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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १६१ एक काल में एक ही गण-धर्म का वाचक हो सकता है दो या दो से अधिक अनन्त गुण-धर्मों का नहीं। "सप्तभंगीतरंगिणी" में भी कहा गया है"सभी शब्द एक काल में ही प्रधानता से सत्त्व और असत्त्व दोनों का युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते; क्योंकि उस प्रकार प्रतिपादन करने की शब्द में शक्ति नहीं है; क्योंकि सभी शब्दों में एक ही पदार्थ को विषय करना सिद्ध है।"१ अतः जो सत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म के द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व, उभय धर्म से अवाच्य है।"२ इससे यह स्पष्ट है कि कालक्रम से वस्तु के अस्ति, नास्ति आदि धर्म पृथक्-पृथक् रूप से किसी उद्देश्य के विधेय भले ही बन जाय, पर युगपत् रूप से किसी उद्देश्य का विधेय बनना असम्भव ही है। यही शब्द की असमर्थता है, वाणी की निरीहता है। इसी को अभिव्यक्त करना अवक्तव्य का उद्देश्य है । पुनः श्लोकवार्तिक में इसे स्पष्ट किया गया है-"जब दो प्रतियोगी गुणों के द्वारा अवधारण रूप से युगपत् एक काल में एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है। क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है ।"३ युगपदभिधानयस्ति अर्थस्य तथा वर्तितुं शक्त्यभावात्""न चैकः शब्दो द्वयोर्गुणयोः सहवाचकोऽस्ति । यदि स्यात् सच्छब्दः स्वार्थवदसदपि सत् कुर्यात् असच्छन्दोऽपि स्वार्थवत् सदपि असत्कुर्यात्, न च तथा लोके संप्रत्ययोऽस्ति तयोविशेषशब्दत्वात् । एवमुक्तात् कालादियुगपदभावासंभवात् । शब्दस्य च एकस्य उभयार्थवाचिनोऽनुपलब्धेः अवक्तव्य आत्मा ।" -श्लो० वा० २।१।६।५६।४७७।६ । १. सर्वोऽपि शब्दः प्रधानतया न सत्त्वासत्त्वे युगपत्प्रतिपादयति, तथा प्रतिपादने शब्दस्य शक्त्यभावात्, सर्वस्य पदस्यैकपदार्थविषयत्वसिद्धेः" । _सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ६० । २. "अयं खलु तदर्थः, सत्त्वाद्ये कैकधर्ममुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभूत सत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम् ।" वही, पृ० ७०। ३. “सदसत्त्व उच्येयाताम् । न च सम्बन्धतोऽभिन्नता गुणानां संभवति भिन्नत्वात् सम्बन्धस्य ।" श्लोकवार्तिक, २।१।६।५६।४७७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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