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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या
रूप से नहीं; क्योंकि भाषा में कोई भी ऐसा क्रियापद नहीं है जो अस्तित्व और नास्तित्व का युगपत् वाचक हो ।
जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और अनन्तधर्मात्मक वस्तु के प्रत्येक धर्म का सूचक भी भिन्न-भिन्न शब्द होता है जैसे "लालिमा" का "लाल", "कालिमा" का "काला" इत्यादि । यद्यपि अनन्त वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों को सम्बोधित करने वाले भाषा में अनन्त-अनन्त शब्द नहीं हैं । तथापि यदि शब्द संयोग से अनन्त वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों के सूचक भिन्न-भिन्न शब्द प्रतीक बनाये जायें तो उन अनन्त अनन्त गुण-धर्मों का भी वाचन सम्भव हो जायेगा। किन्तु हमारी भाषा में कोई ऐसा शब्द नहीं बन सकता जो वस्तु के अनन्त गुण-धर्मों को एक साथ युगपत् रूप से अभिव्यक्त कर सके; क्योंकि भाषा के प्रत्येक शब्द के द्वारा एक-एक गुण-धर्म का ही वाचन संभव है। इसलिए जब दो या दो से अधिक धर्मों के एक साथ प्रतिपादन की विवक्षा होती है, तब शब्द असमर्थ हो जाता है। शब्द की इसी असमर्थता को प्रकट करने के लिए जैन-दर्शन में अवक्तव्य का विधान है।
एक अन्य बात यह है कि वस्तु के सम्पूर्ण धर्म एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं। इसलिए उन परस्पर भिन्न धर्मों के प्रतिपादक शब्द भी परस्पर भिन्न हैं। साथ ही, भाषा में कोई ऐसा उभयात्मक शब्द नहीं है जो वस्तु के उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त कर सके । इसलिए भी जब उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा होती है तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना आवश्यक हो जाता है। अवक्तव्य के इसी आशय का प्रतिपादन करते हुए "श्लोकवार्तिक' में कहा गया है-"जब शुक्ल और कृष्ण वर्ण परस्पर भिन्न हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता । जिससे एक शब्द से कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणों का युगपत् वाचक नहीं हो सकता । यदि ऐसा मानेंगे तो सत् शब्द सत्त्व की तरह असत्त्व का भी कथन करेगा तथा असत् शब्द सत्त्व का । पर ऐसी लोकप्रतीति नहीं है; क्योंकि प्रत्येक धर्म के वाचक शब्द जुदा-जुदा हैं । इस तरह कालादि दृष्टि से युगपत् भाव की संभावना नहीं है तथा उभयवाची कोई एक शब्द है नहीं।"' इसका तात्पर्य यह है कि शब्द १. यथा शुवलरूपव्यतिरिक्तौ"""शुक्ल कृष्णौ गुणौ असंसृष्टौ नैकस्मिन्नर्थे
सहवर्तितु समर्थो अवधृतरूपत्वात्, अतः ताभ्यां संसर्गाभावात् एकान्तपक्षे न
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