________________
जैन न्याय में सप्तभंगी
(१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना ।
(२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना ।
(३) सत्, असत्, सदसत् (उभय ) और न सत् न असत् ( अनुभय) चारों का निषेध करना ।
१६३
(४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभव में आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता ।
(५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना । किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना ।
(६) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं उतने वाचक शब्द नहीं हैं । अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना ।'
Jain Education International
किन्तु सप्तभंगी के सन्दर्भ में अवक्तव्य के उपर्युक्त सभी अर्थ मान्य नहीं हो सकते । यद्यपि यह अवक्तव्य की एक नवीन ढंग से व्याख्या का प्रयास अवश्य है । परन्तु उसके उक्त सभी रूपों को अस्ति नास्ति रूप दो धर्मों को लेकर चलने वाली सप्तभंगी के अवक्तव्य पर आरोपित करने पर उसके मूल उद्देश्य की उपेक्षा हो जाती है; क्योंकि यदि उसके भी विभिन्न अर्थ होने लगेंगे तो निश्चय ही सप्तभंगी का एक निश्चित रूप नहीं बन सकेगा । फलस्वरूप सप्तभंगी संशयात्मक बन जायेगी । जबकि उसमें संशयात्मकता का लेशमात्र भी समावेश नहीं है । यद्यपि यह सत्य है कि सप्तभङ्गियाँ भी अनेक हो सकती हैं और उन अनेक सप्तभंगियों के आधार पर अनेक अवक्तव्य हो सकते हैं, अर्थात् अवक्तव्य के विभिन्न रूप हो सकते हैं । किन्तु सत् और असत् अर्थात् अस्ति और नास्ति रूप दो धर्मों को लेकर जो सप्तभंगी चलती है उसका अवक्तव्य अन्य सभी सप्तभंगियों से भिन्न और विशिष्ट ही है । इसलिए इस अवक्तव्य का अर्थ अन्य अवक्तव्यों से भिन्न ही होगा । इसलिए अन्य अवक्तव्यों के अन्य रूपों का आरोपण नहीं किया जा सकता है । इसका पूर्णतः विचार न करने के कारण ही आदरfe सागरमल जी अवक्तव्य भंग का एक निश्चित रूप नहीं माने हैं । उन्होंने लिखा भी हैं - "मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं
१. महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४९ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org