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________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता है, वह उतना ही अधिक सत्य के समीप होता है। दूसरे शब्दों में, जो कथन श्रोता के मानस-पटल पर तथ्य का संवादी प्रतिबिम्ब उत्पन्न करने में जितना अधिक समर्थ है, वह कथन उतना ही अधिक सत्य होता है। कथन के सत्य-असत्य की बात श्रोता के अर्थ-बोध की सामर्थ्य पर भी निर्भर है। यह कथन की सत्यता-असत्यता का एक दूसरा आधार है। श्रोता यदि वक्ता के कथन का कुछ अर्थ बोध कर पाता है तभी उसके मानस-पटल पर तद्वस्तु सम्बन्धी प्रतिबिम्ब उत्पन्न हो सकता है और तद्वस्तु तथा प्रतिबिम्ब का मिलान किया जा सकता है । जैसे “यह एक कलम है" इस कथन का अर्थबोध उसी को हो सकता है जो हिन्दी भाषा जानता है। हिन्दी भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए इस कथन का कोई अर्थ नहीं और न ये शब्द उसमें कोई प्रतिबिम्ब ही उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए कथन के सत्य-असत्य निर्णय हेतु श्रोता के अर्थबोध-सामर्थ्य को भी स्वीकार किया जा सकता है । __इस प्रकार कोई भी कथन श्रोता की योग्यता और शब्द की संकेतक शक्ति के अनुसार सत्य और असत्य होता है। वस्तुतः कथन निरपेक्षतः न तो सत्य होता है और न तो असत्य । किसी भी कथन को सत्यता-असत्यता किसी संदर्भ विशेष में होती है। जैन-दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर बड़ी गम्भीरता से विचार किया है । "पन्नवणा" सूत्र में भाषा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अर्थ को संकेतित करके उसका ज्ञान कराने वाली भाषा स्यात् सत्य है, स्यात् असत्य है, स्यात् सत्यमृषा है व स्यात् अ-सत्य अ-मषा है।' इस प्रकार भाषा को सत्य मृषा भाषा, मृषा भाषा, सत्यमषा भाषा और अ-सत्य अ-मृषा भाषा चार भेदों में विभक्त कर सत्य और मृषा भाषा को पर्याप्तिक तथा सत्यमषा और अ.सत्य अ-मृषा भाषा को अपर्याप्तिक भाषा कहा गया है। इस प्रकार जैन-दर्शन के अनुसार भाषा दो प्रकार की होती है : (१) पर्याप्तिक भाषा (२) अपर्याप्तिक भाषा १. पन्नवणा सूत्र, "एकादस भाषापदम्". २. वही. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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