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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १५९ यह भंग भी एक नया ज्ञान प्रदान कर रहा है। तब सप्तभंगी सप्तभंगो ही नहीं; बल्कि उसे नवभंगी होना चाहिए। परन्तु यहाँ यह भी कहना सर्वथा अनुचित है; क्योंकि “स्यान्नास्ति चास्ति' एक नया भंग नहीं हो सकता; क्योंकि वाक्य को नास्ति से शुरू करने पर अस्ति का कोई निश्चयात्मक रूप नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-यह टेबुल नहीं है पर यह क्या है इसकी जिज्ञासा बनी हो रहती है। अर्थात् 'यह टेबुल नहीं है" इस कथन से यह निश्चय नहीं हो पाता कि वह क्या है। लेकिन “यह टेबुल है" ऐसा कहने से यह निश्चय हो जाता है कि यह क्या नहीं है । जैसे यह घोड़ा नहीं है, हाथी नहीं है आदि-आदि। इसके साथ ही, एक दूसरी बात यह भी है कि वाक्य को स्यान्नास्ति से शुरू करने पर ऊपर के क्रम का विरोध होता है। सप्तभंगी को अस्ति-नास्ति के एक क्रम में हो रखा गया है। इसीलिए प्रारम्भ में भी अस्ति के बाद ही नास्ति भंग आया है । अतः उसे उसी क्रम में रखना आवश्यक है और "यह नहीं है इसलिए है" उसके क्रम के विपरीत है। इस प्रकार "स्यान्नास्ति च अस्ति" को कल्पना नहीं को जा सकतो है। अतः सप्तभंगी, सप्तभंगी ही रहेगी अष्टभंगी या नवभंगी नहीं। चतुर्थ भंग ___ "स्यादवक्तव्येव" यह सप्तभंगो का चौथा मौलिक भंग है। यह वस्तु के उस स्वरूप का विवेचन करता है जिसके प्रतिपादन में क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग असमर्थ रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वस्तु-स्वरूप का कथन विधि पक्ष से किया जाता है तब उसका निषेध पक्ष शेष रह जाता है और जिस समय उसके निषेध पक्ष का प्रतिपादन होता है उस समय उसका विधि पक्ष छूट जाता है। इसके साथ ही जब तीसरे भंग से वस्तु के विधि एवं निषेध दोनों पक्षों का प्रतिपादन होता है तब वह भी क्रमशः या क्रम रूप से ही हो पाता है। किन्तु जब वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों पक्षों के एक काल में युगपत् कथन की विवक्षा होती है तब वाणो असमर्थ हो जाती है । वाणो की शक्ति तो इतनी सीमित है कि वह वस्तु के सभी भावात्मक या सभी निषेधात्मक विधेयों का ही कथन एक साथ नहीं कर सकती है। वाणो को इसी असमर्थता को अभिव्यक्त करने के लिए सप्तभंगी में अवक्तव्य भंग को योजना है । अवक्तव्य भंग यह स्पष्ट करता है कि वस्तु को वक्तव्यता क्रम से ही संभव है युगपत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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