय उसका विभाजन करके "रूपवान घट:", "रसवान घटः" आदि रूप में उसे अपने अभिप्रायानुसार ग्रहण करता है। इस प्रकार नय का सामान्य अर्थ है ज्ञाता का अभिप्राय । ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष नय है, जो प्रमाण के द्वारा जाने गये वस्तु के एकांश का स्पर्श करता है । भेदाभेदात्मक, नित्यानित्यात्मक, सामान्य विशेषात्मक पदार्थ अखण्ड रूप से प्रमाण का विषय होता है। उसके किसी एक धर्म को विषय करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय ही नय कहलाता है। न्यायावतार में कहा गया है कि "अनन्त धर्मों या गुणों से युक्त वस्तु के किसी अपेक्षित एक धर्म-विशेष का जो ज्ञान है वह नय कहलाता है।" २ अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण से यथावस्थित वस्तु-स्वरूप के ग्रहण के अनन्तर "यह नित्य है या अनित्य है" इत्यादि अपने आशय से वस्तु के एक अंश (धर्म) का परामर्श नय है । देवागम में कहा गया है कि स्याद्वाद रूप परमागम से विभक्त हए अर्थ विशेष का अविरोध रूप से जो साध्य के सधर्मरूप साधर्म्य का व्यंजक है उसको नय विशेष रूप हेतु कहते हैं । ३ "नीयते गम्यते साध्योर्थोऽनेनं इति नयः' इस निरुक्ति से "नय" शब्द यहाँ हेतु का वाचक है और अनेक धर्मों में से एक धर्म का प्रतिपादक सामान्य की दृष्टि में भी वह स्थित है। इसे दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि नय प्रमाण का एक अंश मात्र है और प्रमाण अनेक नयों का समूह है; क्योंकि नय वस्तु को एक ही दृष्टि से ग्रहण करता हैं और प्रमाण अनेक दृष्टियों से ग्रहण करता है। १. "प्रमाणनयैराधिगमः" । तत्त्वार्थसूत्र, १:६। २. "एक देशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः" । न्यायावतारसूत्र, का० २९ । ३. “सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजकोनयः ॥ देवागम, श्लो० १०६ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रमाण वस्तु में अवस्थित रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, कनिष्ठ, ज्येष्ठ, सत्, असत्, एक, अनेक आदि समस्त धर्मों को अखण्ड रूप से जानता है। परन्तु नय अपनी विवक्षानुसार किसी एक धर्म का ही प्रतिपादन करता है। प्रमाण वस्तु में स्थित अनन्त धर्मों को निश्चित करता है और नय प्रमाण के द्वारा निश्चित किये गये अनन्त धर्मों में से अपने अभीष्ट धर्म का ही ग्रहण करते हुए शेष धर्मों की ओर से उदासीन रहता है । ____चूँकि प्रमाण व्यवस्था में पदार्थ का ज्ञान अखण्डभाव से (युगपत्) सम्पूर्ण अंशों का होता है और नय व्यवस्था में उसी का ज्ञान अखण्ड भाव से न होकर सखण्ड भाव से होता है। परन्तु क्या सखण्ड भाव रूप नय ज्ञान प्रमाण नहीं होता ? इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों का ऐसा विचार है कि प्रमाण और नय ये दोनों ही वस्तु के ज्ञान तो हैं किन्तु इन दोनों में अन्तर यह है कि किसी भी विषय को सर्वांश में स्पर्श करने वाला ज्ञान प्रमाण है और उसी विषय के किसी एकांश को स्पर्श करके चुप हो जाने वाला ज्ञान नय है। यही कारण है नय को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । फिर भी उसे अप्रमाण कहना ठीक नहीं; क्योंकि वह वस्तू के सम्बन्ध में जो आंशिक ज्ञान प्रदान करता है। वह भी तो सत्य ही होता है। अतः उसे न तो अप्रमाण (असत्य) कह सकते हैं और न प्रमाण (पूर्ण सत्य) ही। उसे प्रमाणांश या आंशिक सत्य कहना ही उचित है । जिस प्रकार घड़े में भरे हुए समुद्र-जल को न तो समुद्र ही कहा जा सकता है और न असमुद्र ही।' उसी प्रकार नय भी प्रमाण से उत्पन्न होकर वस्तु के सन्दर्भ में एकांश सत्य का प्रतिपादन करने से अप्रमाण तो नहीं है । किन्तु अंशग्राही होने के कारण प्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए उसे प्रमाणांश या सत्यांश कहना अधिक न्यायसंगत प्रतीत होता है। तत्त्वार्थदलोक्वातिक में कहा गया है कि "ज्ञानात्मक नय न तो अप्रमाण रूप होता है और न प्रमाण रूप ही होता है। किन्तु प्रमाण का एक देश (अंश) रूप ही होता है।"२ १. "नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ।” नय विवरण, श्लोक ६ । २. "नाप्रमाणं प्रमाण वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाण क देशरतु सर्वथाप्यविरोधतः ॥" तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:२१ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता --- इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से दो बातें फलित होती हैं (१) नय व्यवस्था प्रमाण में ही होती है अप्रमाण में नहीं । (२) नय हमेशा प्रमाण का अंश रूप ही रहा करता है । वह कभी पूर्ण रूप (पूर्ण सत्य रूप) नहीं होता । चूंकि नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एकांश का प्रतिपादन करता है, इसलिए उसका प्रमाणांश होना स्वाभाविक और स्वतः सिद्ध है । नय के प्रमाणांश सिद्ध होने से ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नय व्यवस्था सांश प्रमाण में ही होती है निरंश प्रमाण में नहीं। क्योंकि निरंश ज्ञान का अखण्ड भाव से रहने के कारण उसमें अंशों का विभाजन नहीं हो सकता । इसी नय व्यवस्था के कारण जैन आचार्यों ने ज्ञान के— सकलादेशी और विव लादेशी - दो विभाग करके सकलादेशी ज्ञान को प्रमाण के अधीन और विकलादेशी ज्ञान को नय के अधीन माना है ।" विकलादेशी ज्ञान अर्थ ( विषय ) के एक देश विशेष से सम्बन्धित होने के कारण नय कहलाता है । जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक, भावाभावात्मक, एकानेकात्मक है । तब यदि उसे कोई मात्र नित्य या मात्र अनित्य कहने लगे तो वह कथन एकान्तवादी होगा ही । किन्तु जैनाचार्यों ने एकान्तवादी कथन को असत्य माना है । वस्तुतः असत्य या एकान्तिक कथन और तज्जन्य ज्ञान दोनों, न तो प्रमाण हो सकता है और न तो प्रमाणांश ही । इसलिए उसे नय वाक्य न कहकर उसे दुर्नय कहा जाता है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि नय व्यवस्था प्रमाण में ही होती है अप्रमाण में नहीं । नय जिस विषय-वस्तु का प्रतिपादन करता है वह न तो पूर्ण वस्तु ही है और न वस्तु-स्वरूप से भिन्न ही है अपितु वह वस्तु का ही एक पक्ष १. " सकलादेश: प्रमाणाधीनोविकलादेशो नयाधीनः । " २. "स्वार्थेक देश निर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः ।" ८ सर्वार्थसिद्धि: १:६ की टीका. ११३ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:४. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या या अंश है।' यदि यह बात सत्य है तो प्रश्न यह उठता है कि नय वस्तुस्वरूप का एकान्तिक ज्ञान प्रदान करता है, क्योंकि वह वस्तु के एक अंश को ही ग्रहण करता है और प्रमाण, जो वस्तु स्वरूप की समग्ररूपेण प्रतिस्थापना करता है, अनेकान्तिक ज्ञान प्रदान करता है। साथ ही एकान्तिक ज्ञान, अनेकान्तिक ज्ञान का विरोधी होता है। वस्तुतः यही विरोधिता उपर्युक्त कथन में भी परिलक्षित होती है। तब नय को प्रमाणांश कैसे कहा जा सकता है ? जैन आचार्यों के अनुसार प्रमाण और नय में कोई विरोध नहीं है। उनमें अन्तर मात्र इतना ही है कि प्रमाण वस्तु का समग्रतः ज्ञान प्राप्त करता है तो नय अंशतः और प्रमाण-ज्ञान तक पहुंचने के लिए तो नय की भी आवश्यकता पड़ती ही है । फिर वस्तु-स्थिति पर विचार करने पर व्यक्ति के ज्ञान का आंशिक या सापेक्ष होना ही न्याय संगत प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविक ज्ञान इससे कुछ भिन्न ही है। यही कारण है कि वस्तु के परिज्ञान के इच्छुकजन को प्रथम आंशिक ज्ञान और उसके बाद पूर्ण ज्ञान होता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति गन्तव्य स्थल पर पहुँचने के लिए सोपान का आश्रय लेकर ही लक्ष्य की ओर अभिमुख होता है तथा अन्त में अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है, उसी प्रकार आंशिक ज्ञान का आश्रय लेकर ही व्यक्ति वस्तु का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो सकता है। इस प्रकार आंशिक ज्ञान-एकान्त तथा पूर्ण ज्ञान–अनेकान्त में किसी भी प्रकार का विरोध परिलक्षित नहीं होता है। ___इस प्रकार अनन्त धर्मों से युक्त समग्र वस्तु का पूर्णतः ज्ञान प्रमाण द्वारा होता है । नय तो केवल अपनी विवक्षानुसार वस्तु के एकांश विशेष को ही ग्रहण करता है । यद्यपि नय में अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की अपेक्षा नहीं होती, परन्तु वह अपने अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त वस्तु में विद्यमान अन्य जितने भी धर्म हैं उनका प्रतिषेध नहीं करता है। अपितु उनके प्रति उसकी उदासीनता होती है। शेष धर्मों से वर्तमान में १. "नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः ।" तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ६:५ । २. द्रष्टव्य स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन, पृ० ५७ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ११५ उसका कोई प्रयोजन न होने से वह उन धर्मों का न तो निषेध करता है और न तो विधान हो । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नय वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को अस्वीकार करता है । वह प्रमाण की ही तरह वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार अवश्य करता है । पर उन दोनों की ग्रहण मर्यादा में कुछ भिन्नता है । प्रमाण वस्तु के समस्त धर्मों को ग्रहण करता है पर नय वस्तु के एकांश तक हो सीमित रहता है । (३) दुर्नय अब तक हमने देखा कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण और अपने विवक्षित धर्म का समर्थन तथा अन्य अविवक्षित धर्मों का प्रतिषेध न करने वाला परामर्श या ज्ञान नय कहलाता है । किन्तु यही नय जब परामर्श में अपने अपेक्षित धर्म का निश्चय और शेष धर्मों का तिरस्कार या निषेध करने लगता है; तब "दुर्नय" की संज्ञा को प्राप्त होता है । अर्थात् किसी वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट धर्म को ही एकान्तिक रूप से स्वीकार करने वाले ज्ञान को दुर्नय कहते हैं। जैसे-घड़ा अनित्य ही है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि "वे नय जो सापेक्ष हों तो सुनध कहलाते हैं और जो निरपेक्ष हों वे दुर्नय कहलाते हैं ।"" नय और दुर्नय, दोनों में मुख्य रूप से वस्तु के एकांश का ही ग्रहण होता है । परन्तु उनमें अन्तर यह है कि नय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष । नय प्रमाणांश होने से सत्य होता है और दुर्नय एकान्तिक होने से मिथ्या । नय परामर्श हेतु अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता है जबकि दुर्नय अनपेक्षित धर्मों का निषेध कर देता है । नय और दुर्नय में यही अन्तर है । नय वस्तु में स्थित अनन्त धर्मों में से अपने कथन हेतु अपेक्षित धर्म को प्रधानता से ग्रहण करने पर भी शेष धर्मों का निषेध नहीं करता । बल्कि उसकी तरफ से उदासीन रहता है जबकि दुर्नय अपने इष्ट धर्म का ग्रहण करते हुए अनिष्ट ( अनिच्छित ) धर्मों का निषेध कर देता है । अभीष्ट धर्म के ग्रहण के साथ ही अनभीष्ट धर्मों का प्रतिषेध न करने के । १. " ते सावेक्खा सुणया, णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति" । कार्तियानुप्रेक्षा, गा० २६६. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कारण नय सत्य और अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय मिथ्या होता है ।" स्वयंभूस्तोत्र में इनके इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा एक, सर्वथा अनेक, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वक्तव्य, सर्वथा अव क्तव्य रूप में जो मत पक्ष में हैं, वे सब दूषित ( मिथ्या ) नय हैं और स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् एक, स्यात् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्य रूप में जो नय पक्ष हैं वे सब पुष्ट ( सम्यक् ) नय हैं । इस कथन का आशय यह है कि एक हो परामर्श जब " स्यात् " पद से विशेषित होता है तब वह सापेक्ष और सुनय होता है । किन्तु वही परामर्श उक्त विशेषण के अभाव में निरपेक्ष हो जाता है और निरपेक्ष परामर्श दुर्नय होता है । अतः नय और दुर्नय के बीच अन्तर स्थापित करने का कार्य " स्यात्” पद करता है । अब यदि यह कहा जाय कि सभी परामर्श वस्त्वांश के ही विमर्श हैं; क्योंकि वे उसके किसी न किसी अंश का विवेचन करते ही हैं; तब वे दुर्नयता को कैसे प्राप्त होते हैं ? जैन दर्शन के अनुसार एक पक्षात्मक प्रवृत्ति करने पर आंशिक ज्ञान का कोई विषय नहीं रहता और विषय न रहने से नयत्व नहीं बन सकता; क्योंकि किसी एक अंश से विशिष्ट अर्थ को जो ( परामर्श) प्राप्त करता है वह नय है । अपने अभिप्रेत धर्म के कथन के साथ ही शेष धर्मों का प्रतिक्षेप करने वाला परामर्शं वस्तुतः असत्य होता है; क्योंकि वस्तु एक ही धर्म से विशिष्ट नहीं है, वह अनेक धर्म से परिकरित (युक्त) स्वभाव वाली है। उसका प्रतिभास होता है । उसका अपह्नव करने वाले दुष्ट- अभिप्राय हैं, वे प्रतिभास से बाधित होने से अलोक ( मिथ्या ) हैं । वस्तुतः जो कथन वस्तु के किसी एक अंश का ग्रहण विशिष्टता से करता है वह तो नय है । किन्तु जो अपने अभीप्सित १. “णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वनया परिवियालणे मोहा । सन्मतिप्रकरण, प्रथम काण्ड, गाथा २८ । २. "सदेक- नित्य - वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ॥ स्वयंभू स्तोत्र, १८:१६ । ३. न्यायावतार, पृ० १११; अनुवादक – पं० विजय मूर्ति | Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता ११७ धर्म के अतिरिक्त शेषधर्मों का प्रतिक्षेप करता है। वह उसके किसी भी अंश का ग्रहण नहीं कर पाता; क्योंकि उसका प्रतिभास से बाध होता है और बाधित अभिप्रायवान् होने से वह दुर्नयता को प्राप्त होता है । इस प्रकार ऐसा कथन अलीक और मिथ्या होता है । सिद्धसेन ने कहा हैं कि वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं (और) दूसरे पक्ष का निषेध करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं ।' उदाहरणार्थ अनेक प्रकार से गुणवती वेडूर्य आदि मणियाँ बहुमूल्य होकर भी यदि एक सूत्र में पिरोई हुई न हों, "रत्नावली" संज्ञा नहीं पा सकती । उसी प्रकार अपने नियतवादों का आग्रह रखने वाले परस्पर निरपेक्ष नय सम्यक् नहीं होते । भले ही वे अपने-अपने पक्ष के लिए कितने ही महत्त्व के क्यों न हों। जिस प्रकार वे ही मणियाँ एक सूत्र में पिरोई जाने से "रत्नावली" बन जाती हैं उसी प्रकार सभी नय परस्पर सापेक्ष होकर सम्यक्पने को प्राप्त होते हैं और सुनय बन जाते हैं । समन्तभद्र ने कहा है कि जो नय सापेक्षता को लेकर कथन करते हैं वे सम्यक् न हैं और वे ही वस्तुभूत तथा वे ही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं | 3 इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन दर्शन उन्हीं प्रकथनों को सत्य मानता है जो सापेक्ष हों। निरपेक्ष होने पर वे ही परामर्श असत्य हो जाते हैं । वस्तुतः जैन दर्शन में प्रकथन की सत्यता और असत्यता का निर्धारण उसकी सापेक्षता और निरपेक्षता के आधार पर होता है । इसीलिए जैन तर्कशास्त्र सप्तभंगी में " स्यात् " पद को जो कि कथन की सापेक्षता का सूचक है, प्रमुख स्थान पर रखता है । " स्यात् " पद ही एक ऐसा प्रहरी है जो कथनों की सापेक्षता को बनाये रखता है और उनमें आने वाली विरोधिता का शमन भी करता है । स्यात् पद की इसी विशिष्टता के कारण ही सप्तभंगी के प्रथम और द्वितीय भंग " अस्ति" और "नास्ति" में किसी प्रकार का १. " तम्हा सव्वे वि गया मिच्छादिट्ठी - सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णाणिसिआ उप हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥ सन्मति १:२१ । २. " निरपेक्षायाः मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थंकृत् । आतमीमांसा, श्लो० १०८ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या विरोध नहीं होता है। साथ ही इसकी इसी विशिष्टता के कारण प्रतिपक्षी स्याद्वाद में विरोध-दूषण दिखलाने में असमर्थ होते हैं। वस्तुतः जैन तर्कशास्त्र में इस सापेक्षता का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे आगे और भी स्पष्ट किया जायेगा। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय जैन न्याय में सप्तभंगी भंगवाद का विकास __पिछले अध्याय में हमने देखा है कि अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार कर एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दष्टिकोणों से नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि विरोधी धर्म युगलों का समन्वय करते हैं। इसके साथ ही हमने इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि एक साधारण मानव के लिए अनन्तधर्मात्मक वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को जानकर उसका यथोचित शब्दों में वर्णन कर पाना संभव नहीं है; क्योंकि उसकी ज्ञान-शक्ति और शब्द-सामर्थ्य दोनों ही सीमित होती है। इसलिए अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक वस्तु के विवक्षित कथ्य धर्म को अविवक्षित शेष धर्मों से पृथक करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक है कि उसके यथार्थ ज्ञान एवं कथन के लिए किसी ऐसी विधा या दृष्टि का उपयोग किया जाय, जिससे प्रकथन में विवक्षित धर्म का प्रतिपादन तो हो किन्तु उसमें अवस्थित अविवक्षित धर्मों की उपेक्षा न हो । मात्र इसी लक्ष्य को लेकर जैन आचार्यों ने अपनी प्रमाण मीमांसा में सप्तभंगो की योजना की। जैन आचार्यों की दृष्टि में सप्तभंगी एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तु का आंशिक किन्तु यथार्थ कथन करने में समर्थ होता है; क्योंकि उसके प्रत्येक भंग में प्रयुक्त स्यात् शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो प्रकथन को मर्यादा को संतुलित रखता है। वह संदेह एवं अनिश्चचय का निरासकर वस्तु के किसी गुण-धर्म विशेष के सम्बन्ध में एक निश्चित स्थिति को अभिव्यक्त करता है कि वस्तु अमुक दृष्टि से अमुक धर्मवाली है। वह उस विवक्षित धर्म को शेष अविवक्षित धर्मों से पृथक् कर यह स्पष्ट करता है कि वस्तु में उन अविवक्षित धर्मों की भी अवस्थिति है। स्यात् पद इस बात पर बल देता है कि हमारे प्रकथन में वस्तु के अविवक्षित धर्मों की पूर्णतया उपेक्षा न हो जाय। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ___ सामान्य रूप से हमारी भाषा अस्ति और नास्ति की सीमाओं से बँधी हुई है । हमारा कोई भी प्रकथन या तो अस्तिवाचक होता है या नास्तिवाचक । यदि हम इस सीमा का अतिक्रमण करना चाहते हैं तो हमें अवक्तव्यता का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्यता, ये अभिव्यक्ति के प्रारूप हैं। अभिव्यक्ति के इन तीनों प्रारूपों में पारस्परिक संगति और अविरोध रहे और वे एक दूसरे के निषेधक न बनें । इसलिए जैन आचार्यों ने प्रत्येक प्रकथन के पूर्व स्यात् पद लगाने की योजना की। इन तीनों अभिव्यक्तियों के प्रारूपों के पारस्परिक संयोग से स्यात् पद युक्त जो सात प्रकार के प्रकथन बनते हैं उसे सप्तभंगो कहते हैं। जैन-आचार्यों ने इस सप्तभंगो को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में सप्तभंगी का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध को कल्पना को सप्तभंगी कहते हैं।' अर्थात् प्रश्नकर्ता के जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए नाना धर्मों से समन्वित किसी पदार्थ के विवक्षित धर्म का अविवक्षित नाना धर्मों से अविरोध पूर्वक सप्त प्रकार के वाक्यों द्वारा कथन करना सप्तभंगी है। पंचास्तिकाय में कहा गया है कि प्रमाण वाक्य से अथवा नय वाक्य से, एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत्-असत् आदि धर्म की कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं।२ सप्तभंगी तरंगिणी तथा न्यायदीपिका में भी सप्तभंगों के समूह को ही सप्तभंगी कहा गया है। "सप्तभंगी नय प्रदीप प्रकरण' भी सप्तभंगी को इसी रूप में परिभाषित करता है। उसमें कहा गया है कि विधि और निषेध के द्वारा अपने अभिप्रेत अर्थ का अभिधान करने वाला नय समूह सप्तभंगी है। इस प्रकार अनेकान्त१. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी। तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.६.५. २. एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः । सदादिकल्पनाया च सप्तभङ्गीति सा मता । पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति, श्लो० १४, छाया १५, पृ० ३० । ३. सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति । सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० १ ४. विधिनिषेधाभ्यां स्वार्थमदिधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति । सप्तभंगी-नय प्रदीप प्रकरणम्, १३. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२१ वादियों ने अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को अभिमुख करके विधि-निषेध की कल्पना द्वारा सात प्रकार के भंगों (प्रकथनों) को योजना की है । इन्हीं सातों भंगों के समाहार को सप्तभंगी कहते हैं । इस सप्तभंगी के सम्बन्ध में विचारकों में बड़ा मतभेद है। कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह सप्तभंगी जैन आचार्यों की मन-गढन्त कल्पना है तथा दूसरे दार्शनिक इसे अर्धसत्यों का प्रतिपादक सिद्धान्त कहते हैं; किन्तु बात ऐसी नहीं है यह तो वस्तु की यथार्थता को स्पष्ट करने की एक पद्धति है, यह जटिल वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन की एक विशिष्ट शैली है। इसके कुछ भंग तो अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित रहे हैं। यहाँ तक कि प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों में भी इसके कुछ भंगों का उल्लेख मिलता है। हाँ, यह बात अवश्य सत्य है कि सप्तभंगो के सातो भंगों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। परन्तु यह कहना नितान्त निमूल है कि उसके किसी भी भंग का उल्लेख प्राचीन आगम ग्रन्थों में नहीं है। सप्तभंगी के कुछ भंगों का उल्लेख तो वैदिक ग्रन्थों में भी है। जैन आचार्यों ने उन भंगों में कुछ और भंगों को जोड़कर मात्र उनका विस्तार किया हैं । सप्तभंगी के मूल भंग वैदिक एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी उपलब्ध हैं। हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। किसी भी वस्तु के विषय में कथन के लिए मुख्य रूप से दो ही पक्ष होते हैं-प्रथम विधि पक्ष और दूसरा निषेध पक्ष । ये दोनों ही पक्ष एक ही वस्तु में एक ही साथ अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं। क्योंकि किसी वस्तु के विषय में एक पक्ष से कोई कथन किया जाता है तो दूसरा पक्ष भो उसो के साथ उपस्थित हो जाता है। जब हम किसी वस्तु के विषय में किसो गुण-धर्म का स्वीकारात्मक कथन करते हैं तो उसका प्रतिपक्षी निषेध पक्ष भी स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है। उदाहरणार्थ जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु लाल है तो यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वह हरी या पीली आदि नहीं है। इस प्रकार ये दोनों पक्ष ( अस्ति-नास्ति ) एक हो वस्तुमें सदैव साथ-साथ विद्यमान रहते हैं। विधि, निषेध इन दोनों पक्षों के उपस्थित होने पर समन्वय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । यदि दोनों पक्ष समन्वयकर्ता के समक्ष उपस्थित न हों तो उनमें समन्वय हो ही नहीं सकता । अतः समन्वय के लिए इन दोनों पक्षों का होना आवश्यक है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार विधि एवं निषेध के इन दो पक्षों से सप्तभंगी की विकास यात्रा शुरू होती है । इन दोनों पक्षों का प्रथम आभास हमें ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है । उक्त सूक्त के ऋषि के समक्ष दो मत उपस्थित थे - एक वह पक्ष, जिसमें लोग जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे और दूसरा वह पक्ष, जिसमें लोग उसे असत् बताते थे । इस प्रकार ऋषि के समक्ष जब ये दोनों पक्ष उपस्थित हुए तब उन्होंने कह दिया कि वह सत् भी नहीं और असत् भी नहीं । उनका यह निषेधपरक उत्तर भी एक पक्ष में परिणत हो गया, जिसे सदसत् भिन्न अनुभय पक्ष कहा गया इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय ये तीन पक्ष (भंग) तो ऋग्वेद जितने पुराने सिद्ध होते हैं । २ । इसी प्रकार उपर्युक्त दो विरोधी पक्षों एवं उनके समन्वय का उल्लेख उपनिषदों में भी परिलक्षित होता है । " तदेजति तन्नेजति " " अणोरणीयान् महतो महीयान् संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः "अनीशश्वात्मा‍ आदि-आदि उपनिषद् वाक्यों में स्पष्ट रूप से दो विरोधी धर्मों का किसी एक ही धर्मों में अपेक्षाभेद से उपस्थित रहना स्वीकार किया गया है । मूल रूप से ये ही दो पक्ष हैं ऋग्वैदिक ऋषि ने निषेधमुख से उसे अनुभय बताया, परन्तु उपनिषद् कालीन ऋषियों ने विधिसे उनमें समन्वय करने का प्रयास किया । उदाहरण-स्वरूप मुण्डको - मुख पनिषद् को देखें । वहाँ मूलतत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि " सदसद्वरेण्यं" । शंकराचार्य ने इस उपनिषद् वाक्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "हे शिष्याः, अवगच्छथ तदात्मभूतं भवतां सदसत्स्वरूपम् । सदसतोर्मू तमूर्तयोः स्थूलसूक्ष्मयोस्तद्व्यतिरेकेणाभावात् । वरेण्यं वरणीयंतदेव हि सर्वस्य नित्यत्वात्प्रार्थनीयम् ।"" अर्थात् हे शिष्यों ! जो आप सभी के द्वारा जाना गया है उसे सत्-असत् स्वरूप वाला जानो । वह व्यतिरेक के अभाव से सत्-असत् मूर्त-अमूर्त स्थूल सूक्ष्म स्वरूप वाला है । वह , १. ईशावास्योपनिषद्, ५. २. (अ) कठोपनिषद्, १.२.२०, (ब) श्वेताश्व रोपनिषद्, ३.२०. ३. श्वेताश्वरोपनिषद्, १.८. ४. मुण्डकोपनिषद्, २.२.१. ५. मुण्डकोपनिषद् २:२:१ की टीका. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२३ सर्वश्रेष्ठ होने से वरणीय और शाश्वता के कारण सबके लिए प्रार्थनीय है। इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति के द्वारा एक अन्य पक्ष का जन्म हुआ जिसे सदसत् (उभय पक्ष) कहा जाता है । इस प्रकार उपनिषद् काल तक सत्, असत्, सदसत् ( उभय ) और न सत्नासत् (अनुभय) ये चार पक्ष प्रकाश में आ चुके थे। जो कि सप्तभंगी के मूल भंग कहे जाते हैं । किन्तु विचारणीय विषय यह है कि जैन आचार्यों ने उपर्युक्त चार भङ्गों में से तीन भङ्गों-सत्, असत्, सदसत् को ज्यों का त्यों तो स्वीकार कर लिया। किन्तु चतुर्थ यानी न सत्नासत् (अनुभयपक्ष) को उसी रूप में स्वीकार न करके उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया है। इसीलिए उसे जैन-दर्शन में अनुभयपक्ष (भङ्ग) न कहकर अवक्तव्य भङ्ग कहा गया है । वस्तुतः, अनुभय और अवक्तव्य पक्ष को एक ही नहीं कहना चाहिये । अनुभय और अवक्तव्य में बहुत बड़ा अन्तर है । जहाँ अनुभय पक्ष निषेधात्मक दृष्टिकोण है वहीं अवक्तव्य पक्ष विधायक दृष्टिकोण है। ___ अनुभय की मूलभूत दृष्टि निषेधात्मक है और अनुभय को पूर्व के दोनों और कभी-कभी तीनों भङ्गों (सत्, असत्, उभय) का निषेधक माना जाता है । जबकि अवक्तव्य तीनों भंगों का निषेधक नहीं है। अपितु वह उपर्युक्त तीनों भङ्गों की स्वीकृति के साथ-साथ एक ही वाक्य में वस्तु की वाच्यता को असम्भव बताता है। किन्तु अवक्तव्य भी निरपेक्ष नहीं है, क्योंकि जैन-दर्शन की मान्यता यह है कि वस्तु पूर्णतः या निरपेक्षतः अवक्तव्य नहीं है । वह कथञ्चित् वक्तव्य भी है और कथञ्चित् अवक्तव्य है। इसका आशय यह है कि उसके समग्र स्वरूप का निर्वचन क्रमपूर्वक हो सम्भव है युगपत् रूप से नहीं। यदि हमें एक ही प्रकथन में उसे कहना है तो उसे अवक्तव्य ही कहना होगा। लेकिन क्रमपूर्वक उसके एक-एक धर्मका विधान या निषेध किया ही जा सकता है। अतः अवक्तव्य का अर्थ हुआ वस्तु क्रमपूर्वक वक्तव्य है और युगपत् रूप से या एक साथ अवक्तव्य है । ___ वस्तुतः वेदान्त और बौद्ध शून्यवाद का जो चतुष्कोटि न्याय है उसमें और सप्तभङ्गी के प्रथम चार भङ्गों में जो अन्तर है, वह निषेध मुख या विधिमुख को लेकर हैं; क्योंकि चतुष्कोटि न्याय न सत्, नासत्, न उभय और न अनुभय के रूप में होता है। जबकि सप्तभङ्गी के प्रथम चार भङ्ग का रूप होगा सापेक्ष सत्, सापेक्ष असत्, सापेक्ष उभय और सापेक्ष अवक्तव्य । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या इसलिए अवक्तव्य और अनुभय को एक ही बताना कथमपि संभव नहीं है। यद्यपि पं० दलसुख मालवणिया ने अनुभय और अवक्तव्य में साम्यता लाने की कोशिश की है। उन्होंने अनुभय और अवक्तव्य को एक दूसरे का पर्यायवाची सिद्ध किया है। इस संदर्भ में उनका निम्न कथन द्रष्टव्य है कि "अनुभय का तात्पर्य यह है कि वस्तु उभय रूप से वाच्य नहीं अर्थात् वह सत् रूप से व्याकरणीय नहीं और असद्रूप से भी व्याकरणीय नहीं। अतएव अनुभय का दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है।"' पुनः उन्होंने इस अवक्तव्य भङ्ग की प्राचीनता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "दार्शनिक इतिहास में उक्त सापेक्ष अवक्तव्यत्व नया नहीं है । ऋग्वेद के ऋषि ने जगत् के आदि कारण को सदूप से और असदूप से अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने दो ही पक्ष थे। जबकि माण्डूक्य ने चतुर्थपाद आत्मा को अन्तः प्रज्ञः (विधि), बहिष्प्रज्ञः (निषेध) और उभय प्रज्ञः (उभय) इन तीनों रूप से अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने आत्मा के उक्त तीनों प्रकार थे। किन्तु माध्यमिक दर्शन के अग्रदूत नागार्जुन ने वस्तु को चतुकोटिविनिर्मुक्त कहकर अवाच्य माना; क्योंकि उनके सामने विधि, निषेध, उभय और अनुभय ये चार पक्ष थे। इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता दार्शनिक इतिहास में प्रसिद्ध ही है ।"२ ___ किन्तु अवक्तव्य की अनुभय से इस प्रकार साम्यता बैठाना ठीक नहीं है; क्योंकि अवक्तव्य अनुभय नहीं है। वह तो उभय पक्ष का ही सहार्पण है। अवक्तव्य का अर्थ ही है उभय पक्ष को स्वीकार करते हुए भी उनको युगपद् रूप से अभिव्यक्ति असंभव मानना। जबकि अनुभय का अर्थ हैवस्तु न अस्ति रूप है, न नास्ति रूप और न तो उभय रूप ही है। अतः अवक्तव्य और अनुभय के अर्थ में साम्यता नहीं है । अवक्तव्य मात्र भाषायी सीमा को सूचित करता है। जबकि अनुभय सत्ता के तात्विक स्वरूप को सूचित करता है। आदरणीय मालवणिया जी ने अनुभय का जो अर्थ किया है जैन दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या का प्रयास तो अवश्य है किन्तु इस प्रयास में वह अपने मूल अर्थ से भिन्न हो जाता है। इसलिए अवक्तव्य को अनुभय का पर्यायवाची नहीं कहा जा सकता है । १. आगम युग का जैन-दर्शन, पृ० ९५ । २. वही, पृ० ९६ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२५ मुख्य बात यह है कि वस्तु के विभिन्न गुण-धर्मों अथवा किसी एक गुण-धर्म का विधि-निषेध एक ही प्रकथन के द्वारा सम्भव नहीं है । प्रकथन सदैव क्रमिक ही होता है युगपत् नहीं। आधुनिक तर्कशास्त्र यह मानता है कि उद्देश्य के जितने विधेय होते हैं वे सब अलग-अलग प्रकथन की रचना करते हैं, और वे सभी प्रकथन या तो विधेयात्मक होते हैं या निषेधात्मक किन्तु युगपत् नहीं। वस्तुतः विधि और निषेध रूप प्रकथन स्वतन्त्र होते है। इसीलिए आधुनिक तर्कशास्त्र तर्कवाक्यों को विधेयात्मक और निषेधात्मक दो वर्गों में विभक्त करता है। इसी बात को दोहराते हुए जैन-दर्शन भी कहता है कि वस्तु के अनन्त पक्ष या अनन्त विधेय हैं । इसलिए उसके सम्बन्ध में अनन्त प्रकथन किये जा सकते हैं। वे सभी प्रकथन या तो विधिमूलक होते हैं या निषेध मूलक । किन्तु ज्यों ही विधि और निषेध को युगपत् रूप से कहने की बात आती है त्यों ही उसे अवक्तव्य कहना पड़ता है। अवक्तव्य का महत्त्व इसीलिए है कि वह वस्तु की सापेक्ष वाच्यता और सापेक्ष अवाच्यता का परिचायक है तथा भाषायी अभिव्यक्ति की सीमा को निर्धारित करता है। वह पूर्व के तीनों भङ्गों से इसलिए भिन्न है कि जहाँ प्रथम तीन भङ्ग वस्तु की सापेक्ष वाच्यता को लेकर अस्तिरूप से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं, वहाँ यह भङ्ग एक ही वाक्य में और समग्रतया वस्तु की अवाच्यता को सूचित करता है। इसलिए यह पूर्वोक्त तीनों भङ्गों से भिन्न और नवीन हैं। _ इसी प्रकार अवक्तव्य को अद्वैतवेदान्त की अनिर्वचनीयता भी नहीं कह सकते हैं-जिस प्रकार जैन-दर्शन में वस्तु के समग्र स्वरूप को युगपततः अवाच्य या अवर्णनीय कहा गया है। ठीक उसी प्रकार सत्ता के सन्दर्भ में अद्वैतवेदान्ती शङ्कराचार्य का भी मत है। शङ्कराचार्य ने भी यह माना है कि सत्, असत्, एक और अनेक, गुणवत् और अगुणवत्, सविशेष और निविशेष, सबीज और निर्बीज, साकार और निराकार, शून्य और अशुन्य आदि सभी वल्पनायें यहाँ तक कि सत्, चित्, आनन्द आदि लक्षण भी उसकी (परमतत्त्व की) विवेचना में असमर्थ ही है; क्योंकि वह तत्त्व, वाणी और बुद्धि के समस्त प्रत्ययों से परे है; उनकी सीमा से बाहर है। इसलिए उपनिषदों ने उसे "नेति" नेति" कहकर परिभाषित किया है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी सत्ता ही नहीं है। उसकी सत्ता है किन्तु Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या उस सत्ता का विवेचन भावात्मक शब्दों के द्वारा सम्भव नहीं है। इसलिए वह अनिर्वचनीय है। । नागार्जुन ने सत्ता के स्वरूप-विवेचन में चतुष्कोटि न्याय की स्थापना की थी। परन्तु शंकर ने उस सन्दर्भ में इस चतुष्कोटि न्याय का भी निषेध करके कहा कि जब चरमतत्त्व को मानसिक प्रत्ययों में बाँधा हो नहीं जा सकता और वाणी से उसकी अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं है तब उसे चतुकोटि न्याय का विषय कैसे बनाया जा सकता है ? अतः वह इस चतुकोटि न्याय से भी परे है। इसका आशय यह है कि उस तत्त्व के सन्दर्भ में किसी प्रकार भी कुछ कहना संभव नहीं है। किन्तु जैन मत इसके विपरीत है । जैन विचारणा के अनुसार तत्त्व विवेच्य अवश्य है किन्तु क्रमशः, अक्रमशः नहीं। यद्यपि तत्त्व अनन्त धर्मात्मक है और उसके उस अनन्त धर्म का ज्ञान साधारण मानव के लिए असम्भव है। जिसके फलस्वरूप एक साधारण मानव तत्व के समग्र स्वरूप के विवेचन में असमर्थ है। किन्तु सर्वज्ञ को तो उसका पूर्णतः ज्ञान होता ही है। इसलिए वह तो उसके विवेचन में समर्थ ही होगा। लेकिन जब तत्त्व के उन गुण-धर्मों को युगपततः कहने की बात आती है तो वहाँ सर्वज्ञ भी असमर्थ ही हो जाता है। वस्तुतः वह भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य ही कहता है । इस प्रकार जहाँ अद्वैतवेदान्त तत्त्व की अनिर्वचनीयता का कारण उसके स्वरूप को मानता है वहाँ जैन-धारणा अवक्तव्यता का कारण भाषा की अक्षमता को मानती है। अस्तु, अद्वैत-वेदान्त सम्मत अनिर्वचनीय और जैन-सम्मत अवक्तव्य को एक कहना बहुत बड़ी भूल है। इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। १. अद्वैत वेदान्त सम्मत अनिर्वचनीयता विषयोगत है; क्योंकि वह विषयी अर्थात् चरमतत्त्व के स्वरूप को ही अनिर्वचनीय कहती है जबकि जैन-अवक्तव्यता भावात्मक है; क्योंकि यह युगपत् कथन में भाषा की असमर्थता को प्रकट करता है। २. अनिर्वचनीयता निरपेक्ष है, क्योंकि यह स्वीकार करती है कि तत्त्व कथमपि विवेच्य नहीं है। किन्तु अवक्तव्य भंग सापेक्ष है। यह तत्त्व को सापेक्षतः वाच्य और सापेक्षतः अवाच्य बताता है। ३. अनिर्वचनीयता एक निषेधात्मक दृष्टिकोण है; क्योंकि यह उसके निषेध के अतिरिक्त उस सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहती है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२७ जबकि अवक्तव्य किसी सीमा तक निषेध रूप है और किसी सीमा तक विधेय रूप भी है; क्योंकि वह तत्त्व को अवक्तव्य के साथ ही वक्तव्य भी कहता है । किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन दर्शन में अवक्तव्यता ( अवाच्यता) को भी दो वर्गों में विभक्त किया गया है -- (१) सापेक्ष अवक्तव्यता (२) निरपेक्ष अवक्तव्यता निरपेक्ष अवक्तव्यता वस्तु को स्वरूपतः अनिर्वचनीय या अवाच्य मानती है । उसके अनुसार भाषा सत्ता को अभिव्यक्त करने में कथमपि समर्थ नहीं है । जबकि सापेक्ष अवक्तव्यता सत्ता को किसी सीमा तक वाच्य भी मानती है । वह केवल यह बताती है कि सत्ता का क्रमपूर्वक प्रतिपादन सम्भव है युगपत् रूप से नहीं । सत्ता के विविध पहलुओं का पृथक्-पृथक् विवेचन तो सम्भव है । किन्तु समग्र सत्ता का विवेचन भाषा की अपनी सीमा के कारण सम्भव नहीं है | इस प्रकार उपनिषद् काल तक प्रकाश में आये हुए चारों पक्ष निम्नलिखित हैं : (१) सत् (विधिपक्ष ), (२) असत् (निषेधपक्ष ), (३) सदसत् ( उभयपक्ष ), (४) अनुभव (अवक्तव्यपक्ष ) | तत्त्व के विषय में उपर्युक्त चारों पक्षों का उपनिषद् में ही प्रचलित नहीं था, अपितु इनका प्रयोग मात्र ऋग्वेद और इसी अर्थ में स्पष्ट प्रयोग बौद्ध त्रिपिटक ग्रन्थ में भी अवलोकनीय है । बुद्ध ने लोक की सान्तताअनन्तता, नित्यता- अनित्यता आदि प्रश्नों के विषय में उसे अव्याकृत कहा था । उन अव्याकृत प्रश्नों की कथन शैली भी वैसी ही थी जैसी कि उपनिषद् काल तक स्थिर हुए चारों पक्षों की थी। जिसकी स्पष्टता अधोलिखित बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों से हो जाती है : (१) होति तथागतो परंमरणाति ? (२) न होति तथागतो परंमरणाति ? (३) होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ? Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या (४) नेव होति न न होति तथागतो परंमरणाति ?" इन प्रश्नों के अतिरिक्त उक्त पक्षों को सिद्ध करने वाले और भी ऐसे अव्याकृत प्रश्न त्रिपिटक ग्रन्थों में उपलब्ध हैं. -- (१) सयंकतं दुक्खंति ? (२) परंकतं दुक्खति ? (३) सयंकतं परंकतं च दुक्खंति ? (४) असयंकारं अपरंकारं दुक्खति ? इसी प्रकार त्रिपिटक में संजय बेलट्ठिपुत्त के मत का जो वर्णन मिलता है उसमें भी इन्हीं चारों पक्षों का निरूपण है । किन्तु संजय बेलट्ठपुत्त एक संशयवादी दार्शनिक हैं । वे बुद्ध से एक कदम आगे बढ़कर किसी भी वस्तु के विषय में स्पष्टतः न हाँ कहना चाहते हैं और न ना कहना चाहते हैं । न उसे व्याकृत बताते हैं और न अव्याकृत बताते हैं । वे किसी भी वस्तु के विषय में कोई भी निश्चित निर्णय देना नहीं चाहते हैं । उनके अनुसार सीमित अवस्था में रहते हुए सीमा से बाहर के तत्त्व का निर्णय करना हमारे सामर्थ्य से परे है। दीघनिकाय में कहा गया है कि "महाराज ! यदि आप पूछें, "क्या परलोक है ? और यदि मैं समझैं कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि "यह नहीं है" मैं यह भी नहीं कहता कि "परलोक नहीं है" ऐसा नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है, अयोनिज ( = औपपातिक) प्राणी हैं, अयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं, अच्छे-बुरे काम के फल हैं, नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं ? तथागत मरने के बाद होते हैं नहीं होते हैं ? यदि मुझे ऐसा पूछें, और मैं ऐसा समझैं कि मरने के बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं, तो मैं ऐसा आपको कहूँ। मैं ऐसा भी नहीं कहता, में वैसा भी नहीं कहता । अर्थात् इस सम्बन्ध में वह कुछ भी नहीं कहता । यह कुछ न कहना हमें किस तरफ ले जाता है ? निश्चय ही १. संयुक्त निकाय, ४४ । २ वही । ३. दीघनिकाय भाग १, सामञ्ञफलसुत्त । ( अनुवादक पं० राहुल सांकृत्यायन ) । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२९ ऐसे कथनों में अनिश्चयात्मकता है। दूसरे शब्दों में, इसमें संशयात्मकता का बाहुल्य होता है। यद्यपि संजयबेलट्रिपुत्त संशयवादी दार्शनिक हैं, तथापि उनका संशयवादी विचार उन्हीं चारों कोटियों के द्वारा मुखरित होता है। इसीलिए पण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि विचारकों ने संजय की वर्णन-शैली को स्याद्वाद का आधार मान लिया था। इस संदर्भ में उनका विचार अवलोकनीय है। उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक जैन-दर्शन का आधार "स्याद्वाद" है, जो मालूम होता है संजयबेलट्टिपुत्त के चार अंगवाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। राहुल जी संजय के जिन कथनों से स्याद्वाद की तुलना करना चाहते हैं उनके वे कथन निम्नलिखित (१) है ?-नहीं कह सकता, (२) नहीं है ?-नहीं कह सकता, (३) है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता, (४) न है और न नहीं है ?-नहीं कह सकता। पं० राहुल सांकृत्यायन के अनुसार संजय के इन्हीं चारों कथनों से सप्तभंगी की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने इन चारों कथनों से सप्तभंगी की तुलना करते हुए निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत किया है इसकी तुलना कीजिए जैनों के सात प्रकार के स्याद्वाद से(१) है ?-हो सकता है ( स्यात अस्ति ) (२) नहीं है ?- नहीं भी हो सकता है (स्यात् नास्ति) (३) है भी और नहीं भी ?-है भी, हो सकता है और नहीं भी हो सकता हैं (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (= वक्तव्य हैं) ? इसका उत्तर जैन "नहीं" में देते हैं। (४) "स्यात्" ( हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (=वक्तव्य) है ?-नहीं, स्यात् अवक्तव्य है। १. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९६ २. वही। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या (५) “स्यात् अस्ति" क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, "स्यात् अस्ति" अवक्तव्य है। (६) "स्यात् नास्ति" क्या यह वक्तव्य है ? नहीं "स्यात् नास्ति" अवक्तव्य है। (७) "स्यात् अस्ति च नास्ति च" क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, "स्यात् अस्ति च नास्ति च" अवक्तव्य है। दोनों के मिलाने से मालम होगा कि जैनों ने संजय के पहले वाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याद्वाद की छह भंगियाँ बनाई हैं, और उसके चौथे वाक्य "न है और नहीं है" को छोड़ कर “स्यात्" भी अवक्तव्य है यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।" ___इस प्रकार राहुल जी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि जैनों ने अपनी सप्तभंगी को संजयबेलट्टिपुत्त से उधार लिया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि “इस प्रकार एक भी सिद्धान्त ( = वाद) की स्थापना न करना, जो कि संजय का वाद था, उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर, जैनों ने अपना लिया, और उसकी चतुभंगी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया।"२ किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जैन-दर्शन के सप्तभंगी और संजय के चतुभंगी में बहुत अन्तर है। जहाँ जैन-सप्तभंगी स्वीकारात्मक है, वहीं संजय को चतुभंगी निषेध-परक है। इसीलिए जैनसप्तभंगी और संजय के चतुर्भगी में कोई समानता नहीं है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि संजय केवल निषेध पर ही बल देते हैं, क्योंकि वे सभी प्रश्नों के उत्तर में मात्र यही कहते हैं कि "ऐसा नहीं है"। उपर्युक्त चारों भंग उनके अपने नहीं हैं। प्रत्युत किसी भी समस्या के सन्दर्भ में उठने वाले चार विकल्प हैं, जिनका उत्तर वे निषेधमुख से देते हैं। ___ यह ठीक है कि जैन-सप्तभङ्गी न्याय का विकास इसी चतुष्कोटि न्याय से हुआ है किन्तु चतुष्कोटि न्याय की यह परम्परा बहुत प्राचीन है। वह अपने मूल रूप में वेदों, उपनिषदों और बौद्ध-त्रिपिटक ग्रन्थों में उपलब्ध १. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९६-९७. २. वही। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १३१ होती है। अतः उसे संजयबेलठ्ठिपुत्त का मौलिक योगदान नहीं माना जा सकता। प्रश्न के संदर्भ में उपस्थित इन चार विकल्पों का उत्तर तो संजय निषेध रूप से देते हैं। जबकि जैन-दर्शन उनका उत्तर विधि-मुख से देता है। प्रत्येक विकल्प के सम्बन्ध में संजय कहते हैं कि “ऐसा भी नहीं है", "वैसा भी नहीं है", "अन्यथा भी नहीं है" जब कि जैन-परम्परा कहती है कि "ऐसा भी है", "वैसा भी है", "अन्यथा भी है" | अतः जैन-सप्तभङ्गी को संजय की चतुर्भङ्गी से निष्पन्न बताना सर्वथा अनुचित है। इस प्रश्न के संदर्भ में प्रो० महेन्द्र कुमार जैन ने बड़ी गम्भीरता से विचार किया है। उन्होंने लिखा है कि "बुद्ध और संजय ही क्या, उस समय के वातावरण में आत्मा, लोक, परलोक और मुक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में सत्, असत्, उभय और अनुभय या अवक्तव्य ये चार कोटियाँ गंजती थीं। जिस प्रकार आज का राजनैतिक प्रश्न "मजदूर और मालिक' शोष्य और शोषक के द्वन्द्व की छाया में ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय के आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ-विषयक प्रश्न चतुष्कोटि में ही पूछे जाते थे। वेद और उपनिषद् में इस चतुष्कोटि के दर्शन बराबर होते हैं । "यह विश्व सत् से हुआ या असत् से ? यह सत् है या असत् या उभय या अनिर्वचनीय" ये प्रश्न जब सहस्रों वर्ष से प्रचलित रहे हैं तब राहुल जी का स्याद्वाद के विषय में यह फतवा दे देना कि "संजय के प्रश्नों के शब्दों से या उसकी चतुर्भङ्गी को तोड़-मरोड़ कर सप्तभङ्गी बनो"-कहाँ तक उचित है, इसका वे स्वयं विचार करें।" एक अन्य बात यह भी है कि परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध में संजय के विचार अनिश्चयवादी हैं, क्योंकि वे इन संदर्भो में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "यदि मुझसे ऐसा पूछे, तो मैं यदि ऐसा समझता होऊँ...." तो ऐसा आप को कह" । अर्थात् इस विषय में उनका कोई निश्चित अभिप्राय नहीं है। जबकि बुद्ध ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहते हैं और उनके अव्याकृत कहने का कारण यह है कि ये साधना के लिए अनुपयोगी हैं। वे कहते हैं कि "इनके बारे में कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद के लिए, न निरोध के लिए; न १. जैन-दर्शन, पृ० ३८६-८७ । २. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९१ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या शान्ति के लिए, न परमज्ञान के लिए और न तो निर्वाण के लिए ही आवश्यक है, अर्थात् बुद्ध स्पष्ट रूप से यह कहना चाहते हैं कि इन सभी उलझनों में पड़ना भिक्षु के लिए अपेक्षित नहीं है। ___ इसके विपरीत महावीर न तो संजय की तरह अनिश्चयात्मक उत्तर देना चाहते थे और न बुद्ध की तरह उन्हें अव्याकृत कहकर अपना पीछा ही छुड़ाना चाहते थे। प्रत्युत महावीर लोक, परलोक, आत्मा, कर्मफल और मुक्ति सम्बन्धी सभी प्रश्नों का उत्तर विधायक रूप से देते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-सप्तभङ्गी का मूलाधार महावीर का विधायक दृष्टिकोण है । सप्तभङ्गी अपने प्रत्येक भङ्ग में स्वीकारात्मक पक्ष का ही आश्रय लेती है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधिमुख से नहीं देते हैं, जिन प्रश्नों का उत्तर संजय निषेध-मुख से देते हैं और बुद्ध जिन्हें अव्याकृत कहते हैं उन्हीं प्रश्नों का सप्तभङ्गी विधि-मुख से यथोचित् और युक्तिसङ्गत उत्तर देती है । इस तथ्य को प्रो० महेन्द्र कुमार जैन द्वारा दी गई सारणी से अच्छी तरह समझा जा सकता है' प्रश्न संजय बुद्ध महावीर १. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक द्रव्यदृष्टि से शाश्वत तो बताऊँ ? अनुपयोगी है, शाश्वत है। इसके (अनिश्चय, (अव्याकरणीय, किसी भी सत् का अज्ञान) अकथनीय) सर्वथा नाश नहीं हो सकता, न किसी असत् से नये सत् का उत्पाद ही संभव है। २. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक अपने अशाश्वत तो बताऊँ अनुपयोगी है, प्रतिक्षणभावी परिण (अनिश्चय, (अव्याकरणीय, मनों की दृष्टि से अज्ञात) अकथनीय) अशाश्वत है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरने वाला नहीं है। १. द्रष्टव्य-जैन-दर्शन, पृ० ३८९ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १३३ ३. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक दोनों दृष्टिशाश्वत तो बताऊँ अनुपयोगी है, यों से क्रमशः विचार और अशा- (अनिश्चय, अव्याकरणीय, करने पर शाश्वत भी श्वत है ? अज्ञात) अकथनीय) है और अशाश्वत भी ४. क्या लोक मैं जानता होऊँ, अव्याकृत दोनों रूप तो बताऊँ (अज्ञात, नहीं हैं, अनिश्चय) अनुभय है? हां, ऐसा कोई शब्द नहीं, जो लोक के परिपूर्णस्वरूपको एक साथ समग्रभाव से कह सके, अतः पूर्ण रूपसे वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है। इसके साथ ही, स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में पं० राहुल सांकृत्यायन भी वही त्रुटि किये हैं जो पूर्व के आचार्यों ने किया था। जैन-बौद्ध दर्शन और पाली-प्राकृत भाषा के अछूते लोग यदि इस तरह की त्रुटि करें तो करें, पर यदि इन विषयों के मर्मज्ञ लोग भी इस तरह की त्रुटि करते रहें तो फिर उनमें सुधार कैसे लाया जा सकता है। पं० राहुल सांकृत्यायन ने भी "स्यात्" शब्द का "हो सकता है" अर्थ किया है। जो कि जैन-दर्शन को वांछनीय नहीं है। इसका पूर्णतः विवेचन हमने पिछले अध्याय में किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पं० राहुल सांकृत्यायन को सप्तभङ्गी के विषय में कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं है। इसलिए भी वे सप्तभङ्गी को संजय के चतुर्भङ्गी से निष्पन्न बताना चाहते हैं जो कि सर्वथा अनुचित है । यह सत्य है कि जैन-दर्शन की सप्तभङ्गी चतुर्भङ्गी से ही विकसित हुई है। फिर भी उसकी अपनी एक मौलिक दृष्टि है, जो न तो संजयबेलट्टिपुत्त के दर्शन में उपलब्ध है और न बुद्ध के चिन्तन में । उस चतुभंगी का उल्लेख जैन-आगमों में भी है। इसे निम्नलिखित उद्धरण में देखा जा सकता है :(१) १- आत्मारम्भ २-परारम्भ १. देखिए, दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९७ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ३- तदुभयारम्भ ४- अनारम्भ -भगवती भाग १,१:१ : ४७ । १- गुरु २- लघु ३- गुरु-लघु ४- अगुरु-लघु -भगवती भाग १,१:९ : २८९ । १- सत्य २- मृषा ३- सत्यमृषा ४- असत्यमृषा -भगवती भाग ५, १३ : ७ : १२ । १- आत्मांतकर २- परांतकर ३- आत्मपरांतकर ४- नोआत्मांतकर-परांतकर -स्थानांग २८७, २८९, ३२७, ३४४, ३५५, ३६५ । इस प्रकार हमने उपर्युक्त विवेचन में देखा कि तत्त्व के विषय में इन चार [सत्, असत्, सदसत् (उभय) और अनुभय] पक्षों के प्रयोग की परम्परा ऋग्वेद से लेकर महावीर के समय तक चली आयी है जिनका स्पष्टीकरण उपर्युक्त उदाहरणों में हो चुका है और महावीर ने मात्र उन्हीं पक्षों को ग्रहण किया है जो वेदों में आ चुके थे और उन्होंने जिन नये पक्षों को दिया है वे मात्र उन्हीं के संयोग हैं। उनमें अन्तर सिर्फ इतना ही है कि ऋग्वैदिक एवं उपनिषद्कालीन ऋषियों ने तत्त्व के विषय में केवल एक-एक पक्ष का ही समर्थन किया था। प्रत्येक पक्ष को स्वतन्त्र रूप से मानने वाले भिन्न-भिन्न ऋषि थे, अर्थात् प्रत्येक पक्ष की अपनी अलग-अलग विचारधारायें थीं। जबकि महावीर ने एक ही तत्त्व को उक्त सभी दृष्टियों (पक्षों) से देखा है । पं० दलसुख मालवणिया का कहना है कि "उपनिषदों में माण्डूक्य को छोड़कर किसी एक ऋषि ने उक्त चारों पक्षों को स्वीकृत नहीं किया। किसी ने सत् पक्ष को, किसी ने असत् पक्ष Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी को, किसी ने उभय पक्ष को तो किसी ने अनुभय पक्ष को स्वीकृत किया है, जबकि माण्डूक्य ने आत्मा के विषय में चारों पक्षों को स्वीकृत किया है और इसी प्रकार बुद्ध के चारों अव्याकृत प्रश्नों के विषय में तो स्पष्ट ही है कि बुद्ध उन प्रश्नों का कोई हाँ या ना में उत्तर ही देना नहीं चाहते थे, अतएव वे प्रश्न अव्याकृत कहलाये। इसके विरुद्ध महावीर ने चारों पक्षों का समन्वय करके सभी पक्षों को अपेक्षाभेद से स्वीकार किया है।' इस प्रकार महावीर औपनिषदिक विधान के अनुसार हो चारों पक्षों को स्वीकार कर अपनी समन्वयात्मक प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया और उसी के आधार पर सप्तभंगी की योजना की। अब यदि कोई यह कहे कि इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति का आधार क्या है ? तो इसके लिए हमें पुनः उन्हीं प्राचीन परम्परा का अनुमोदन और विश्लेषण करना होगा, जिस ऋग्वैदिक परम्परा का उल्लेख हमने पीछे किया है, उसका स्पष्ट विश्लेषणात्मक टिप्पणी पं० दलसुख मालवणिया ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि "ऋग्वेद से बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई है, उसका विश्लेषण किया जाये तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ जैसे सत् या असत् का। उसके विरोध में विपक्ष उपस्थित हुआ असत् या सत् का । तब किसी ने दो विरोधी भावनाओं को समन्वित करने की दृष्टि से कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत्, वह तो अवक्तव्य है, और किसी दूसरे ने दो विरोधी पक्षों को मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है। वस्तुतः विचारधारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं ।"२ किन्तु समन्वय की यह विचारधारा यहीं समाप्त नहीं हो जाती, वह पुनः प्रवाहित होती है। इसे पं० दलसुख मालवणिया के ही शब्दों में देखिये-"किन्तु समन्वय पर्यन्त आ जाने के बाद फिर से समन्वय को ही एक पक्ष बनाकर विचारधारा आगे चलती है, जिससे समन्वय का भी एक विपक्ष उपस्थित होता है और फिर नये पक्ष और विपक्ष के समन्वय की आवश्यकता होती हैं। यही कारण है कि जब वस्तु की अवक्तव्यता में सत् और असत् का समन्वय हुआ, तब वह भी एकान्त पक्ष बन गया। संसार को गतिविधि हो कुछ ऐसी है, मनुष्य का मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नहः । १. आगम युग का जैन-दर्शन, पृ० १०१. २. वही, पृ० १०२. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या अतएव वस्तु की ऐकान्तिक अवक्तव्यता के विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नहीं, उसका वर्णन भी शक्य है. इसी प्रकार समन्वयवादी ने जब वस्तु को सदसत् कहा, तब उसका वह समन्वय भी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोध में विपक्ष का उत्थान हुआ। अतएव किसी ने कहा एक ही वस्तू सदसत् कैसे हो सकती है उसमें विरोध है; जहाँ विरोध होता है, वहाँ संशय उपस्थित होता है जिस विषय में संशय हो, वहाँ उसका ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव मानना चाहिए कि वस्तु का सम्यक् ज्ञान नहीं। हम उसे ऐसा भी नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञान का तात्पर्य वस्तु की अज्ञेयता-अनिर्णयता एवं अवाच्यता में जान पड़ता है। यदि विरोधी मतों का समन्वय एकान्त दृष्टि से किया जाये, तब तो पक्षविपक्ष समन्वय का चक्र अनिवार्य है। इसी चक्र को भेदने का मार्ग महावीर ने बताया है। इसके सामने पक्ष-विपक्ष-समन्वय और समन्वय का भी विपक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्ष का रूप ले ले, तब तो पक्ष-विपक्ष-समन्वय के चक्र की गति नहीं रुकती। इसी से उन्होंने समन्वय का एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्ष का अवकाश न दे सके।"" वस्तुतः महावीर की समन्वय प्रवृत्ति स्वतन्त्र या निरपेक्ष नहीं है। उनके समन्वयात्मक चिन्तन में सभी विरोधी पक्षों का यथोचित स्थान है। वे अपनी समन्वय पद्धति में सभी विरोधी-अविरोधी पक्षों को समाहित करते हैं। अतएव उनका समन्वय सभी विरोधी-अविरोधी पक्षों का सम्मेलन मात्र है। उन्होंने प्रत्येक पक्ष की सच्चाई पर ध्यान दिया और प्रत्येक पक्ष को यथायोग्य स्थान दिया। उनके समय तक जितने भी विरोधीअविरोधी पक्ष थे उन सबको सत्य बताया। महावीर के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण सत्य का दर्शन तो उन सभी विरोधों के मिलने से हो हो सकता है पारस्परिक निरास से नहीं। सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं और उन्हीं सब दृष्टियों के समुचित समन्वय से वस्तु के स्वरूप का आभास होता है। इस प्रकार महावीर ने अपनी समन्वयात्मक दृष्टि से वस्तु को यथार्थता को देखने का प्रयत्न किया। अतः उनका यह समन्वय व्यापक है। यह सभी विरोधी पक्षों को समाहित करता है, आत्मसात् करता है। १. आगम युग जन-दर्शन, पृ० १०२-१०३. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सस्तभंगी १३७ इसी अपनी समन्वयात्मक विशाल एवं उदार तत्व दृष्टि से महावीर ने वस्तु के विराट् स्वरूप को देखा। एक बार गौतम ने महावीर से पूछा कि भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वो अस्तित्ववान् है या नहीं? तब इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप महावीर ने कहा कि १-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अस्तित्ववान् है । २-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अस्तित्ववान् नहीं है। ३-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है । एक ही तत्त्व के विषय में इन तीन उत्तरों को सुनकर गौतम ने पुनः पूछा कि भगवन् यह कैसे ? तब उन्होंने कहा कि १-रत्नप्रभा पृथ्वी स्व-स्वरूप को अपेक्षा से अस्तित्ववान् है । २-रत्नप्रभा पृथ्वी पर-पदार्थ के स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है। ३. रत्नप्रभा पृथ्वी तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसी प्रकार गौतम ने जब अन्य पृथ्वियों, देवलोकों आदि के विषय में पूछा तो महावीर ने उन सभी प्रश्नों के विषय में भो उसी प्रकार उत्तर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-दर्शन के यही तोन मुल भंग हैं। इन्हीं तीनों मूलभूत भंगों के संयोग से सप्तभंगी तैयार की गयो है। जैनदार्शनिकों ने गणितशास्त्र के आधार पर भी यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सप्तभंगी में मूलभूत भंग तीन ही हैं और उन्हीं तोन भंगों के संयोग से सप्तभंगी बनी है। यद्यपि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं और उन अनन्त धर्मों के संदर्भ में अनन्तभंग बन सकते हैं किन्तु उन अनन्त भंगों का समावेश इन्हीं सातों भंगों के अन्तर्गत हो जाता है। भले ही वे अनन्त भंग कुछ न कुछ नवीनता प्रदान करें किन्तु उन्हें पूर्णतः स्वतन्त्र भंग नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि तीन ही मूलभूत भंगों का संयोग सप्तभंगी में हैं तो वास्तव में उनके संयोग से बनने वाले भंगों की संख्या सात ही होगी। न तो उससे कम और न तो उससे अधिक ही होगी । जैन-आचार्यों ने कहा भी है कि "मूल भंग तो तीन ही हैं-सत्, असत् और अवक्तव्य । गणित के नियम के अनुसार तीन संख्याओं के संयोग से बनने वाले अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते है, अधिक नहीं। जैसे सोंठ, मिरच और पोपल के प्रत्येक तीन विकल्प और द्विसंयोगी तीन-(सोंठ-मिरच, सोठ-पीपल Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या और मिरच - पीपल) तथा एक त्रिसंयोगी ( सोंठ, मिरच और पीपल मिलाकर) । इस तरह अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं, उसी तरह सत् असत् और अनुभय (अवक्तव्य) के अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं । " अब प्रश्न यह है कि जब वस्तु के सम्बन्ध में अपुनरुक्त कथन सात ही हो सकते हैं तब उसे सप्तधर्मी ही क्यों नहीं कहा जाता है ? उसे अनन्तधर्मात्मक कहने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने कहा है कि ( वस्तु के) एक-एक धर्म को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्म के साथ वस्तु के वास्तविक रूप या शब्द की असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यता को मिलाकर सात भंगों की कल्पना होती है । ऐसे असंख्य सात-सात भंग प्रत्येक धर्म की अपेक्षा से वस्तु में संभव है । इसलिए वस्तु को सप्तधर्मा न कहकर ( उसे ) अनन्तधर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है । जब हम अस्तित्व धर्म का विचार करते हैं तो अस्तित्व विषयक सात भङ्ग बनते हैं और जब नित्यत्व धर्म की विवेचना करते हैं तो नित्यत्व को केन्द्र में रखकर सात भङ्ग बन जाते हैं । इस तरह असंख्य सात-सात भङ्ग वस्तु में संभव हैं । सप्तभङ्गी नय प्रदीप प्रकरण में भी कहा गया है कि यद्यपि अनन्तधर्मयुक्त पदार्थ अनन्त हैं तथापि एक पदार्थ में एक धर्म की विवक्षा से प्रश्न सात प्रकार के होते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर हेतु एक ही सप्तभङ्गी होती है और एक धर्म की विवक्षा से एक सप्तभङ्गी होती है तो अनन्तधर्म की विवक्षा से अनन्त सप्तभङ्गी होगी, यदि ऐसी आशंका की जाय तो यह बात जैन दर्शन को स्वोकार ही है । जैन-दर्शन यह मानता है कि एक धर्मी में यदि अनन्त धर्म हैं और एक धर्म की विवक्षा से एक सप्तभङ्गी बनती है तो अनन्त धर्म की विवक्षा से अनन्त सप्तभङ्गी बनेगी ही । यही सप्तभङ्गी की अनन्तता है । १. जैन दर्शनद, पृ० ३७५ २. वही । ३. यद्यप्यनन्तधर्माध्यासिता अनन्ता एव पदार्थाः, तथाऽप्येकस्मिन् पदार्थे एक धर्ममधिकृत्य प्रश्नाः सप्तैवेति पदुत्तरवाक्यरूपा एकैव सप्तभङ्गी भवतीति नियमः, । यद्येकधर्मविवक्षया एका सप्तभङ्गी, तहि अनन्त धर्मविवक्षया अनन्ता सप्तभङ्गयपि स्यादित्यत्रेष्टापत्तिमाह- अनन्तधर्मविवक्षयेति - एकत्र धर्मिणि यावन्तो धर्मास्तत्र प्रत्येक धर्मविवक्षया एकैक सप्तभङ्गीसम्भवे तावत्यः सप्तभङ्गयः स्युरेवेत्यर्थः । एतत् तु सप्तभङ्गीनामनन्तत्वं पुनः । सप्तभङ्गी - नयप्रदीपप्रकरणम्, पृ० ८. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १३९ यहाँ यदि यह आशंका की जाय कि जब उपर्युक्त मल भंगों को जोड़ कर ही सप्तभंगी तैयार करनी है तो ऐसे भंग सात ही क्यों, वे तो अनन्त हो सकते हैं ? किन्तु यह आशंका भी ठीक नहीं है; क्योंकि जब वस्तु के किसी एक धर्म को लक्ष्य करके विधि-निषेध रूप भंग तैयार किये जाँय तो भंग सात ही होंगे और यदि वस्तु के प्रत्येक धर्म को लक्ष्य करके भंग बनाये जाँय तब तो भंगों की संख्या अनन्त होगी ही। इस संदर्भ में जैन-दर्शन भी विचार करता है। भगवती सूत्र में परमाणु के अस्तित्व विषयक प्रश्नों के संदर्भ में द्वि-प्रदेशी, त्रि-प्रदेशी, चार-प्रदेशी, पंच-प्रदेशी, और षट्-प्रदेशी स्कन्धों को लेकर भंग बनाये गये हैं उनके कुछ संदर्भ निम्नलिखित हैं : द्वि-प्रदेशी स्कन्धों के अस्तित्व के विषय में महावीर ने जिन छ: भंगों द्वारा उत्तर दिया था वे ये हैं (१) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान हैं। (२) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध पर-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। (३) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। (४) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध का एक अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान नहीं है। अतः द्वि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अस्तित्ववान् नहीं भी है। (५) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्धावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे अंश (तदुभय) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव द्विप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है भी और अवक्तव्य भी है। (६) द्वि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दूसरे अंश (तदुभय) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतः द्वि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य भी है। इसके पश्चात् त्रि-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में प्रश्न पूछने पर उन्होंने निम्नलिखित भंगों के रूप में उत्तर दिया था : (१) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववान् हैं । (२) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध पर-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। (३) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या (४) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से तो अस्तित्ववान् हैं किन्तु एक अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है, इसलिए त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् हैं भी और अस्तित्ववान् नहीं भी हैं। (५) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्धावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान हैं और दो अंशों (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। अतः त्रि-प्रदेशो स्कन्ध अस्तित्ववान हैं और दो असद्भावपर्यायों की अपेक्षा से नहीं हैं। (६) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध दो अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान हैं और एक अंश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से नहीं है । अतएव त्रि-प्रदेशी स्कन्ध दो सद्भावपर्यायों की अपेक्षा से तो अस्तित्ववान् हैं लेकिन एक असद्भाव पर्यायों की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं। ___ (७) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे अंश (तदुभय) को अपेक्षा से अवक्तव्य हैं । अतः त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान हैं और अवक्तव्य हैं । (८) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक अंश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान हैं और दो अंश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। अतएव त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान हैं भी और अवक्तव्य हैं । (९) त्रि-प्रदेशो स्कन्ध दो देश (सद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्वान् हैं और एक देश (तदुभय पर्यायों) को अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं । इसलिए त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान हैं और अबक्तव्य हैं । (१०) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक देश (असद्भावपर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं और दूसरे देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं । अतएव त्रि-प्रदेशो स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं भी हैं और अवक्तव्य हैं। (११) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं और दो देश (तभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतः त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है। (१२) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) को अपेक्षा से Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४१ अवक्तव्य है। अतः त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं हैं और अवक्तव्य है। (१३) त्रि-प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान है और एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है तथा एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव त्रि-प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान है, नहीं है और अवक्तव्य है। इस प्रकार त्रि-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में कुल १३ भंग हुए। इसी प्रकार चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में महावीर ने १९ भंगों का निर्देश किया है जो अधोलिखित हैं : (१) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान है। (२) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध पर-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । (३) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। (४) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दूसरे देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है । (५) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और अनेक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान है और नहीं है । (६) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अनेक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्व वान् नहीं है । अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है । (७) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध दो देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है । (८) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान है और अवक्तव्य है । (९) चतुष्प्रदेशी स्वन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और अनेक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य हैं । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या __ (१०) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अनेक देश सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक बैश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है। (११) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध दो देश (सद्भाव पर्यायों) की अपक्षा से अस्तित्ववान् है और दो देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (१२) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है। (१३) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और अनेक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं । अतएव चतुष्प्रदेशो स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१४) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अनेक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं हैं और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतः चतुष्प्रदेशो स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१५) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दो देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१६) चतुष्प्रदेशो स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (असद्भाव पर्यायों) को अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है तथा एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है। (१७) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) को अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दो देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है ओर अवक्तव्य है। (१८) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्त्ववान् है, दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) को अपेक्षा से अवक्तव्य है। इस Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४३ लिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है। (१९) चतुष्प्रदेशी स्कन्ध दो देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) को अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है।। ___ इसी प्रकार पंच प्रदेशी स्कन्धों के सन्दर्भ में महावीर ने कुल २२ भंगों की संख्या प्रस्तुत की है । वे इस प्रकार हैं :(१) पंचप्रदेशी स्कन्ध स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है । (२) पंचप्रदेशी स्कन्ध पर-स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है। (३) पंचप्रदेशी स्कन्ध तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है। (४) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश ( असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है। (५) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और अनेक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है । अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है।। (६) पंचप्रदेशी स्कन्ध अनेक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान है और एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान है और नहीं है। (७) पंचप्रदेशी स्कन्ध दो या तीन देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दो या तीन देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है। इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और नहीं है। (८) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (तदुभय) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है। (९) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और अनेक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या है | अतः पंचप्रदेशी स्वन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (१०) पंचप्रदेशी स्वन्ध अनेक देश ( सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा अस्तित्ववान् है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (११) पंचप्रदेशी स्कन्ध दो या तीन देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और दो या तीन ( तदुभय पर्यायों ) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (१२) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवतव्य है । अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (१३) पंचप्रदेशी स्वन्ध एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और अनेक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१४) पंचप्रदेशी स्कन्ध अनेक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१५) पंचप्रदेशी स्कन्ध दो या तीन देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और तीन या दो देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है | अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्वान् नहीं है और अवक्तव्य है । (१६) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश ( सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है और अवक्तव्य है । (१७) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है और एक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है तथा अनेक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है । (१८) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश ( सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, अनेक देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्व Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४५ वान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है । (१९) पंचप्रदेशी स्कन्ध एक देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दो देश ( तदुभय पर्यायों ) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। इसलिए पञ्चप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान है, नहीं है और अवक्तव्य है । (२०) पञ्चप्रदेशी स्कन्ध अनेक देश ( सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, एक देश ( असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश तदुभय पर्यायों की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है। (२१) पंचप्रदेशी स्कन्ध दो देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान है, एक देश (असद्भाव पर्यायों) को अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है। (२२) पंचप्रदेशी स्कन्ध दो देश (सद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान है, दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और एक देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसलिए पंचप्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है। इसी प्रकार षट्प्रदेशी स्कन्ध के सन्दर्भ में महावीर ने २३ भंगों को प्रस्तुत किया है। उन्होंने पंचप्रदेशी स्कन्ध के २२ भंगों को ज्यों का त्यों लेकर उसमें एक २३ वाँ भंग अलग से जोड़कर षट् प्रदेशी स्कन्ध के २३ भंगों की संख्या पूरी की है। उनका वह २३वाँ भंग निम्नलिखित है : "षटप्रदेशी स्कन्ध दो देश (सदभाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, दो देश (असद्भाव पर्यायों) की अपेक्षा से अस्तित्ववान् नहीं है और दो देश (तदुभय पर्यायों) की अपेक्षा से अवक्तव्य है। इसलिए षट्प्रदेशी स्कन्ध अस्तित्ववान् है, नहीं है और अवक्तव्य है।' - इस प्रकार हमने उपर्युक्त विवेचन में देखा कि एक, दो, तीन, चार, पांच और छः प्रदेशो स्कन्धों के आधार पर तीन, छः, तेरह, उन्नीस, बाइस और तेइस भंगों की स्थापना होती है । इसी प्रकार यदि और भी स्कन्धों १. भगवती सूत्र, १२:१० । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या को लेकर भंग बनाये जाँय तो निश्चय ही उनकी संख्या अनन्त तक पहुंच जायेगी। परन्तु उपर्युक्त भंगों को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें मूल रूप से सत्, असत् और अवक्तव्य इन तीन भंगों का ही विस्तार है । जहाँ तक भंगों की संख्या बढ़ने का प्रश्न है तो उसके लिए विवेच्य विषयों (धर्मों) की संख्या बढ़ायी गयी है । यदि धर्म (विवेच्य विषय) की संख्या एक ही रहे तो निश्चय ही अपुनरुक्त भंग सात ही होंगे। यदि किसी तरह उन्हें बढ़ाते भी हैं तो वे किसी-न-किसी भंग के पुनर्कथन ही होंगे। पुनर्कथनों का स्वतन्त्र रूप से कोई मूल्य नहीं होता। इसलिए एक धर्म के संदर्भ में सात ही भंग बनेंगे, ऐसा मानना चाहिए। वस्तु का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है। जिसे वचनातीत या अनिर्वचनीय कहा जा सकता है। वाणी उसके अखण्ड रूप तक नहीं पहुँच सकती। कोई भी व्यक्ति जब वस्तु के अखण्ड रूप को जानना या कहना चाहता है, तब वह सर्वप्रथम उसका अस्ति रूप से वर्णन करता है। पर जब वह उसके अखण्ड रूप के कथन में अपने को असमर्थ पाता है, तब उसका नास्तिरूप से वर्णन करता है। किन्तु फिर भी वह उसकी अनन्त धर्मात्मकता की सीमा को पार नहीं कर पाता; तब वह उसे उभय रूप से देखता है। किन्तु उससे भी पार न पाने पर वह उसे अवक्तव्य "यतो वाचो निवर्तन्ते", "अप्राप्य मनसा सह" अर्थात् जिसके स्वरूप को प्रतीति वचन तथा मन नहीं कर सकते; वे भी उससे निवृत्त हो जाते हैं। ऐसा है वह वचन तथा मन का अगोचर, अखण्ड, अनिर्वचनीय, अनन्तधर्मा वस्तुतत्व । इसलिए उस तत्त्व का स्वरूप अव्यक्त ही होगा। वस्तुतः वक्ता के वचन व्यापार की शुरुवात यहीं से होती है तथा उसके प्रतिपक्षी एवं वस्तु के अन्तिम पक्ष का प्रतिपादन करने वाला भंग अवक्तव्य है। इन्हीं तीन का विस्तार सप्तभंगी के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। आगे के सभी भंग मात्र इन्हीं के संयोग हैं वे स्वतन्त्र भंग नहीं हैं । यथा : १. स्यादस्ति-कथंचित् है। २. स्यान्नास्ति-कथंचित् नहीं है। ३. स्यादस्ति च नास्ति-कथंचित् है और नहीं है। ४. स्यादवक्तव्य-कथंचित् अवक्तव्य है। ५. स्यादस्ति चावक्तव्य-कथंचित् है और अवक्तव्य है। ६. स्यान्नास्ति चावक्तव्य-कथंचित् नहीं है और अवक्तव्य है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४७ ७. स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्य-कथंचित् है, नहीं है और अवक्तव्य है। अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य भंग को सप्तभंगी के क्रम में कौन सा स्थान प्राप्त है तृतीय या चतुर्थ। ऐसी शंका इसलिए उत्पन्न होती है कि जैन ग्रन्थों में अवक्तव्य को किसी एक निश्चित स्थान पर नहीं रखा गया है । जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द अवक्तव्य को तीसरे स्थान पर प्रयुक्त करते हैं वहीं पंचास्तिकाय में उसे चतुर्थ स्थान पर रखा गया है। अकलंक ने तो उसे दोनों ही स्थानों पर प्रयुक्त किया है। इसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगम सूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में प्रथमक्रम में तो आप्तमीमांसा, तत्त्वार्थवातिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, स्याद्वादमंजरी, सप्तभंगीतरंगिणी में द्वितीय क्रम का अनुसरण किया गया है। वस्तुतः जब उसके स्थान के विषय में इतना विभेद है तो किसको उचित माना जाय ? यह समस्या उत्पन्न हो जाती है। जैन आचार्यों के अनुसार अवक्तव्य भंग के अर्थ पर ही ध्यान देने से उक्त समस्या का भी समाधान हो जाता है। उनके अनुसार अवक्तव्य भंग के दो अर्थ होते हैं-एक तो शब्द की असामर्थ्य के कारण वस्तु के अनन्तधर्मी स्वरूप को वचनागोचर, अतएव अवक्तव्य कहना; और दूसरे विवक्षित सप्तभंगी में प्रथम और द्वितीय भंगों में युगपत् कह सकने की सामर्थ्य न होने के कारण अवक्तव्य कहना। पहले प्रकार में वह एक व्यापक रूप है जो वस्तु के सामान्य पूर्णरूप पर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मों को युगपत् न कहने की दृष्टि से होने के कारण वह एक विकल्प के रूप में सामने आता है अर्थात् वस्तु का एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी। जो शेष धर्मों के द्वारा प्रतिपादित होता है । यहाँ तक कि "अवक्तव्य" शब्द के द्वारा भी उसी का स्पर्श होता है। दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दृष्टि से जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह उन-उन सप्तभंगियों में जुदा-जुदा ही है यानी सत् और असत् को युगपत् न कह सकने के कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक और अनेक धर्मों को युगपत् न कह सकने के कारण फलित होने वाले अवक्तव्य भंग से जुदा होगा । अवक्तव्य और वक्तव्य को लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमें का अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्य को न कह सकने के कारण ही फलित होगा। वह भी एक धर्म रूप हो होगा। सप्तभंगी में जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मों के युगपत् Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कहने की असामर्थ्य के कारण फलित होने वाला ही विवक्षित है। अतः अवक्तव्य को किसी एक ही स्थान पर उपस्थित होना आवश्यक नहीं है तृतीय एवं चतुर्थ दोनों ही स्थानों पर प्रस्तुत हो सकता है। डॉ० मोहन लाल मेहता के अनुसार अवक्तव्य भंग का तृतीय एवं चतुर्थ दोनों ही स्थानों पर प्रयुक्त होना अर्थपूर्ण है। उन्होंने लिखा है कि "जहाँ अस्ति और नास्ति इन दो भंगों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है और जहाँ अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति (उभय) तीनों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है।" सामान्यतः यदि अवक्तव्य सप्तभंगी में कहीं तीसरे स्थान पर आया है और कहीं चौथे स्थान पर, तो उसे असङ्गत नहीं कहना चाहिए । उसके ऐतिहासिक साहित्य पर दृष्टिपात करने पर भी यही दृष्टिगत होता है कि ऋग्वेद के ऋषियों ने जगत् के आदि कारण को सत् और असत् दोनों ही रूपों में अवक्तव्य बताया था। अतः यहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान फलित होता है। ऐसी अवस्था में यदि भगवती सूत्र अवक्तव्य को तीसरे स्थान पर प्रस्तुत करता है तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि वह भी तो प्राचीन परम्परा के अनुरूप ही है। उमास्वाति, सिद्धसेन, जिनभद्र आदि आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुगमन किया था। परन्तु इसके विपरीत माण्डूक्योपनिषद् में आत्मा को चतुष्पाद रूप बताते हुए उसे चतुर्थ स्थान पर प्रयुक्त किया गया है । इस विधान के अनुसार वह सत्, असत् और उभय इन तीनों भंगों का निषेध करता है । अतः उसे चौथे स्थान पर प्रयुक्त होना चाहिए और अधिकांश जैन-विचारकों को अवक्तव्य का यही चौथा स्थान ही अभिप्रेत है। यद्यपि उसका तीसरा स्थान भी अर्थहीन नहीं है। परन्तु यह सप्तभंगी के उद्देश्य से अपूर्ण प्रतीत होता है; क्योंकि उसका तीसरा स्थान या तीसरे स्थान पर प्रयुक्त होना मात्र विधि और निषेध को ही निषेधित करना है; जबकि सप्तभंगी में चतुर्थ स्थान पर प्रयुक्त अवक्तव्य का आशय मात्र इतना ही नहीं है। उसकी दृष्टि में तो उभय पक्ष का भी निषेध होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि अवक्तव्य मात्र विधि और निषेध का ही नहीं; अपितु उभय पक्ष का भी निषेध करता है। अर्थात् अवक्तव्य वह है जो विधि, निषेध और उभय तीनों ही पक्षों से अवाच्य हो, अगोचर हो । अतः सप्तभंगी में अवक्तव्य को चतुर्थ स्थान १. जैन धर्म-दर्शन, पृ० ३६५ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४९ पर ही प्रयुक्त होना तर्कसंगत प्रतीत होता है। साथ ही, समन्तभद्रादि आचार्यों को यही मत मान्य है और यह बात हम आगे और भी स्पष्ट करेंगे। भंगों को आगमिक व्याख्या प्रथम भंग _ "स्यादस्त्येव" यह सप्तभङ्गी का प्रथम भङ्ग है। इससे वस्तु में अस्तिरूपता का निर्धारण होता है कि अमुक वस्तु में अमुक धर्म का अस्तित्व अमुख अपेक्षा से है । स्यादस्त्येव-"स्यात्"-"अस्ति"-"एव" का शाब्दिक अर्थ ही है किसी अपेक्षा विशेष से वस्तु में भावात्मक धर्मों की सत्ता है ही । उदाहरणार्थ-"स्यादस्त्येव घटः" का अर्थ है-स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट में भावात्मक धर्मों की सत्ता निश्चित रूप से है। यद्यपि यह भङ्ग वस्तु के भावात्मक धर्मों का हो विधान करता है, तथापि यह वस्तु के अभावात्मक धर्मों का निषेध नहीं करता है; क्योंकि इस भङ्ग में प्रयुक्त "स्यात्" नामक अपेक्षा सूचक पद वस्तु के भावात्मक धर्मों के विधान के साथ ही अभावात्मक धर्मों की रक्षा भी करता है; और “एव" शब्द जो कि कभी-कभी कथन में उपेक्षित या ओझल हो जाता है, यद्यपि उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, कथन के उद्देश्य से अपेक्षित धर्म को निश्चयता एवं कथन को पूर्णता प्रदान करता है। इसी प्रकार "अस्ति" शब्द, जो कि एव के पहले और स्यात् के बाद प्रयुक्त होकर कथन को पूर्ण बनाता है, इस भङ्ग का क्रियापद है। परन्तु अब समस्या यह उत्पन्न होती है कि इस कथन के विधेय स्वरूप अस्तिरूपता का बोध किस पद से होता है ? इस समस्या के समाधान हेतु दो बातें हमारे समक्ष आती हैंप्रथम तो यह कि "अस्ति" पद ही क्रियापद के साथ-साथ विधेय पद का भी बोध कराता है। इस आधार पर यद्यपि इस भङ्ग का स्वरूप "स्यादस्त्येवास्ति' होना चाहिए। पर मेरे विचार से जैन आचार्यों ने एक ही वाक्य में दो अस्ति पद का प्रयोग करना उचित नहीं समझा और यह मान लिया कि एक ही अस्ति पद दोनों बातों का बोध करायेगा। दूसरे, यह कि जैन आचार्यों ने स्यादस्त्येव को केवल प्रतीक रूप में ही प्रयक्त किया। जिससे उसमें जिस विधेय का कथन करना हो, उसको बैठा दिया जाय और वहो उसका विधेय पद हो जाय । उदाहरणार्थ स्यादस्त्येव घटः, सापेक्षतः घट में अस्ति सूचक धर्म है ही। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार सप्तभङ्गी का यह प्रथम भङ्ग वस्तु के भावात्मक धर्मों का विधान करता है और ये भावात्मक धर्म उसकी अस्तिरूपता को सूचित करते हैं। लेकिन ये अस्तिसूचक धर्म स्वचतुष्टय से ही अस्तिसूचक हैं परचतुष्टय से नहीं। जैन-दर्शन के अनुसार विश्व में पदार्थों के जो भी अस्तिसूचक धर्म हैं वे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दष्टि से ही अस्तिसूचक हैं पर द्रव्यादि की दृष्टि से नहीं। जब हम यह कहते हैं कि कथञ्चित् घट अस्तिरूप है ही, तब हमारा उद्देश्य यही होता है कि घट में स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से अस्तित्व सूचक धर्म हैं; पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से नहीं; क्योंकि वस्तु का स्व-स्वरूप स्वचतुष्टय से ही बनता है परचतुष्टय से नहीं। किन्तु प्रश्न यह है कि स्वचतुष्टय क्या है और पर-चतुष्टय क्या है ? जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु का अपना विशिष्ट स्वरूप होता है जो उसकी सत्ता का सार तत्त्व होता है। वस्तु का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निश्चित होता है। वस्तु के इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जैन-दर्शन में चतुष्टय कहा जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह चतुष्टय स्व-रूप भी होता है और पर-रूप भी-जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चतुष्टय की वस्तु में भावात्मक सत्ता होती है वह स्वचतुष्टय और जिस चतुष्टय की सत्ता वस्तु में अभावात्मक होती है वह पर-चतुष्टय कहलाता है। स्व-चतुष्टय वस्तु का भावात्मक पक्ष है और पर-चतुष्टय वस्तु का अभावात्मक पक्ष है। इन्हीं स्व और पर चतुष्टय के आधार पर ही वस्तु का स्वरूप निश्चित होता है । वस्तु में जिन गुण-धर्मों की उपस्थिति होती है वे ही उसका स्वचतुष्टय बनते हैं और जिनकी उपस्थिति नहीं होती है वे उनके लिए. पर-चतुष्टय होते हैं। वस्तु का स्वरूप तभी बनता है जब उसमें स्व-द्रव्य, क्षेत्र आदि की उपस्थिति के साथ ही पर द्रव्य, क्षेत्र आदि का अभाव भी हो । कुर्सी, कुर्सी तभी तक है; जब तक उसमें कुर्सी के गुण-धर्मों की उपस्थिति के साथ ही टेबुल के गुण-धर्मों का अभाव भी हो । इस चतुष्टय के चार अङ्ग हैं, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । सामान्य रूप से जैन-दर्शन में द्रव्य का अर्थ है गुण और पर्याय से युक्त होना (गुण पर्यायवत् द्रव्यम्) । किन्तु यहाँ वस्तु के मूल में जो पदार्थ है उसी को द्रव्य कहते हैं अर्थात् वस्तु जिस पदार्थ से बनी है उसी को उस वस्तु का द्रव्य Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी कहते हैं। जैसे यह घट मिट्टी का है। इसमें घट का द्रव्य मिट्टी है; क्योंकि घट मिटटी से ही बना है अन्य किसी पदार्थ से नहीं। अतः घट के द्र व्यत्व का निर्धारण मिट्टी से होता है ! क्षेत्र का अर्थ है स्थान विशेष । घट जिस स्थान पर है या जिस स्थान का बना हुआ है उस स्थान विशेष को उसका क्षेत्र कहा जायेगा। जैसे यह घट वाराणसी का बना है अन्य स्थान का बना हुआ नहीं है। पूनः प्रत्येक वस्तु किसी न किसी स्थान विशेष में ही होती है सर्वत्र नहीं। इसलिए उसके स्वरूप निश्चय में क्षेत्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। काल का अर्थ है समय । काल की अपेक्षा से भी पदार्थ के स्व-रूप और पर-रूप का विचार किया गया है। वस्तु की वर्तमान में रहने वाली पर्याय स्व-रूप हैं और भूत तथा भविष्यवर्ती पर्यायें पर-रूप हैं । अतः वर्तमान पर्यायों की अपेक्षा से वस्तु सत् और अतीत तथा अनागत पर्यायों की अपेक्षा से असत् है। दूसरे शब्दों में, वर्तमान काल की अपेक्षा से वस्तु सत् और भूत तथा भविष्य काल की अपेक्षा से असत् है। इस प्रकार वस्तु के स्वरूप निश्चय में काल का भी विशेष योगदान है। इसी प्रकार भाव का अर्थ है पर्याय या आकार विशेष । जिस आकार या पर्याय वाली वस्तु है उसकी अपेक्षा से वह सत् है और तदितर की अपेक्षा से असत् है अर्थात् उन पर्यायों का वस्तु में अभाव है। किन्तु इन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अलग-अलग निश्चय से वस्तु का स्वरूप निश्चित नहीं होता है। प्रत्युत वस्तु-स्वरूप के निर्धारण में इन चारों अपेक्षाओं की एक साथ आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि ये चारों एक साथ ही सत्ता में पाये जाते हैं। इनके साथ ही, वस्तु के स्वरूप निश्चय हेतु पर-चतुष्टय का निषेध भी अपेक्षित होता है। डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने लिखा है-"द्रव्य एक ईकाई है, अखण्ड हैं, मौलिक है। पूगल द्रव्यों में ही परमाणुओं के परस्पर संयोग से छोटे-बड़े अनेक स्कन्ध तैयार होते हैं। ये स्कन्ध संयुक्त पर्याय हैं। अनेक द्रव्यों (द्रव्य स्कन्धों) के संयोग से ही घट, पट आदि स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है। ये संयुक्त स्थूल पर्यायें भी अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने असाधारण निज धर्म की दृष्टि से “सत्" हैं और पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की दृष्टि से असत् है।' अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूप से ही अस्तित्ववान होती है पर रूप से नहीं । यदि किसी वस्तु को स्व-रूप से अस्ति-रूप या अस्तित्व१. जैन-दर्शन, पृ० ३६९ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या वान् होना न स्वीकार किया जाय तो उसकी सत्ता ही नहीं रह जायेगी, वह तो सर्वथा असत् हो जायेगी और समस्त विश्व शून्यमय हो जायेगा। इसी प्रकार यदि स्वयं से भिन्न अन्य समग्र पर-स्वरूपों में भी वस्तु का अस्तित्व हो तो फिर उपर्युक्त घट-घट हो नहीं रह सकता; वह घट के साथ ही पट आदि भी हो जायेगा। उसमें जल-धारण आदि की क्रियायें ही नहीं रहेंगी अपितु पट की आच्छादन आदि क्रियायें भी उपस्थित हो जायेंगी, और ऐसी अवस्था में दही और ऊँट में कोई भिन्नता नहीं रह जायेगी। साथ ही दही खाने का इच्छुक व्यक्ति ऊँट के लिए दौड़ने लगेगा। जिससे सारा व्यवहार ही असंभव हो जायेगा । अतएव यदि वस्तुओं में स्व-स्वरूप के समान हो, पर-स्वरूप की भी सत्ता एक ही साथ मान ली जाय तो उनमें स्व-पर का विभाग किसी भी प्रकार से घटित नहीं हो सकेगा, और उसके अभाव में गुड़ और गोबर एक हो जायेगा, और वस्तु का कोई निश्चित स्वरूप ही नहीं रह जायेगा। अतएव वस्तु की वस्तुता को निश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके स्व-रूप का ग्रहण और पर-रूप का त्याग हो; क्योंकि वस्तु की वस्तुता स्व-रूप के ग्रहण और पर-रूप के त्याग से ही स्थिर होती है और स्व-रूप का ग्रहण तथा पर रूप का त्याग तभी सम्भव है जब उसके अस्तित्व सूचक विधायक धर्मों का ग्रहण और निषेधक धर्मों का त्याग किया जाय, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व स्व-रूप से ही होता है पर-रूप से नहीं । उक्तम् च __"सर्वम् अस्ति स्व-रूपेण पर-रूपेण नास्ति च ।" इस प्रकार सप्तभङ्गी का यह प्रथम भङ्ग वस्तु की इसी वस्तुता का निर्धारण करता है। सप्तभङ्गी नयप्रदीपप्रकरण में कहा गया है कि "सत्त्वासत्त्वादिसप्तविधधर्मपरिमिते वस्तूनिअखण्डे सदंशस्य कल्पनया यद् विभाजनं पृथक्करणं तेन "स्यादस्त्येव सर्वम्" इति प्रथमो भङ्गो भवति ।"' अर्थात् सत्त्व-असत्त्व आदि सात प्रकार के धर्मों से युक्त वस्तु के सत्त्व अंश का पृथक्करण जिसके द्वारा होता है वह प्रथम भङ्ग है। संक्षेप में यही प्रथम भङ्ग का अर्थ है। द्वितीय भङ्ग "स्यान्नास्त्येव" यह सप्तभङ्गी का दूसरा भङ्ग है। यह वस्तुतत्त्व के १. सप्तभङ्गी नयप्रदीपप्रकरणम्, प्रथमसर्ग, पृ० ८ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १५३ अनुपस्थित या अभावात्मक धर्मों की सूचना देता है कि अमुक वस्तु में अमुक-अमुक धर्मं अमुक-अमुक अपेक्षा से नहीं हैं । उदाहरणार्थ, स्थान्नास्त्येव घट: का अर्थ है सापेक्षतः घट नास्तिरूप ही है । परन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि घट को नास्ति रूप कहने का आशय घट की सत्ता का निषेध नहीं है; अपितु घट में परधर्मों का निषेध है । जब यह कहा जाता है कि सापेक्षतः घट नास्ति रूप ही है तब जैन आचार्यों के इस कथन का आशय यही होता है कि घट में पर चतुष्टय का अभाव है अर्थात् घट में घटेतर पट आदि के गुण-धर्म नहीं हैं; क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्व-रूप से विद्यमान होती है पर रूप से नहीं । परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु में केवल भावात्मक गुण-धर्म ही नहीं होते, बल्कि अभावात्मक गुणधर्म भी होते हैं । यदि वस्तु में केवल भावात्मक धर्मों की ही सत्ता मानी जाय तो एक वस्तु के सद्भाव से सभी वस्तुओं का सद्भाव हो जायेगा और यदि सर्वथा अभावरूप मान लिया जाय तो वस्तु को सर्वथा स्वभावरहित मानना पड़ेगा जो कि सर्वथा अनुचित है । अतः प्रत्येक वस्तु में भावात्मक एवं अभावात्मक दोनों ही प्रकार के धर्म होते हैं । उनका अस्तित्व स्व के ग्रहण और पर के निषेध से ही बनता है । विद्यानन्दी का कहना है कि सत्ता का निषेध स्व भिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है । यदि पर की दृष्टि के समान स्व की दृष्टि से भो अस्तित्व का निषेध माना जाय तो घट निःस्वरूप हो जाएगा । सप्तभङ्गी का यह दूसरा भङ्ग इन्हीं पर धर्मों के अभाव की सूचना देता है । जिस प्रकार प्रथम भङ्ग यह सूचित करता है कि वस्तु में क्या-क्या है । उसी प्रकार दूसरा भङ्ग यह सूचित करता है कि वस्तु में क्या-क्या नहीं है । अब यहाँ ऐसी शङ्का की जा सकती है कि जब एक ही वस्तु में भावात्मक (सत्त्व) और अभावात्मक (असत्त्व) दोनों ही धर्मं दृष्टिभेद से रहते हैं तब सत्त्व तथा असत्त्व का भेद घटित नहीं होता; क्योंकि जो घट स्व-रूप से सत्त्व रूप है, वही घट अन्य पटादि रूप से असत्त्व रूप भी है । अतः सत्व और असत्त्व दोनों एक दूसरे में गतार्थ हैं । ऐसी अवस्था में सत्त्व प्रकाशक प्रथम और असत्त्व प्रकाशक द्वितीय भंग को अलग-अलग मानने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्यादस्त्येव भङ्ग के कथन से स्यान्ना १. " पर रूपापोहनवत् स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्वस्य प्रसंगात् " । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:५२ की टीका, पृ० १३१ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या स्त्येव और स्यान्नास्त्येव भङ्ग के कथन से स्यादस्त्येव का बोध हो जाता है । जब कोई वस्तु स्व-रूप से सत्तात्मक है और वही वस्तु पर-रूप से असत्तात्मक है, तब "स्यादस्ति", स्यान्नास्ति आदि भङ्गों को अलग-अलग कहना व्यर्थ है। ___ यद्यपि यहाँ यह कहना ठीक है कि एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म अपेक्षाभेद से रहते हैं, पर एक ही वस्तु में रहने मात्र से दोनों धर्म एक नहीं हो सकते। सत्त्व और असत्त्व दोनों एक दूसरे से भिन्न और स्वतन्त्र हैं। जो सत्त्व है वह असत्त्व नहीं हो सकता और जो असत्त्व है वह सत्त्व नहीं हो सकता। यदि उन्हें एक दूसरे से पृथक् न माना जाय तो स्व-रूप से सत्त्व धर्म के ग्रहण सदृश पर रूप से भी सत्त्व धर्म के ग्रहण मानने का प्रसंग आ जायेगा और पर-रूप से असत्त्व धर्म की तरह स्व-रूप से भी असत्त्व धर्म के ग्रहण का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा हो सकता कि वस्तु को ऊपर-ऊपर से देखने पर उसके धर्मों में भिन्नता न प्रतीत होती हो, पर थोड़ा गहराई से विचार करने पर यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है। कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार स्व-रूप से सत्त्व धर्म की अनुभूति होती है, उसी प्रकार पर-रूप से असत्त्व धर्म की प्रतीति होती है। इन दोनों में भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है । अतः भिन्न-भिन्न ज्ञान के लिए भिन्न-भिन्न भङ्ग का होना आवश्यक है; क्योंकि एक ही भङ्ग दो तरह का ज्ञान नहीं दे सकता है अर्थात् स्यादस्त्येव भङ्ग से जो ज्ञान उत्पन्न हो सकता है वह स्यान्नास्त्येव से कदापि नहीं हो सकता है और जो ज्ञान स्यान्नास्त्येव भङ्ग देता है वह स्यादस्त्येव भङ्ग भी कथमपि नहीं दे सकता । उदाहरणार्थ "वह घर में नहीं है", ऐसा कहने पर यह मालूम नहीं हो सकता कि वह अमुक स्थान पर है। घर में न होने पर भी "वह कहाँ है" इस बात की जिज्ञासा तो बनी ही रहती है। इसीलिए "अस्ति भङ्ग' की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार नास्ति भङ्ग की भी। अब कदाचित् ऐसा कहा जाय कि भङ्ग के पूर्व में प्रयक्त "स्यात्" शब्द अनेकान्तता का सूचक है, उससे तो सत्त्व-असत्त्व आदि सभी धर्मों की सूचना मिल जाती है । तब उसके अलग अलग भङ्गों में कहने की क्या आवश्यकता है? यद्यपि यह कहना सत्य है कि "स्यात्" पद सत्त्व असत्त्व आदि अनेक धर्मों का सूचक है। परन्तु उनमें से सत्त्व-असत्त्व के विशेष Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगो १५५ ज्ञान के लिए अस्ति-आदि भंगों का प्रयुक्त होना तो आवश्यक ही है। कहा भी गया है कि "सामान्य" (संयुक्त) रूप "स्यात्" शब्द से अनेकान्त रूप अर्थ का बोध होने पर भी विशेष रूप से अर्थ का बोध कराने के लिए वाक्य में अस्तित्व आदि अन्य शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक है।" उदाहरणार्थ “रक्तवर्णस्याश्वः” लाल रंग का घोड़ा। इस उदाहरण में अश्वत्व इस सामान्य धर्म से घोड़े का बोध होने पर भी रक्तत्व इस विशेष धर्मयुक्त अश्व का बोध कराने के लिए कथन में "रक्तवर्ण' इस शब्द का प्रयुक्त होना आवश्यक है। इसी प्रकार शब्द के द्योतकत्व पक्ष में सत्त्वअसत्त्व आदि सबका बोध होता है। पर किसी विशेषरूप सत्त्व या असत्त्व का बोध कराने के लिए अस्ति आदि का प्रयोग करना आवश्यक है। इसके साथ ही, यदि "स्यात्" शब्द का प्रयोग न किया जाय तो कथन ही सर्वथा एकान्तिक प्रतीत होगा। वस्तुतः "अस्ति" और "नास्ति" पद, उद्देश्य और विधेय का सूचन करते हैं और "स्यात्" पद भङ्ग में पहले आकर केवल वस्तुस्थिति यानी वस्तु-स्वरूपता को स्पष्ट करता है। अतः "स्यात्" पद एक प्रतीक मात्र है और अपेक्षित कथन अस्ति और नास्ति पद के द्वारा हो होता है। अब यदि यह कहा जाय कि प्रथम भङ्ग में जिस वस्तु का विधान है दूसरे भङ्ग में उसी वस्तु का निषेध है; क्योंकि "स्यादस्ति एव घटः' और "स्यान्नास्ति एव घटः" का अर्थ ही कुछ इस प्रकार का है; तो इस प्रकार की व्याख्या भी भ्रान्तिजनक ही है। शङ्कराचार्य आदि दार्शनिकों ने स्याद्वाद की इसी आधार पर आलोचना की थी। प्रथम भङ्ग में जिस धर्म का विधान है द्वितीय भङ्ग में उसी धर्म का निषेध नहीं है। प्रत्युत द्वितीय भंग में, प्रथम भङ्ग में कथित धर्म से भिन्न धर्मों का निषेध किया जाता है। इस संदर्भ में डॉ० सागरमल जैन का निम्नलिखित विचार द्रष्टव्य है"जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी भी आचार्य की दृष्टि से द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुण-धर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग १. "स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने । शब्दान्तरप्रयोगोऽत्र विशेषप्रतिपत्तये ॥” इति ।। -सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ३० ।' Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या में अस्तिरूप माने गये गुण-धर्म से इतर गुण-धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गण-धर्म का निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भङ्ग, प्रथम भङ्ग के कथन को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं।" यदि यह मान लिया जाय कि द्वितीय भंग, प्रथम भंग का निषेधक है तो निश्चय ही इस सिद्धान्त में आत्म-विरोध नामक दोष उत्पन्न हो जायेगा । यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर उक्त अर्थ ही प्रतिफलित होता है। किन्तु वह अर्थ जैन आचार्यों को कभी भी अभिप्रेत नहीं हो सकता। जैन आचार्यों के अनुसार प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का कथन है वह स्व-चतुष्टय से है पर-चतुष्टय से नहीं। इसी प्रकार नास्ति भंग में जिन धर्मों का निषेध है वह पर-चतुष्टय से है स्व-चतुष्टय से नहीं। इसी प्रकार प्रथम और द्वितोय दोनों भंगों के विधेय भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए इन्हें एक दूसरे का निषेधक नहीं मानना चाहिए। दूसरे, जैन आचार्य तो प्रत्येक कथन के साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षा भी दर्शाते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक कथन की भिन्न-भिन्न अपेक्षा है। इसलिए यदि प्रथम भंग में सूचित वस्तु का द्वितीय भंग में निषेध भी है तो वह एक दसरी अपेक्षा से है। प्रथम भंग को अपेक्षा से नहीं । जैसे स्यात् घट मिट्टी का है, स्यात् घट पोतल का नहीं है । इस वाक्य में दोनों कथन सन्निहित हैं। किन्तु इन्हें एक दूसरे का निषेधक नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि प्रथम कथन में यदि घट के मिट्टी के होने का विधान है तो दूसरे में उसके पीतल के होने का निषेध है न कि मिट्टी के होने का ही। इसलिए ये दोनों कथन एक दूसरे से भिन्न हैं । ठीक यही बात सप्तभंगी के दोनों भंगों में भी है । दोनों भंग भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से कहे गये हैं। इसलिए उनमें किसी प्रकार का आत्मविरोध नहीं है। एक स्व-धर्मों का विधान करता है तो दूसरा पर-धर्मों का निषेध करता है। जब प्रथम भंग में स्वीकृत धर्म का ही दूसरे भंग में निषेध होता तो भी उनमें आत्म-विरोध नहीं होता। उदाहरणार्थ यदि प्रथम भंग में यह कहा जाय कि आत्मा नित्य है और दूसरे भंग में यदि यह कहा जाय कि आत्मा नित्य नहीं है। यद्यपि ये कथन ऊपरी तौर पर आत्मविरोधी प्रतीत होते हैं किन्तु वस्तुतः ये आत्म-विरोधी नहीं हैं; क्योंकि १. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४५ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १५७ जहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन किया गया है, वहाँ दूसरे भंग में पर्याय की दृष्टि से नित्यता के गुण का निषेध किया गया है। अतः ये दोनों कथन आत्म-विरोधी या व्याघातक नहीं हैं। एक ही रेखा दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से बड़ी और छोटी दोनों कही जाती है और ऐसे कथन में कोई विरोध नहीं होता है। यही स्थिति अपेक्षा भेद से प्रथम और द्वितीय भंग में भी है। वस्तुतः इन दोनों भंगों में क्रमशः विधि और निषेध रूप से प्रतिपादन होते हुए भी आत्म विरोध या व्याघातकता नहीं है। तृतीय भंग "स्यादस्तिनास्ति च" यह सप्तभंगी का तीसरा भंग है। इस भंग में प्रथम स्यादस्ति और दूसरे स्यान्नास्ति भंग का संयोग है। लेकिन इसका कार्य उपयुक्त दोनों भंगों से भिन्न है। इसके कार्य को न तो केवल अस्ति भंग कर सकता है और न तो केवल नास्ति भंग हो । अतः यह एक स्वतन्त्र एवं नवीन भंग है। जिस प्रकार एक और दो पृथक् एवं स्वतन्त्र दो संख्यायें हैं पर इन दोनों के योग से वही अर्थ निकलता है जो कि एक स्वतन्त्र संख्या तीन का अर्थ होता है। परन्तु तीन नामक संख्या का अस्तित्व एक और दो दोनों से पृथक माना गया है। क्योंकि जो अर्थ तीन संख्या देती है वह न तो केवल एक और न केवल दो ही दे सकती है। इसी प्रकार तीसरा भंग यद्यपि अस्ति और नास्ति का संयोग है। परन्तु जिस उद्देश्य की पूर्ति प्रथम और द्वितीय भंग अलग-अलग करते हैं उसी उद्देश्य की पूर्ति तीसरा भंग भी नहीं करता। बल्कि नयी कथावस्तु को प्रस्तुत करता है। इसमें पहले विधि, फिर निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है । इसमें स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से सत्ता और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से असत्ता का क्रमशः कथन किया गया है ; अर्थात् इसमें स्व की अपेक्षा सत्ता का और पर की अपेक्षा से असत्ता का एक साथ, किन्तु क्रमशः कथन किया गया है। यह कथन न तो केवल "अस्ति" ही कर सकता है और न केवल नास्ति ही कर सकता है; क्योंकि असंयुक्त उत्तर देना दूसरी बात है और संयुक्त उत्तर देना दूसरी बात। अब यदि यह कहा जाय कि घट और पट इन दोनों को अलग-अलग कहने पर या एक साथ उभय रूप से कहने पर घट-पट का ही ज्ञान होता है; उससे कोई नवीन या भिन्न ज्ञान नहीं होता है। अतएव "स्यादस्ति" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या और "स्यान्तास्ति' को अलग-अलग मानने के बाद तीसरे "स्यादस्तिनास्ति" भंग को मानना व्यर्थ है, तो यह नहीं कह सकते; क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता की अपेक्षा उसके संयोग से उद्भूत समुदाय रूप वस्तु की सत्ता भिन्न ही है। उदाहरणार्थ "" और "ट" दो स्वतन्त्र अक्षर हैं। पर इनके संयोग से “घट" का बोध होता है जो कि उन दोनों अक्षरों के अस्तित्व से पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। यदि भिन्न न माना जाय तो “घ” इतना कहने मात्र से ही "घट" का बोध हो जाना चाहिए। जिस प्रकार प्रत्येक पुष्प की दृष्टि से माला कथंचित् भिन्न है। उसी प्रकार क्रमापित "उभय-रूप-सत्त्वअसत्त्व", "सत्त्व" और "असत्त्व" को दृष्टि से कथंचित् भिन्न ही है । ___ अब कदाचित् यह कहें कि क्रम से योजित सत्त्व-असत्त्व उभय को अपेक्षा सह-योजित सत्व-असत्त्व इस उभय रूप (अवक्तव्य) का भेद कैसे सिद्ध हो सकता है ? तो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि क्रम से योजित कल्पना सह-योजित कल्पना से भिन्न है; क्योंकि पूर्व कल्पना में (तृतीय भंग में) पदार्थ को पर्यायें कम से कही जाती हैं। जबकि उत्तर कल्पना (चतुर्थ भंग) में उन पर्यायों का युगपत् कयन है। यदि दोनों में भेद न माना जाय तो उनमें पूनरुक्ति दोष आ जायेगा; क्योंकि एक वाक्यजन्य जो बोध है उसी बोध का जनक यदि दूसरा वाक्य भी हो तो वहाँ पुनरुक्ति दोष हो जाता है। परन्तु यहाँ पर क्रम से योजित तृतीय भंग है और अक्रम से योजित चतुर्थ भंग है। अतः तृतीय और चतुर्थ भंग से उत्पन्न ज्ञानों में समानाकारता नहीं है। अब चूंकि दोनों भंगों में पुनरुक्ति दोष नहीं है। साथ ही दोनों भंगों से उत्पन्न ज्ञान भी भिन्न-भिन्न है । अतः दोनों भंग पृथक्-पृथक् हो हैं। ___इसी प्रकार यदि ऐसा कहा जाय कि जिस प्रकार अस्ति विशिष्ट नास्ति नामक तीसरा भंग बनता है और उसमें यदि अस्ति की प्रधानता है तथा एक नया ज्ञान प्रदान करता है तो वहीं पर एक दूसरा नास्ति विशिष्ट अस्ति भंग भी बन सकता है जो कि एक नया ज्ञान प्रदान करेगा। उदाहरण-स्वरूप यदि अस्ति विशिष्ट नास्ति भंग यह कहता है कि मोहन भारत में है पर लन्दन में नहीं है, तो इसी प्रकार नास्ति विशिष्ट अस्ति भंग एक नया ज्ञान देता है कि मोहन घर नहीं है पर वह भारत में ही है। ऐसा नहीं है कि वह घर में नहीं है तो भारत में भी नहीं है। अतः Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १५९ यह भंग भी एक नया ज्ञान प्रदान कर रहा है। तब सप्तभंगी सप्तभंगो ही नहीं; बल्कि उसे नवभंगी होना चाहिए। परन्तु यहाँ यह भी कहना सर्वथा अनुचित है; क्योंकि “स्यान्नास्ति चास्ति' एक नया भंग नहीं हो सकता; क्योंकि वाक्य को नास्ति से शुरू करने पर अस्ति का कोई निश्चयात्मक रूप नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-यह टेबुल नहीं है पर यह क्या है इसकी जिज्ञासा बनी हो रहती है। अर्थात् 'यह टेबुल नहीं है" इस कथन से यह निश्चय नहीं हो पाता कि वह क्या है। लेकिन “यह टेबुल है" ऐसा कहने से यह निश्चय हो जाता है कि यह क्या नहीं है । जैसे यह घोड़ा नहीं है, हाथी नहीं है आदि-आदि। इसके साथ ही, एक दूसरी बात यह भी है कि वाक्य को स्यान्नास्ति से शुरू करने पर ऊपर के क्रम का विरोध होता है। सप्तभंगी को अस्ति-नास्ति के एक क्रम में हो रखा गया है। इसीलिए प्रारम्भ में भी अस्ति के बाद ही नास्ति भंग आया है । अतः उसे उसी क्रम में रखना आवश्यक है और "यह नहीं है इसलिए है" उसके क्रम के विपरीत है। इस प्रकार "स्यान्नास्ति च अस्ति" को कल्पना नहीं को जा सकतो है। अतः सप्तभंगी, सप्तभंगी ही रहेगी अष्टभंगी या नवभंगी नहीं। चतुर्थ भंग ___ "स्यादवक्तव्येव" यह सप्तभंगो का चौथा मौलिक भंग है। यह वस्तु के उस स्वरूप का विवेचन करता है जिसके प्रतिपादन में क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग असमर्थ रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वस्तु-स्वरूप का कथन विधि पक्ष से किया जाता है तब उसका निषेध पक्ष शेष रह जाता है और जिस समय उसके निषेध पक्ष का प्रतिपादन होता है उस समय उसका विधि पक्ष छूट जाता है। इसके साथ ही जब तीसरे भंग से वस्तु के विधि एवं निषेध दोनों पक्षों का प्रतिपादन होता है तब वह भी क्रमशः या क्रम रूप से ही हो पाता है। किन्तु जब वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों पक्षों के एक काल में युगपत् कथन की विवक्षा होती है तब वाणो असमर्थ हो जाती है । वाणो की शक्ति तो इतनी सीमित है कि वह वस्तु के सभी भावात्मक या सभी निषेधात्मक विधेयों का ही कथन एक साथ नहीं कर सकती है। वाणो को इसी असमर्थता को अभिव्यक्त करने के लिए सप्तभंगी में अवक्तव्य भंग को योजना है । अवक्तव्य भंग यह स्पष्ट करता है कि वस्तु को वक्तव्यता क्रम से ही संभव है युगपत् Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या रूप से नहीं; क्योंकि भाषा में कोई भी ऐसा क्रियापद नहीं है जो अस्तित्व और नास्तित्व का युगपत् वाचक हो । जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और अनन्तधर्मात्मक वस्तु के प्रत्येक धर्म का सूचक भी भिन्न-भिन्न शब्द होता है जैसे "लालिमा" का "लाल", "कालिमा" का "काला" इत्यादि । यद्यपि अनन्त वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों को सम्बोधित करने वाले भाषा में अनन्त-अनन्त शब्द नहीं हैं । तथापि यदि शब्द संयोग से अनन्त वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों के सूचक भिन्न-भिन्न शब्द प्रतीक बनाये जायें तो उन अनन्त अनन्त गुण-धर्मों का भी वाचन सम्भव हो जायेगा। किन्तु हमारी भाषा में कोई ऐसा शब्द नहीं बन सकता जो वस्तु के अनन्त गुण-धर्मों को एक साथ युगपत् रूप से अभिव्यक्त कर सके; क्योंकि भाषा के प्रत्येक शब्द के द्वारा एक-एक गुण-धर्म का ही वाचन संभव है। इसलिए जब दो या दो से अधिक धर्मों के एक साथ प्रतिपादन की विवक्षा होती है, तब शब्द असमर्थ हो जाता है। शब्द की इसी असमर्थता को प्रकट करने के लिए जैन-दर्शन में अवक्तव्य का विधान है। एक अन्य बात यह है कि वस्तु के सम्पूर्ण धर्म एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं। इसलिए उन परस्पर भिन्न धर्मों के प्रतिपादक शब्द भी परस्पर भिन्न हैं। साथ ही, भाषा में कोई ऐसा उभयात्मक शब्द नहीं है जो वस्तु के उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त कर सके । इसलिए भी जब उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा होती है तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना आवश्यक हो जाता है। अवक्तव्य के इसी आशय का प्रतिपादन करते हुए "श्लोकवार्तिक' में कहा गया है-"जब शुक्ल और कृष्ण वर्ण परस्पर भिन्न हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता । जिससे एक शब्द से कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणों का युगपत् वाचक नहीं हो सकता । यदि ऐसा मानेंगे तो सत् शब्द सत्त्व की तरह असत्त्व का भी कथन करेगा तथा असत् शब्द सत्त्व का । पर ऐसी लोकप्रतीति नहीं है; क्योंकि प्रत्येक धर्म के वाचक शब्द जुदा-जुदा हैं । इस तरह कालादि दृष्टि से युगपत् भाव की संभावना नहीं है तथा उभयवाची कोई एक शब्द है नहीं।"' इसका तात्पर्य यह है कि शब्द १. यथा शुवलरूपव्यतिरिक्तौ"""शुक्ल कृष्णौ गुणौ असंसृष्टौ नैकस्मिन्नर्थे सहवर्तितु समर्थो अवधृतरूपत्वात्, अतः ताभ्यां संसर्गाभावात् एकान्तपक्षे न Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १६१ एक काल में एक ही गण-धर्म का वाचक हो सकता है दो या दो से अधिक अनन्त गुण-धर्मों का नहीं। "सप्तभंगीतरंगिणी" में भी कहा गया है"सभी शब्द एक काल में ही प्रधानता से सत्त्व और असत्त्व दोनों का युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते; क्योंकि उस प्रकार प्रतिपादन करने की शब्द में शक्ति नहीं है; क्योंकि सभी शब्दों में एक ही पदार्थ को विषय करना सिद्ध है।"१ अतः जो सत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म के द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व, उभय धर्म से अवाच्य है।"२ इससे यह स्पष्ट है कि कालक्रम से वस्तु के अस्ति, नास्ति आदि धर्म पृथक्-पृथक् रूप से किसी उद्देश्य के विधेय भले ही बन जाय, पर युगपत् रूप से किसी उद्देश्य का विधेय बनना असम्भव ही है। यही शब्द की असमर्थता है, वाणी की निरीहता है। इसी को अभिव्यक्त करना अवक्तव्य का उद्देश्य है । पुनः श्लोकवार्तिक में इसे स्पष्ट किया गया है-"जब दो प्रतियोगी गुणों के द्वारा अवधारण रूप से युगपत् एक काल में एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है। क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है ।"३ युगपदभिधानयस्ति अर्थस्य तथा वर्तितुं शक्त्यभावात्""न चैकः शब्दो द्वयोर्गुणयोः सहवाचकोऽस्ति । यदि स्यात् सच्छब्दः स्वार्थवदसदपि सत् कुर्यात् असच्छन्दोऽपि स्वार्थवत् सदपि असत्कुर्यात्, न च तथा लोके संप्रत्ययोऽस्ति तयोविशेषशब्दत्वात् । एवमुक्तात् कालादियुगपदभावासंभवात् । शब्दस्य च एकस्य उभयार्थवाचिनोऽनुपलब्धेः अवक्तव्य आत्मा ।" -श्लो० वा० २।१।६।५६।४७७।६ । १. सर्वोऽपि शब्दः प्रधानतया न सत्त्वासत्त्वे युगपत्प्रतिपादयति, तथा प्रतिपादने शब्दस्य शक्त्यभावात्, सर्वस्य पदस्यैकपदार्थविषयत्वसिद्धेः" । _सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ६० । २. "अयं खलु तदर्थः, सत्त्वाद्ये कैकधर्ममुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभूत सत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम् ।" वही, पृ० ७०। ३. “सदसत्त्व उच्येयाताम् । न च सम्बन्धतोऽभिन्नता गुणानां संभवति भिन्नत्वात् सम्बन्धस्य ।" श्लोकवार्तिक, २।१।६।५६।४७७६ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार अवक्तव्य का मूलार्थ है युगपत् कथन में भाषा की असमर्थता, अशक्यता, निरीहता व विवशता को स्पष्ट करना । किन्तु प्रश्न यह है कि सप्तभंगी का अवक्तव्य वस्तु के किन्हीं दो धर्मों के युगपत् कथन की अशक्यता को प्रकट करता है या दो से अधिक अनन्त धर्मों अर्थात् वस्तु के समग्र स्वरूप के युगपत् विवेचन को अशक्य बताता है ? यहाँ आकर दार्शनिकों के विचार परस्पर भिन्न हो जाते हैं । कुछ विचारकों के अनुसार अवक्तव्य अस्ति-नास्ति रूप दो धर्मों के युगपत् कथन को अशक्य कहता है तो कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह वस्तु के समग्र स्वरूप के निर्वचन को असम्भव बताता है। किन्तु कुछ लोगों ने इसके उक्त दोनों ही रूपों को स्वीकार किया है और उसके आधार पर अवक्तव्य के तीन से लेकर छ: अर्थ तक प्रस्तुत किये गये हैं। इस संदर्भ में डॉ० पद्मराजे का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने अवक्तव्य के अर्थ-विकास की दृष्टि से उसकी चार अवस्थाओं का निर्देश किया है : (१) वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व के कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्ष का निषेध है। (२) औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत्-असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे "तदेजति तन्नजति", "अणोरणीयान् महतो महीयान्”, “सदसद्वरेण्यम्", आदि । यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति है। ___ (३) वह दृष्टिकोण, जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेशीय या अनिर्वचनीय माना गया है। यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है। जैसे “यतोवाचोनिवर्तन्ते", "यद्वावाक्युदित्य", "नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यः" आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्कोटि विनिमुक्त तत्त्व की धारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (४) यह दृष्टिकोण जैन-न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। इस प्रकार डॉ० पद्मराजे ने अव्यक्तव्य की उपर्युक्त चार अवस्थाओं को स्वीकार किया है। इन्हीं चार अवस्थाओं के आधार पर डॉ० सागरमल जैन ने अवक्तव्य के निम्नलिखित छ: अर्थ का प्रतिपादन किया है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी (१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना । (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना । (३) सत्, असत्, सदसत् (उभय ) और न सत् न असत् ( अनुभय) चारों का निषेध करना । १६३ (४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभव में आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता । (५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना । किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना । (६) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं उतने वाचक शब्द नहीं हैं । अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना ।' किन्तु सप्तभंगी के सन्दर्भ में अवक्तव्य के उपर्युक्त सभी अर्थ मान्य नहीं हो सकते । यद्यपि यह अवक्तव्य की एक नवीन ढंग से व्याख्या का प्रयास अवश्य है । परन्तु उसके उक्त सभी रूपों को अस्ति नास्ति रूप दो धर्मों को लेकर चलने वाली सप्तभंगी के अवक्तव्य पर आरोपित करने पर उसके मूल उद्देश्य की उपेक्षा हो जाती है; क्योंकि यदि उसके भी विभिन्न अर्थ होने लगेंगे तो निश्चय ही सप्तभंगी का एक निश्चित रूप नहीं बन सकेगा । फलस्वरूप सप्तभंगी संशयात्मक बन जायेगी । जबकि उसमें संशयात्मकता का लेशमात्र भी समावेश नहीं है । यद्यपि यह सत्य है कि सप्तभङ्गियाँ भी अनेक हो सकती हैं और उन अनेक सप्तभंगियों के आधार पर अनेक अवक्तव्य हो सकते हैं, अर्थात् अवक्तव्य के विभिन्न रूप हो सकते हैं । किन्तु सत् और असत् अर्थात् अस्ति और नास्ति रूप दो धर्मों को लेकर जो सप्तभंगी चलती है उसका अवक्तव्य अन्य सभी सप्तभंगियों से भिन्न और विशिष्ट ही है । इसलिए इस अवक्तव्य का अर्थ अन्य अवक्तव्यों से भिन्न ही होगा । इसलिए अन्य अवक्तव्यों के अन्य रूपों का आरोपण नहीं किया जा सकता है । इसका पूर्णतः विचार न करने के कारण ही आदरfe सागरमल जी अवक्तव्य भंग का एक निश्चित रूप नहीं माने हैं । उन्होंने लिखा भी हैं - "मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं १. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४९ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या है, प्रथम तो " है" और "नहीं है" ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपत् (एक ही साथ) प्रतिपादन संभव नहीं है । अतः अवक्तव्य भंग की योजना है । दूसरे, निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन संभव नहीं है । अतः वस्तु अवक्तव्य हैं । तीसरे, अपेक्षायें अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपत् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है । इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा । " ठीक इसी प्रकार डॉ० मोहन लाल मेहता ने अवक्तव्य का निम्नलिखित तीन अर्थ प्रस्तुत किया है— (१) सत् और असत् दोनों का निषेध करना । (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना । (३) सत् और असत् दोनों को अक्रम से अर्थात् युगपत् स्वीकृत करना । जहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है वहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध समझना चाहिए । जहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है वहाँ सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध समझना चाहिए । यद्यपि यह सत्य भी है कि जैन दर्शन में अवक्तव्य के विभिन्न रूप हो सकते हैं । किन्तु वे सभी रूप उसके नवीन होंगे। प्राचीन रूप तो उसके दो ही बहुचर्चित हैं - (१) वस्तु के समग्र स्वरूप को अवाच्य कहना, और (२) वस्तु के किन्हीं दो धर्मों को युगपततः अव्याख्येय कहना । अवक्तव्य के इन दोनों ही रूपों का विवेचन जैनागमों में सर्वत्र प्राप्त होता है । डॉ० रामजी सिंह ने अवक्तव्य के इन स्वरूपों का विवेचन करते हुए कहा है- “वस्तु का स्वरूप कुछ इतना संश्लिष्ट एवं सूक्ष्म होता है कि शब्द उसके अखण्ड अन्तःस्थल तक नहीं पहुँच पाते हैं फिर भी उसका वर्णन तो किया ही जाता है । पहले अस्ति रूप वर्णन होता है किन्तु जब वहीं अपर्याप्तता और अपूर्णता प्रकट होती है तो उसका नास्ति रूप वर्णन होता है किन्तु फिर भी जब वस्तु की वास्तविक एवं अनन्त सीमा को वह छू नहीं पाता है तो अस्ति एवं नास्ति के युगपत् उभय रूप में वर्णन करने का प्रयास करता है । लेकिन फिर भी वह वस्तु की समग्र वास्तविकता का जब दर्शन नहीं कर पाता है तो वाणी की निरीहता, शब्द की अक्षमता एवं असमर्थता पर खींझकर उसे "अवक्तव्य", "अनिर्वचनीय", "अव्याकृत", "अगोचर”, १. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४९ । २. जैन धर्म - दर्शन, पृ० ३६० - ३६१ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्लभंगी १६५ "वचनातीत", आदि कह देता है या मौन धारण कर लेता है।"' पुनः उन्होंने अवक्तव्य के दूसरे अर्थ को प्रस्तुत करते हुए कहा है-"अवक्तव्य" का अर्थ अस्ति एवं नास्ति का युगपत् वर्णन करने की शाब्दिक अक्षमता है। दोनों अर्थों में वस्तुतत्त्व के स्वरूप-प्रकाशन में वाणी की असमर्थता को ही "अवक्तव्य" कहा जायेगा, लेकिन पहले अर्थ में "अवक्तव्य" वाणी सामान्य एवं व्यापक असमर्थता है, अन्तिम अर्थ में "अवक्तव्य" दो धर्मों को युगपत् नहीं कह सकने की दृष्टि" ।२ यद्यपि इन दोनों अवक्तव्यों के भी मूल में युगपतता ही अभिप्रेत है तथापि ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं एक सामान्य है तो दूसरा विशेष; एक समष्टि है तो दूसरा व्यष्टि । इतना ही नहीं, जैन-दर्शन के अनुसार वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप को लेकर जितने भी अवक्तव्य बनेंगे वे सभी एक दूसरे से भिन्न होंगे। इसलिए अस्ति और नास्ति रूप धर्मों से बनने वाली सप्तभंगी में प्रयुक्त अवक्तव्य अन्य सभी अवक्तव्यों से भिन्न है। इसलिए इस अवक्तव्य के विभिन्न अर्थ नहीं हो सकते हैं। चाहे वह तीसरे स्थान पर हो या चौथे स्थान पर हो, किन्तु उसके अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। वह हमेशा अस्ति और नास्ति के सहार्पण की असमर्थता को ही अभिव्यक्त करता है। प्रो० महेन्द्र कुमार जैन ने इसे अन्य समस्त अवक्तव्यों से विशिष्ट और एक अर्थवाला सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है "अवक्तव्य भंग के दो अर्थ होते हैं एक तो शब्द की असामर्थ्य के कारण वस्तु के अनन्तधर्मा स्वरूप को वचनागोचर, अतएव अवक्तव्य कहना और दूसरा विवक्षित सप्तभंगी में प्रथम और द्वितीय भंगों के युगपत् कह सकने की सामर्थ्य न होने के कारण अवक्तव्य कहना । पहले प्रकार में वह एक व्यापक रूप है जो वस्तु के सामान्य पूर्ण रूप पर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दृष्टि से होने के कारण वह एक धर्म के रूप में सामने आता है अर्थात् वस्तू का एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी, जो शेष धर्मों के द्वारा प्रतिपादित होता है । यहाँ तक कि "अवक्तव्य' शब्द के द्वारा भी उसी १. दार्शनिक त्रैमासिक वर्ष १८, अंक २, अप्रैल १९७२, पृ० ११३ । २. वही। ३. जैन-दर्शन, पृ० ३७६ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या का स्पर्श होता है। दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दष्टि से जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह तत्तत् सप्तभंगियों में जुदा-जुदा ही है, यानी सत् और असत् को युगपत् न कह सकने के कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक भंग से जुदा होगा। अवक्तव्य और वक्तव्य को लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमें का अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्य को युगपत् न कह सकने के कारण ही फलित होगा, वह भी एक धर्म रूप ही होगा । सप्तभंगी में जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मों के युगपत् कहने की असामर्थ्य के कारण फलित होने वाला ही विवक्षित है। वस्तु के पूर्णरूप वाला अवक्तव्य भी यद्यपि एक धर्म ही होता है, पर उसका इस सप्तभंगी वाले अवक्तव्य से भेद है। उसमें भी पूर्णरूप से अवक्तव्यता और अंशरूप से वक्तव्यता की विवक्षा करने पर सप्तभंगी बनायी जा सकती है। किन्तु निरुपाधि अनिर्वचनीयता और विवक्षित दो धर्मों को युगपत् कह सकने की असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यता में व्याप्य-व्यापक रूप से भेद तो है ही।" इस प्रकार यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि विवक्षित सप्तभंगी में जो अवक्तव्य है वह जैन-दर्शन में अभिकल्पित समस्त अवक्तव्यों से भिन्न और विशिष्ट है। वह वस्तु के अस्ति और नास्ति रूप दो और केवल दो धर्मों के युगपततः प्रतिपादन की अशक्यता को स्पष्ट करता है। इसलिए विभिन्न अपेक्षाओं, स्थान परिवर्तनों व वस्तु के समग्र स्वरूप के आधार पर उसका विभिन्न अर्थ करना युक्ति संगत नहीं है। जैन-ग्रन्थों में भी तो जहाँ-जहाँ उक्त सप्तभंगी की व्याख्या है। वहाँ-वहाँ भी अवक्तव्य के यही अर्थ प्राप्त होते हैं । तब उसे विभिन्न अर्थवाला ठहराना कहाँ तक उचित है ? स्याद्वादमंजरी में कहा गया है-"एक वस्तु के अस्तित्व-नास्तित्व दो धर्मों के युगपत् प्रधानता से अर्पित करने वाले शब्द के अभाव से जीवादि वस्तु अवक्तव्य हैं।"१' 'सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरण" में भी यही कहा गया है कि युगपत् विधि-निषेध की कल्पना करने वाला स्यादवक्तव्य यह चौथा भंग है। यह भंग वस्तु के सत् अंश और असत् अंश दोनों की एक काल १. द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्व धर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयार्पिताभ्याम् एकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्यासम्भवाद् अवक्तव्यं जीवादिवस्तु ।" -स्याद्वादमंजरी, श्लोक २३ की टीका । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी में प्ररूपणा का निषेधक है । जैसे एक पदार्थ के विधि-प्रतिषेध रूप धर्मों के युगपत् भाव की प्रधानता से युगपत् विधि-निषेध दोनों धर्मों के वाचक शब्द के अभाव से घटादि वस्तु अवक्तव्य है।" सप्तभंगीतरंगिणी भी अवक्तव्य के इसी अर्थ का प्रतिपादन करती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि विवक्षित सप्तभंगी में प्रयुक्त अवक्तव्य एक निश्चित अर्थवाला है और वह है अस्ति और नास्ति रूप दो धर्मों को युगपततः अव्याख्येय कहना। पंचम भंग ___ यह सप्तभंगी का पांचवाँ भंग है। इसमें प्रथम और चतुर्थ भंग का संयोग है । इसका अर्थ है सापेक्षतः"है और अवक्तव्य है। यह भंग वस्तु के भावात्मक स्वरूप के साथ ही उसके युगपत् भाव का भी प्रतिपादन करता है; अर्थात् कथन के प्रथम समय में वस्तु-स्वरूप की अस्तिरूपता एवं द्वितीय समय में उसके युगपत्भाव का विवेचन करना पाँचवें भंग का लक्ष्य है। इस भंग का लक्षण करते हुए कहा गया है- “घट आदि रूप धर्मी विशेष्यक और सत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्यत्व, यह इस भंग का लक्षण है। अर्थात् जिस ज्ञान में घट आदि धर्मी पदार्थ विशेष्य हों, और सत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषणीभूत हो ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करने वाला वाक्यत्व, यही पंचम भंग का लक्षण है; क्योंकि इस भंग में द्रव्यत्व की योजना से तो अस्तित्व और एक काल में ही द्रव्य पर्याय दोनों को मिलाकर योजना करने से अवक्तव्यत्व रूप विवक्षित है। सप्तभंगीनयप्रदीपप्रकरण में कहा गया है कि सत् अंश पूर्वक युगपत् सत् १. स्यादवक्तव्य (मेवेति) युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थ इति सदंशाऽसदंशयोईयोः समकाल प्ररूपणानिषेध प्रधानोऽयं भङ्गः, तथाद्वा विधिप्रतिषेधधर्मयोर्युगपत्प्रधान भूतयोरेकस्य पदार्थस्य युगपद्विधिनिषेधद्वय इति प्रधान विधानविवक्षायां तादृक्शब्दस्या ( भावना ) निर्वचनीयात्वादवक्तव्यं घटादि वस्तु ।" -सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरणम्, पृ० १६ । २. "घटादिरूपैकर्मिविशेष्यकसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षम् । तत्र द्रव्यार्पणादस्तित्वस्य युगपद् द्रव्यपर्यायार्पणादवक्तव्यत्वस्य च विवक्षितत्वात् । -सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ७१ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या असत् अंश अनिर्वचनीय कल्पना प्रधान यह पांचवां भंग है "स्यादस्त्येव के द्वारा स्वद्रव्यादि चतुष्टय की दृष्टि से अस्तित्व विशेष का प्रतिपादन होता है और "स्यादवक्तव्यम्" के द्वारा युगपत् प्रधान भाव की अपेक्षा सत् अंश पूर्वक अनिर्वचनीय स्वरूप विशेष का प्रतिपादन होता है।' षष्ठ भंग "स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्व" यह सप्तभंगी का छठवाँ भंग है। इसमें द्वितीय और चतुर्थ भंग का संयोग है। इसमें वस्तुतत्त्व के नास्तित्व पक्ष की प्रधानता के साथ उसके समग्र स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे "स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च अश्वः" अर्थात् सापेक्षतः अश्व नास्ति रूप है और अवक्तव्य है। कहने का तात्पर्य यह है कि अश्व में अश्वेतर धर्मों का अभाव है पर उसका युगपत् स्वरूप अवक्तव्य है। मात्र इसी भाव को अभिव्यंजना यह भंग करता है। सप्तभंगीतरंगिणी में इसका लक्षण करते हुए कहा गया है कि ऐसे ही पृथक भूत पर्याय और मिलित द्रव्यपर्याय का आश्रय करके "स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्व घटः" किसी अपेक्षा से घट नहीं हैं तथा अवक्तव्य है, इस षष्ठम् भंग की प्रवृत्ति होती है। इसका लक्षण है घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष का असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व वाले ज्ञान को उत्पन्न करना।२ अर्थात् जिस ज्ञान में घट आदि पदार्थ विशेष्य हों और असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व उसका विशेषण हो ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करने वाला वाक्य षष्ठ भंग है। पर पर्यायों की अपेक्षा से नास्तित्व और मिलित द्रव्यपर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्यत्व, ये दोनों इस भंग में विवक्षित हैं। तात्पर्य यह है कि इस भंग में नास्तित्व धर्म मुख्य और उभयात्मक धर्म गौण है। सप्तम भंग "स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्यश्च" यह सप्तभंगी का सातवाँ भंग और १. सप्तभङ्गी-नय-प्रदीपप्रकरणम्, प्रथम सर्ग । २. तथा व्यस्तं पर्यायं समस्तौ द्रव्यपर्यायौ चाश्रित्य स्यानास्ति चावक्तव्य एव घट इति षष्ठः । तल्लक्षणं च घटादिरूपैकर्मिविशेष्यकनास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वम् । -सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ७२ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १६९ अन्तिम भंग है। इसमें ततीय और चतुर्थ भंगों का संयोग है। इस भंग के द्वारा वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व और उभय रूप अवक्तव्यत्व पक्षों का कथन एक साथ किन्तु क्रमशः किया जाता है। यह भंग यह सूचित करता है कि जो वस्तु स्व द्रव्य की दष्टि से अस्तित्व धर्मयक्त है और पर द्रव्य की दृष्टि से नास्तित्व धर्मयुक्त है। वही स्व-पर दोनों द्रव्यों की दृष्टि से अवक्तव्यत्व धर्मयुक्त है; यही बात इस प्रकार से भी कही जा सकती है कि जो वस्तु किसी द्रव्यार्थ विशेष की अपेक्षा से 'अस्तित्व" धर्मयक्त है और किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा से "नास्तित्व" धर्मयुक्त है वही द्रव्यपर्याय युगपत् की विवक्षा से अवक्तव्य भी है। इस प्रकार यह भंग अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्यत्व का क्रमरूपेण वाचकत्व का सूचक हैं। सप्तभंगीतरंगिणी में कहा गया है कि अलग-अलग क्रम से योजित तथा मिलित रूप अक्रम-योजित द्रव्य-पर्याय का आश्रय करके "स्यात् अस्तिनास्ति च अवक्तव्यश्च घटः" भंग की प्रवृत्ति होती है । इसका लक्षण है घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष का सत्त्व, असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषण वाले ज्ञान को उत्पन्न करना।' अर्थात् जिस ज्ञान में घट आदि कोई एक पदार्थ तो विशेष्य हो और सत्त्व, असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषण हो ऐसा जो ज्ञान है उस ज्ञान को उत्पन्न करना इस भंग का लक्षण है। इस प्रकार क्रमशः सत्त्व, असत्त्व और युगपततः सत्त्व-असत्त्व रूप अवक्तव्यत्व को अभिव्यक्त करना इस भंग का लक्ष्य है। इस प्रकार सप्तभंगी के सातों भंग एक दूसरे से भिन्न तथा नवीनतथ्यों का प्रकाशन करने वाले हैं ऐसा उपर्युक्त विवेचन से प्रतिफलित होता है। इस आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि सप्तभंगी के सातों भंगों का अपना अलग अलग मूल्य है; और उस मूल्यता के कारण इसे सप्तमूल्यात्मक कहा जा सकता है। जिसका विस्तृत विवेचन हम अग्रिम अध्याय में करेंगे। १. एवं व्यस्तौ क्रमापितौ समस्तौ सहार्पितौ च द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्य एव घट इति सप्तमभंगः । घटादिरूपैकवस्तुविशेष्यकसत्त्वासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् ।” -ससभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ७२ । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी: एक मूल्यांकन सप्तभंगी का प्रतीकात्मक स्वरूप आधुनिक तर्कविदों का मन्तव्य है कि जैन-सप्तभंगी को तार्किक प्रारूप प्रदान करने का श्रेय जैनाचार्य विद्यानन्द को है। उन्होंने सर्वप्रथम सप्तभंगी को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया था' : (१) विधि कल्पना, (२) प्रतिषेध कल्पना, (३) क्रमशः विधि-प्रतिषेध कल्पना, (४) युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना, (५) विधि कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना, (६) प्रतिषेध कल्पना और युगपत् विधि प्रतिषेध कल्पना, (७) क्रमशः और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । स्पष्ट है कि श्री विद्यानन्द ने सप्तभंगी के मूल में केवल दो भंगों को स्वीकार किया है। शेष पांचों भंग उक्त दोनों भंगों की व्याख्या मात्र हैं। किन्तु इसके विपरीत कुछ ताकिकों का विचार है कि सप्तभंगी के मूल में केवल एक ही भंग है दूसरा भंग तो उसी का निषेधक है। इस सन्दर्भ में डॉ० (श्रीमती) आशा जैन का विचार द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है"किन्तु जैन तार्किक को यह ज्ञात न हो सका कि प्रतिषेध भी वास्तव में उसी प्रकार का तार्किक फल है जैसे क्रमभाव और युगपत् भाव । अतः यदि उनके ताकिक फलन पर विचार किया जाय तो वास्तव में मूल भंग एक ही है और वह है विधि कल्पना। अन्य भंग इसी प्रथम भंग के तार्किक फलन से सिद्ध हो जाते हैं। अतः "अस्ति" को मूलभंग मानना समीचीन १. अष्टशती, पृ० १२५ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७१ है । “अस्ति" का तात्पर्य सत्ता का कथन जो "है" वह “है" । इस "है" से निषेध का ज्ञान हो जाता है । भाव में अभाव गर्भित है । भाव के आधारपर अभाव को जाना जाता है "अस्ति" को जानना "नास्ति" को जानना है। वस्तु के स्वचतुष्टय की व्याख्या में निषेध की व्याख्या निहित है; क्योंकि उसका चतुष्टय दूसरी वस्तु के चतुष्टय से पृथक् है। उसका अस्तित्व उसके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे है जो "पर" के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पृथक् है । यह पृथक् भाव ही निषेध का मूल रूप है।'' यद्यपि यह सत्य है कि भाव-अभाव सत्-असत्, अस्ति-नास्ति आदि एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं। जो स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तिरूप है वही पर-चतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति रूप है। परन्तु यह व्याख्या वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता के दृष्टिकोण से तो ठीक है । लेकिन यह सप्तभंगी के अस्ति-नास्ति भंग के सन्दर्भ में ठीक नहीं है। सप्तभंगी के अस्ति-नास्ति में मुख्यता और गौणता का भेद है। जहाँ अस्ति भंग में अस्तित्व धर्म प्रधान है वहीं नास्ति भंग में नास्तित्व धर्म प्रधान है। यदि अस्ति भंग से ही नास्ति-भंग का भी बोध हो तो नास्ति भंग की निरर्थकता सिद्ध होगी। जब कि अस्ति और नास्ति को पृथक-पृथक् और सार्थक रूप में स्वीकार किया गया है । वस्तुतः अस्ति और नास्तिभंग का उद्देश्य अलग-अलग है । इसलिए अस्ति भंग से ही नास्ति भंग का भी बोध होता है, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। सप्तभंगीतरंगिणी में इस प्रश्न पर कि "स्यादस्त्येव" भंग, "स्यानास्त्येव भंग" से कथंचित् भिन्न ही है; विस्तृत रूप से विचार किया गया है। उसमें कहा गया है-"प्रथम भंग में अर्थात् "स्यादस्त्येव घट:' सत्त्व की प्रधानता से प्रतीति होती है तथा द्वितीय स्यान्नास्त्येव घटः" भंग में असत्त्व अर्थात् असत्ता की प्रतीति प्रधानता से है क्योंकि स्वरूप आदि अवच्छिन्न सत्त्व है और पररूप आदि अवच्छिन्न असत्त्व पदार्थ, यहाँ सत्त्व-असत्त्व से विवक्षित है। इस प्रकार स्वरूपादित्व और पररूपादित्व इन दोनों अवच्छेदक धर्मों के भेद से सत्त्व तथा असत्त्व इनका भेद सिद्ध है। यदि ऐसा न हो तो स्व रूप के सदृश पर रूप से भी सत्त्व का प्रसंग हो जायेगा और इसी रीति से पर रूप के असत्त्व के तुल्य स्व रूप से १. 'जैन-तर्कशास्त्र और आधुनिक बहुमूल्यीय तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन" (शोध-प्रबन्ध) पृ० १४७-१४८ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी असत्त्व का प्रसंग हो जायेगा और अवच्छेदक भेद मानने से दोनों का भेद स्पष्ट ही हैं।'' इसलिए सत्त्व तथा असत्त्व धर्मों को अलग-अलग सूचित करने वाले भंगों अस्ति और नास्ति को पृथक्-पृथक् रूप में स्वीकार करना ही चाहिए। साथ ही, अस्ति भंग का जो सत्यता मूल्य है नास्ति भंग का उससे कम नहीं है। इसलिए सप्तभंगी के मूल में अस्ति भंग के साथ ही नास्ति भंग को भी स्वीकार करना चाहिए। एक अन्य बात यह भी है कि अस्ति भंग जिन धर्मों को सूचित करता है नास्ति भङ्ग भी उन्हीं धर्मों को सूचित नहीं करता। इसलिए उसे अस्ति भङ्ग का निषेधक नहीं कहा जा सकता और जब वह अस्ति भङ्ग का निषेधक नहीं है तब उसे भी मूल भङ्ग का स्थान प्राप्त होना ही चाहिए। इस प्रकार सप्तभङ्गी में मूल रूप से अस्ति-नास्ति दोनों भङ्ग स्वीकृत हैं। किन्तु इसके विपरीत श्रीमती आशा जैन ने अस्ति भङ्ग को ही सप्तभङ्गी का मूल भङ्ग मानकर, उसकी व्याख्या मानक तर्कशास्त्र (मॉडेल लॉजिक) के आधार पर करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है-"मान लीजिए कि हम "स्यात्" को एक यथार्थ माडल आपरेटर (आकारिक संयन्त्र) मानते हैं तो "स्यात्" को हम 0य कहेंगे। अब मान लीजिए कि "य" का मूल्य अनिरूपाख्य है तो 0य का भी मल्य अनिरूपाख्य होगा। फिर यदि हम oय का निषेध करते हैं तो वह "य" हो जाता है और ऐसी परिस्थिति में हम उसे "स्यात् न-य" कह सकते हैं। पुनः यदि "य", "Aय" है तो वह अवश्य सत्य है। इस प्रकार स्याद्वाद के प्रथम भङ्गों को निम्नलिखित रूप में रख सकते हैं (१) स्याद अस्ति - Aय (२) स्यान्नास्ति = य (३) स्यात् अवक्तव्य = oय १. प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतिः, द्वितीये पुनस्सत्त्वस्य""स्वरूपाद्य वच्छिन्नमसत्वमित्यवच्छेदकभेदात्तयोर्भेदसिद्धः। अन्यथा स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वप्रसङ्गात् । पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्वप्रसङ्गाच्च । सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ९-११ । २. जैन-तर्कशास्त्र और आधुनिक बहुमूल्यीय तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० १४७-१४८। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७३ इसके पश्चात् उन्होंने शेष भङ्गों को समुच्चय और विकल्प संयोजक के द्वारा निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है : (४) स्यादस्ति च नास्ति = AVOय (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यम् - AयV oय (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = AयV oय (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = AयVDEVoय स्पष्ट है कि उपर्युक्त प्रतीकीकरण में मानक तर्कशास्त्र का व्यवहार किया गया है। मानक तर्कशास्त्र के अनुसार संभाव्यता का प्रतीक है, आवश्यक सत्य तथा ० यथार्थ सत्य का प्रतीक है।' श्रीमती आशा जैन ने "स्यात्" पद को एक परिवर्तनीय परिमाणक मानकर उसका अनुवाद A, D, और 0, इन तीनों प्रतीकों में किया है। अब इन प्रतीकों से चिह्नित करने पर स्यादस्ति का अर्थ संभाव्य सत्य, स्यान्नास्ति का अर्थ आवश्यक सत्य और स्यादवक्तव्य का अर्थ यथार्थ सत्य होगा। पुनः श्रीमती आशा जैन ने सप्तभङ्गी के मूल में केवल एक ही भंग को माना है। इसलिए उन्होंने अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य इन तीनों को केवल "य" से परिभाषित किया है। मानक तर्कशास्त्र के अनुसार आवश्यक सत्य वह है जो अनिवार्य रूप से सत्य हो । संभाव्य सत्य का अर्थ है कि कथन सत्य भी हो सकता है और असत्य भी हो सकता है। इसी प्रकार यथार्थ सत्य यह अभिव्यक्त करता है कि कथन वास्तव में न तो सत्य है और न तो असत्य है प्रत्युत वह अनिर्णीत है अर्थात् यथार्थ सत्य कथन की अनिर्णेयता को प्रकट करता है। इस प्रकार इन्हीं अर्थों के आधार पर श्रीमती आशा जैन ने सप्तभंगी के प्रतीकात्मक स्वरूप का आशय निम्नलिखित रूप में प्राप्त किया है___"यदि हम "स्यात् य" को संभाव्य सत्य मानते हैं तो "स्यात् य", "स्यात् न य", "स्यात् यथार्थ य", "स्यात् य अथवा स्यात् न य", "स्यात् य अथवा यथार्थ य", "स्यात् न य अथवा यथार्थ य" और "स्यात् य स्यात् न य स्यात् 1. O P For P is necessary ( necessarily true ) A For P is possible ( Possibly true ) 0 P For P is actual ( actually true) -Nicholas Rescher, Many Valued Logic, p. 189. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या यथार्थ य" ये सात दृष्टियाँ बनती हैं। जिनका महत्त्व किसी भी भविष्य कथन के सन्दर्भ में देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए "मित्रा का गर्भस्थ बालक श्यामल होगा" इस कथन की सत्यता का विचार हम पहले संभाव्य सत्य, आवश्यक सत्य और फिर यथार्थ सत्य के रूप में करेंगे । तत्पश्चात् हम विकल्प के द्वारा इनका प्रयोग करेंगे और इस प्रकार संभाव्य सत्य अथवा आवश्यक सत्य का विकल्प प्राप्त करेंगे । ऐसे ही संभाव्य सत्य अथवा यथार्थ सत्य का विकल्प आवश्यक सत्य अथवा यथार्थ सत्य का विकल्प और अन्तत: संभाव्य सत्य आवश्यक सत्य अथवा यथार्थ सत्य का विकल्प प्राप्त करेंगे । इस प्रकार - (१) यह संभाव्य सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक श्यामल है । (२) यह आवश्यक सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक श्यामल नहीं है । (३) यह यथार्थ सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक इस समय अनिर्णीत वर्णवाला है । (४) यह आवश्यक सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक या तो श्यामल है या श्यामल नहीं है । (५) यह आवश्यक सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक श्यामल है या अनिर्णीत वर्णवाला है । (६) यह आवश्यक सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक या तो श्यामल नहीं है या अनिर्णीत वर्णवाला है । (७) यह आवश्यक सत्य है कि मित्रा का गर्भस्थ बालक या तो श्यामल है या श्यामल नहीं है या तो अनिर्णीत वर्णवाला है । "" इस प्रकार मानक तर्कशास्त्र के आधार पर स्याद्वाद की व्याख्या हो सकती है किन्तु यदि उपर्युक्त व्याख्या में स्याद्वाद हेतु मानक तर्कशास्त्र से केवल माडल (आकार) प्राप्त किया गया होता, और उस माडल की व्याख्या स्याद्वाद के अनुसार की गयो होतो तो शायद वह व्याख्या स्याद्वाद के बहुत ही निकट बैठती । परन्तु उपर्युक्त विवेचन में मानक तर्कशास्त्र से सप्तभंगी 1 १. जैन तर्कशास्त्र और आधुनिक बहु-मूल्योय तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० २०७-२०८ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७५ के लिए माडल प्राप्त कर उस माडल के आधार पर सप्तभंगी को प्रतीकीकृत करके पूनः उसकी व्याख्या मानक तर्कशास्त्र के आधार पर की गयी है जिसके कारण उसमें अनेक प्रकार का दोष आ गया है। सर्व प्रथम, मानक तर्कशास्त्र पूर्ण रूप से भविष्य कालीन संभाव्य पर निर्भर है जबकि स्याद्वाद नहीं। दूसरे, प्रथम अर्थात् स्यादस्ति भंग एक निश्चयात्मक एवं निर्णीत कथन है । वह जिस अस्तित्व धर्म का विवेचन करता है वह निश्चित रूप से वस्तु में है; क्योंकि उसी अस्तित्व धर्म की अपेक्षा से वस्तु की सत्ता है। इसलिए स्यादस्ति भंग को संभाव्य सत्य नहीं कहा जा सकता है। तीसरे, श्रीमती आशा जैन ने सप्तभंगी के मूल में सिर्फ एक भंग को मानकर उसके निषेध के रूप में स्यान्नास्ति भंग को स्वीकार किया है जो कि जैन विचारणा के विपरीत है। इसका विस्तार से विवेचन हमने पूर्व में किया है। चौथे, उपयुक्त विवेचन में भविष्यकालीन संभाव्य घटना का जो दृष्टान्त लिया गया है वह अवक्तव्य के सन्दर्भ में ठीक नहीं बैठती है; क्योंकि उपर्युक्त दृष्टान्त में जो भविष्य कालीन संभाव्य घटना है वह वास्तव में निर्णीत ही है। केवल उसके बारे में जानकारी का अभाव है। वह भी एक्सरे और श्राव आदि के जाँच के द्वारा प्राप्त की जा सकती है तब वह अनिर्णीत कहाँ है ? वह योगियों के लिए भी ज्ञेय है। वह केवल सामान्य व्यक्तियों के लिए ही अज्ञात है। वह यथार्थ कथन उक्त संभाव्य की वास्तविकता और अवास्तविकता पर विचार करता है जबकि अवक्तव्य के प्रश्न का सम्बन्ध कथन की वास्तविकता और अवास्तविकता से नहीं है अर्थात् अवक्तव्य का सम्बन्ध अस्ति-नास्ति की सत्यता-असत्यता से नहीं है यह उनकी वास्तविक स्थिति को निश्चित नहीं करता है प्रत्युत अस्ति-नास्ति के युगपत्भाव या एक साथ न कह सकने की असमर्थता को अभिव्यक्त करता है। अस्ति-नास्ति के युगपत् भाव वास्तविक है लेकिन उनके कहने की असमर्थता है। जबकि दिये हुए दृष्टान्त में, बालक का श्यामल होना या न होना भी निश्चित है। वास्तव में वह एक ही वर्णवाला है। लेकिन कहने के अर्थ में उसके कहने की असमर्थता का कोई बोध नहीं होता है। इसलिए उपयुक्त प्रतीक ठीक ढंग से नहीं बैठता है । वस्तुतः उपर्युक्त व्याख्या को युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि सप्तभंगी के मूल भंगों को छोड़कर शेष सभी भंग सांयोगिक प्रकथन ही हैं। किन्तु उनकी वह सांयोगिता तर्कशास्त्रीय संयोजन (कन्जंक्शन) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या है या वैकल्पिक (डिस्जन्क्शन) है अथवा इन सभी संयन्त्रों का संयोग है या इनमें से कोई नहीं है। इस बात का कोई ठोस निर्णय अभी तक तर्कविदों में नहीं हो पाया है। यही कारण है कि किसी ने सप्तभंगी को विकल्पात्मक या वैकल्पिक कथन माना है, तो किसी ने संयोजनात्मक कथन कहा है और किसी-किसी ने हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य माना है। प्रो० संगम लाल पाण्डेय ने संयोजन (कन्जन्क्शन) और वैकल्पिक (डिस्जक्शन)" दोनों ही संयन्त्रों का प्रयोग सप्तभंगी में एक साथ किया है। यद्यपि सप्तभंगी त्रि-मूल्यात्मक नहीं है। तथापि प्रो० पाण्डेय ने लुकासीविज़ के त्रि-मल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर ही सप्तभंगी की व्याख्या प्रस्तुत की है। जो इस प्रकार है : "यदि हम विकल्प की सत्यता-सारणी को लुकासीविज़ के तर्कशास्त्र से लें तो वह निम्न प्रकार की होगी सारिणी-१ ख/क क | ~क | । क / ख स अन् अ स । अ अन् । अन् अ | स अ । स स स __ अन् | स अन् अन् अ | स अन् अ जबकि (१) क और ख तर्कवाक्य हैं। (२) ~ निषेध का प्रतीक है। (३) v विकल्प का प्रतीक है। (४) स = सत्यता (५) अन् = अनभिलाप्यता (६) अ- असत्यता इस सारणी के अनुसार "क" और "ख" के नौ विकल्प हैं। इन नौ विकल्पों में से केवल वही विकल्प असत्य है जिनमें "क" और "ख" दोनों असत्य हैं। शेष सभी विकल्प या तो सत्य हैं या अनभिलाप्य हैं और विकल्प का नियम यह मानता है कि उसका सत्यता-मूल्य उसके अवयवों की अधिकतम सत्यता है । इस सारणी के अनुसार यदि हम स्याद्वाद की परीक्षा करें Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७७ तो पहले हमें सातों वाक्यों को प्रतीकों में रखना चाहिये । मान लीजिए पहला वाक्य "क" है तो दूसरा वाक्य "~ क" हुआ। तीसरा वाक्य "कV~क" हुआ । चौथा वाक्य "क~क" हुआ जबकि ^ युगपत् भाव का प्रतीक है। इसी प्रकार पांचवां वाक्य क v (क A ~ क) छठाँ वाक्य ~ कV (क A ~ क) सातवाँ वाक्य (क v ~ क) V (क A ~ क) इन सभी वाक्यों में से किसी को भी असत्य नहीं किया जा सकता। इनके प्रमाणीकरण में युगपत् भाव को भी सारणी निहित है जो यों हैं : सारणी-२ ख/क क |~ख । क I ख स अन् अ - - - - अन स स अन् अ । स अन् अ । अन् अन् अ अ अ अ जब कि (1) समुच्चय या युगपत्भाव का प्रतीक है और शेष प्रतीक प्रथम सारणी के ही अनुसार हैं। स्पष्ट है कि युगपत्भाव का नियम बताता है कि उसकी सत्यता का मूल्य उसके अवयवों की न्यूनतम सत्यता है । अब हम स्याद्वाद का प्रमाणीकरण उपर्युक्त दोनों सारणियों के आधार पर कर सकते हैं और देख सकते हैं कि सप्तभंगी का कोई भी भंग असत्य नहीं है । वह सत्य है या अनभिलाप्य है।' ___इनमें पूर्व में इस बात पर विचार किया गया है कि सप्तभंगी को त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है; क्योंकि त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र से सप्तभंगी की किसी भी प्रकार संगति नहीं बैठती है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सप्तभंगी के किस भंग को असत्य और किस भंग को अनभिलाप्य कहा जाय ? जब कि सप्तभंगी के सभी भंगों का सत्यता मूल्य सत्य है । उनमें से किसी भी भंग को असत्य नहीं कहा जा १. दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष २०, अङ्क ४, जुलाई १९७५, पृ० १७७ । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या सकता है । यद्यपि नास्ति भंग निषेधात्मक है तथापि वह असत्य (0) मूल्यवाला नहीं है। जबकि उपर्युक्त सारणियों में सभी विकल्प सत्य, असत्य और अनभिलाप्यता तीनों को लेकर ही बनते हैं। चूँकि सप्तभंगी में सत्य, असत्य और अनभिलाप्यता तीनों का एक साथ पाया जाना सम्भव नहीं है । इसलिए सप्तभंगी की तुलना त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र से करना युक्तिसंगत नहीं है। दूसरी बात यह है कि सप्तभंगी के सांयोगिक कथनों में संयोजन ही स्पष्ट परिलक्षित है। इसलिए उसे वैकल्पिक के द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। पुनः, सप्तभङ्गी के लिए एक दसरी सत्यता सारणी प्रस्तुत करते हुए डॉ० पाण्डेय ने कहा है कि सप्तभङ्गी के सातों कथनों की यह वह सत्यता सारणी है जिसमें प्रत्येक कथन का सत्यता मूल्य T या I है। इनमें तीन क्रियात्मक संयन्त्रों निषेधक (-), वैकल्पिक (V) और संयोजक (1) तथा उनकी वास्तविक ग्राह्यता को प्रदर्शित किया गया है। कल्पना कीजिए P एक कथन है, जिसका सत्यता मूल्य I है। अब P का निषेध (~P) भी I है। P और ~P का संयोजन भी I है और पुनः P और ~P का वैकल्पिक Pv~P भी I है। इस प्रकार सप्तभङ्गी के प्रथम चार कथन P,~P, PY~P और PA~P है और प्रत्येक का सत्यता मल्य I है। पाँचवाँ कथन प्रथम और चतुर्थ का संयोजन है, छठवाँ कथन चतुर्थ और द्वितीय का संयोजन और अंतिम सातवाँ कथन चतुर्थ और तीसरे का संयोजन है। इस प्रकार क्रमशः संयोजन के नियम के अनुसार इन तीन सांयोगिक कथनों का सत्यता-मूल्य I है, इसलिए सातों नयों की सारणी इस प्रकार है (१) P जहाँ PI है, (२) ~P जो कि I है, (३) PV~P जो कि I है, (४) PA~P जो कि I है, (५) PA (PN-P) जो कि I है। 1. "Nayavada and Many Valued Logic”. 'Seminar on Jain Logic and Philosophy 27th to 30th November 1975, Deptt. of Philosophy, Poona University Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७९ (६) ~PA (PA~P) जो कि I है, (७) (PA~P) A (PA ~P) जो कि I है । आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इस सारणी की प्रामाणिकता त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर सिद्ध की जा सकती है। उन्होंने लिखा है कि यदि हम नयों के तर्कशास्त्र को व्यवस्थित करें तो यह लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से प्रमाणित हो जाता है; क्योंकि (जिस प्रकार लुकासीविज़ का त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र मध्यपद परिहार के नियम और विरोधिता के नियम को नहीं मानता है। उसी प्रकार सप्तभङ्गी मध्यपद परिहार के नियम का खण्डन करती है; क्योंकि Pv~P जो कि आकारिक तर्कशास्त्र के नियम के अनुसार टाटालाजी नहीं है। इसका सत्यता मूल्य T और ~T है (किन्तु जैन सप्तभङ्गी इसे भी टाटालाजी मानती है इसके अनुसार यह भी सत्य ही है)। इसी प्रकार यह विरोधिता के नियम का भी खण्डन करती है। Pv~P जो कि आकारिक तकशास्त्र के नियम के अनुसार असत्य नहीं है लेकिन सत्य है। यह कल्पना करते हैं कि संघटकों के सत्यता मूल्यों के संयोजन का सत्यता-मूल्य असत्य और उनके वैकल्पिक का सत्यता-मूल्य असत्य होता है।' यद्यपि यह सत्य है कि जैन-सप्तभंगी तर्कशास्त्रीय विरोधिता के नियम और मध्यपद परिहार के नियम को नहीं मानती है। यह उसका खण्डन करती है, क्योंकि यह परस्पर विरोधी धर्मों का साथ-साथ रहना संभव मानती है। अर्थात् एक ही वस्तु में सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि परस्पर विरोधी गुण-धर्म अविरुद्ध भाव से विद्यमान रहते हैं, इस कथन को सप्तभंगी स्वीकार करती है। इसलिए सप्तभंगी के अनुसार इन धर्मों पर आश्रित एक ही कथन सत्य और असत्य दोनों हो सकता है। जबकि तर्कशास्त्र इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकता है। तर्कशास्त्र के व्याघातकता के नियम के अनुसार "अ","ब" और "अ-ब" नहीं हो सकता। जिस वस्तु का अभाव है उसका भाव नहीं हो सकता और जिसका भाव है उसका अभाव नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, कोई भी वस्तु एक साथ भाव रूप और अभाव रूप दोनों नहीं हो सकती है । इस प्रकार आधुनिक तर्कशास्त्र 1. "Nayavada and Many Valued Logic" 'Seminar on Jain Logic and Philosophy 27th to 30th November 1975, Deytt. of Philosophy, Poona University Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या वस्तु के भाव और अभाव दोनों रूप होने का विरोध करता है । उसके अनुसार जो सत्य है वह हमेशा सत्य ही रहेगा । इसी प्रकार जो असत्य है वह हमेशा असत्य ही रहेगा, उसमें सत्यत्व-असत्यत्व दोनों रूप कदापि नहीं आ सकता है; किन्तु इस तर्कशास्त्रीय नियम का खण्डन लुकासीविज़ ने एक भविष्य कालीन कथन को लेकर किया था । उन्होंने उस कथन के आधार पर एक तृतीय सत्यता - मूल्य की कल्पना की थी। जिसकी तुलना आज के तर्कविद् जैन - सप्तभंगी से करते हैं । जिसे किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता है; क्योंकि जैन-सप्तभङ्गी में सत्य और असत्य की अवधारणा पृथक्-पृथक् नहीं है । प्रत्येक भङ्ग सत्य और असत्य दोनों हो सकता है । इसलिए यदि इसकी तुलना का प्रयास लुकासीविज़ के त्रि मूल्यात्मक तर्कशास्त्र से करते हैं तो उसके केवल तृतीय सत्यता- मूल्य संभाव्यता से ही कर सकते हैं । लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता- मूल्य आधार पर सप्तभङ्गी के सभी भंगों को संभाव्य कहा जा सकता है । किन्तु किसी भंग को संभाव्य, किसी भंग को सत्य और किसी भंग को असत्य नहीं कहा जा सकता है । किन्तु इसके विपरीत प्रो० पाण्डेय सप्तभंगी की तुलना त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र से करने के बाद भी प्रत्येक भंग को सत्य ही कहते हैं । यद्यपि सप्तभंगी के प्रत्येक कथन सत्य है; क्योंकि वे सभी सापेक्षिक हैं । जैन- स्याद्वाद के अनुसार जो भी कथन सापेक्षिक होता है, वह सत्य हैं । इसलिए सप्तभंगी के प्रत्येक भंगों की सत्यता का कारण उसकी सापेक्षिकता है न कि संभाव्यता । वस्तुतः सप्तभंगी की तुलना संभाव्यता से करके प्रत्येक कथन को सत्य मूल्यवाला कहना ठीक नहीं है । दूसरा कारण यह है कि त्रि-मूल्यीय तर्क-शास्त्र से सप्तभंगी की तुलना करने पर मिश्रित कथनों का सत्यता - मूल्य चाहे जो भी हो, पर तीन मूल कथनों में से एक का सत्यता - मूल्य सत्य ( 1 ), दूसरे का असत्य (0) और तीसरे का संभाव्य सत्यता - मूल्म (1/2) अवश्य ही होना चाहिए; क्योंकि मिश्रित कथनों के सत्यता - मूल्यों को प्रथम भंगों के सत्यता- मूल्यों के आधार पर ही निर्धारित किया जाता है । परन्तु प्रो० पाण्डेय ने सप्तभंगी की तुलना त्रि मूल्यात्मक तर्कशास्त्र से करने के बाद भी उनके किसी भी भंग को असत्य और संभाव्य सत्यता - मूल्य वाला मानने को तैयार नहीं है । उन्होंने सप्तभङ्गी को त्रिमूल्यात्मक तो कहा है । परन्तु प्रत्येक भङ्ग के लिए सत्य (1) सत्यता मूल्य का ही प्रयोग किया है जो कि उचित नहीं है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगो : एक मूल्यांकन १८१ तीसरा कारण यह है कि जो प्रतीक प्रथम भंग को दिया जाय । पुनः उसी प्रतीक को दूसरे भङ्ग को भी देकर उसका निषेध किया जाय और प्रथम तथा द्वितीय दोनों भङ्गों को सत्य कहा जाय तो यह बात भी आत्मविरोधी प्रतीत होती है, क्योंकि यह तर्कशास्त्र के नियम के विपरीत तो है ही। साथ ही यह जैन-विचारणा को भी मान्य नहीं है। यद्यपि सप्तभङ्गी भी इसी तरह के नियम का प्रयोग करती है। परन्तु वह निषेध के रूप में इतर वस्तु का कथन करती है उसमें भी अस्पष्टता अवश्य है। परन्तु उस अस्पष्टता को पुनः-पुनः दोहराना उचित नहीं है। इसलिए दूसरे भंग के लिए किसी अन्य प्रतीक का प्रयोग करके उसके मूल उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहिए। जिसका उपर्युक्त प्रतीकीकरण में अभाव है। इसलिए उक्त व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है। इसी प्रकार सप्तभंगी का एक तीसरा प्रारूप भी प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि ये तीनों प्रारूप एक जैसे ही हैं किन्तु इसके प्रमाणीकरण में भिन्नभिन्न नियमों का प्रयोग किया गया है। इसलिए इन तीनों हो प्रतीकात्मक प्रारूपों का विवेचन अपेक्षित है। इस प्रतीकात्मक स्वरूप को अभिव्यक्त करते हुए प्रो० पाण्डेय ने कहा है कि स्याद्वाद नयवाद का एक प्रकार है और प्रमाणसप्तभङ्गी ही नयसप्तभंगी है। स्याद्वाद एक सत्य कथन है और प्रमाणसप्तभङ्गो सात सत्य कथनों को सारणी है जो निषेध, संयोग और विकल्प की क्रियाओं के द्वारा एक विधेयात्मक कथन से बनी है। उदाहरणार्थ हमें विचार करना चाहिए; यदि स्याद्वाद एक सत्य कथन है तो प्रमाणसप्तभङ्गी निम्नलिखित रूप में बनेगी (१) P ( P की अभिव्यक्ति ) (२) -P ( P का निषेध) (३) PV_P ( P और -P का वैकल्पिक ) (४) P-P ( P और-P का संयोग) (५) P• ( P..-P) ( पहले और चौथे का संयोग) (६) -P. ( P.-P) ( दूसरे और चौथे का संयोग) (७) ( PV-P ). ( PP ) तीसरे और चौथे का संयोग) तत्पश्चात् उन्होंने उक्त प्रतीकीकरण को सत्य साबित करने के लिए द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र का सहारा लिया है। उन्होंने कहा है-“कल्पना कीजिए कि P एक कथन के लिए प्रयुक्त होता है कि "गायें सफेद हैं" । अब Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या जैन कहेंगे कि इस सत्य कथन का सही आकार यह होगा कि "स्यात् गायें सफेद हैं । जहाँ "स्यात्" अर्थ विषयक परिमाणक है। लेकिन यह शब्द योजना सम्बन्धी परिमाणक को भी समाहित करता है और सत्तात्मक परिमाणक के रूप में समझा जा सकता है कि "स्यात्" पद से विशेषित कथन वैयक्तिक कथन होगा और वह सामान्य कथन नहीं होगा। अब एक विधायक या विधेयात्मक कथन को वैयक्तिक विधेयात्मक तर्कवाक्य या प्रकथन के रूप में लिया जा सकता है। इसलिए "स्यात् गायें सफेद हैं" एक (1) सत्य तर्कवाक्य है । "गायें सफेद हैं" का निषेध "स्यात् गायें सफेद नहीं हैं" जिसे एक (0) असत्य तर्कवाक्य के रूप में लिया जा सकता है।" "अब विरोधिता के नियम के अनुसार सत्य (1) और असत्य (0) तर्कवाक्यों में सम्बन्ध यह है कि सत्य (1) और असत्य (0) दोनो एक साथ सत्य हो सकता है। दोनों एक साथ असत्य नहीं हो सकता है। यदि (१) "स्यात् P" सत्य है तो (२) "स्यात्-P" भी सत्य हो सकता है, जिससे दोनों 1 और 0 एक साथ ही सत्य हो सकते हैं और वैकल्पिक एवं संयोजक के द्वारा हम क्रमशः (३) "स्यात् PV-P" और (४) "स्यात् (P-P) को भी सत्य कह सकते हैं; क्योंकि दोनों 1 और 0 एक साथ सत्य हो सकते हैं। इस प्रकार प्रमाणसप्तभंगी के प्रथम चार भंगों का सत्यता-मूल्य 'T' द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है। दूसरे तीन कथन पूर्व कथनों के संयोजन हैं। इसलिए वे भी सत्यता मूल्य 'T' के द्वारा प्रदर्शित किये जा सकते हैं । इस प्रकार प्रमाण सप्तभंगी के सातों कथन एक साथ सत्य हो सकते हैं। __ यद्यपि यह व्याख्या द्वि-मूल्योय तर्कशास्त्र के आधार पर तो ठीक है। परन्तु द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र का सप्त भंगी से कोई सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता है। इसलिए इस विवेचन में भी अनेक प्रकार को कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जिनमें से कुछ अधोलिखित हैं : (१) पहली कठिनाई यह है कि नास्ति भंग को असत्य तर्कवाक्य नहीं कहा जा सकता; क्योंकि असत्य तर्कवाक्य वह है जो विधायक तर्कवाक्य १. दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष २०, अङ्क ४, जुलाई १९७५, पृ० १७८ । २. वही। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८३ का निषेधक हो । किन्तु नास्ति भंग अस्ति भंग का निषेधक नहीं है। यह अस्ति भंग में कहे गये विषय से भिन्न विषय का कथन करता है। इसलिए इसे विधेयात्मक कथन के रूप में ही लिया जा सकता है, निषेधात्मक भंग के रूप में नहीं। यदि जैन आचार्य प्रथम भंग में "गाय श्वेत हैं" ऐसा कहकर नास्ति भंग में "गायें श्वेत नहीं हैं" ऐसा कहते तो निषेधात्मक या असत्य तर्कवाक्य बनता; किन्तु वे प्रथम भंग में “गायें श्वेत हैं" ऐसा कहने के पश्चात् "नास्ति भंग में “गायें काली नहीं हैं" ऐसा कहते हैं । इसलिए वहाँ असत् तर्कवाक्य नहीं बनता है। (२) दूसरी कठिनाई यह है कि जैनाचार्यों ने सप्तभंगी के मिश्रित कथनों को सांयोगिक कथन कहा है। इसलिए वे संयोजक कथन है न कि वैकल्पिक । थोड़ा ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भंगों में वैकल्पिक को नहीं घटाया जा सकता है जैसे स्यादस्ति च नास्ति का "किसी अपेक्षा से घट में घटत्व धर्म है और तदितर नहीं है" ऐसा अर्थ होता है न कि किसी अपेक्षा से या तो घट है या नहीं है। वस्तुतः उसे संयोजक कथन ही कहना चाहिए। (३) तीसरी कठिनाई यह है कि जब सप्तभंगी में निरपेक्षतः सत् और असत् सत्यता-मूल्य नहीं बनता है; तब उसकी तुलना द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से किस प्रकार की जा सकती है ? द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र तो दो ही (सत्य और असत्य) सत्यता-मूल्यों पर चलता है। इसलिए उसके आधार पर सप्तभंगी को प्रमाणित करने का प्रयास करना व्यर्थ है। यदि किसी तरह अस्ति भंग को सत् और नास्ति को असत् मान भी लिया जाय तो नास्ति भंग दुनयता को प्राप्त हो जायेगा ? जो कि जैन सिद्धान्त के विपरीत है। इसलिए उसे असत् या शून्य मूल्यवाला नहीं कहा जा सकता है। जैन विचारणा के अनुसार सत्यता और असत्यता अपेक्षा विशेष से प्रत्येक भंग में पायी जाती है। अतएव जैन-सप्तभंगी द्वि-मूल्यीय नहीं है। सन् १९७७ में सप्तभंगी के तार्किक स्वरूप के सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन ने एक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने उस लेख में यह प्रदर्शित किया था कि सप्तभंगी हेतुफलाश्रित है और उन्होंने हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर सप्तभंगी के प्रतीकात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया है। सप्तभङ्गी की प्रतीकात्मकता के सन्दर्भ में उनका यह लेख Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या द्रष्टव्य है-सप्तभङ्गी का प्रत्येक भङ्ग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभङ्गी में “स्यात् अस्ति" आदि जो सात भङ्ग हैं; वे कथन के तार्किक आकार मात्र हैं। उनमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (अफरमेटिव) और निषेधात्मक (निगेटिव) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं। किन्तु यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन को मान्य नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए जैन-दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आप में कोई कथन नहीं है; अपितु कथन के तार्किक आकार हैं। वे कथन के प्रारूप हैं, उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है। जैसे–स्यात् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्यात् आत्मा अस्ति तो ऐसे कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देंगे। आधनिक तर्कशास्त्र की दष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है, जिसे हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और सप्तभङ्गी में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। सप्तभङ्गी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है : अर्थ यदि""तो (हेतुफलाश्रित कथन) अथवा अन्तर्भूतता (इम्प्लीकेशन) अपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (और) युगपत्भाव (एक साथ) अनन्तत्व व्याघातक (विरुद्ध), निषेधक उद्देश्य विधेय न Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८५ भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति आउावित है। यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है। स्यात् नास्ति अ25 उावित नहीं है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। स्यात् अस्ति नास्ति च 12 उवि है यदि द्रव्य की अपेक्षा से अ25 उवित नहीं है। विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। स्यात् अवक्तव्य (1 अ2) यउ यदि द्रव्य और पर्याय अवक्तव्य है। दोनों ही अपेक्षा से या अथवा अनन्त अपेक्षाओं से एक अ उ अवक्तव्य है। साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दो अलगअलग कथन हो सकते हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)। स्यात् अस्ति च 12 उविहै0( यदि द्रव्य की अपेक्षा से अवक्तव्य च 0अ2)य उ1 य विचार करते हैं तो अवक्तव्य है या आत्मा नित्य है किन्तु 12 उवित है0(अ) यदि आत्मा की द्रव्य या उ1 अवक्तव्य है पर्याय दोनों या अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से एक साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या स्यात् नास्ति च अ25 उावित नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्य 0(10अ2)य उ1 विचार करते हैं तो अवक्तव्य है । या आत्मा नित्य नहीं है किन्तु अ25 उवित नहीं है यदि अनन्त अपेक्षा की 0(अ)य दृष्टि से विचार करते हैं अवक्तव्य है। तो आत्मा अवक्तव्य है। स्यात् अस्ति च नास्ति 1- उविहै0अ2 यदि द्रव्य दृष्टि से च अवक्तव्य च - उावित नहीं है। विचार करते हैं तो (102) य उ आत्मा नित्य है और यदि अवक्तव्य है। पर्याय की दृष्टि से विचार या करते हैं तो आत्मा नित्य आउ वित है0अ2 नहीं हैं; किन्तु यदि अन उवित नहीं है0 न्त अपेक्षाओं की दृष्टि से (अ)यउ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। अवक्तव्य है। तत्पश्चात् उन्होंने द्वितीय भंग की निम्नलिखित चार प्रकार से व्याख्या को है :(१) प्रथम भंग-17 उ1 वि1 है। द्वितीय भंग-अ25 उावित नहीं है । उदाहरण-प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे-द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है पर्याय की दृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (२) प्रथम भंग-15 उ वित है। द्वितीय भंग-15 उ2 - वि। है। - यह चिह्न प्रथम भंग के विधेय के विरुद्ध विधेय का सूचक है जैसे नित्य के स्थान पर अनित्य । उदाहरण-प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म (विधेय) का प्रतिपादन कर देना है। जैसे-द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है, पर्याय दृष्टि से घड़ा अनित्य है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८७ (३) प्रथम भंग - अ 1 31 वि1 है । द्वितीय भंग - अ1 - 31 ~ वि 1 नहीं है । उदाहरण प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म की पुष्टि हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीयभंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना । जैसे— रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है । रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतना है । अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है । अथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है । उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण नहीं है । (४) प्रथम भंग - अ 1 द्वितीय भंग - अ2 1 है । 31 नहीं है । उदाहरण - जब प्रतिपादित कथन देश या काल दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश, काल आदि की अपेक्षा को बदल कर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर देना । जैसे- १५ अगस्त १९४७ के 'पश्चात् से पाकिस्तान का अस्तित्व है । १५ अगस्त १९४७ के पूर्व पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था । द्वितीय भंग के उपर्युक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है । अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम रूप में एक ही धर्म (विधेय) का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहाँ दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध धर्मों (विधेयों) का विधान होता है । प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षाभेद से कभी उपस्थित रहें और कभी उपस्थित नहीं रहें । इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हों ही । तीसरा रूप तब बनता है जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति ही न हो । चतुथं रूप की आवश्यकता तब होती है जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं हो । द्वितीय भंग में पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म ( विधेय) वही रहता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है । द्वितीय रूप में अपेक्षा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है। तृतीय रूप में अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है। उपयुक्त व्याख्या यद्यपि जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए बहुत ही उपयोगी है। किन्तु आधनिक तर्कशास्त्र के दष्टिकोण से इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। सर्वप्रथम, जैन-सप्तभंगी हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य तो हैं नहीं। दूसरे, इसका उक्त प्रतीकीकरण हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के किस सिद्धान्त पर आश्रित है ? इसका कोई स्पष्ट उल्लेख उपयुक्त व्याख्या में नहीं है। साथ ही, यदि अपेक्षा सूचक स्यात् पद को हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के पूर्वपद (ऐण्टिसीडेन्ट) के रूप में ग्रहण किया जाय तो उससे सप्तभंगी का जो रूप बनता है वह रूप यद्यपि उपर्युक्त प्रतीकीकरण से कुछ मिलता-जुलता ही होगा तथापि इस विषय में उसका विकास कैसे किया जाय ? यह बात समझ में नहीं आती। दूसरे, ऐसा करने से सप्तभंगी के अपने भंगों के बीच कोई आन्तरिक सम्बन्ध नहीं रह जायेगा । वे एक दूसरे से स्वतन्त्र हो जायेंगे। जबकि सप्तभंगी के सातों भंग एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं नहीं। हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर सप्तभंगी का जो प्रतीकात्मक रूप बनता है वह एकदम काल्पनिक जैसा प्रतीत होता है। उसे हेतुफलाश्रित के किसी भी सिद्धान्त से जोड़ा नहीं जा सकता है। अतएव प्रमाण के अभाव में सप्तभंगी की व्याख्या हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर करना अयुक्त ही होगा। आधुनिक बहु-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र की एक प्रशाखा सम्भाव्यता का तर्कशास्त्र भी है। उस संभाव्य तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में सप्तभंगी का एक अध्ययन डॉ० आर० एन० मुकर्जी ने किया है। उन्होंने सप्तभंगी के प्रत्येक कथन को आंशिक मानकर यह विचार प्रस्तुत किया कि उसके प्रत्येक भंग को यदि एक साथ किया जाय तो उससे पूर्ण सत्ता का बोध होता है; अर्थात् उसके एक-एक भंग से सत्ता के एक-एक अंश का ज्ञान होता है और उन एक-एक भंगों को जोड़ने से पूर्ण सत्ता का ज्ञान हो जाता है । १. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४३ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८९ इस तरह की विचारधारा संभाव्य तर्कशास्त्र में भी मिलती है। इसलिए सप्तभंगी की व्याख्या संभाव्य तकशास्त्र के आधार पर करना सम्भव है। क्योंकि सप्तभंगी के सिद्धान्त का प्रारूप संभाव्यता के सिद्धान्त के किसीकिसी प्रारूप के समीप बैठता है। इस सन्दर्भ में डॉ० मुकर्जी का प्रयास अवलोकनीय है-"स्याद्वाद के सातों भंगों को एक साथ लेने पर पूर्ण सत्ता का पूर्ण ज्ञान होता है। उनकी अलग-अलग हम बहु-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के एक संभाव्यात्मक व्याख्या के अनुसार निम्नलिखित मुल्य दे सकते हैं। इस पद्धति में हम दोहरे निषेध को विधेयात्यक पक्ष की तरह समान मूल्य प्रदान करते हैं। यद्यपि वे जैन-दर्शन में समान वस्तु की तरह मूल्य नहीं रखते । हमने अवक्तव्य के लिए भी निषेधात्मक मूल्य दिया है। जिसका कारण लेख के पिछले भाग में बताया जा चुका है। इसमें सहार्पण अर्थात् अवक्तव्य को "0" प्रतीक और क्रमार्पण अर्थात् अस्ति च नास्ति को "." (डाट) प्रतीक दिया गया है। al (A 1/6 a (-A) 1/6 b. (= 2a) A • (- A) 2/6 or 1/3 c. - [AO - (- A)] 3/6 or 1/2 d. di / A - [AO - (CA)] 4/6 or 1/2 ca (-A) - [AO - (CA)] 4/6 or 2/3 e. (= c + b) A - (-A) - [A0 - (- A)] 5/6 I. (= 2c) A0 - (-A) 6/6 or 1 सप्तभंगी का यह प्रतीकात्मक रूप छः मूल्यात्मक संभाव्य तर्कशास्त्र के समान संचालित किया जा सकता है । जैसे किसी खेल में जब छः मँह वाले पासे को फेंका जाता है तब भिन्न-भिन्न अवसर पर भिन्न-भिन्न संभावनायें प्राप्त होती हैं। जैसे एक अवसर में 1/6 सम्भावना प्राप्त होती है दो में 2/6, तीन में 3/6, चार में 4/6, पाँच में 5/6 और छः में 6/6 अर्थात् पूर्ण अथवा किसी अन्य की प्राप्ति की सम्भावना होती है। इसके अतिरिक्त सप्तभंगी के प्रतीकीकरण में कुछ और भी नियमों को मानना पड़ता है, जिसको सारणी में दिखाया गया है। उपर्युक्त सारणी में 1/6 अर्थात् पहला मूल्य अवसर की प्राप्ति की 1/6 सम्भावना को Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रदर्शित करता है जैसेI--a AbAcade Af = 1/6 दूसरे मूल्य, दो में किसी एक अवसर की प्राप्ति की संभावना को अभिव्यक्त करते हैं । जैसे—a AbAcAdaa Ac. इसी प्रकार अन्तिम अवसर इस प्रकार हो जाता है : a ^ Ълслалелі. उपर्युक्त विचार से यह पता चलता है कि "या" के प्रयोग में तीन प्रकार का अर्थ हो सकता है : (१) जहाँ कथन में और का प्रयोग नहीं होता उसे वैकल्पिक तर्कवाक्य कहा जाता है अर्थात् वह वाक्य जिसमें और का प्रयोग न हो, वैकल्पिक तर्कवाक्य कहलाता है । (२) वह जो किसी विशेष को सूचित करे । प्रस्तुत लेख में इस विशेष को एक आल्टरनेट (^) से चिह्नित किया गया है । (३) वह जो निर्विशेष को सूचित करता है । इस लेख में इसे दोहरे आल्टरनेन्ट (^) से सूचित किया गया है । इन दृष्टान्तों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से शब्द नय का अच्छा विस्तार हो सकता है । यहाँ वैकल्पिक के दो अर्थ हो सकते हैं (१) ग्राहक - वह जो और के अर्थ को ग्रहण करता है । (२) वियोजक - वह जो और के अर्थ का निषेध करता है यहाँ वियोजक के भी दो अर्थ हो सकते हैं (क) पूर्ण में से एक विशेष को ग्रहण करना । (ख) पूर्ण में से किसी एक को ग्रहण करना । प्रस्तुत लेख में पूर्ण में से एक विशेष को ग्रहण करने वाले को एक आल्टरनेन्ट (1) से दर्शाया गया है । यह आल्टरनेन्ट निर्विशेष को सूचित करता है और किसी एक को ग्रहण करने वाले को दो आल्टरनेन्ट (A) से प्रदर्शित किया गया है। वह आल्टरनेन्ट विशेष वैकल्पिक को सूचित करता है । किन्तु " या " ( वैकल्पिक ) को जब वियोजक अर्थ में लिया जाता है तो वहाँ उसे ग्राहक अर्थ में नहीं लेना चाहिए। जैसे वह बम्बई में है या Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९१ कलकत्ता में है। यहाँ इसे ग्राहक अर्थ में नहीं लेना चाहिए; क्योंकि वह बम्बई और कलकत्ता दोनों स्थानों में एक साथ नहीं रह सकता है। वह या तो बम्बई में होगा या कलकत्ता में होगा; क्योंकि एक साधारण मानव के लिए यह असंभव है कि वह एक साथ बम्बई और कलकत्ता दोनों शहरों में रहे। ___ किन्तु कुछ वैकल्पिक (या) तर्कवाक्य ऐसे हैं जिन्हें ग्राहक अर्थ में लिया जा सकता है। जैसे वह बुद्धिमान है या परिश्रमी है। यहाँ वैकल्पिक "या" को ग्राहक अर्थ में लेने पर कोई दोष उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह बद्धिमान भी हो सकता है और परिश्रमी भी हो सकता है। परीक्षार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं हुआ। इसलिए यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह परिश्रमी है या बुद्धिमान है या दोनों है। वस्तुतः यहां पर दोनों संभावनायें हैं कि वह बुद्धिमान भी हो सकता है, परिश्रमी भी हो सकता है और दोनों ही हो सकता है। किन्तु यदि वह कम अंक प्राप्त किया होता तो निश्चित रूप से कहा जा सकता था कि वह दोनों नहीं है उनमें कोई एक है। या तो वह परिश्रमी है या बुद्धिमान है। उपर्युक्त विचार नयवाद के लिए ग्रहण किया जा सकता है। स्याद्वाद के लिए, वियोजक को संयोजक के द्वारा स्थानान्तरित करना पड़ता है। सहार्पण को इस अर्थ में लिया गया है "ब" में "अ" को और से जोड़ा गया है; क्योंकि क्रमार्पण "ब" है अर्थात् २अ है और सहार्पण "अ+ब" है अर्थात् ३अ है। ____ चार मूल्यों के आधार पर यह विवेचन विशेष लाभप्रद होता है जैसा कि सारणी में बताया गया है। इस प्रकार पूर्ण ज्ञान अथवा प्रज्ञा के साथ में सभी आठ मूल्यों को सारणी में दिखाया जा सकता है ___ + | 1/6 1/6 1/3 1/2 1/6 1 1/3 1/3 1/2 2/3 16 | 1/3 1/3 1/2 2/3 1/3 | 1/2 1/2 2/3 5/6 1/2 1 2/3 23 5/6 1 क्रमार्पण की दो बार पुनरावृत्ति या सत्ता के साथ में या न सत्ता के साथ में सहार्पण को प्रदान करती है अर्थात् क्रमार्पण के बाद पुनः क्रमार्पण को दोहराने से सहार्पण प्राप्त होता है जो या तो सत्ता का अभिकथन Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या होगा या नहीं होगा। इस पुनरुक्ति को विपरीत क्रम से भी लिया जा सकता है। [A - ( A)] - [-( A)A ]=A · [ A - (-A)] v-(- A) • [A -( A)] सहार्पण को उपर्युक्त विधि से दोहराने पर उसका परिणाम प्रज्ञा को संकेतित करता है। इस प्रकार अव्यक्तव्यश्च अवक्तव्य हो जाता है निम्नलिखित उद्धरण जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ ।। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। में हर एक बात को उलट कर दोहराया गया है। इस प्रकार भाषा में सीमान्त प्रत्यय शुरू करने में जो क्रमिक दोष होता है उसे इस प्रकार से दूर किया जा सकता है। दृष्टान्तस्वरूप-जो सामान्य की दष्टि से अवक्तव्य था उसको विशेष की दृष्टि के अवक्तव्य के साथ जोड़ दिया गया और इस प्रकार भाषा को प्रज्ञा के जितना निकट पहुँच सकती थी पहुँचाया गया। सम्भाव्यता के समान दृष्टान्त यह है कि एक सिक्के का फेंकना। इसमें अवसर की प्राप्ति सिर यानी विधेयात्मक रूप में 1/2 और छ अर्थात् निषेधात्मक रूप में 1/2 होती है। क्योंकि वह एक दूसरे की संभावना को सीमित करती है अर्थात् जहाँ एक के होने की संभावना होती है वहीं दूसरे के न होने की भी संभावना होती है। यह प्रक्रिया 1/2 रूप में ही संभव है। इसलिए इन दोनों संभावनाओं के योग के द्वारा हम पूर्णता को प्राप्त करते हैं। इससे मिलती जुलती प्रक्रिया छः गुटकों को तीन-तीन गुटकों वाले दो भागों के पासे से होती है। इनका प्रतीकीकरण,एक विकल्प एवं तीनों प्रारंभिक आकारों के प्रतीकों के निर्धारण के द्वारा होता है । है, नहीं है और अवक्तव्य है-अ,ब और स । जबकि हम अ, ब, अ+ब, स, अ+स, ब+स, अ + ब+ स, स का एक आठ मूल्यात्मक तर्कशास्त्र को प्राप्त करते हैं । यहाँ एक विचारणीय विषय यह भी हो सकता है कि इसे हम तीन मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के रूप में क्यों नहीं ग्रहण करते हैं । इसका कारण यह है कि इसे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता; क्योंकि इसके आठों भंगों का Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९३ विस्तारण तादात्म्य कथन होते हैं; जो कि जैनदर्शन को मान्य नहीं है । जैन विचारणा इसे भिन्न-भिन्न मानकर चलती है।' वास्तव में, सप्तभंगी आंशिक है लेकिन यथार्थ है, जो है वह अवश्य है लेकिन सीमित है, सापेक्ष है न कि निरपेक्ष, संभाव्य या संभावनात्मक | सप्तभंगी का 'स्यात्" पद संभाव्य नहीं है वह अपेक्षा विशेष है। यद्यपि वह खण्डशः कथन करता है किन्तु वास्तविक है। इसलिए संभाव्यतातर्कशास्त्र से यह तुलनीय नहीं है। किन्तु इसको संभाव्यतातर्कशास्त्र से आकृतिगत समानता है । अतएव सप्तभंगी के लिए संभाव्यतातर्कशास्त्र से आकृति प्राप्त की जा सकती है। संभाव्यतातर्कशास्त्र से सप्तभंगी की तुलना का यदि कोई प्रयास किया जाय तो उसका एक मात्र कारण यही है कि संभाव्यतातर्कशास्त्र में जितने मूल्य चाहें उतने मूल्य मान सकते हैं। इसलिए उसके आधार पर सप्तभंगी के लिए भी सात मूल्य को माना जा सकता है । उपर्युक्त लेख में डॉ० आर० एन० मुकर्जी ने मात्र इसी संभावना को अभिव्यक्त किया है। यद्यपि उनका उक्त लेख पूर्णतः निर्दोष नहीं है उसमें भी कुछ न कुछ कमियाँ अवश्य हैं किन्तु सप्तभंगी की सप्त-मूल्यता के निर्धारण का एक गढ़ प्रयास अवश्य है। उनके इस प्रयास में जो कुछ त्रुटियाँ हुई हैं वे इस प्रकार हैं । ___ सर्वप्रथम, उनकी प्राथमिक कल्पना कि "स्याद्वाद के सातों भंगों को एक साथ लेने पर पूर्ण सत्ता का पूर्ण ज्ञान होता है" जैन तर्कशास्त्र के विपरीत है । जैन-आचार्य इस प्रकार के विचार का खण्डन करते हैं । सप्तभंगीतरंगिणी में यह प्रश्न उठाकर उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है-"कदाचित् ऐसा कहो कि एक-एक पृथक वाक्य संपूर्ण अर्थों का प्रतिपादक नहीं है इसलिए विकलादेश है, सो ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि ऐसा मानने से उस प्रकार के सातों वाक्य भी विकलादेश हो जायेंगे। "स्यादस्ति" सत्त्व आदि सातों वाक्य मिलकर भी सम्पूर्ण अर्थों के प्रतिपादक सिद्ध नहीं हो सकते; क्योंकि सकल श्रुतज्ञान ही सम्पूर्ण अर्थों का प्रतिपादक है। इसी से सम्पूर्ण अर्थों का प्रतिपादक होने से मिलित सप्तभंगी 1. "Dr. R N. Mukerjee, Jain Logic of Seven Fold Predi cation, Printed in the Journal 'Mahavira Nirvana Mohotsawa Samiti', Bombay, 1977. १३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ । जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या वाक्य समुदाय सकलादेश है, यह मत परास्त हो गया, क्योंकि मिलित भी सप्तभंगी वाक्य की सम्पूर्ण अर्थों की प्रतिपादकता असिद्ध है। सत्त्व, असत्त्व आदि सप्त वाक्यों से एक तथा अनेक आदि सप्तवाक्य प्रतिपाद्य धर्मों का प्रतिपादन नहीं होता,बल्कि अनेक के साथ एक धर्म का प्रतिपादन होता है।' ___ इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक साथ मिलकर पूर्णसत्ता का पूर्ण ज्ञान नहीं है। यद्यपि सर्वज्ञ का ज्ञान सकल पदार्थ का ग्राहक तो होता है किन्तु जब वह अपने सकलार्थग्राही ज्ञान को वाणी का विषय बनाता है तब उसका वह कथन भी सीमित और सापेक्ष ही होता है। कहा भी गया हैण णय विहण किंचि जिण वयणं । और भी देखिएयावन्ति वयण पाहा तावन्ति णय वाया। अर्थात् जिन वचन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो नय से रहित है। जो कछ भी कहा जाता है वह नय के द्वारा ही प्रकट होता है। इससे इस मत का भी निराश हो गया कि अवक्तव्य के विपरीत "वक्तव्य" ऐसा एक आठवाँ भंग बनता है। सप्तभंगी में सात ही भंग का विधान है आठवें का नहीं। इस प्रश्न पर कि "जैसे अवक्तव्यत्व के साथ योजित अस्तित्व नास्तित्व धर्मों का कथन करने में सर्वथा अशक्यत्व रूपता है । ऐसे ही वक्तव्यत्व भी धर्मान्तर से हो सकता है तो इस रीति से अष्टम वक्तव्यत्व रूप धर्म के होने से अष्टभंगी नय कहना उचित है न कि सप्तभंगी ? गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए कहा गया है कि "ऐसी शंका नहीं हो सकती; क्योंकि सामान्य रूप से वक्तव्यत्व भिन्न धर्म नहीं है और सत्त्व आदि रूप जो वक्तव्यत्व प्रथम भंगादि १. ननु-सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावाद्विकलादेश इति चेन्न । तादृशवाक्यसप्तकस्यापि विकलादेशत्वापत्तः, समुदितस्यापि सदादिवाक्यसप्तकस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावात्; सकलश्रुतस्यैव सकलार्थप्रतिपादकत्वात् । एतेन-सकलार्थप्रतिपादकत्वात्सप्तभङ्गीवाक्यं समुदित सकलादेशः, इति निरस्तम्; समुदितस्यापि तस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वासिद्धेः, सदादिसप्तवाक्येन एकानेकादि-सप्तवाक्यप्रतिपाद्य धर्माणामप्रतिपादनात् । -सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० १९. .. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९५ के अन्तर्गत ही है ।' तात्पर्य यह है कि अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का कथन अस्ति, नास्ति आदि भंगों के द्वारा होता है । अस्ति, नास्ति आदि भंग वक्तब्य रूप में ही स्वीकार किये गये हैं । इसलिए जब अस्ति, नास्ति आदि भंग वक्तव्यत्व रूप में स्वीकार किये गये हैं, तब वक्तव्यत्व रूप एक अन्य आठवें भंग को मानने की क्या आवश्यकता ? वस्तुतः वक्तव्यत्व रूप आठवाँ भग सप्तभंगी को स्वीकार्य नहीं है । इस प्रकार डॉ० मुकर्जी की आठवें भंग की कल्पना भी निरस्त हो जाती है । दूसरे, यदि आठवें भंग को इस रूप में स्वीकार किया जाय कि वह सर्वज्ञ के ज्ञान का सूचक है तो यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं हैं; क्योंकि सप्तभंगी ज्ञानरूप नहीं होकर वह मात्र कथन पद्धति है । वस्तु के सन्दर्भ में हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे सप्तभंगी रूपी कथन पद्धति के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं । इसलिए ज्ञान रूप सर्वज्ञता को सप्तभंगी में समाविष्ट नहीं कर सकते हैं । यद्यपि सर्वज्ञ भी वस्तु तत्त्व के विवेचन में इसी अस्ति नास्ति रूप कथन पद्धति का ही प्रयोग करता है और इसलिए जैन आचार्यों ने यह कहा है कि चाहे सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष भी हो किन्तु उसका कथन तो सापेक्ष ही होता है ( ण णय विहूण किचि जिणवणं) | पुनः सप्तभंगी की उपर्युक्त प्रतीकात्मक परिभाषा में जो नास्ति भंग को दोहरे निषेध के द्वारा विधेयात्मक पक्ष (अस्ति) के समान एक ही मूल्य और एक ही प्रतीक प्रदान किया गया है तथा अवक्तव्य भंग को निषेधात्मक मूल्य -C के द्वारा परिभाषित किया गया है उसमें कुछ सार्थकता है । यद्यपि अवक्तव्य भंग को पूर्वं भंगों का निषेधक होने से निषेधात्मक माना जा सकता है, किन्तु नास्ति भंग को अस्ति भंग के ही समान मूल्य और प्रतीक नहीं देना चाहिए, क्योंकि उससे पूरी बात स्पष्ट नहीं होती है। दूसरे, निषेध को हटाने पर नास्ति से पुनः अस्ति को ही प्राप्ति हो जाती है । जो कि ठीक नहीं है । इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि यदि उन्हें भिन्न-भिन्न ९. ननु — अवक्तव्यत्व यदि धर्मान्तर तर्हि वक्तव्यत्वमपि धर्मान्तरं प्राप्नोति, कथं सप्तविध एव धर्म: ? तथा चाष्टमस्य वक्तव्यत्वधर्मस्य सद्भावेन तेन सहाष्टभङ्गी स्यात्, न सप्तभङ्गी; इति चेन्न । सामान्येन वक्तव्यत्वस्यातिरिकस्याभावात् । सत्त्वादिरूपेण वक्तव्यत्वं तु प्रथमभंगादावेवान्तर्भूतम् । - सप्तभंगीतरङ्गिणी, पृ० १०. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रतीकों द्वारा प्रदर्शित किया जाय तो ज्यादा अच्छा होगा । डॉ० मुकर्जी की व्याख्या में सबसे बड़ी कमी यही है कि उससे सप्तभंगी की सप्त-मल्यात्मकता न सिद्ध होकर उसकी अष्टमूल्यात्मकता सिद्ध होती है जो कि जैन तर्कशास्त्र को अभिप्रेत नहीं है। इस प्रकार जैन-सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है और न तो त्रि-मल्यात्मक; अपितु, इसे सप्तमूल्यात्मक कहा जा सकता है। इसके इस सप्तमूल्यता का निर्धारण सम्भाव्यता-तर्कशास्त्र के आधार पर किया जा सकता है। यद्यपि हमें स्पष्टतया यह ध्यान रखना होगा कि सप्तभंगी सम्भावना पर आश्रित नहीं है। यह अपने भंगों में निश्चयात्मक तथ्यों का प्रतिपादन करती है । इसलिए इसे संभाव्यात्मक नहीं कहा जा सकता। किन्तु संभाव्यता में विभिन्न संभावित सत्यता मूल्यों की कल्पना है। संभाव्यता के अनुसार शून्य (0) और एक (1) अर्थात् पूर्णसत्ता के बीच अनन्त सम्भावनायें हैं। उन्हें विभिन्न संभावित सत्यता मूल्यों के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। जैसे 1/2, 2/3, 1/4, 1/5, 1/6.... में इत्यादि । इसी प्रकार जैन तर्कशास्त्र भी सत्ता के सन्दर्भ में अनन्त धर्मों अर्थात् अनन्त संभावनाओं को स्वीकार करता है। वस्तुतः सत्ता के सन्दर्भ में विभिन्न मूल्यात्मक अनन्त कथन होंगे। इसी दृष्टि से जैन तर्कशास्त्र संभाव्यता-तर्कशास्त्र से तुलनीय हैं। किन्तु, जैन-सप्तभंगी सप्त मूल्यात्मक है। उसकी उस सप्तमूल्यात्मकता को संभाव्यता तर्कशास्त्र से तो प्राप्त नहीं किया जा सकता। परन्तु, यदि सम्भाव्यता-तर्कशास्त्र से सप्तभंगी हेतु माडल प्राप्त किया जाय तो उसके ताकिक स्वरूप का प्रतिपादन हो सकता है। इस बात को जैन आचार्य स्वीकार करते हैं कि सप्तभंगी के मूलभूत भंग स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य ये तीन ही हैं। इन्हीं तीन मूलभूत भंगों के संयोग से शेष चार भंगों का निर्माण हुआ है। इसी से मिलता-जुलता एक सिद्धान्त संभाव्यता-तर्कशास्त्र में भी है। सम्भाव्यतातर्कशास्त्र में A, B और C को तीन स्वतन्त्र घटनाएँ मानकर इनके संयोग से चार अन्य घटनाओं का विवेचन किया गया है। तीन स्वतन्त्र घटनाओं A, B और C के जोड़े अर्थात् युग्म के रूप में निम्न घटनाएँ प्रतिफलित होती हैं :1. See-An Introduction to Probability Theory and its Applications, Vol. I, p. 126. -William Feller. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तकशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९७ P{AB} = P {A} - P{B} P{AC}=P SA} - P {C} P{BC}=P {B} • PIC} (Where - P= Probability and A, B and Care independent events). इसी प्रकार तीनों घटनाओं के सहगामी सम्बन्धों को निम्न रूप में सूचित किया जा सकता है P{ABC}==P {A} • P {B} • P{C} यद्यपि सप्तभंगी के सभी भंग न तो स्वतन्त्र घटनाएं हैं और न सप्तभंगी का "स्यात्" पद संभाव्य ही है तथापि सप्तभंगी के साथ उपयुक्त सिद्धान्त की आकारिक समानता है । इसलिए यदि उक्त सिद्धान्त से आकार ग्रहण किया जाय तो सप्तभंगी का प्रारूप ह-ब-ह वैसा ही बनेगा जैसा कि उपर्युक्त सिद्धान्त का है। यदि सप्तभंगी के मूलभूत भंगों स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य को क्रमशः A, B और C तथा परिमाणक रूप "स्यात्" पद को Pसे सम्बोधित किया जाय तो सप्तभंगी के शेष चार भंगों के प्रारूप इस प्रकार होंगे:P(A-B) = P(A). P(-B) स्यादस्ति च स्यान्नास्ति । P(A-C) = P(A) P( C) स्यादस्ति च स्यादवक्तव्य । P(-B-C) = P(-B) P(C) स्यान्नास्ति च स्यादवक्तव्य । P(A- B-C) = P(A) P(-B) P(C) स्यादस्ति च स्यान्नास्ति च स्यादवक्तव्य । यहाँ स्यात् = P, अस्ति = A, नास्ति = (-B), अवक्तव्य = (-C) और च = ' (संयोजक) हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्नलिखित प्रकार होगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P (-B) (३) स्यादवक्तव्य = P (-C) (४) स्यादस्ति च नास्ति = P (A-B) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्य =P (A-C) (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य = P (B-C) (७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्य = P (A:-B-C) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या जैन तर्कशास्त्र की यह मान्यता है कि जिस तरह वस्तु में भावात्मक धर्म रहते हैं, उसी तरह वस्तु में अभावात्मक धर्म भी रहते हैं । वस्तु में जो सत्त्व धर्म हैं वे भावरूप हैं और जो असत्त्व धर्म हैं वे अभाव रूप हैं । इसी भाव रूप धर्म को विधि अर्थात् अस्तित्व और अभावरूप धर्म को प्रतिषेध अर्थात् नास्तित्व कहते हैं : १९८ " सदसदात्मकस्य वस्तुनो यः सदंशः- भावरूपः स विधिरित्यर्थः । सदसदात्मकस्य वस्तुनो योऽसदंश: - अभावरूपः स प्रतिषेध इति ।" " वस्तुतः ये अस्तित्व और नास्तित्व एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं: जो अविनाभाव से प्रत्येक वस्तु में विद्यमान रहते हैं । कहा भी गया हैं अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणी । विशेषणत्वात् साधर्म्यं यथा भेदविवक्षया ॥ १७ ॥ नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मणी । विशेषणत्वाद्वैधम्यं यथाऽभेदविवक्षया ॥ १८ ॥ अर्थात् वस्तु का जो अस्तित्व धर्म है उसका अविनाभावी नास्तित्व धर्म है । इसी प्रकार वस्तु का जो नास्तित्व धर्म है उसका अविनाभावी अस्तित्व धर्म है । इस प्रकार अस्तित्व के बिना नास्तित्व और नास्तित्व के बिना अस्तित्व की कोई सत्ता ही नहीं है । कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तित्व और नास्तित्व दो ऐसे धर्म हैं जो प्रत्येक वस्तु में अविनाभाव से विद्यमान रहते हैं । सप्तभङ्गी के अस्तित्व और नास्तित्व रूप दोनों भङ्गों में इन्हीं धर्मों का मुख्यता और गौणता से विवेचन किया जाता है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी या निषेधक नहीं हैं । अस्तित्व धर्म दूसरे तो नास्तित्व धर्म दूसरे हैं । इसीलिए इनमें अविरोध सिद्ध होता है । स्याद्वादमंजरी में कहा गया है, "जिस प्रकार स्व-रूपादि से अस्तित्व धर्म का सद्भाव अनुभव से सिद्ध है, उसी प्रकार पर रूपादि के अभाव से नास्तित्व धर्म का सद्भाव भी अनुभव से सिद्ध है । वस्तु का सर्वथा अर्थात् स्व-रूप और पररूप से अस्तित्व ही वस्तु का स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार स्व-रूप से अस्तित्व वस्तु का स्वरूप होता है, उसी प्रकार पर रूप से भी अस्तित्व वस्तु का धर्म बन जायेगा । वस्तु का सर्वथा अर्थात् स्व-रूप और पर-रूप. १. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३ : ५६-५७ । २. आप्तमीमांसा, १ : १७, १८ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगो : एक मूल्यांकन १९९ से नास्तित्व भी वस्तु का स्वरूप नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार पर-रूप से नास्तित्व वस्तु का स्वरूप होता है, उसी प्रकार स्व-रूप से भी नास्तित्व वस्तु का धर्म बन जायेगा"।' इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्मों से युक्त रहना वस्तु का स्वभाव या स्वरूप है; अर्थात् वस्तु में स्वचतुष्टय का भाव और पर-चतुष्टय का अभाव होता है। अतः इन दोनों ही धर्मों को एक दूसरे का निषेधक या व्याघातक (कान्ट्राडिक्टरी) नहीं कहा जा सकता है। किन्तु जब इन भावात्मक और अभावात्मक धर्मों के कहने की बात आती है तब हम स्वचतुष्टय रूप वस्तु के भावात्मक गुणधर्मों को एक शब्द "स्यादस्ति" से कह देते हैं और जब पर-चतुष्टय रूप वस्तु के अभावात्मक गुण-धर्मों को कहने की बात आती है तब उन्हें "स्यान्नास्ति" शब्द से सम्बोधित करते हैं। किन्तु, जब उन्हीं धर्मों को एक साथ (युगपत् रूप से) कहना होता है तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना पड़ता है । वस्तुतः अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य, ये ही सप्तभङ्गी के तीन मूल भङ्ग हैं। अब वस्तु में स्व चतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को A, पर चतुष्टय रूप धर्मों को B और उनके अभाव को -B तथा स्व चतुष्टय और पर चतुष्टय रूप भावात्मक और अभावात्मक धर्मों को युगपत् रूप से कहने में भाषा की असमर्थता अर्थात् अवक्तव्यता को-C से प्रदर्शित करें तो और स्यात् पद को P से दर्शायें तो तीनों मूल भङ्गों का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा स्यादस्ति = P ( A) स्यान्नास्ति = P (-B) स्यादवक्तव्य = P (-C) इस प्रकार प्रथम भंग में स्व-चतुष्टय का सद्भाव होने से उसे भावात्मक रूप में A से कहा गया है। दूसरे भङ्ग में पर चतुष्टय का निषेध होने से अभावात्मक रूप में-B से कहा गया है और तीसरे मूलभूत भङ्ग में वक्तव्यता का निषेध होने से-C से कहा गया है। इस प्रकार सप्तभङ्गी के प्रतीकीकरण के इस प्रयास का अर्थ उसके मूल अर्थ के निकट बैठता है। __अब विचारणीय विषय यह है कि स्यान्नास्ति भङ्ग का वास्तविक प्रारूप क्या है ? कुछ तर्कविदों ने उसे निषेधात्मक बताया है तो कुछ १. स्याद्वादमञ्जरी. पृ० २२६ । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या दार्शनिकों ने स्वीकारात्मक माना है और किसी-किसी ने तो इसे द्विधा निषेध से प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन के द्वारा प्रदत्त नास्तिभङ्ग का प्रतीकात्मक प्रारूप द्रष्टव्य है । वैसे हम इसका विवेचन पूर्व में कर चुके हैं। उन्होंने लिखा है कि नास्ति भङ्ग निम्नलिखित चार प्रारूप में बनते हैं (१) अ'31 वित नहीं है, (२) अ- 31-वि। है, (३) अ- 31-वित नहीं है (यह द्विधा निषेध का रूप है), (४) अ उ नहीं है। इनमें भी मुख्य रूप से दो ही प्रारूपों को माना जा सकता है। एक वह है जिसमें स्यात् पद चर है जिसके कारण अपेक्षा बदलती रहती है। यदि चर रूप स्यात् पद को P1,P आदि से दर्शाया जाय तो अस्ति और नास्ति भङ्ग का निम्नलिखित रूप बनेगा १-स्यादस्ति = P1 ( A) २- स्यान्नास्ति = P (A) इसे अधोलिखित दष्टान्त से अच्छी तरह समझा जा सकता है--स्यात् आत्मा नित्य है (प्रथम भंग) और स्यात् आत्मा नित्य नहीं है (द्वितीय भंग)। इन दोनों कथनों में अपेक्षा बदली गयी है। जहाँ प्रथम भंग में द्रव्यत्व दृष्टि से आत्मा को नित्य कहा गया है, वहीं दूसरे भंग में पर्यायदृष्टि से उसे अनित्य (नित्य नहीं) कहा गया है। इन दोनों ही वाक्यों का स्वरूप यथार्थ है; क्योंकि आत्मा द्रव्य-दृष्टि से नित्य है तो पर्याय-दृष्टि से अनित्य भी है। वस्तुतः यहाँ द्वितीय भंग का प्रारूप निषेध रूप होगा। अब यदि उक्त दोनों भंगों को मूल भंग माना जाय और अवक्तव्य को -C से दर्शाया जाय तो सप्तभंगो का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्नलिखित रूप से तैयार होगा १-स्यादस्ति = P1 ( A) २-स्यान्नास्ति = p* (A) ३-स्यादस्ति च नास्ति = P3 (A-A) ४-स्यादवक्तव्यम् = P+ (-C) ५-स्यादस्ति च अवक्तव्यम् = P (A-C) ६-स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P° (-A-C) ७-स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् =P' (A -A-C) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन २०१ अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य को -C से क्यों प्रदर्शित किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अवक्तव्य वक्तव्य पद का निषेधक है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में किसी निषेध पद को विधायक प्रतीक से दर्शाने का विधान नहीं है। वहाँ पहले विधायक पद को विधायक प्रतीक से दर्शाकर निषेधात्मक बोध हेतु उस विधायक पद का निषेध किया जाता है। इसलिए पहले वक्तव्य पद हेतु प्रतीक को प्रस्तुत कर अवक्तव्य के बोध के लिए उस C का निषेध अर्थात् -C किया गया है। अब यदि यह कहा जाय कि ऐसा मानने पर सप्तभंगी, सप्तभंगी नहीं, बल्कि अष्टभंगी बन जायेगी तो ऐसी बात मान्य नहीं हो सकती; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र में सप्तभंगी की ही परिकल्पना है अष्टभंगी की नहीं; और वक्तव्य रूप भंग सप्तभंगी में इसलिए भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि अवक्तव्य के अतिरिक्त शेष भंग तो वक्तव्य ही हैं । अर्थात् वक्तव्यता का बोध सप्तभंगो के शेष भंगों से होता है। इसलिए वक्तव्य भंग को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वह तो प्रथम अस्ति, द्वितीय नास्ति और तृतीय क्रमभावी अस्ति नास्ति के रूप में उपस्थित है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार “स्यात्" पद अचर है । उसके अर्थ अर्थात् भाव में कभी भी परिवर्तन नहीं होता है। वह प्रत्येक भंग के साथ एक ही अर्थ में प्रस्तुत है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण को मानने से नास्ति भंग में द्विधा निषेध आता है जिसका निम्न प्रकार से प्रतीकीकरण किया जा सकता है-- १-स्यादस्ति = P ( A) २-स्यान्नास्ति = P-(-A) अब इसका यह प्रतीकात्मक रूप निम्नलिखित दृष्टान्त से पूर्णतः स्पष्ट हो जायेगा । जैसे-"स्यात् आत्मा चेतन है" (प्रथम भंग) और "स्यात् आत्मा अचेतन नहीं है" (द्वितीय भंग)। अब यदि हम आत्मा की चेतना का प्रतीक A मानें तो उसकी अचेतना का प्रतीक -A होगा और इसी प्रकार "आत्मा अचेतन नहीं है" का प्रतीक-(-A) हो जायेगा। इस प्रकार इन वाक्यों में हमने देखा कि वक्ता की अपेक्षा बदलतो नहीं है। वह दोनों ही वाक्यों की विवेचना एक ही अपेक्षा से करता है। इस दृष्टिकोण से ऊपर के उक्त दोनों वाक्यों का प्रारूप यथार्थ है। अब यदि इन Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या दोनों वाक्यों को मूल मानें तो सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्न प्रकार का होगा १-स्यादस्ति = P ( A) २-स्यान्नास्ति = Pv ( A) ३-स्यादस्ति च नास्ति = P (An (A) ४- स्यादवक्तव्यम् = P (~C) ५- स्यादस्ति च अवक्तव्यम् - P (A:--C) ६- स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P (~(~A) ~C) ७- स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = P [A:-(~A) ~C] इस प्रतीकीकरण में A और ~~A वक्तव्यता के और ~ C अवक्तव्यता के सूचक हैं। किन्तु स्यादस्ति और स्यान्नास्ति को क्रमशः A और WA अथवा A और . A मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है; क्योंकि नास्ति भंग परचतुष्टय का निषेधक है और अस्ति भंग स्वचतुष्टय का प्रतिपादक है। यदि उन्हें A और ~A का प्रतीक दिया जाय तो उसमें व्याघातकता भी प्रतीत होती है। जबकि वस्तुस्थिति इससे भिन्न है । अतः स्व-चतुष्टय और पर चतुष्टय के लिए अलग-अलग प्रतीक अर्थात् A और B प्रदान करना अधिक युक्तिसंगत है। इसीलिए हमने स्वचतुष्टय के लिए A और परचतुष्टय के निषेध के लिए - B माना है। यद्यपि मेरा यह दावा नहीं है कि मेरा दिया हुआ उपर्युक्त प्रतीकीकरण अन्तिम एवं सर्वमान्य है, उसमें परिमार्जन की सम्भावना हो सकती है। आशा है, विद्वानगण इस दिशा में अधिक गम्भीरता से विचार कर सप्तभंगी को एक सर्वमान्य प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान करेंगे, ताकि उसके सम्बन्ध में उठने वाली भ्रान्तियों का सम्यक्तया निराकरण हो सके। ___ अब सप्तभंगी की यह प्रतीकात्मकता संभाव्यता-तर्कशास्त्र के उपर्युक्त प्रतीकीकरण के अनुरूप है । इसलिए यह उससे तुलनीय है। जिस प्रकार सप्तभंगी में उत्तर के चारों प्रकथन पूर्व के मलभत तीनों भंगों के सांयोगिक रूप हैं। प्रत्येक कथन को "च" रूप संयोजन के द्वारा जोड़ा गया है। उसी प्रकार संभाव्यता-तर्कशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त में तीन मूलभूत भंगों की कल्पना करके आगे के भंगों की रचना में संयोजन अर्थात् कन्जंक्शन का ही पूर्णत: व्यवहार किया गया है । जिस क्रम में सप्तभंगी की विवेचना और विस्तार है उसी क्रम का अनुगमन संभाव्यता-तर्कशास्त्र का उक्त सिद्धान्त Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन २०३ भी करता है। एक रुचिकर बात यह है कि सप्तभंगी के सातवें भंग में क्रमार्पण और सहार्पण रूप तीसरे और चौथे भंग का संयोग माना गया है। इस संदर्भ में सप्तभंगीतरंगिणी का निम्न कथन द्रष्टव्य है-"अलग-अलग क्रम-योजित और मिश्रित रूप अक्रम-योजित द्रव्य तथा पर्याय का आश्रय करके "स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च घट:" किसी अपेक्षा से सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व का आश्रय घट है इस सप्तभंगी की प्रवृत्ति होती है।' इसका भाव यह है कि अस्ति और नास्ति भंग के क्रमिक और अक्रमिक संयोग से अवक्तव्य भङ्ग की योजना है अर्थात् अस्ति और नास्ति के योजित रूप "अस्ति च नास्ति' में अस्ति-नास्ति के अक्रम रूप अवक्तव्य को जोड़ा गया है। अब यदि अस्ति A है, नास्ति -B और अवक्तव्य -C है तो सातवें भङ्ग का रूप होगा A-B में -C का योग । जो संभाव्यता-तर्कशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त के अन्तिम कथन से मेल खाता है। जिस प्रकार सप्तभङ्गी में तीन मलभङ्गों से चार ही सांयोगिक भङ्ग बनाने की योजना है उसी प्रकार संभाव्यता-तर्कशास्त्र में भी तीन स्वतन्त्र घटनाओं के संयोग से चार सांयोगिक स्वतन्त्र घटनाओं की अभिकल्पना है।२ वस्तुतः ये सभी बातें जैन तर्कशास्त्र को स्वीकृत हैं। इसलिए इस. प्रतीकात्मक प्रारूप को सप्तभङ्गी पर लागू किया जा सकता है। अब सप्तभङ्गी की मूल्यात्मकता को निम्न रूप से चित्रित करने का प्रयास किया जा सकता है। यदि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य अर्थात् A, B और C को एक-एक वृत्त के द्वारा सूचित किया जाय तो उन वृत्तों के संयोग से बनने वाले सप्तभंगी के शेष चार भङ्गों के क्षेत्र इस प्रकार होंगे १. "एवं व्यस्तो क्रमापितौ समस्तौ सहापितौ च द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्य एवं घट इति सप्तमभंगः ।" -सप्तभंगीतरंगिणी, पृ० ७२. 2. See-“In other words, that the pairwise independence of the three events should imply that the two events A, B and C are independents.” William Feller : An Introduction to Probability Theory and Its Applications. Vol. I, p. 126. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २०४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या A A-BB A-B-C चित्र 1 अब चित्र संख्या ५ को देखने से स्पष्ट हो जायेगा कि A, B, C, AB, A·–C, B. C और ABC का क्षेत्र अलग-अलग है । जिसके आधार पर सप्तभङ्गो के प्रत्येक भङ्ग की मूल्यात्मकता और उनके स्वतन्त्र अस्तित्व का निरूपण हो सकता है । यद्यपि सप्तभङ्गी का यह चित्रण वेन- डाइग्राम से तुलनीय नहीं है; क्योंकि यह उसके किसी भी सिद्धान्त के अन्तर्गत नहीं है, तथापि यह चित्रण सप्तभंगी की प्रमाणता को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त है । A इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सप्तभंगी सप्तमूल्यात्मक है । इनके सातों भङ्गों के भिन्न-भिन्न मूल्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार से चित्रित किया जा सकता है । अतः सप्तभङ्गी सप्तमूल्यात्मक है । सप्तभङ्गी के सन्दर्भ में एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष से दूषित है ? क्योंकि लगभग सभी पूर्वाचार्यों ने सप्तभंगी में इसी दोष को दिखाकर उसकी आलोचना की है । अतः इस प्रश्न पर थोड़ा गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना आवश्यक है । कुछ तर्कविदों की ऐसी मान्यता है कि सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष (फैलेसी आव कन्ट्राडिक्सन) से दूषित है; क्योंकि वह प्रथम भङ्ग अर्थात् स्यादस्त्येव घट: में जिस घट का विधान करती है, दूसरे भङ्ग अर्थात् स्यान्नास्त्येव घट: में उसी घट का प्रतिषेध कर देती है । तब एक ही वस्तु का प्रतिषेध और विधान दोनों एक साथ कैसे सम्भव हो सकता है । अतः सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष से दूषित है । परन्तु जैनाचार्यों के अनुसार यह आक्षेप उचित नहीं है; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र जब प्रथम भङ्ग में स्यादस्त्येव घट: और दूसरे भङ्ग में स्यान्नास्त्येव घट: कहता है तो उसका आशय प्रथम भङ्ग में घट का विधान और दूसरे भङ्ग में घट का ही निषेध करना नहीं होता है । वस्तुतः जहाँ प्रथम भङ्ग में स्वचतुष्टय का विधान है, वहीं द्वितीय भङ्ग में परचतुष्टय का Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन २०५ निषेध है। इस प्रकार दोनों प्रकथन एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं। व्याघातकता तो तब होती है जब वे कथन निरपेक्ष होते हैं और किसी एक ही अपेक्षा विशेष से ही कहे गये होते हैं । अतः उनमें विरोध होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। डॉ० पद्मराजे का कथन है कि “यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि वे दो तथ्य जो कि दो स्थितियों को घटित करती हैं, पूर्णतः व्याघातक नहीं है। क्योंकि यदि वे पूर्णतः व्याघातक होती तो स्याद्वाद की परिभाषा में जो "अविरोधेन" यह विशेषण है वह निरर्थक हो जाता । वस्तुतः वे दो स्थितियाँ या दशाएँ सत्ता के सम्बन्ध में एक दूसरे की पूरक हैं । व्याघातकता तो तब उत्पन्न होती है, जब दो निरपेक्ष कथनों में विरोध हो जैसे-घट का अस्तित्व है और घट का अस्तित्व नही है। इस भ्रान्ति का कारण यही है कि विरोधी दूसरे कथन को समझने में भल करते हैं वे "घट का अस्तित्व नहीं है", इस वाक्य को "घट का अस्तित्व घट के रूप में नहीं है" इस अर्थ में समझते हैं। जबकि इसका वास्तविक अर्थ यह है कि "घट का अस्तित्व कपड़े या जल के रूप में नहीं है।" इस परवर्ती व्याख्या के आधार पर उनमें निश्चित रूप से कोई व्याघातकता नहीं है। क्योंकि यह इस स्वीकृति पर आधारित है कि एक जटिल और यथार्थ सत्ता के सन्दर्भ में कथन सापेक्ष किन्तु नियत है।' 1. It is, therefore, sufficient to remember here that the two elements, constituting the two modes, are not merely noncontradictory—because, if they were, the qualification 'without incompatibility' (avirodhena) in the definition of syadvada, would be meaningless—but are mutually necessary complements in the real. Contradiction would arise if the opposition were between the two absolute assertions. 'the jar exists' and 'the jar does not exist.' The source of such a fault lies in the objector's mistake in construing the latter assertion, viz., 'the jar does not exist', as being equivalent to the jar does not exist as a jar'. The true interpretation of it should be that 'the jar does not exist as linen, or water etc.' There is surely no contradiction in the latter interpretation because of the fact that it is based on the assumption that the assertion is a relative (kathan Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इसी तथ्य का समर्थन प्रो० सत्कारी मुकर्जी ने भी किया है। उन्होंने प्रथम अर्थात् स्यादस्ति भङ्ग को 'A' और द्वितीय अर्थात् स्यान्नास्ति भङ्ग को 'B' मानकर यह तर्क प्रस्तुत किया है कि- तर्कवाक्य " 'A' + 'B' नहीं है" या "A में B की सत्ता नहीं है" ये कथन इसके कथन के समतुल्य नहीं है कि A की असत्ता है जैसा कि जैनों का निष्कर्ष है । B का निषेध B से सम्बन्धित है न कि A से । तर्कवाक्य A, B नहीं है या A में B की सत्ता नहीं है | अतः तर्कवाक्य A, B नहीं है ।' इस प्रकार प्रथम और द्वितीय भंग भिन्न-भिन्न विधेयों का विधान और निषेध करते हैं । अतः उनमें किसी प्रकार की व्याघातकता नहीं है । अब जहाँ तक व्याघातकता के नियम को मानने और न मानने की बात है वहाँ एक ओर तो सप्तभङ्गी के प्रथम एवं द्वितीय भङ्ग की उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन आचार्य व्याघातकता के नियम को मानते हैं, क्योंकि वे उस दोष से बचने का प्रयास करते हैं, किन्तु, दूसरी ओर उनकी अनेकान्तवाद की व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि वे व्याघातकता के नियम को नहीं मानते हैं । प्रो० सङ्गम लाल पाण्डेय ने इस दूसरे पक्ष का समर्थन करते हुए लिखा है कि जैन तर्कशास्त्र व्याघातकता के नियम का खण्डन करता है । इसीलिए उसे cit) and determinate (niyata) abstraction from a complex and concrete real. -Dr. Y. J. Padmarajiah. -A Comparative Study of the Jaina Theories of Reality and Knowledge, p. 345. 1. It is contended by him, ‘The proposition 'A' is not 'B' or 'A' has not being as 'B' does not admit of the construction that ‘A’ has non-being of 'B' as an element of its being, which is the Jaina conclusion. The negation of 'B' relates to ‘B’ and not to 'A'. The proposition 'A' is not 'B' or 'A' has not the being of 'B' cannot be regarded as the equivalent of the proposition 'A' is not. -The Jaina Philosophy of Non-Absolutism: A critical study of Anekantavada, p. 183. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन २०७ व्याघातकता का नाशक और सामान्य दृष्टिकोण का उद्भावक कहा जाता है। वह (जैन-तर्कशास्त्र) सत्ता में सत्त्व-असत्त्व आदि अनेक विरोधी धर्मों को स्वीकार करता है। इसीलिए स्याद्वाद के द्वारा उन्हीं तर्कशास्त्रों का संकेत हो सकता है, जो व्याघातकता के नियम का खण्डन करते हैं और व्याघातक कथनों को कुछ सत्यता मूल्य प्रदान करते हों।' चूंकि सत्ता विरोधी गण-धर्मों से परिपूर्ण है। अतः वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में व्याघातकता के नियम को अस्वीकार करके ही चलना होगा। जैन दष्टि से सत्ता में अन्तर्विरोध है। वह तो अन्तविरोध का पूञ्ज है। कहा भी है जो सत् है वही असत् है, जो एक है वह अनेक भी है, जो नित्य है वह अनित्य भी है। वस्तुतः वस्तु तत्त्व में व्याघातकता या अन्तविरोध तो है ही, किन्तु, यदि हम कथन पद्धति में भी इस व्याघातकता के नियम को अस्वीकार करके चलें तो भाषा की सार्थकता समाप्त हो जायेगी। वस्तुतः जैन दार्शनिक द्रव्यार्थिक दृष्टि से तो व्याघातकता के नियम का परिहार करते हैं। किन्तु, पर्यायार्थिक दृष्टि से या प्रकथन पद्धति को दष्टि से उसे स्वीकार भी करते हैं। वस्तुतः वे एक ऐसे तर्कशास्त्र की स्थापना करना चाहते हैं जो सत्ता में सन्निविष्ट अन्तविरोध को स्वीकार करते हुए भी एक ऐसी तर्कपद्धति या भाषा पद्धति का विकास करना चाहते हैं, जो स्वयं अन्तविरोध अर्थात् व्याघातकता से रहित हो और सप्तभङ्गो इसो प्रयास की एक फलश्रुति है। 1. “The Syadvada challenges the law of contradiction and is therefore called the destroyer of contradiction and the protector of the commonsense view that holds that reality has controdictory attributes. Hence only that logic is indicated by Syadvada which challanges the law of contradiction and gives some truth values to controdictory statements. — Nayavada and Many Valued Logic' Seminar on Jain Logic and Philosophy 27th to 30th November, 1975 at the Department of Philosophy, University of Poona. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय उपसंहार क्या सप्तभंगी सप्त-मूल्यात्मक है ? जैन सप्तभंगी की व्याख्या द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर नहीं की जा सकती है; क्योंकि वह द्वि-मूल्यात्मक है ही नहीं। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग न तो निरपेक्षतः सत्य है और न तो असत्य । अपितु, सापेक्षतः सत्य भी है और सापेक्षतः असत्य भी। इसलिए उन्हें सत्य या असत्य का मान देना जैन धारणा के विपरीत है। यदि किसी तरह अस्ति और नास्ति को सत्य और असत्य का मान दे भी दिया जाय तो अवक्तव्य के मूल्य को द्विमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर निर्धारित करना असम्भव हो जाता है। इसलिए सप्तभंगी की द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर व्याख्या करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। यद्यपि जैन दर्शन में प्रमाणनय, नय और दुर्नय की अलग-अलग कल्पना नहीं है तथापि कुछ तर्कविदों ने प्रमाणनय (सुनय), नय और दुर्नय को सप्तभंगी का आधार मानकर, उसे त्रि-मूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ० संगमलाल पाण्डेय ने सन् १९७५ में पूना विश्वविद्यालय में आयोजित एक विचारगोष्ठी में "नयवाद ऐण्ड मैनी-वेल्यड लॉजिक" नामक एक निबन्ध पढ़ा था। इसी के तुल्य उन्हीं का "स्याद्वाद के विरोधाभास" नाम का एक अन्य लेख १९७५ के दार्शनिक त्रैमासिक के चतुर्थ अंक में प्रकाशित है। उक्त दोनों निबंधों में उन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जैन न्याय त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र पर आधारित है। इसलिए उसे त्रि-मूल्यात्मक कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है-'मेरे विचार से वह (त्रि-मूल्यीय तकशास्त्र) जैन दर्शन का आधार बन सकता है, क्योंकि यह भी जेन दर्शन की भाँति प्रमाणनय (सुनय), नय और दुर्नय को क्रमशः कम सत्यता से उत्पन्न मानता है और जिस प्रकार जैन तर्कशास्त्र निर्मध्य नियम और बाध नियम का खण्डन करता है, उसी प्रकार त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र भी खण्डन करता है। मैं लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र और जैन तर्कशास्त्र की पहले तुलना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. उपसंहार करूँगा और फिर दिखलाऊँगा कि लुकासीविज़ का त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र जेन स्याद्वाद का आधार बन सकता है और उसके द्वारा नयवाद और स्याद्वाद दोनों का प्रमाणोकरण किया जा सकता है।" तत्पश्चात् उन्होंने जैन-विचारणा के अनुरूप ही प्रमाणनय (सुनय) को पूर्ण सत्य और दुर्नय को पूर्ण असत्य मानकर प्रमाणनय (सुनय) और दुर्नय की तुलना त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के दो सत्यता मूल्यों, सत्य और असत्य से किया और कहा कि तीसरे सत्यता मूल्य हेतु नय को स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि जिस प्रकार लुकासीविज़ का तृतीय सत्यता मूल्य न तो पूर्णरूप से सत्य होता है और न तो पूर्ण रूप से असत्य । अपितु किसी सीमा तक सत्य होता है तो किसी सीमा तक असत्य । इसीलिए लुकासीविज ने उसे अर्ध सत्य और अर्ध असत्य मानकर 1/2 मूल्य से दर्शाया है। ठीक उसी प्रकार से जैनाचार्यों ने भी नय को न तो पूर्णरूप से सत्य कहा है और न तो पूर्णरूप से असत्य । प्रत्युत उसे सत्य और असत्य दोनों मानकर प्रमाणांश या प्रमाणेकदेश से सम्बोधित किया है। वस्तुतः इसकी तुलना लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से की जा सकती है। डॉ० पाण्डेय ने लिखा है-'वे (जैन-आचार्य) नय को एक तरफ प्रमाणनय से और दूसरी तरफ दुर्नय से भिन्न मानते हैं। उनके अनुसार प्रमाणनय सत्य है और दुर्नय असत्य । परिणामतः नय का सत्यता मूल्य प्रमाणनय और दुर्नय के सत्यता मूल्य से भिन्न "संदिग्ध" या "अनिश्चित" या तृतीय सत्यता मूल्य अर्थात् सत्य और असत्य दोनों है। संदिग्ध-यह वह सत्यता मूल्य है जो सत्य और असत्य दोनों के बीच अवस्थित है अर्थात् यह संदिग्ध सत्यता मूल्य सत्य की अपेक्षा कम, किन्तु असत्य की अपेक्षा अधिक सत्य है। इसलिए इसकी तुलना लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से की जा सकती है।" इस प्रकार डॉ० संगमलाल पाण्डेय ने सुनय, नय और दुर्नय को लुकासीविज़ के सत्य, संदिग्ध और असत्य के तुल्य मूल्य वाला मानकर निम्नलिखित तुलना प्रस्तुत की१. दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष २०, अंक ४, जुलाई १९७५, पृ० १७६ । २. Nayavada and many valued logic. Seminar on Jain Logic and Philosophy, 27th to 30th November, 1973, at the Department of Philosophy, University of Poona (unpub lished). ३. दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष २०, अंक ४, जुलाई १९७५, पृ० १७६ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या १ - प्रमाणनय सत्य है और दुर्नय असत्य है । नय असत्य और सत्य के बीच में है । यदि प्रमाण नय की सत्यता "1" (सत्य) है तो दुर्नय की सत्यता (असत्य) "0" है और नय की सत्यता " 1/2 " ( सत्य / असत्य) है, ऐसा जैन दर्शन से अभ्युपगमित होता है। लुकासीविज़ इस अभ्युपगम को मानते हैं। दोनों सत्यता और असत्यता के अतिरिक्त एक तृतीय मूल्य को मानते हैं, जिसे अवक्तव्यता या अनिरूप्यता या अनभिलाप्यता कहा जाता है । २१० २- क अथवा अ-क उस व्यंजक में यदि "क" का सत्यता मूल्य अनभिलाप्य ( इंडिटर्मिनेट) है तो " अ-क" का भी मूल्य अनभिलाप्य है । अतएव लुकासीविज़ और जैन दर्शन दोनों में "क" अथवा " अ-क" का सत्यता मूल्य सत्य नहीं वरन् अनभिलाप्य है । परन्तु द्वि- मूल्यीय तर्कशास्त्र के अनुसार "क" और " अ-क" यह व्यंजक निर्मध्य नियम का प्ररूपक है और सर्वथा सत्य है । जैनदर्शन और लुकासीविज़ दोनों इसका खण्डन करते हैं । ३– "क" और "अ-क" यह व्यंजक द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर सर्वथा असत्य है - परन्तु जैन दर्शन और लुकासीविज़ के अनुसार अनभिलाप्य है । अतएव दोनों बाध नियम का खण्डन करते हैं और एक तर्कविधि प्रस्तुत करते हैं, जिससे बाध नियम अस्वीकृत या तिरस्कृत हो जाता है । ४- अनभिलाप्यता का मूल प्रतिषेध नियम से भी अनुशासित नहीं है जैसे सत्यता का निषेध असत्यता है । वैसे अनभिलाप्यता का निषेध अभिलाप्यता नहीं वरन् अनभिलाप्यता ही हैं। फिर जैन दर्शन लुकासोविज़ की ही तरह द्विधा निषेध नियम (लॉ आफ डबल निगेशन) को भी नहीं मानता है और इसी कारण वह बौद्धों के अन्यापोह का खण्डन करता है । बौद्धों का अपोहवाद द्विधा निषेध नियम पर आधारित है और कहता है कि "गो" का अर्थ "अगो" नहीं है अर्थात् "गो = ना = अगो । इस अपोहवाद का खण्डन जैन दर्शन की एक मौलिक विशेषता है। जो निर्दिष्ट करती है कि जैन दर्शन द्विधा निषेध का खण्डन करता हैं । इन समानताओं के कारण जंन तर्कशास्त्र का तार्किक सम्बन्ध लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से है । इस प्रकार डॉ० संगमलाल पाण्डेय ने जैन सप्तभंगी को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि जैन सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २११ है । साथ ही प्रमाणनय, सुनय और दुर्नय की अलग-अलग परिकल्पना जैन दर्शन में नहीं है। जैन दर्शन केवल नय को अभिकल्पना करके यह स्पष्ट कहता है कि स्यात् पद से विशेषित सापेक्ष नय ही सुनय, प्रमाणनय अथवा सम्यक् नय होता है और स्यात् पद से अविशेषित निरपेक्ष नय, दूर्नय और असत्य होता है। किन्तु इसके विपरीत डॉ० पाण्डेय ने यह प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया है कि अस्ति भंग "प्रमाणनय अर्थात् सुनय" नास्ति भंग “दुर्नय" और अवक्तव्य भंग "नय" हैं और इन भंगों का सत्यता मूल्य क्रमशः सत्य (1), असत्य(0) और सत्य/असत्य (12) है। सप्तभंगी में यहो मूल तीन भंग हैं। इन्हीं तीनों भंगों का मूल्य है और शेष चार भंग इन भंगों की व्याख्या या विस्तारण मात्र है। इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। इसलिए सप्तभंगी त्रि-मल्यात्मक है। किन्तु, सप्तभंगी की यह व्याख्या प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती है। यद्यपि यह सप्तभंगी की एक नवीन व्याख्या का प्रयास अवश्य है किन्तु इसमें अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसमें से कुछ अधोलिखित हैं (१) सर्वप्रथम, स्याद्वादीय सप्तभंगी प्रमाण सप्तभंगी है इसलिए उसके प्रत्येक भंग प्रमाण अर्थात् सत्य है अप्रमाण अर्थात असत्य नहीं। यद्यपि वे सभी भंग वस्तु का आंशिक कथन करते हैं तथापि उनको इनकार नहीं किया जा सकता। सत्य होने के लिए हो तो सप्तभंगी का प्रत्येक भंग “स्यात्" पद से विशेषित होता है। तब उसके “अस्ति" भंग को प्रमाणनय अर्थात् सुनय अर्थात् सत्य, "नास्ति" को दर्नय अर्थात् असत्य और अवक्तव्य को नय अर्थात् सत्य + असत्य या दोनों कहना कहाँ तक सार्थक है ? दूसरे, प्रमाण, नय और दुर्नय जैन-दर्शन के भिन्न-भिन्न सिद्धान्त हैं। सप्तभंगी का विकास इन सिद्धान्तों से नहीं हुआ है । ये सिद्धान्त उसके भंगों की सत्यताअसत्यता का निर्धारण मात्र करते हैं। इसलिए सप्तभंगी को इन सिद्धान्तों से विकसित मानना या इन सिद्धान्तों को सप्तभंगी के मूलभंग मानना युक्तिसंगत नहीं है। तीसरे, सप्तभंगी के यदि किसी भंग को प्रमाणनय (सत्य) कहते हैं तो उसके सभी भंगों को प्रमाणनय (सुनय) कहना होगा। किसी को प्रमाणनय तो किसी को दुर्नय नहीं। चौथे, यदि उपर्युक्त व्याख्या को नय सप्तभंगी की व्याख्या माना जाय तो वह भी सार्थक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि नय सप्तभंगी में भी केवल नयों का ही समूह है। उसमें सुनय, नय और दुर्नय सभी नयों का समावेश नहीं है । इसलिए ऐसा स्पष्ट होता है कि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या उपर्यक्त विवेचन में प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगी से भिन्न किसी अन्य सप्तभंगी को कल्पना की गयी है, जिसमें सुनय, नय और दुर्नय इन तीनों प्रकार के नयों का संयोग है। किन्तु ऐसी कल्पना जैनदर्शन को अभिमत नहीं हो सकती। अतः उपर्युक्त विवेचन को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है। (२) प्रमाण सप्तभंगी में जिस प्रकार "अस्ति" भंग वस्तु के किसी अंश का कथन करता है उसी प्रकार "नास्ति" भंग वस्तु के किसी अंश का प्रतिपादन करना है अर्थात् नास्ति भङ्ग वस्तु के जिस पक्ष का उद्घाटन करता है वह पक्ष भी वस्तु में विद्यमान है। वस्तुतः नास्ति भंग भी एक नवीन और सत्य, सत्यता मूल्य वाला प्रकथन है। इसलिए इसे असत्य अर्थात् शून्य (0) मूल्यवाला भंग नहीं कहा जा सकता है। यह भी एक सत्य कथन है । अतः इसे दुर्नय कहना युक्तिसंगत नहीं है। (३) सप्तभंगी के अनुसार अवक्तव्य, किन्हीं दो या दो से अधिक धर्मों के युगपत् कथन करने की अशक्यता का सूचक है। जब दो या दो से अधिक धर्मों के कथन की विवक्षा एक साथ होती है तब वाणी मौन और शब्द असमर्थ हो जाता है। वाणी और शब्द की इसी विवशता को अभिव्यक्त करना अवक्तव्य का उद्देश्य है। अवक्तव्य का यह लक्ष्य निश्चित और सत्य है, कभी सत्य, कभी असत्य या कभी संदिग्ध नहीं है। जबकि नय की अभिव्यक्ति कभी सत्य, कभी असत्य और कभी सत्य-असत्य दोनों अर्थात् संदिग्धात्मक होती है। इसी प्रकार लुकासीविज़ का तृतीय सत्यता-मूल्य भी सत्य,असत्य या सत्य/असत्य अथवा संदिग्धात्मक होता है। तब अवक्तव्य को नय जैसा स्वरूप वाला मानकर लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से तुलना करना कैसे संभव है ? हाँ! अवक्तव्य को तब असत्य या शून्य (0) मान वाला कहा जा सकता है, जब यह पूछा जाय कि क्या अवक्तव्य वस्तु की किसी प्रायिकता का प्रतिपादन करता है ? जब दो या दो से अधिक धर्मों के युगपत् कथन की अपेक्षा होती है तो वहाँ पक्षात्मक प्रायिकता शून्य (0) होती हैं। क्योंकि वहाँ वस्तु के किसी भी पक्ष या अंश का वर्णन नहीं हो पाता है। इसलिए वहां इसे शून्य (0) मान वाला कह सकते हैं किन्तु स्याद्वाद के परिप्रेक्ष्य में इसे असत्य शून्य मूल्यवाला कहना असमीचीन है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २१३ (४) अवक्तव्य की तुलना लुकासीविज़ के संदिग्ध सत्यता मूल्य से इसलिए भी नहीं बैठती है कि अवक्तव्य संदिग्धात्मक या संदेहात्मक है ही नहीं । यद्यपि उसमें अस्ति और नास्ति दोनों पक्षों का समावेश है किन्तु उसमें वह अस्ति और नास्ति पक्ष उस रूप में स्वीकृत नहीं है, जिस रूप में नय या लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता-मूल्य में प्रायिकता स्वीकृत है । लुकासीविज़ ने तृतीय सत्यता-मूल्य का निर्धारण करते हुए कहा था"मैं बिना किसी विरोध के यह कल्पना कर सकता हूँ कि वारसा (पोलैण्ड का एक नगर है) में अगले वर्ष के किसी निश्चित क्षण में, जैसे २१ दिसम्बर के दोपहर में, मेरी उपस्थिति इस समय न तो स्वीकारात्मक ढंग से और न तो निषेधात्मक ढंग से निश्चित की जा सकती है। इसलिए यह संभव है। लेकिन निश्चित रूप से नहीं कि मैं दिये हुए समय पर वारसा में उपस्थित हो सकंगा। इस अवधारणा के अनुसार तर्कवाक्य "मैं अगले वर्ष २१ दिसम्बर के दोपहर को वारसा में उपस्थित रहूँगा" इस समय (वर्तमान काल में) न तो सत्य हो सकता है और न तो असत्य; क्योंकि यदि यह इस समय सत्य हो तो वारसा में मेरी भविष्यकालीन उपस्थिति आवश्यक होगी, जो कि इस अवधारणा के विपरीत है। दूसरी तरफ यदि यह इस समय असत्य है तो वारसा में मेरी भविष्यकालीन उपस्थिति असंभव होगी। जबकि यह भी उक्त कल्पना के विपरीत है । इसलिए इस समय निश्चित किया गया है कि यह तर्कवाक्य न तो सत्य है न तो असत्य । इसलिए यह एक तीसरा मूल्य रखता है, जो असत्य या शून्य (0) या सत्य अथवा एक (1) से भिन्न है। (यहाँ "0" का अर्थ है पूर्ण असत्य और "1" का अर्थ है पूर्ण सत्य)। इस मूल्य को हम 1/2 से स्थापित कर सकते हैं।' किन्तु, अवक्तव्य की अवधारणा इस प्रकार की नहीं है जब दो या दो से अधिक धर्मों का प्रतिपादन एक साथ करना हो तो वहाँ निश्चित रूप से अवक्तव्य ही होगा। चाहे वह भविष्य काल में हो या भूतकाल में हो अथवा वर्तमान काल में हो । वस्तुतः वह एक निश्चित उद्देश्य रखता है । इसलिए उसे संदिग्धात्मक मूल्य नहीं दिया जा सकता है। (५) लुकासीविज़ का तृतीय सत्यता मूल्य भविष्यकालीन घटना पर 'निर्भर करता है। जबकि अवक्तव्य ऐसा नहीं है । इसलिए अवक्तव्य की 3. See ---Many Valued Logic, By Nicholas Racher. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से कोई साम्यता नहीं बैठती है; क्योंकि भविष्यकालीन घटना में कोई ऐसा विकल्प नहीं है, जो वाणी के द्वारा अकथ्य हो। वह घटना या तो घटेगी या नहीं घटेगी। इनमें से कोई एक ही परिणाम प्राप्त होगा जिसे वाणी के द्वारा कहना तो सम्भव ही है, इसके साथ ही वह घटना घटेगी या नहीं घटेगी इन परिणामों को तो कहना भी संभव ही है। यद्यपि उसका परिणाम क्या होगा यह कहना असंभव है पर युगपततः कथन जैसी अशक्यता उसमें नहीं है । अवक्तव्य के युगपत् धर्म वस्तु में सर्वदा विद्यमान हैं, उनमें किसी एक के न रहने की सम्भावना नही है। परन्तु उन धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त करने की असमर्थता अवश्य है। अतः लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मल्य को जैनदर्शन के अवक्तव्य के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता है। (६) यदि सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक मान भी लिया जाय तो शेष चार भङ्गों का कोई महत्त्व नहीं रह जायेगा । वे मात्र उनकी व्याख्या तक ही सीमित रहेंगे। जबकि जैन दर्शन में उन भङ्गों को भी समान मूल्यवाला माना गया है इसलिए सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक मानना ठीक नहीं है । (७) एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जैन न्याय में प्रमाणनय, नय और दुर्नय को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं किया गया है । जैन न्याय में तो केवल नय की ही कल्पना की गयी है। वही नय, जब स्यात् पद से विशेषित या सापेक्ष होता है तब सुनय और जब निरपेक्ष होता है तब दुर्नय हो जाता है । वस्तुतः सुनय, नय और दुर्नय की पृथक्-पृथक् कल्पना करना उचित नहीं है। अतः जैन सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता है। ___ इस प्रकार जैन तर्कशास्त्र को त्रि-मूल्यात्मक मानने पर अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि ये कठिनाइयाँ प्रो० पाण्डेय को भी प्रतीत हुई थी क्योंकि उन्होंने लिखा है-स्याद्वाद की यह व्याख्या भी स्याद्वादी है, क्योंकि सम्पूर्ण सत्यता इस व्याख्या में भी नहीं होती है । यदि हम क को अनभिलाप्यता-मूल्य प्रदान करें तो प्रत्येक भंग की समुचित व्याख्या हो जाती है। किन्तु, यदि हम क को सत्यता मूल्य प्रदान करें तो क अर्थात् द्वितीय यंत्र असत्य सिद्ध हो जाता है। अतः लगता है कि Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २१५ स्याद्वाद का प्रमाणीकरण अनभिलाप्यता तर्कशास्त्र के आधार पर ही हो सकता है। सत्यता का प्ररूपक कोई वाक्य नहीं है. क्योंकि वह सत्यता केवल ज्ञान से लभ्य है और केवल ज्ञान स्याद्वाद का विषय नहीं है। अतः अनभिलाप्यतातर्कशास्त्र स्याद्वाद की सही व्याख्या करता है और स्याद्वाद की व्याख्या का उद्देश्य सम्पूर्ण सत्यता के प्रति व्यापक ज्ञान की व्याख्या नहीं है। परन्तु, प्रश्न है कि लुकासीविज के तर्कशास्त्र में तो साधारण वाक्यों की भी सत्यता का प्रतिपादन होता है और स्याद्वाद में वैसा कोई वाक्य ही नहीं है, तो फिर लुकासीविज़ के तर्कशास्त्र से जैन तर्कशास्त्र की समकक्षता कहाँ हुई ? यह प्रश्न कुछ हद तक समीचीन भी है; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र निषेध को सत्यता फलनात्मक सम्बन्ध नहीं मानता है, जबकि लुकासीविज़ का तर्कशास्त्र ऐसा मानता है। अतः दोनों में कुछ अन्तर भी है और इस अन्तर के कारण क तथा ५ क दोनों जैन तर्कशास्त्र में किन्हीं परिस्थितियों में सत्य भी हो सकते हैं ।' इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन तर्कशास्त्र को त्रि-मूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता है। इसके साथ ही क अर्थात् अस्ति भंग को भी अनभिलाप्य नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह तो अभिलाप्य है । वह वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन तो करता ही है। हाँ, वस्तु को अनभिलाप्य कहा जाय तो वह दूसरी बात है। किन्तु, अस्तिभंग को अनभिलाप्य नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः अस्ति भंग को अनभिलाप्य मानकर भी सप्तभंगी की व्याख्या संभव नहीं है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया कि जैन-सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है और न तो त्रि-मूल्यात्मक ही । किन्तु, मूल प्रश्न यह है कि क्या इसे सप्त मूल्यात्मक या बहु-मूल्यात्मक कहा जा सकता है ? यद्यपि आधुनिक तर्कशास्त्र में अभी तक कोई भी ऐसा आदर्श सिद्धान्त विकसित नहीं हआ है, जो कथन की सप्तमूल्यात्मकता को प्रकाशित करे। परन्त, जैन-आचार्यों ने सप्तभंगी के सभी भंगों को एक दूसरे से स्वतन्त्र और नवीन तथ्यों का प्रकाशक माना है। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भंग का अपना स्वतन्त्र स्थान और मूल्य है। वस्तुतः प्रत्येक भग की अर्थोद्भावन में इस विलक्षणता के आधार पर ही सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक १. दार्शनिक त्रैमासिक, पृ० १७८, वर्ष २०, अंक ४, जुलाई १९७५ । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कहना सार्थक हो सकता है । इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों के दृष्टिकोण पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना अपेक्षित है । जैन आचार्यों ने सप्तभंगी के प्रत्येक भंग को पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण पर आधारित और नवीन तथ्यों का उद्भावक माना है । सप्तभंगोतरंगिणी में इस विचार पर विस्तृत विवेचन किया गया है । उसमें लिखा है "प्रथम भंग में मुख्य रूप से सत्ता के सत्त्व धर्म की प्रतोति होती है और द्वितीय भंग में असत्ता की प्रमुखता पूर्वक प्रतीति होती है । तृतीय “स्यादस्ति च नास्ति" भंग में सत्त्व, असत्त्व की सहयोजित किन्तु क्रम से प्रतोति है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु में एक दृष्टि से सत्त्व धर्म है तो अपर दृष्टि से असत्त्व धर्म भी है । चतुर्थ भंग अवक्तव्य में सत्त्व असत्त्व धर्म की सहयोजित किन्तु अक्रम अर्थात् युगपत् भाव से प्रतीति होती है । पंचम भंग में सत्त्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की, षष्ठ भङ्ग में असत्त्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की और सप्तम भङ्ग में क्रम से योजित सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व धर्म की प्रतीति प्रधानता से होती है । इस तरह प्रत्येक भङ्ग को भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दु वाला समझना चाहिए ।' इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग में भिन्न-भिन्न तथ्यों की प्रधानता है । प्रत्येक भङ्ग वस्तु के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हैं । इसलिए सप्तभङ्गी के सातों भङ्ग एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं । किन्तु, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि सप्तभङ्गो के प्रत्येक कथन पूर्णतः निरपेक्ष हैं । वे सभी सापेक्ष होने से एक दूसरे से सम्बन्धित भी हैं । यदि उनके इस सम्बन्ध को न माना जाय तो सप्तभङ्गी की सप्तभङ्गिता ही विनष्ट हो जायेगी । एक भङ्ग का दूसरे भङ्ग से कोई मतलब ही नहीं रहेगा । अतः सभी भङ्ग परस्पर सम्बन्धित भी हैं ऐसा मानना चाहिए। किन्तु, जहाँ तक उनके परस्पर भिन्न होने की बात है वहाँ तक तो वे अपनेअपने उद्देश्यों को लेकर ही परस्पर भिन्न हैं । उनकी इस भिन्नता को भी जैन आचार्यों ने विभिन्न प्रकार के दृष्टान्तों के आधार पर सिद्ध किया है । सप्तभङ्गीतरंगिणी में कहा गया है कि " सत् की सत्ता स्वचतुष्टय से है, पुनः सत् को सत् रूप में रहने के लिए असत् की अपेक्षा है और असत् को असत् रूप में होने के लिए सत् की अपेक्षा है । इस प्रकार सत् और असत् १. प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधान भावेन प्रतीतिः, द्वितीय पुनरसत्त्वस्य । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २१७ अर्थात् सत्ता और असत्ता के प्रतिपादक धर्म स्वचतुष्टय और परचतुष्टय में भेद होने से सत् और असत् अर्थात् सत्ता और असत्ता में भी भेद है। यदि ऐसा न हो तो स्वरूप के सदृश पर रूप के भी सत् होने का प्रसंग आ जायेगा और इसी प्रकार पर रूप के असत् होने के तुल्य स्वरूप भी असत् हो जायेगा। इसलिए सत्ता और असत्ता के प्रतिपादक धर्मों के भेद से सत्ताअसत्ता का भी भेद स्पष्ट ही है।” साथ ही सत्ता (सत्त्वधर्म) का प्रतिपादक अस्ति भंग और असत्ता (असत्त्व-धर्म) का नास्ति भंग है। अतः सत्ता और असत्ता के भेद से अस्ति और नास्ति भंग में भेद है। इस प्रकार इन दोनों भंगों के उद्देश्यों में भेद होने से इन भंगों में भो भेद होना सिद्ध है। इसी प्रकार उभय रूप "अस्ति नास्ति" भंग का भी अन्य भंगों से भेद है। इस भेद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "किसी समुदाय में उसके एक-एक अंग की अपेक्षा उभय रूप समूह कथंचित् भिन्न हो है, जैसे प्रत्येक घकार तथा टकार की अपेक्षा, क्रम से योजित धकार और टकार का समूह रूप "घट" पद भिन्न है यह सब वादियों को स्वीकृत है। यदि “घट" पद को धकार तथा टकार से सर्वथा अभिन्न माना जाय तो केवल घकार या टकार के ही उच्चारण से "घट" पद का ज्ञान हो जाना चाहिए। किन्तु, यदि धकार के ही उच्चारण से "घट" पद का बोध हो तो शेष उच्चारण व्यर्थ हो जायेगा । यही कारण है कि प्रत्येक पुष्प की अपेक्षा माला को कथंचित् भिन्न माना जाता है यह बात सबको अभिप्रेत है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि "स्यादस्ति या स्यान्नास्ति भंग को अपेक्षा क्रमापित उभय रूप "स्यादस्ति च नास्ति" भंग भिन्न ही है। तृतीये क्रमाप्तियोस्सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थे त्ववक्तव्यत्वस्य, पंचमे सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, षष्ठे चासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, सप्तमे क्रमार्पित सत्त्वासत्त्व विशिष्टावक्तव्यत्वस्येति विवेकः । -सप्तभंगोतरङ्गिणी, पृ० ९. १. "स्वरूपाद्यवच्छिन्नमसत्त्वमित्यवच्छेदक भेदात्तयोर्भेदसिद्धः। अन्यथा स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वप्रसंगात् । पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्त्वप्रसंगाच्च" । -वही, पृ० ११. २. प्रत्येकापेक्षयोभयस्य भिन्नत्वेन प्रतीतिसिद्धत्वात् । अतएव प्रत्येक घकार टकारापेक्षया क्रमापितोभयरूपं घटपटमतिरिक्तमभ्युपगम्यते सर्वैः प्रवादिभिः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या ठीक इसी प्रकार सहयोजित अवक्तव्य भंग का भी अन्य सभी भंगों से भेद अनुभव सिद्ध है, क्योंकि अवक्तव्यत्व रूप धर्म अस्ति-नास्ति आदि सभी धर्मों से विलक्षण है। जिस प्रकार क्रम योजित सत्ता और असत्ता का उभयकोटिक ज्ञान अस्ति और नास्ति भंग के ज्ञान से भिन्न है, उसी प्रकार अक्रम योजित अवक्तव्यत्व रूप धर्म भी उक्त सभी धर्मों से भिन्न है। इस तथ्य को जैन आचार्यों ने निम्नलिखित दष्टान्तों के आधार पर सिद्ध किया है। जिस प्रकार दही और शक्कर में मरिच, इलायची नागकेसर तथा लवंग आदि को मिलाने से एक अपूर्व पानक रस की उत्पत्ति होती है और उस पानक रस का स्वाद और सुगन्ध दही, गुड़, मरिच तथा लवंग आदि के स्वाद और सुगन्ध से विलक्षण होता है। साथ ही दही, गुड़, मरिच तथा लवंग आदि को अलग-अलग ग्रहण करने पर भिन्न-भिन्न स्वाद का अनुभव होता है। उसी प्रकार पूर्व के भंगों में भिन्नभिन्न अर्थों की प्राप्ति होने के बाद भी इसमें एक अपूर्व अर्थ की प्राप्ति होती है अर्थात् अक्रम योजित अस्ति नास्ति भंग पूर्व के अस्ति, नास्ति और क्रमयोजित अस्ति नास्ति से विलक्षण है। इसी प्रकार शेष भंगों को भी परस्पर भिन्न समझना चाहिए। इस प्रकार सप्तभंगी का प्रत्येक भंग परस्पर भिन्न है। इसलिए प्रत्येक भंग का अपना अलग-अलग मूल्य है। सांयोगिक कथनों का मूल्य और महत्त्व अपने अङ्गीभूत कथनों के मूल्य और महत्त्व से भिन्न होता है। इस बात की सिद्धि भौतिक विज्ञान के निम्नलिखित सिद्धान्त से किया जा सकता है। उस सिद्धान्त में कहा गया है कि कल्पना कीजिए कि भिन्नभिन्न रंग वाले तीन प्रक्षेपक अ, ब और स इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि उनसे प्रक्षेपित प्रकाश एक दूसरे के ऊपर अंशतः पड़ते हैं जैसा कि चित्र में अन्यथा प्रत्येकघकाराद्यपेक्षया घटपदस्याद्यभिन्नत्वे धकाराद्युच्चारणेनैव घटपट ज्ञानसम्भवेन घटत्वावच्छिन्नोपस्थिति सम्भवाच्छेषोच्चारणवैयर्थ्यमापद्यत । अतएव प्रत्येक पुष्पापेक्षया मालायाः कथञ्चिद्भेदस्सर्वानुभव सिद्धः । इत्थं च कथञ्चित्सत्त्वासत्त्वापेक्षया क्रमापितोभयमतिरिक्तमेव । --सप्तभंगीतरङ्गिणी, पृ० १३. २. वही, पृ० १५. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २१९ दिखाया गया है । प्रत्येक प्रक्षेपक से निकलने वाले प्रकाश को हम एक अवयव मान सकते हैं । क्षेत्र अ, ब और स एक रंग के प्रकाश से प्रकाशित है और क्षेत्र अ + ब, ब + स और अ + स दो-दो अवयवों से प्रकाशित है । जबकि बीच वाला भाग जो तीन अवयवों से प्रकाशित है उसे अ+ब+स क्षेत्र कह सकते हैं । उस भाग को जो दो रंगों के प्रकाश से प्रकाशित है, मिश्रण कहते हैं, क्योंकि प्रकाशित भाग अ, ब, और स तीनों से प्रकाशित होता है । जैसे ही तीनों अवयवों में से कोई अवयव बदलता है मिश्रण का रंग बदल जाता है और किसी भी रंग वाले भाग में से उसके अवयवों को पहचाना नहीं जा सकता है।' वस्तुतः वह दूसरे रंग का जन्म देता है, जो उसके अंगीभूत अवयवों से भिन्न होता है । उस मिश्रण को उसके अवयवों में से किसी एक के द्वारा संबोधित नहीं किया जा सकता है । अतएव उन्हें मिश्रण कहना ही सार्थक है । रंगों का ज्ञान भी कुछ इसी प्रकार का है | यदि हम पीला, नीला और वायलेट को मूल रंग मानकर मिश्रित रंग तैयार करें, तो वे इस प्रकार होंगे - अ+ब+स) वायलेट लाल काला 'पीला नीला 1. College Physics, Fourth edition complete p. 650, By Francis W. Sears and others. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या नोला + पोला = हरा। पोला + वायलेट = लाल। वायलेट + नीला = बैगनी। इसी प्रकार हरा + बैगनी % काला होगा।' इस प्रकार तीन मूलभूत रंगों के संयोग से चार ही मिश्रित रंग बनते हैं। इन मिश्रित रंगों का अस्तित्व अपने मूल रंगों के अस्तित्व से भिन्न है। इसलिए इन्हें मूल रंगों के नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता है। ठीक यही बात स्याद्वाद के सन्दर्भ में भी है। यद्यपि सप्तभंगी के उत्तर के चार भंग पूर्व के तोन मूलभूत भंगों के संयोग मात्र ही हैं। किन्तु,वे सभी उक्त तीनों भंगों से भिन्न हैं। इसलिए उनके अलग-अलग मूल्य हो सकते हैं । अतः सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक कहना सार्थक हैं । सप्तभंगी के सातों भंग सात प्रकार के मूल्य प्रदान करते हैं इस प्रकार के विचार आधुनिक तर्कविदों में भी स्वीकृत है। ऐसे विचार विशेष रूप से सांख्यिकी और भौतिक विज्ञानों में प्राप्त होते हैं। प्रो० जी० बी० बर्च ने अपने लेख "Seven-valued Logic in Jain Philosophy" में ऐसे अनेक विचारकों के मन्तव्य को उद्धत किया है, जिन्होंने सांख्यिकीय या भौतिकीय सिद्धान्तों के आधार पर सप्तभंगी को सप्त मूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। भारतीय सांख्यिकी संस्थान के सचिव प्रो० पी० सी० महलनबिस ने स्याद्वाद की एक संभाव्यात्मक व्याख्या करते हुए कहा है कि स्याद्वाद संभाव्यता का गुणात्मक विचार के लिए एक बौद्धिक आधार प्रदान करता है जो कि सांख्यिकी के गुणात्मक या मात्रात्मक विज्ञान का आधार है। यद्यपि उन्होंने "स्यात्" को "हो सकता है" ( May be ) में और "स्यादस्ति अवक्तव्यम् च" को "यह अवक्तव्य है" और स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम्" को "यह अवक्तव्य नहीं है" के रूप में . Additive colour mixture takes place when lights are mixed or when sectors of colours are mixed by rotation on a colour wheel. If red, green and blue are so mixed the red and green combine to produce yellow and the yellow and blue combine to yield a neutral gray. Mixture of any two of the three colours produces and complements the third. -Erest R. Hilgard, Introduction to Psychology, p. 344. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २२१ व्याख्यायित किया है । इसी प्रकार " स्यादस्ति च नास्ति" के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि यह आधुनिक संभाव्यता के सिद्धान्त को तार्किक आधार प्रदान करता है और पाँचवाँ भंग "स्यादस्ति च अवक्तव्यम्” संभा - व्यता के क्षेत्र के अस्तित्व को निर्दिष्ट करता है । जबकि स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् संभाव्यता के क्षेत्र के अस्तित्व का निषेध करता है ।' यद्यपि प्रो० महलनबिस की यह व्याख्या जैन - सप्तभंगी को समीचीन नहीं है तथापि स्याद्वाद की तरफ वैज्ञानिकों के विचाराकर्षण में अवश्य सफल रही है । भौतिक विज्ञान के कुछ ऐसे सिद्धान्त हैं जिनको सप्तभंगी के भंगों में रखा जा सकता है । इस संदर्भ में प्रो० मेरी बी० मिलर और एच० रिचेनबैक का विचार द्रष्टव्य है । इन तार्किकों के अनुसार प्रकाश के तरंग और कणिका सिद्धान्त को जैन तर्कशास्त्र के भङ्गों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है । कथञ्चित् प्रकाश तरंग है, उदाहणार्थ अपवर्तन और विवर्तन में, जिन्हें तरंगों के रूप में समझा जा सकता है । कथंचित् यह तरंग नहीं है; उदाहरणार्थ काम्पटन के प्रभावपूर्ण प्रकीर्णन में, जिन्हें तरंगों के रूप में आसानी से नहीं समझा जा सकता है । कथंचित् यह अनिश्चित है जैसे फोटोग्रैफिक फिल्म पर प्रकाश के प्रभाव को तरंग सिद्धान्त से सिद्ध करने में; यह कार्य क्वान्टम सिद्धान्त के रूप में समझने योग्य है; जो तरंग और कणिका दोनों के विचार को रखता है । यह ( प्रकाश ) तरंग और तरंग नहीं है, दोनों को एक साथ सिद्ध करता है ( यह तीसरा भङ्ग है ) । कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है, जैसे जब यह लेन्स या ग्रेटिंग से गुजरता है ( जहाँ यह निश्चित रूप से तरंग नहीं होता है) और तब यह काम्पटन प्रभाव को विषय करता है ( जहाँ यह निश्चित रूप से एक कणिका के रूप में प्रत्यास्पन्दन करता है ) । इसलिए वह क्रमश: तरंग है और तरंग नहीं है ( यह चौथा भंग है ) । कथंचित् यह ( प्रकाश ) तरंग है और यह अनिश्चित हैं, जैसे जब यह विवर्तित होता है तब यदि इसका चित्र लिया जाय । कथंचित् यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है जैसे काम्पटन के प्रभाव के बाद यदि चित्र खींचा जाय । कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है, जैसे यदि एक ग्रेटिंग, काम्पटन १. उद्धृत - Seven-valued Logic in Jain Philosophy” Printed in, International Philosophical Quarterly” p. 68-93, Vol. 4, 1964. By Prof. G. B. Burch. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रभाव और एक फोटोग्रेफिक प्लेट तीनों पर एक साथ प्रयोग किया जाय। __ इस प्रकार भौतिक विज्ञान के तरंग सिद्धान्त को सप्तभङ्गी के भङ्गों में रखने से सप्तभङ्गो के ही सप्त मूल्यात्मकता को सिद्धि होती है; क्योंकि प्रत्येक भङ्ग में जो-जो प्रयोग किये गये हैं उनसे भिन्न-भिन्न निष्कर्षों को प्राप्ति होती है। प्रत्येक प्रयोग का निष्कर्ष एक दूसरे से भिन्न है। इसलिए प्रत्येक प्रयोग भी एक दूसरे से भिन्न और नवोन हैं। यद्यपि इस प्रयोग के आधार पर प्रो० मेरी बी० मिलर और एच० रिचेनबैक ने यह व्याख्या त्रि-मल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर हो को है और अन्त में उसे त्रिमल्यात्मक ही सिद्ध किया है ।२ किन्तु, जी० बी० बर्च को यह मत मान्य नहीं है। उन्हें सप्तभङ्गो में सप्त मूल्यात्मकता ही दृष्टिगत होती है । उन्होंने इस सप्त मूल्यात्मकता की सिद्धि हेतु एक दूसरा दृष्टान्त प्रस्तुत किया है-"क्या लिंकन दासों को मुक्त किया था ? इस प्रश्न को लेकर इसका उत्तर प्रो० बर्च ने सप्तभङ्गो के आधार पर देने का प्रयत्न किया है । "कथंचित् उसने दासों को मुक्त किया था, क्योंकि उसने उनकी मुक्ति के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। कथंचित् वे नहीं किये थे, क्योंकि तेरहवें संशोधन के अनुसार वे कानूनन मुक्त हुए थे; कथंचित् यह अनिश्चित है, यदि आप इन दोनों घटनाओं पर एक साथ विचार करें। कथंचित् वह किया था और नहीं किया था, यदि आप दोनों घटनाओं पर क्रमशः विचार करें जैसे एक इतिहास में लिखा जाता है। कथंचित् वह किया था और यह अनिश्चित है, यदि आप घोषणा और उसके परिणाम पर वार्तालाप करें। कथंचित् वह नहीं किया था और यह अवतव्य है यदि आप दासों के प्रारम्भिक स्थिति के आधार पर संशोधन का संदर्भ के साथ विचार करें। कथंचित् वह किया था और नहीं किया था और यह अनिश्चित है यदि आप घोषणा और इसकी सांवैधानिक कार्यवाही और दासों पर पड़नेवाले तात्कालिक प्रभाव पर एक संक्षिप्त टीका करें। संदर्भ १. उदधत-"Seven-valued Logic in Jain Philosophy" Printed in, International Philosophical Quarterly” p. 68-93, Vol. 4, 1964. By G. B. Burch. २. बहो। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २२३ पर निर्भर होने से इनमें से प्रत्येक कथन सत्य है लेकिन इनमें कोई भी सत्य नहीं है हो सकता यदि कही हई शर्त को अलग कर दिया जाय । सामान्य विचार इसे कभी भी उपेक्षित नहीं कर सकता। जबकि निम्न कोटि का तर्कशास्त्र यह कहता है कि या तो वह मुक्त किया था या नहीं किया था।' इस प्रकार एक-एक शर्त को सप्तभङ्गी के प्रत्येक भंग में जोड़ कर प्रो० बर्च ने सप्तभङ्गी को सप्त मुल्यता को निर्धारित किया है। वैसे यह कहना ठीक भी है, क्योंकि जैन सप्तभङ्गो भी अपनी सप्त भङ्गिता किसी शर्त के आधार पर ही सिद्ध करती है। वह भी कथन को पूर्णतः निरपेक्षता का समर्थन नहीं करती है। यही कारण है कि वह प्रत्येक कथन के साथ सापेक्षता का सूचक स्यात् पद को जोड़ देती है। जो भो हो, सप्तभङ्गी सप्त मुल्यात्मक है; इस बात को इनकारा नहीं जा सकता है। १. उद्धृत-Seven-valued Logic in Jain Philosophy, Printed in, International Philosophical Quarterly, p. 68-93, vol. 4, 1964, By Prof. G. B. Burch. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रन्थ सूची अनेकान्तवाद : एक परिशीलन -- विजय मुनिशास्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६१ । अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका - आचार्य हेमचन्द्र, ईश्वरदास मूलचंद Starभट, अहमदाबाद, वीर संवत् २४६६ । अपोहसिद्धि -- रत्नकीर्ति, अनु० गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, दर्शन प्रतिष्ठान बापू नगर, जयपुर, १९७१ । अभिधान राजेन्द्र, खण्ड - ४ - श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर, अभिधान राजेन्द्र कार्यालय, रतलाम (१९९४) अष्टसहस्री - श्री विद्यानन्द (अनु० आर्यिका श्री ज्ञानमती), दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), १९७४ । आगमयुग का जैन दर्शन - दलसुख मालवणिया, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६६ । आचारांग सूत्र – श्रीमत् सुधर्मा स्वामी, संपा० - आचार्य श्री सागरानन्द सूरीश्वर, मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट, बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली- ११०००७ (१९७८) । आप्तमीमांसा - श्री समन्तभद्र, मुनि अनंतकीर्ति ग्रन्थमाला, कालबादेवीरोड, बम्बई । ईशादि दशोपनिषद् - शांकरभाष्य समेता, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली, १९६४ । ऋग्वेद संहिता - संपा० - दामोदर भट्ट, स्वाध्याय - मण्डल औंध (जि. सातारा) (१९४०) । कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका - श्री स्वामिकुमार, अनु० श्रीशुभचन्द्र, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात), १९६० । जैन तर्कशास्त्र और आधुनिक बहुमूल्यीय तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन ( शोध-प्रबन्ध ) -- श्रीमती आशा जैन, निर्देशक - प्रो० संगम लाल पाण्डेय, दर्शन विभाग, इलाहाबाद वि०वि०, इलाहाबाद अप्रकाशित (१९७९) । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ संदर्भ ग्रन्थ सूची जैन दर्शन--डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९७४। जैन दर्शन-मुनि श्री न्याय विजय जी, अनु० श्री शान्ति लाल मणिलाल, श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पीपलानी शेर पाटन (गुज रात) १९५६ । जैन दर्शन-डॉ. मोहनलाल मेहता, सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामण्डी, आगरा, १९५९ । जैन दर्शन और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में-संयोजक, बाबूलाल पाटोदी महावीर परिनिर्वाण उत्सव समिति, इन्दौर विश्वविद्यालय इन्दौर, १९७६ । जैन-धर्म-दर्शन-डॉ. मोहन लाल मेहता, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी, १९७३ । जैन दर्शन : मनन और मीमांसा-मुनि नथमल, आदर्श साहित्य संघ, चुरू राजस्थान, १९७३। जैनागमशब्द संग्रह-श्री रत्नचन्दजी, संघवी गुलाब चन्द्र जसराल, लिम्बडी, १९२६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन वाराणसी, १९७३. तत्त्वसंग्रह-शान्तरक्षित टीका, कमलशील, सेन्ट्रल लाइब्रेरी बड़ौदा, १९२६. तत्त्वार्थराजवातिकम् -अकलंक देव, पन्नालाल जैन, श्री भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, १९१५. तत्त्वार्थवार्तिक, भाग-१-भट्टाकलंकदेव, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-श्री विद्यानन्द संपा०-मनोहर लाल शाः, राम चन्द्र नथरंग जी गाँधी, मांडवी, बम्बई, १९१८ । तत्त्वार्थसूत्र-श्री उमास्वाति, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ । तत्त्वार्थसूत्र-श्री उमास्वाति, व्याख्या-सुखलाल जी संघवी, जैनाचार्य श्री आत्मानन्द जन्मशताब्दी स्मारक ट्रस्ट बोर्ड, बम्बई, संवत् १९९६ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ-डॉ० हुकुमचन्द्र भारिल्ल, __पंडित टोडर मल स्मारक ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर, जयपुर, (राजस्थान), १९७४।। दर्शन और चिन्तन-खण्ड १, २-सुखलालजी संघवी, पं० सुखलालजी सम्मान समिति, गुजरात विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद, १९५७ । दर्शन दिग्दर्शन--राहुल सांकृत्यायन, किताब-महल, इलाहाबाद, १९४४ । दर्शन शास्त्र का परिचय, जार्ज टामस ह्वाइट पैट्रिक, अनु०-उमेश्वर प्रसाद मालवीय, हरियाणा हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, चण्डीगढ़, १९७३ ।। दीघ निकाय-संपा०-भिक्षु जे० कास्यप, पाली पब्लिकेशन बोर्ड, १९५८ । दीघ निकाय-(हिन्दी) अनु०-भिक्षु राहुल सांकृत्यायन-भि० जगदीश काश्यप, भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद् बुद्ध बिहार, लखनऊ, १९७९ । देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा-समन्तभद्र, मुनि अनन्त कीर्ति ग्रन्थ माला, कालबा देवीरोड, बम्बई । न्यायकुमुदचन्द्रः-श्रीमत्प्रभाचन्द्र, संपा० पं० महेन्द्रकुमार न्यायशास्त्री, माणिक चन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई-४। न्यायकुसुमाञ्जलि-उदयनाचार्य, संपा०-महाप्रभुदयाल गोस्वामी, मिथिला इन्स्टिट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट स्टडीज एण्ड रिसचं इन संस्कृत लनिग, दरभंगा, १९७२।। न्यायमञ्जरी-जयन्तभट्ट , संपा०/अनु० नगीनजी शाह, लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद, (१९७५)। न्यायभास्कर-संपा० श्री स्वामी अनन्ताचार्य, श्री सुदर्शन प्रेस, कांजीवरम्, १९२४ । न्यायवातिक तात्पर्य टीका-वाचस्पति मिश्र, संशो० गंगाधर शास्त्री, ई० जे० लाजरस एण्ड कं० बनारस, १८९८ । न्यायावतार-श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, जौहरी बाजार, बम्बई, १९५० । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रन्थ सूची २२७ पंचास्तिकाय - 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