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________________ १५८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या और "स्यान्तास्ति' को अलग-अलग मानने के बाद तीसरे "स्यादस्तिनास्ति" भंग को मानना व्यर्थ है, तो यह नहीं कह सकते; क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता की अपेक्षा उसके संयोग से उद्भूत समुदाय रूप वस्तु की सत्ता भिन्न ही है। उदाहरणार्थ "" और "ट" दो स्वतन्त्र अक्षर हैं। पर इनके संयोग से “घट" का बोध होता है जो कि उन दोनों अक्षरों के अस्तित्व से पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। यदि भिन्न न माना जाय तो “घ” इतना कहने मात्र से ही "घट" का बोध हो जाना चाहिए। जिस प्रकार प्रत्येक पुष्प की दृष्टि से माला कथंचित् भिन्न है। उसी प्रकार क्रमापित "उभय-रूप-सत्त्वअसत्त्व", "सत्त्व" और "असत्त्व" को दृष्टि से कथंचित् भिन्न ही है । ___ अब कदाचित् यह कहें कि क्रम से योजित सत्त्व-असत्त्व उभय को अपेक्षा सह-योजित सत्व-असत्त्व इस उभय रूप (अवक्तव्य) का भेद कैसे सिद्ध हो सकता है ? तो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि क्रम से योजित कल्पना सह-योजित कल्पना से भिन्न है; क्योंकि पूर्व कल्पना में (तृतीय भंग में) पदार्थ को पर्यायें कम से कही जाती हैं। जबकि उत्तर कल्पना (चतुर्थ भंग) में उन पर्यायों का युगपत् कयन है। यदि दोनों में भेद न माना जाय तो उनमें पूनरुक्ति दोष आ जायेगा; क्योंकि एक वाक्यजन्य जो बोध है उसी बोध का जनक यदि दूसरा वाक्य भी हो तो वहाँ पुनरुक्ति दोष हो जाता है। परन्तु यहाँ पर क्रम से योजित तृतीय भंग है और अक्रम से योजित चतुर्थ भंग है। अतः तृतीय और चतुर्थ भंग से उत्पन्न ज्ञानों में समानाकारता नहीं है। अब चूंकि दोनों भंगों में पुनरुक्ति दोष नहीं है। साथ ही दोनों भंगों से उत्पन्न ज्ञान भी भिन्न-भिन्न है । अतः दोनों भंग पृथक्-पृथक् हो हैं। ___इसी प्रकार यदि ऐसा कहा जाय कि जिस प्रकार अस्ति विशिष्ट नास्ति नामक तीसरा भंग बनता है और उसमें यदि अस्ति की प्रधानता है तथा एक नया ज्ञान प्रदान करता है तो वहीं पर एक दूसरा नास्ति विशिष्ट अस्ति भंग भी बन सकता है जो कि एक नया ज्ञान प्रदान करेगा। उदाहरण-स्वरूप यदि अस्ति विशिष्ट नास्ति भंग यह कहता है कि मोहन भारत में है पर लन्दन में नहीं है, तो इसी प्रकार नास्ति विशिष्ट अस्ति भंग एक नया ज्ञान देता है कि मोहन घर नहीं है पर वह भारत में ही है। ऐसा नहीं है कि वह घर में नहीं है तो भारत में भी नहीं है। अतः For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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