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________________ ९४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या पर्याप्तिक भाषा से जैन आचार्यों का आशय है समर्थवान् भाषा। वह भाषा जो श्रोता को अर्थबोध कराने में समर्थ हो, पर्याप्तिक भाषा है। भाषा (कथन) चाहे स्वीकारात्मक हो अथवा निषेधात्मक, यदि वह एक निश्चित अर्थ देने में समर्थ है तो वह पर्याप्तिक भाषा कहो जायेगी। इसे हम आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से निश्चयात्मक भाषा कह सकते हैं । जिस भाषा में यह संशय बना रहे कि यह सत्य है या असत्य है अथवा उसमें निश्चयात्मकता का अभाव हो, उसे अपर्याप्तिक भाषा कहते हैं। इसे हम आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से संभाव्य भाषा कह सकते हैं। कथन की सत्यता-असत्यता को पूर्ण रूप से समझने के लिए इस पर्याप्तिक और अपर्याप्तिक भाषा को समझना अपेक्षित है। जैन-आचार्यों ने पर्याप्तिक भाषा के सत्य और मृषा दो भेद तथा अपर्याप्तिक 'भाषा के सत्यमृषा और अ-सत्य अ-मृषा दो भेद किया है। अब हम संक्षेप में पर्याप्तिक और अपर्याप्तिक भाषा के उक्त भेदों पर विचार करेंगे। १. पर्याप्तिक भाषा जैन-दर्शन के अनुसार पर्याप्तिक भाषा दो प्रकार की होती है : (१) पर्याप्तिक सत्य भाषा (२) पर्याप्तिक मृषा भाषा (१) पर्याप्तिक सत्य भाषा सत्य भाषा का अर्थ स्पष्ट करते हुए पनवगा सूत्र में कहा गया है कि सत्य वस्तु का स्थापन करने में सर्वज्ञ-पथ का अनुसरण करने वालो तथा जो भाषा मोक्ष प्राप्ति का साधन हो सके वह सत्य भाषा है।' जैन-दार्शनिकों ने असत्य वचन को मोक्ष का बाधक और सत्य वचन को मोक्ष का साधन माना है। इसीलिए जैन-दर्शन सत्य-भाषा पर सर्वाधिक जोर देता है। जैन-दर्शन के अनुसार सर्वज्ञ का कथन यथार्थ होता है; क्योंकि वह वस्तु को यथार्थ रूप में देखता है और वह उसे जिस रूप में देखता है उसो रूप में अभिव्यक्त भी करता है। यही कारण है कि जैन-दर्शन सत्य वचन को सर्वज्ञ को वचनों से नापना चाहता है। आशय यह है कि जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में निरूपण करने वाला कथन सत्य होता है। १. पनवणासूत्र, "एकादस भाषापदम् -२" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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