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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
इस प्रकार अवक्तव्य का मूलार्थ है युगपत् कथन में भाषा की असमर्थता, अशक्यता, निरीहता व विवशता को स्पष्ट करना । किन्तु प्रश्न यह है कि सप्तभंगी का अवक्तव्य वस्तु के किन्हीं दो धर्मों के युगपत् कथन की अशक्यता को प्रकट करता है या दो से अधिक अनन्त धर्मों अर्थात् वस्तु के समग्र स्वरूप के युगपत् विवेचन को अशक्य बताता है ? यहाँ आकर दार्शनिकों के विचार परस्पर भिन्न हो जाते हैं । कुछ विचारकों के अनुसार अवक्तव्य अस्ति-नास्ति रूप दो धर्मों के युगपत् कथन को अशक्य कहता है तो कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह वस्तु के समग्र स्वरूप के निर्वचन को असम्भव बताता है। किन्तु कुछ लोगों ने इसके उक्त दोनों ही रूपों को स्वीकार किया है और उसके आधार पर अवक्तव्य के तीन से लेकर छ: अर्थ तक प्रस्तुत किये गये हैं। इस संदर्भ में डॉ० पद्मराजे का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने अवक्तव्य के अर्थ-विकास की दृष्टि से उसकी चार अवस्थाओं का निर्देश किया है :
(१) वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व के कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्ष का निषेध है।
(२) औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत्-असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे "तदेजति तन्नजति", "अणोरणीयान् महतो महीयान्”, “सदसद्वरेण्यम्", आदि । यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति है। ___ (३) वह दृष्टिकोण, जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेशीय या अनिर्वचनीय माना गया है। यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है। जैसे “यतोवाचोनिवर्तन्ते", "यद्वावाक्युदित्य", "नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यः" आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्कोटि विनिमुक्त तत्त्व की धारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है।
(४) यह दृष्टिकोण जैन-न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है।
इस प्रकार डॉ० पद्मराजे ने अव्यक्तव्य की उपर्युक्त चार अवस्थाओं को स्वीकार किया है। इन्हीं चार अवस्थाओं के आधार पर डॉ० सागरमल जैन ने अवक्तव्य के निम्नलिखित छ: अर्थ का प्रतिपादन किया है।
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